"नर्मदा का वो लाड़ला दुलारा''- प्रेमशंकर रघुवंशी

माताचरण मिश्र


पिछले बरस की फरवरी के दिन थे। पेड़ों की शाखों से बादामी रंग के सूखे हुए पत्ते झर रहे थे। प्रकृति नया रंग बदल रही थी "पुराने का पतन होकर नया उत्थान पाता है...." क्या यही वसन्त का आना भी है, जहां पुराने पत्तों का झरना और नये पत्तों के आने का क्रम जारी रहता है मिटना और बनना साथ-साथ चलता रहता है।


वह संभवतया इक्कीस फरवरी का ही दिन था। सुबह का अखबार आ चुका था। अचानक मेरी निगाह अखबार के तीसरे पृष्ठ पर पड़ जाती है।


"अरे! रघुवंशी जी भी चले गए!" यह तो मालूम ही था कि शारीरिक व्याधियों से जूझ रहे हैं। उम्र भी अस्सी के आसपास पहुंच गई है, परन्तु इतनी जल्दी यह दिन आ जाएगा उम्मीद नहीं थी। शरबिद्ध मन कचोट कर रह गया। सारे दिन मैं उनके बारे में सोचता रहा। अब 'हरदा' जाऊंगा तो वहां क्या शेष रह गया होगा? वही राख मिलेगी और शायद वे अस्थियां बड़े बूढ़े जिन्हें भी फूल ही कहते हैं - अब तक तो शायद वह भी नर्मदा की लहरों में समा गया होगा।


यह तो जानता ही था कि होशंगाबाद जिले के 'जमानी-बैंगनिया' के छोटे से गांव के ठेठ किसानी परिवार से आए थे। ठेठ गांव के ही आदमी थे पर औरों की तरह गांवड़े बन कर नहीं रह गए। संघर्षरत रहते हुए पढ़ाई की और शिक्षक बन गए। समय के साथ डिगरियां बढ़ती चली गईं। लिखने पढ़ने का शौक था पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगेविषम परिस्थितियों में खुद को बासनों की तरह धोया, मांजा और अपना होना सिद्ध किया 'विदिशा' और 'राजगढ़' जैसी छोटी जगहों पर शिक्षकीय वृत्ति से और अपने पारस स्पर्श से अपने अनेकों शिष्यों को स्वर्ण से कुन्दन बनाया। और अवकाश प्राप्ति के बाद 'हरदा' जैसे उनका घर ही बन गया। उन्हें कौन नहीं जानता था। भोपाल तो मैं बहुत बाद में आया था परन्तु उनके नाम की चमक मुझे पहले से ही प्राप्त होने लगी थी।


वे पहाड़ों के बीच से आए थे और 'नर्मदा की लहरों से' महासागर में विलीन हो गए। सारे जीवन दो लोगों से गहरा लगाव रहा पहला तो नर्मदा से जो हमेशा उनके आसपास ही रही और दूसरा 'टिगरिया' में जन्में और पले बढ़े भवानी भाई से उनसे गहरी आत्मीयता रही। सारे जीवन इन्हीं का गुन गाते रहे। न केवल उन्हें पास से आत्मसात किया पर सारे जीवन उन्हें ही अपनी साधना से सर्वथा नये तरीके से व्याख्यायित किया। दोनों ही गांव से आए थे वैसे ही सरल, तरल और सहज सारे जीवन यही उनका ओढ़ना बिछौना था। चट्टानों के जलगीत सा उनके अन्दर जो जल का सोता था सभी को अपनी गहरी संवेदनायें ही बांटता रह गया पर खाली हाथ नहीं गया। देश विदेश तक पूछ परख रही। रचनाधर्मिता की वही अन्तर्सलिला आजीवन उनमें बहती रही। आलोचना धर्मिता ऐसी कि अपनी दृष्टि से मिट्टी को भी सुवर्ण में परिणित कर दियाउनके रचे में रूप, रस, गन्ध और एक सांगीतिकलय ही मिलेगी।


 मेरी और उनकी उम्र में करीब दस बरसों का अन्तर था परंतु वे बड़े छोटे की परिधि से हमेशा मुक्त रहे। मेरा उनसे क्या रिश्ता था पर अक्सर उनका मोबाइल क्रमांक नौ चार दो पांच शून्य चार-चार आठ नौ पांच गाहेबगाहे मेरे मोबाइल पर चमक उठता था।


 "और प्यारे क्या कर रहे हो"-उनकी चिरपरिचित आवाज दूर से करीब आती और मैं उनकी स्नेहिल वाणी का ताप महसूस करता हुआ भीग-भीग जाता था।


'बस दादा कुछ नहीं, घर परिवार की झंझटों में उलझा हूं उनसे फारिग हो लूं। फिर लिखूगा' उनका स्नेह पगा प्यार भी मिला और समय बे समय उनकी 'हाईडोज' डांट भी खानी पड़ी परन्तु उसमें तन्मयता और लेखकीय जीवन के गहरे अनुभव थे जो प्रेरणा देते थे। अच्छा लिखने के। लिखो कम से कम लिखो पर उसमें तुम्हारा गहरा जीवनानुभव भी मौजूद हो । वे डांटते थे तो डूब कर प्यार देना भी जानते थे।


कभी कभार उनका 'भोपाल' आना भी होता रहता था। कभी किसी शासकीय कार्यवश तो कभी आकाशवाणी या दूरदर्शन की व्यस्तताओं के बीच या वह भी नहीं तो हिन्दी भवन के किसी कार्यक्रम में जिसमें वे ही नहीं गिरिराज किशोर और प्रभाकर श्रोत्रिय भी आए थे। उन्होंने गांव गंवई के जुबान पर विषय पर जो बोला पूरी तरह डब कर बोला। हिन्दी भवन के अतिथि निवास का वह कमरा भवानी प्रसाद मिश्र कक्ष उनकी और मेरी सम्मिलित हंसी में खिलखिलाता रहा। पास-पड़ोस में सभी के बारे में पूछते रहे । राधेलाल बिजधावने जी से उनका आत्मिक लगाव था। दोनों आसपास के भी तो थे और शायद दुनिया की भीड़ में अभी गुम नहीं हुए थे।


ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि वे 'भोपाल' आए हों और उन्होंने मुझे याद न किया हो। और कहीं नहीं तो 'न्यू मार्केट' में ही सही। 'बुक्स वर्ल्ड' में किताबें ढूंढ़ते हुए या वहीं पास के रेस्तरां 'न्यू इन' की पाव भाजी या एक कप मसालेदार चाय उनका जी जुड़ा जाता था । मेरा घर वहां से थोड़ा दूर पड़ता था और उन्हें भी हरदा' वापस लौटने की जल्दी रहती थी पर अक्सर हालचाल पूरी तरह दरयाफ्त कर लिया करते थे।


मुझे आज भी याद आता है मिनाल रेसिडेंसी का बना हुआ 'मॉल' अनाधिकृत है कहकर आगे पीछे से छीला जा रहा था और यह खबर उन्होंने कहीं अखबार में पढ़ ली थी या टी.वी. सैट में देख ली थी। उन्होंने फोन कर लिया- 'बन्धु, ठीकठाक तो है न। आप सभी रहवासियों पर तो गाज नहीं गिरी। देखना भाई, सचेत रहना वक्त जाना नहीं जाता। दुनिया बड़ी बेरहम है एक हाथ से देती है और सौ हाथों से ले लेती है। वे भावुक हो आए थे। यही उनकी गहरी आत्मीयता थी जिसका प्रसाद मुझे भी मिल सका था यह और कुछ नहीं उनकी रचनाशीलता का बड़प्पन था जो दूसरों को भी छोटा नहीं थोड़ा और बड़ा कर जाता था।


जीवन के आखिरी दिनों पता नहीं उन्हें कहां-कहां भटकना नहीं पड़ा भोपाल' से 'दिल्ली' तक वे बीमारी की हालत में इधर-उधर खाक छानते रहे। उनके उन संघर्षों को तो उनकी सहधर्मिणी विनीता जी ही जानती होंगी पर वे इस सच को भी शायद अच्छी तरह जानते थे कि अब शरीर पूरी तरह थक चुका है। अब और समय नहीं है। अपनी माँ और रघुकुल तिलक राजाराम जी को याद करते रहे। परन्तु वे दिन उनके और उनके परिवारजनों के लिए बहुत शिद्दत के दिन ही थे। सुख के सब साथी दुख में न कोई... सचमुच और कोई नहीं था कोई खोज-खबर भी नहीं मिल पा रही थी। हम सभी लोग जो उनसे जुड़े हुए थे हालचाल जानना चाहते थे पर कोई खबर नहीं मिल पा रही थी और वह सचमुच मिलती भी कैसे शारीरिक व्याधियां तो शरीर के साथ ही जाती हैं परन्तु जब तक जीवन है सभी के लिए चिन्ता का वायस तो है ही। यही उनके साथ भी हुआ और यही सबके साथ होना भी है, सुख के दिन भले याद न रहें दुःख की घड़ी में जो आपके साथ खड़े हों वे हमेशा याद रह जाते हैं।


 जैसा उनका नाम था, नाम के ही सदृश प्रेमिल सा उनका व्यक्तित्व भी तो था। उनकी लम्बी पतली नुकीली नाक जैसी बड़े-बड़े महापुरुषों की होती हैं और ज्ञान के विपुल भंडार सा उनका चौड़ा माथा। सामान्य से थोड़ा ऊँचा उनका कद जो उन्हें आकर्षक ही नहीं आदमकद भी बनाता था। गाहेबगाहे उनकी उत्फुल्ल प्रफुल्लितहंसी जो उनके व्यक्तित्व को चुम्बक बनाती थी। जो भी एक बार उनके संपर्क में आया उन्हीं का होकर रह गया।


विपुल भरा पूरा साहित्यिक जीवन जिया अनेकों स्तरीय काव्य संग्रहों, चारचार नवगीत संग्रह और कथा-कहानी से लेकर स्तरीय आलोचना तक की अनेकों गद्य कृतियां। अब तक उन पर दो-दो पी.एच.डी. अवॉर्ड हो चुकी है। उनके लेखन पर अनेकों शोध पर्यन्त जारी हैं। शरीर तो गया वह तो एक दिन जाना ही था परन्तु जीवन में साहित्यिक सम्मान भी हासिल हुए। साहित्य के भवभूति अलंकरण' से लेकर दुष्यन्त कुमार सम्मान और बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' जैसे साहित्यिकों के नाम पर स्थापित सम्मान भी मिले। जीवन पर्यन्त सबको प्यार दिया और प्यार पाया भी यही शायद उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि भी है कि वे अपनी रचना में हमेशा जीवित रहेंगे, काल सब कुछ मेट ले पर उनके जैसे अभिनव शब्द शिल्पी को जो शब्दों की कीमत जानता था धूमिल नहीं कर सकेगा।


'अमरकंटक' के पहाड़ों से अमरितकुण्ड से झिरने की शक्ल में निकली और आकार लेती हुई नर्मदा का वो दुलारा लाड़ला प्रेमशंकर यहां यही उसे बनना भी थानमामि देवि नर्मदे ...' प्रणाम तुम्हें भी और तुम्हारे लाड़ले सपूत को भी जिसकी यशकीर्ति और स्मृतियां जिन्दा रह जायेंगी। अन्त में शायद यही तो बचा रहता हैवही उठेगा, उगेगा और जियेगा और जीवित रह जाएगा।


'राहत इंदौरी' की कुछ पंक्तियां अब भी याद आती हैं -


"आँख में पानी रखो, होंठों में चिंगारी रखो


जिन्दा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो


राह के पत्थर से बढ़कर कुछ नहीं है 'मंजिल'


रास्ते आवाज देते हैं सफर जारी रखो।"


(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)


 


 


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