धनंजय वर्मा से प्रमोद त्रिवेदी की बातचीत

बातचीत


प्रमोद : एक खास उम्र में हर व्यक्ति भविष्य के सपने देखता है- "अगर कहीं हैं स्वर्ग तो उतार ला जमीं पर" उस उम्र में आपके सपने क्या थे? क्या आप उसे जमीन पर उतार सके? धनंजय : प्रमोद भाई, खुदा के वास्ते कृपया यह न समझें कि मैं हमदर्दी बटोरने के लिए कह रहा हूं, मैं तो महज अपने अहवाले वाकई बयान कर रहा हूं कि मेरी जिन्दगी में सपने देखने की उम्र कभी आई ही नहीं। होश संभालते ही जिन कठिनकठोर और कड़वी सच्चाइयों का सामना करना पड़ा, उन्होंने 'सपने' और 'स्वर्ग' की 'कल्पना' ही छीन ली।


आप एक ऐसे बच्चे का तसव्वुर कीजिए जिसे अपने पिता का चेहरा तक याद नहीं है, जो अपने ननिहाल में पला-बढ़ा और जिसे शुरू से ही उपेक्षा और तिरस्कार ही नहीं प्रताड़ना और उत्पीड़न का शिकार भी होना पड़ा, उसकी क्या तो कल्पना होगी और क्या होगा 'भविष्य' या उसका 'सपना'। इसीलिए गालिब का यह शेर मुझे इतना अपना लगाता है।


आतिशे-दोजख में यह गर्मी कहां


सोजे-गमहाए निहानी और है


(नरक की आग में भी वह ताप कहां जो मेरे अन्तरतम में निहित दुखों के दाह में है।)


मैं अपने संक्षिप्त आत्मवृत्तांत "धिक जीवन को, जो पाता ही आया विरोध" और बन्धुवर डॉ. प्रभात कुमार भट्ठाचार्य से हुई लंबी बातचीत 'हम भी क्या याद करेंगे कि खुदा रखते थे'2 में अपने जीवन की परिस्थितियों का विस्तार से जिक्र कर चुका हूं। उन्हें दुहराने की अब न तो हिम्मत है और न ही जरूरत । प्रसंगवश याद आयाकविवर ....हरिनारायण व्यास ने एक बार कहा कि मैं अपनी आत्मकथा लिखू। मैंने उनसे कहा था- 'दादा, जो और जैसी जिंदगी मैं जी चुका हूं, उसे फिर से जी सकने की अब न तो मुझमें शक्ति है और न साहस। मीर का एक शेर याद आता है: 


हम गिरफ्तार-ए-हाल हैं अपने


ताइर-ए-पर-बुरीदा के मानिन्द


हम अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों में इस तरह बन्दी (रहे) हैं कि जैसे कोई पर-कटा परिन्दा छटपटाता हैं लेकिन उड़कर उनसे मुक्त भी नहीं हो सकता।


प्रमोद : अब इस उम्र में भी आपकी नजर भविष्य पर है? कोई आशा?


धनंजय : अस्सी बरस का हो गया प्रमोद भाई, अब मेरा भविष्य क्या होगा? इतनी सारी बीमारियों से घिरा हूं कि अब तो चिंता से चिता की ओर प्रयाण की प्रतीक्षा हैअब किसकी आशा और कैसी आशा? गालिब के दो अशआर सुनिए, इनसे बेहतर मेरा बयान क्या होगा?


कोई उम्मीद बर नहीं आती


कोई सूरत नजर नहीं आती


* * *


कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग


हमको जीने की भी उम्मीद नहीं


प्रमोद : 'जन्नत की हकीकत' समझ आने के बाद नजर अतीत पर क्यों जाती है? धनंजय : पहले पूरे शेर पर नज़र डालें :


धनंजय : पहले पूरे शेर पर नज़र डालें :


हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन


दिल के बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है....


जिसे लोग-बाग जाहिद और मौलवी जन्नत कहते और समझते हैं, उसकी असलियत जान लेने के बाद दिल के बहलाने का भरम ही कहां बचता है! और वर्तमान है कि मुट्ठी में भिंची रेत के मानिन्द लगातार फिसलता चला जा रहा है। तो अजन्में भविष्य और विलीन होते वर्तमान के बाद अतीत ही तो बचता है न, जिस पे सर टिकता है...चूंकि व्यतीत होता हुआ भी वह पहले से विद्यमान तो है-चाहे वो कितना ही जहन्नुमी और है-बतनाक क्यों न हो!


प्रमोद : अतीत आपके लिए 'समय' है या 'परम्परा'?


धनंजय : दोनों प्रमोद भाई, दोनों! समय इसलिए कि यही तो वह आयाम है जिसमें सब 'है', 'हुआ है', 'हो रहा है' और 'होगा'। इसीलिए तो ऋषि ने उद्घोष किया था-कालाय। तस्मै नमः। काल की गति को चाहे आप रैखिक (लीनियर) माने या चक्राकार (साइक्लिक) अथवा वलयित (जायरिक) अन्ततः अतीत, वर्तमान और भविष्य न केवल परस्पर संबंद्ध है बल्कि उनमें एक सापेक्षिक और कार्य-कारण संबंध भी तो अनुस्यूत है। इसलिए अतीत परंपरा भी है क्योंकि व्यतीत होते चलने के नुकूश भी तो उसी में पैबस्त हैं। अब तक की काल-यात्रा का दस्तावेज भी तो वही है। समय की एक संवृत्ति-गति है तो अग्रगति के लिए एक पैर का स्थिर होना उतना ही जरूरी है, जितना दूसरे पैर का आगे रखना। स्थिर पैर परंपरा है, चलने के लिए उठा हुआ या चलता हुआ पैर-आधुनिकता। अतीत से ही तो उद्भूत है-वर्तमान फिर यह वर्तमान एक ओर निरंतर अतीत में समाता जा रहा है तो दूसरी ओर भविष्य में भी अग्रसर हो रहा है।


प्रमोद : वह क्या था जो समय के साथ छूट गया और उसकी भरपाई अब नहीं हो सकती?


धनंजय : वह अप्राप्य था जो समय के साथ छूट गया। वह 'अपना' और 'अपने लिए' नहीं था। याद आता है- मैट्रिक की परीक्षा देने के बाद मैं दफ्तरों में नौकरी की अर्जियां लिए घूमता था। नाना लगातार जईफ और लाचार होते जा रहे थे। दिनभर की भटकन के बाद शाम को जब निराश और हताश घर लौटता था तब मां कहती थीं-बेटा, जो नहीं मिला, वह 'तुम्हारा' नहीं था, तुम्हारे लिए नहीं था। हो सकता है इससे बेहतर कुछ तुम्हारा हो, तुम्हारे लिए हो! कितना सच कहा था मां ने!


और जिसकी भरपाई नहीं हो पाई, उसका भी गम क्या? वह भी अपना' या अपने लिए' नहीं था। मसलन एम.ए. के बाद छत्तीसगढ़ कॉलेज, रायपुर में जब व्याख्याता हो गया, अपनी पहली पुस्तक अपने सरपरस्त श्री आर.सी.वी.पी. नरोन्हा, आई.सी.एस. तत्कालीन कमिश्नर को भेंट करने गया। उन्होंने पूछा-"इतने अच्छे अकादेमिक कॅरियर के बावजूद तुम आई.ए.एस. की परीक्षा में क्यों नहीं बैठे?"


"सर, किसी तरह एम.ए. कर लिया, यही गनीमत थी। जब इस बारे में सोचा तब तक उम्र, तय-सीमा से एक महीने ज्यादा हो चुकी थी" मैंने कहा।


प्रमोद : वह समय कैसा था? आपके मित्र? आपके शत्रु? आपके हौसले-जुनून? सक्रियता? चुनौतियां... टकराहटें ? और उनका मजा? क्या था इनमें या इनके अलावा जो इस उम्र में आपको रह-रह कर याद आता है?


धनंजय : वह समय बड़ा प्रतिकूल था प्रमोद भाई। उसकी तवालत में न जाय तो बेहतर है। बकौल गालिब :


मेरी किस्मत में गम गर इतना था


दिल भी या' रब कई दिए होते....


रब ने दिल तो एक ही दिया लेकिन रहम-दिल इंसान कई दिए। सबसे पहले तो नाना (श्री मुरलीधर वर्मा) जिन्होंने पनाह दी-मां, छोटी बहन और मुझे। जईफी के बावजूद अर्जीनवीसी करते हुए मुझे मैट्रिक तक पढ़ाया और छत्तीसगढ़ कॉलेजरायपुर में दाखिला दिलवाया। उसके बाद उनका साया भी सर से उठ गया। उनके जाने के पहले ही मिले श्री आर.सी.वी.पी. नरोन्हा, आई.सी.सी.एस. बस्तर के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर, जिनकी कृपा से विशेष स्टेट मेरिट-स्कालरशिप मिली ताकि आगे पढ़ सकू। वो मेरे ऐसे धरमपिता (गॉडफादर) की तरह थे जिन्होंने जीवन के हर संकट और निर्णायक घड़ी में मेरी रहनुमाई की और हर कठिन परिस्थिति में सहायता की। याद आती है श्री मथुरादत्त जोशी के परिवार की-उनकी बड़ी बेटी शकुन दीदी और माता जी की, जिनका असीम स्नेह आज भी आंखें नम कर देता हैशकुन दीदी ने ही पढ़ने-लिखने में रुचि पैदा की। और कैसे भूल सकता हूं-साक्षात कंस और शकुनि के अवतार-अपने बड़े मामा को, जिन्होंने नाना के इंतकाल के बाद छोटी बहिन की शादी के लिए, धोखा देकर, इंटरमीडिएट की परीक्षा के ऐन पहले लगभग जबरन ही मेरी शादी कर दी और फिर मुझे और मां को घर से निकाल बाहर किया ताकि नाना की सारी जायदाद के निष्कंटक उत्तराधिकारी हो सकें-उस अधबने मकान को मिलाकर जिसे नाना, मां के लिए बनवा रहे थे। और 'डूबते हुए को तिनके का सहारा' की मानिन्द आई भैरमगढ़ वाली छोटी मामी, जिन्होंने अपने दो बच्चों की पढ़ाई और देख-रेख के लिए मां को जगदलपुर के अपने मकान में रहने की अनुमति दे दी। मां ने अपने भाई के बच्चों की धाय और आया बनना स्वीकार किया और मुझे आगे पढ़ने के लिए रायपुर जाने की इजाजत दे दी।


छत्तीसगढ़ कॉलेज, रायपुर के प्राचार्य श्री जनस्वामी योगानन्दम, राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर श्री विपिन चन्द्र श्रीवास्तव, हिन्दी के प्रोफेसर श्री चन्द्रभानधर द्विवेदी का असीम स्नेह क्या कभी भुलाया जा सकता है? और पुरानी बस्ती रायपुर के दाऊ श्यामकिशोर अग्रवाल जिन्होंने नये मध्यप्रदेश के गठन । स्वरूप, नागपुर से भोपाल राजधानी स्थानान्तरण की वजह से बन्द स्कॉलरशिप के चलते प्राचार्य योगानन्दम जी के कहने पर मेरे लिए विशेष छात्र-वृत्ति की व्यवस्था की।.... सागर विश्वविद्यालय के आचार्य नन्द दलारे वाजपेयी, जिन्होंने बिना किसी परिचय और सिफारिश के मेरी एक चिट्टी के जवाब में कृपा पूर्वक मुझे सागर बुलवा कर मेरिट स्कालरशिप स्वीकृत करवाई और मेरे पढ़ने-लिखने से लेकर मेरे सम्मान जनक रहन-सहन का इंतजाम करवा दिया। 'आलोचना' (पत्रिका) में मेरे लेख प्रकाशित कर मुझे हिन्दी आलोचना में दीक्षित किया। वाणिज्य के प्रोफेसर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद राय ने अन्तर्विश्व विद्यालय युवक समारोह, दिल्ली में अभिनीत नाटक में अभिनय के लिए मेरा चुनाव तो किया ही, उनसे इतनी निकटता बढ़ी कि फिर मैं उनके परिवार का सदस्य ही हो गया। यहां तक कि कुछ लोग मुझे उनका छोटा भाई समझने लगे। उन्होंने बड़े भाई की भूमिका खूब निभाई । सागर के ही 'गोंदिया वाले' नाम से मशहूर श्री चिन्तामणि राव जी पिम्पालापुरे को भी मैं नहीं भूल सकता जिन्होंने श्री योगानन्दम् जी के कहने पर एम.ए. फाइनल की परीक्षा की फीस की व्यवस्था की क्योंकि मेरी स्कॉलरशिप की राशि का भुगतान नहीं हो पाया था।


एम.ए. करने के बाद प्राचार्य योगानन्दम जी ने सारी औपचारिकताओं को दरकिनार करते हुए छत्तीसगढ़ कॉलेज, रायपुर में मुझे व्याख्याता की नियुक्ति दे दी। एक साल बाद, कमिश्नर नरोन्हा साहब ने शासकीय महाविद्यालय जगदलपुर में भिजवा दिया। सरकारी नौकरी में भोपाल, खंडवा, होता हुआ नरसिंहपुर पहुंचा। वहां आठ साल रहा। शायद वहीं से सेवानिवृत्त होता लेकिन सागर के पूर्व परिचित श्री अशोक वाजपेयी आई.ए.एस. के विशेष प्रयत्नों से फिर भोपाल आ गया। एक बार फिर सागर गया-विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की टीचर फेलोशिप लेकर पीएच.डी. करने । वहां तीन वर्षों की प्रतिकूल परिस्थितियों में डॉ. कान्तिकुमार जैन ने खूब दोस्ती निभाई। टीचर फेलोज को स्नातक स्तरीय विद्यार्थियों के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा। डॉ. जैन तब वार्डन थे। उन्होंने मुझे एक अन्य टीचर फेलो के साथ, हॉस्टल सुपरिटेन्डेन्ट के सुईट में रहने की अनुमति दिलवा दी। कालान्तर में हिन्दी विभाग के कुछ विघ्न संतोषी प्रोफेसरों के विरोध के बावजूद, अध्यक्ष की हैसियत से, रिसर्च डिग्री कमेटी में विशेषज्ञ सदस्य के रूप में मेरा मनोनयन करवाया। सागर से लौटा तो बरेली भेज दिया गया। श्री अशोक बाजपेयी ने फिर मदद की। नये संस्कृति विभाग में दो वर्ष के लिए विशेष कर्त्तव्य अधिकारी पद पर प्रतिनियुक्ति देकर वापस भोपाल बुला लिया। शासकीय सेवा से निवृत्त होने के दो-तीन महीने पहले उच्चशिक्षा मंत्री श्री मुकेश नायक की विशेष-स्नेह-कृपा से उसी सागर विश्व विद्यालय (अब डॉ. हरीसिंह गौर विश्व विद्यालय) का कुलपति नियुक्त हुआ जहां करपात्री विद्यार्थी होकर गया था। ...बन्धुवर प्रभात कुमार भट्टाचार्य ने अपने लेख 'शून्य से शिखर तक' का समापन इन शब्दों से किया है "इसे हम चमत्कार ही कहेंगे कि कैसे एक करपात्री की स्थिति तक पहुंची बेइन्तहा गरीबी का शून्य अपने बलबूते और अपने दमखम पर शिखर तक पहुंचा-करपात्री से कुलपति।"*...इस जर्रानवाजी का शुक्रिया बंधु प्रभात ...सचमुच वह चमत्कार ही था लेकिन आज सोचता हूं तो क्या वह सब सिर्फ अपने बलबूते और दमखम पर ही हो गया? नाना से नरोन्हा औ नायक तक इतने सारे लोगों का सहारा और संरक्षण, प्रेरणा और प्रोत्साहन न मिला होता तो क्या वह सब मुमकिन था? ये लोग मेरी जिन्दगी में न आये होते तो 'बेइन्तिहा गरीबी का वह शून्य कब का महाशून्य में विलीन हो गया होता।.... और मित्रों की फेहरिस्त भी कम लंबी नहीं है। दरअसल वही तो मेरा सरमाया रहे हैं। सबसे पहले याद आता है-प्रायमरी स्कूल से लेकर मैट्रिक तक का सहपाठी और पड़ोसी बिल्लू याने यूनुस अली खां । वह आज तक भाईचारा निभा रहा है। बिल्लू की बड़ी बहन-जुबैदा आपा-जिन्हें हम सब लोग बाई-अम्मा कहते हैं- का असीम स्नेह बल्कि मां की ममता मुझे मिली, मिल रही हैं। स्कूल के दिनों में प्रफुल्ल कुमार सामन्तराय और उसके परिवार से घनिष्ठता बढ़ी। प्रफुल्ल की असामयिक-भरी जवानी में-मौत से उसका परिवार बिखर गया और उड़ीसा चला गया। आठवीं में था तभी लाला जगदलपुरी ने 'अंगारा' में लेख (कथात्मक निबन्ध) छापकर साहित्य में बपतिस्मा कर दिया। शानी से मुलाकत हाईस्कूल के दिनों में हुई और रफ्ता-रफ्ता घनिष्ठ पारिवारिकता में बदल गई। 1955 से 1959 तक पढ़ाई के चार सालों तक मेरी गैर हाजिरी में उसने मेरी मां की देखभाल और सेवा-टहल अपनी सगी मां की तरह की। शासकीय सेवा में जगदलपुर के आरम्भिक लगभग महीने भर मैं उसी के घर रहा। साहित्यिक रिश्तों में जरूर कुछ बदमजगियां हुईं लेकिन पारिवारिक रिश्ता अटूट बना रहा। हाईस्कूल के दिनों में नाना के नये मकान के सामने, नरसिंहपुर से तबादले पर आये श्री ज्वालाप्रसाद श्रीवास्तव रहने आये। उनके परिवार से खूब घनिष्ठता हो गई। उनके बड़े बेटे विनय कुमार श्रीवास्तव से मेरी मैत्री अब भी उतनी ही सौहार्द्रपूर्ण है। कॉलेज के दिनों में बी.ए. पूर्वार्द्ध के एक वर्ष मैं न्यू आर्ट्स कॉलेज (अब दुर्गा कॉलेज) रायपुर में भी पढ़ा। वहीं छात्रावास में मोती मिलामोतीचंद करमसी शाह-एक ऐसा दुर्लभ दोस्त जिसने खून के रिश्ते से भी बढ़कर रिश्ता निभाया-आज भी निभा रहा है। उसने कई बार मुझे बिना बताए मां को मनीआर्डर कर दिए। मुझे तो तब पता चला जब मनीऑर्डर की रसीद या फिर मां की चिट्ठी आईभोपाल की पहली पारी में जिस सहकर्मी से मुलाकात और फिर यारी हई-वह था रमेश बक्षी। मैं जगदलपुर से हमीदिया कॉलेज, भोपाल तबादले पर पहुँचूं उसके पहले ही रमेश का कार्ड मिला कि जब तक सुचारू व्यवस्था न हो जाय आप निःसंकोच मेरे घर पर रह सकते हैं! कौन रखता है इतना ख्याल अपने एक अपरिचित सहकर्मी का आजकल? मैं दस-पन्द्रह दिन उसके घर पर ही रहा और जब तक भोपाल में उसके साथ रहा, उससे पारिवारिकता बनी रही। वह फिर सरकारी नौकरी छोड़कर कलकत्ता चला गया-ज्ञानोदय का संपादक होकर। साहित्यिक मैत्री भी उसने अंत तक निभाई। उन्हीं दिनों डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी से मुलाकात और फिर पारिवारिकता विकसित हुई जो आत तक कायम है।


साहित्य के क्षेत्र में जिन लोगों से मैत्री संबंध बने उनमें दुष्यन्त और कमलेश्वर सबसे नजदीक रहे । उनके अलावा हरिनारायण व्यास और हरिशंकर परसाई, सत्येन कुमार और कमला प्रसाद, की शिद्दत से याद आती हैभोपाल के ताज भोपाली, फज्ल ताबिश और मंजूर एहतेशाम भी अक्सर याद आते हैं। प्रभुनाथसिंह आजमी और लीलाधर मंडलोई अविस्मरणीय है। आदरणीय यशपाल और उपेन्द्रनाथ अश्कअमृत राय और धर्मवीर भारती, डॉ. देवराज और डॉ. विश्वम्भर नाथ उपाध्यायप्रणव कुमार वन्द्योपाध्याय और रवीन्द्रनाथ त्यागी वगैरह से भी स्नेह-सद्भाव और सदाशयता पूर्ण संबंध रहे। इधर जब से लगभग लगातार उज्जैन प्रवास पर महीनों रहना हुआ है तब से आपके साथ अक्सर मुलाकातों के दौरान जो बन्धुभाव विकसित हुआ है, वह तो जिन्दगी की इस गहराती सांझ में दिया-बाती की तरह दिल-ओ-दिमाग को जगमगाने का एहसास तो देता ही है आपका 'दादा' संबोधन तो भावविभोर कर देता है और बाबा तुलसीदास के शब्दों में कन्या-सम अनुज-वधू' वसुमति ने तो बिटिया के साथ हमें भी यह सुखद अनुभूति दी है कि यहां भी हमारा एक घर है।
और जिसे मैं कंगाल के धन की तरह सीने से लगाए हूं-वह है-प्रभात (कुमार भट्टाचार्य) जिससे लगभग छह दशक पुरानी मैत्री आज भी न सिर्फ निभ रही है, बल्कि प्रगाढ़तर होती जा रही है। इसकी वजह है-प्रभात का अजातशुत्रु व्यक्तित्व। महाभारत में किसी प्रसंग में मित्र की एक परिभाषा पढ़ी थी-सच्चा मित्र वही है, जिस पर एक पिता की तरह भरोसा किया जा सके। शायद इसीलिए ईश्वर को, आस्तिक, परमपिता कहता है। प्रभात मेरा ऐसा ही मित्र है। आज की आपाधापी, लेन-देन, उठा-पटक और ले-लपक दुनिया में, जबकि, बकौल गालिब, 'आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना,' तब प्रभात एक दुर्लभ प्रजाति का ऐसा इन्सान है जिसने गांधी को न सिर्फ पढ़ा और पढ़ाया है, उसे अपने आचरण और व्यक्तितत्व में उतार भी लिया है। आपको याद होगा- एक बार उसका जिक्र करते हुए मैंने उसे 'परमहंस भट्टाचार्य' कहा था। वह विनोद में नहीं, वास्तविकता में मुझे परमहंस लगता हैं-एक ऐसा स्थिति-प्रज्ञ व्यक्ति जिसे लगता है न दुख इतना विचलित कर सकता है और न सुख इतना उल्लसित कि वह अपना आपा खो बैठे। मैंने एक बार उससे कहा भी था-"यार, तुम किस मिट्टी के बने हो! वह साला, दुश्मनी की हद तक तुम्हारी मुखालिफत कर रहा है और तुम हो कि न सिर्फ उसे बरदाश्त कर रहे हो बल्कि उसे माफ भी कर रहे हो, हद ताकि उसकी शान में कसीदे पढ़ रहे हो, उसे अपनी पत्रिका में ससम्मान सचित्र छाप भी रहे हो!" प्रभात ने अपने ही अंदाज में हंसकर मेरे तैश को भी नजरन्दाज कर दिया। ......


हमारी मैत्री के एक गहन पारिवारिकता में तब्दील होने की शुरूआत बिटिया से हुईमेरी छोटी बेटी निवेदिता राजनीतिविज्ञान की विद्यार्थी है। एम.ए. में उसकी प्रथम श्रेणी और मेरिट में तीसरा स्थान का सारा श्रेय प्रभात को जाता है। उसने एम.ए. की थीसिस प्रभात के प्रिय विषय 'विश्वशान्ति और महात्मा गांधी' पर लिखी और फिर प्रभात के ही निर्देशन में विश्वशान्ति आन्दोलन में भारत की भूमिका' पर पीएच.डी. की उपाधि अर्जित की। इंदौर और भोपाल के बाद जब वह उज्जैन आई तो प्रभात ने उसे अपने घर पर रखकर अपनी बेटी ही बना लिया। सप्त खंडीय कविता-प्रभात के पहले खंड: नीड़ रागः की सबसे बड़ी और मार्मिक कविताः कप्तान दीदीः निवेदिता पर ही है। उसे प्रभात के पूरे परिवार ने अपना लिया है। प्रणति भाभी और प्रभात के लिए कृष्णा और निवेदिता में कोई अंतर नहीं है और अभिलाष और अजय भी उसे उतना ही स्नेह देते हैं। बकौल अभिलाष अब हम दो नहीं एक ही परिवार हो गये हैं और निवेदिता के साथ हमें भी लगता है कि हमारे इस सम्मिलित परिवार के मुखिया अब उसके बाबा (याने मेरा प्रभात) ही हैं। एक छोटा-सा प्रसंग सुनाकर मैं इस भावाविष्ट चर्चा को समाप्त करूंगा। किसी एक वर्ष 14 जुलाई को मैं यहीं उज्जैन में था। प्रभात का, बिटिया को, फोन आया कि इस बार धनंजय का जन्म दिन हम लोग यहीं मनायेंगे। शाम को हम लोग प्रभात के घर चले गये। प्रभात ने गुलदस्ते से जन्मदिन की बधाई दी। भीतर से भाभी आरती की थाली लेकर आई- पीछे एक ट्रे लिए बाई ! मुझे दीवान पर बैठाकर भाभी ने नये वस्त्र भेंट किए, सर पर पुष्प वर्षा की और आरती की थाली से रोली-अक्षत से जब मेरा टीका किया तो मैं भावविभोर हो गया। मुझे लगा कि भाभी के चेहरे पर मेरी मां का चेहरा उभर आया है और मैंने अभिभूत अवस्था में उनको चरण-स्पर्श प्रणाम किया। अष्टमी या दूज की पूजा में मां इसी तरह तो मेरा टीका किया करती थीं। ऐसे जाने कितने प्रसंग है, उनके विस्तार में जाऊंगा तो यह प्रभात कथा प्रलम्बित हो जायेगी।आकांक्षा बल्कि महत्वाकांक्षा तो है कि प्रभात के पूरे साहित्यिक अवदान पर लिखी जा रही किताब में एक पूरा अध्याय प्रभात की अंतरंग और रंगारंग छवियों का हो। देखें यह आकांक्षा कब पूरी होती है


और जहां तक शत्रुओं की बात है तो जैसे हर परिचित मेरा मित्र नहीं है उसी तरह अपने हर विरोधी को मैं अपना दुश्मन नहीं समझता। जिस तरह मैं अपने दोस्त चुनता हूं- उसी तरह दुश्मन भी चुनता हूं। जीवन और साहित्य में असहमति को विरोध और प्रतिकूल आलोचना या प्रत्यालोचना को शत्रुता समझ कर बदला लेने वाले कई लोग मिले, उनकी भी एक लंबी फहरिस्त है। हां, प्रसंगवश अपनी प्रतिकूल और लगभग विध्वंसक आलोचना के बावजूद संबंधों की प्रगाढ़ता निभाने वाले दो ही अपवाद मुझे अपनी पूरी साहित्यिक यात्रा में मिले-धर्मवीर भारती और रमेश बक्षी। और एक दोस्त ऐसे भी मिले जिन्होंने अपनी अनुकूल आलोचना से अभिभूत होकर ढ़ाई पृष्ठों का टाइप्ड विभोर-पत्र लिखा लेकिन कालांतर में हल्के कुल्क अदाज म उन पर एक किताब लिखने के गंभीर प्रस्ताव पर उतने ही हल्केफुल्के अंदाज में अपनी असमर्थता व्यक्त करने पर न सिर्फ उन्होंने मालवी मुहावरे में अपने कपड़े फाड़ लिए बल्कि अपनी पत्रिका में अपने चमचे के द्वारा मुझ पर गाली-गलौच की बौछार करवा दी। बहरहाल, साहित्य में वैचारिक विरोध और असहमति का मैंने व्यक्तिगत जीवन में भी खब खमियाजा उठाया है। वह अप्रीतिकर चर्चा है और मैं उनके नाम लेकर अपने तई उनको इतनी अहमियत भी देना नहीं चाहता। हौसला शुरू से एक ही रहा है-उत्कृष्टता की साधना। बात यह है प्रमोद भाई कि अपनी कोई हैसियत कहीं तो थी ही नहीं-न घर में, न बाहर, तो भीतर कहीं एक जुनून पैदा हो गया कि पढ़ना-लिखना ही एक ऐसा इलाका है जहां अपने बूते और दमखम पर अपन कुछ कर सकते हैं, सो उसी में लग गए। अकादेमिक कैरियर की लगातार उत्कृष्टता के बाद और साथ-साथ लिखने का जुनून सवार हो गया और उसमें ही सारी जिन्दगी खपा दी। कुछ हासिल करने के मकसद से नहीं सिर्फ अपने-आपको व्यस्त रखने और स्वस्थ बने रहने के लिए। इस जुनून के चलते ही इतनी सारी व्याधियों के बावजूद इस उम्र में भी यह सक्रियता बरकरार है।
चुनौतियां भी खूब मिलीं और टकराहटें भी खूब हुईं ! पहली चुनैती थी-निराला समग्र काव्य की आलोचना, दूसरी कथा-आलोचना और तीसरी आधुनिकता की भारतीय अवधारणा। इनके चलते वैचारिक टकराहटें हुई देशी और विदेशी दिग्गजों से भी, सिर्फ हिन्दी के मठाधीशों से नहीं! और जाहिर है जितनी बड़ी चुनौती और टकराहट, उतना ही उनसे निपटने का आनंद। इसके अलावा याद आती है उन लोगों की कुढ़न और कुत्सा, ईर्ष्या और जलन जो मेरे काम से खामखा दुखी होते रहे हैंउनकी एक प्रजाति है जो महज इसलिए दुखी रहती है कि उनका पड़ोसी सुखी है।धनंजय : हां, अतीत गुजर जाने के बाद न सिर्फ रोमांटिक हो जाता है बल्कि तकलीफदेह भी हो जाता है। शायद इसीलिए शायर (शायद साहिर) ने कहा है:


हयात एक मुस्तकिल गम के सिवा कुछ भी नहीं शायद


खुशी भी याद आती है तो आंसू बन के आती है!


और अपने चचा गालिब तो कह ही गये हैं:


कैदें-हयात, बन्दे-गम अस्ल में दोनों एक हैं


मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों ?


बहरहाल! मैं कह चुका हूं कि अनुकूल आलोचना के लिए जहां अभिभूत होकर मेरी तारीफ की वहीं प्रतिकूल आलोचना और वैचारिक विरोध से आहत होकर लोगों ने न केवल मुझ पर गौर साहित्यिक हमले किये बल्कि दुश्मनी भंजा कर मुझे नुकसान भी पहुंचाया, अनेक कठिनाइयां पैदा की लेकिन शुकर है कि उनका मंशा पूरा नहीं हुआ। यह ठीक है कि मेरा प्राप्य मुझे नहीं मिला लेकिन उसने मुझे इतना निराश और हताश भी नहीं किया कि मेरा लेखन ही रूक-थम या चुक जाए।


प्रमोद : जगदलपुर, सागर, भोपाल और अब उज्जैन, इस “यात्रा" का निचोड़?


धनंजय : पता नहीं प्रमोद भाई, जो है सो सब, आप-सबके सामने है। इसमें कितना सारवान और सार्थक है, आप लोग ही तय करें। मैंने तो भरसक अपना काम कियावही मेरे वश में था।


प्रमोद : परिस्थिति ने आपको जो बनाया, आप क्या वही बनना चाहते थे या आपके सपने कुछ अलग थे ? यदि सपने थे तो वे मूर्त क्यों नहीं हो सके ?


धनंजय : इसका एक जवाब मैं आपके पहले ही प्रश्न के संदर्भ में दे चुका हूं। यहां उसे दुहराए बगैर कहना चाहता हूं कि हम सब अधिकांशत: अपनी परिस्थितियों की ही निर्मितियां होते हैं। हमारे पास 'चुनाव का हक' या 'वरण की स्वतंत्रता' ही कहां होती है? न हम अपना 'जन्म' चुन सकते है और न 'मृत्यु' और क्या यह अपना भरम ही नहीं है कि अपने जीवन में भी हम 'कुछ' चुन सकते हैं? किसी मनोवैज्ञानिक ने कहा भी तो है कि आप यह तय करें कि आप क्या बनना चाहते हैं उसके पहले आप बन चुके होते हैं। जिन परिस्थितियों में मैं पला-बढ़ा, जिन दुश्वारियों से गुजरा उन्होंने मुझे इतनी राहत और मोहलत ही कहां दी कि मैं सपने देख सकता?....


प्रमोद : अपने अतीत से आप क्या सहेजना चाहेंगे और क्या छोड़ना ?


धनंजय : अपने अतीत से मैं उन सारे लोगों का प्यार और स्नेह, सहेजना चाहता हूं बल्कि एक कंगले की सम्पत्ति के मानिन्द उसे दिल की गहराइयों में सहेजे हूं जिन्होंने मुझे सहारा और संरक्षण दिया। उनके सजदा-ए-शुक्रिया में झुका हुआ हूंउनके प्रति कृतज्ञता में नत शिर हूं। ...और वह सब ईर्ष्या और द्वेष, विरोध और वैमनस्य, उपेक्षा और तिरस्कार, प्रताड़ना और उत्पीड़ना भूल जाना चाहता हूं...


___ मैं हूं और अफसुर्दगी की आरजू गालिब कि दिल


देखकर तर्जे-तपा के अहले दुनिया जल गया...


(दुनिया की बेवफाई ओर बुरे बर्ताव से मैं इतना तंग आ चुका हूं कि अपने दिल को अब अफसुर्दा (बुझा हुआ) ही रखना चाहता हूं ताकि उसमें कामना की कोई लौ न जाग सके।


प्रमोद : जो सबसे कठिन समय होता है, वही मूल्यवान देता है। इस दृष्टि से वह क्या मिला जो आज भी मूल्यवान है?


धनंजय : आपने सच कहा है प्रमोद भाई! वो एक प्रचलित शेर भी तो है; जाने किसका है:


सुर्खरू होता है इन्सां, ठोकरें खाने के बाद


रंग लाती है हिना पत्थर पे घिस जाने के बाद...


कठिनाइयां न हों तो जीने का मजा क्या है. लेकिन इतनी भी न हों कि जीना अजाब हो जाय। कभी-कभी लगता है कि इतनी विपरीत परिस्थितियां न होतीं, इतनी बदनसीबी न होती तो क्या यहां पहुंच पाता, जहां पहुंच पाया हूं? कभी-कभी नितांत निर्मम और संग दिल होकर सोचता हूं कि पिता को अबोध बचपन में ही खो देने का दुर्भाग्य न होता तो...? यदि नाना के इंतकाल के बाद बड़े मामा ने घर से निकालकर बाहर सड़क पर खड़ा न कर दिया होता तो.... क्या होता? तो हद-से-हद यही होता कि बाप की तरह कहीं मुनीमी करते-करते अब तक मर-खप गया होता या मामा के आतंक के साये में कहीं बाबू या मोहर्रिर किस्म की चाकरी करता कोल्हू का बैल बन गया होता। अब जो भी मिला, वह कितना मूल्यवान है, मैं खुद कैसे तय करूं? हां, लिखने-पढ़ने से नून-तेल-लकड़ी की मानवीय नीरसता और उबाऊ जीवन के खटराग की एकरसता से कुछ निजात मिलने का जो एहसास है; वही मेरे लिए मूल्यवान है।


प्रमोद : भविष्य से आप क्या अपेक्षा रखते हैं ?


धनंजय : भविष्य क्या, अब तो किसी से कुछ भी अपेक्षा नहीं है, भाई ! और अब मेरा भविष्य ही क्या होगा? समय ही कितना बचा है? बकौल फिराक :


सब मरहले-हयात' के तय करके अब


फिराक बैठा हुआ है मौत में ताखीर देखकर


या बकौल गालिब :


यह जिद कि आज न आये और आये बिन न रहे


कजा से शिकवा हमें किस कदर है क्या कहिए....


प्रमोद : अपने सफर का आकलन आप किस तरह करना चाहेंगे?...


धनंजय :फैज अहमद फैज के आखिरी कलाम के ये दो अशआर मुमकिन हैं मेरे दिल-ओ-दिमाग के हालत का मौजूं बयान कर सकें :


बहुत मिला, न मिला, ज़िन्दगी से, गम क्या है


मताए 4 – दर्द बहम' है तो बेशोकम क्या है।


अजल' के हाथ कोई आ रहा है परवाना


न जाने आज की फेहरिस्त में रकम क्या है।....


प्रमोद :


कुछ सवाल दिए थे। ये सवाल पता नहीं कब से मुझे परेशान कर रहे थे।अपनी परेशानी मैंने धनंजय जी को सौंप दी, जो अच्छी बात नहीं है। मेरे सवालों से वह चकराए जैसे मैं खद इन सवालों से....


कल उनका फोन आया। "प्रमोद त्रिवेदी की जय हो।" हमेशा की तरह ही आज भी उन्होंने स्नेह सिक्त किया। “भैया! आप का काम पूरा हो गया।" उन्होंने थकान भरी सांस ली। मैं क्या कहता "जी।" बहुत बोदा शब्द था, पर इसके अलावा मुझे कुछ सूझा भी नहीं।.... अब ऐसा है प्रमोद, आप इसे पढ़ लो।... क्या पसंद करेंगे, पढ़ना या सुनना। सुनने का सुख अलग ही होता है। उनका प्रस्ताव भी थाअतः सुनना ही तय हुआ। “....तो शाम पांच बजे के बाद हम आएं तो कोई परेशानी तो नहीं?" अच्छा तो भैया विश य ऑल द बेस्ट।"


15 मई को उनको प्रतीक्षा शुरू हुई। दोपहर का पारा 42.6° था। सूरज ढल तो जाए तब भी तपन कितनी कम होगी, पता नहीं। 6 बजे मौसम का मिजाज कुछ ठीक हो गया था तभी धनंजय जी ने घंटी बजाई।


वह सुनना क्या था, देह से देहातीत होना था। मेरे लिए और श्रीमती वसुमती के लिए भी। इस दौरान कितनी ही बार अपने अतीत की स्मृतियों में दादा (प्रो. धनंजय वर्मा) भर-भर गए। मेरे मन में यह अपराध बोध बराबर गहराता रहा कि उन्हें मैंने क्यों कुरेदा।


पाठ पूरा हुआ। एक गहरा सन्नाटा उस पाठ में छूटी जगहों में भर गया था। उसकी भाषा हम तीनों को समझ में आ रही थी। अब एक पाठ मुझ में निर्मित हुआ। इस प्रकरण को विराम देता या मुझे संवाद में शामिल करता-


कब से,


पता नहीं कितने जन्मों से तलाश थी,


इन्हीं सवालों के जवाब की।


किस कदर कोंचा नहीं मुझे इन्हीं सवालों ने!


अपनी ही डूबती सांसों में भटकते यही तो प्रश्न किया


कृष्ण ने-क्या हासिल किया ?


क्या था जो परेशान किए रहा ?


कौन रहा शत्रु सब से बड़ा


कौन तेरा सच्चा मित्र-बूझ?


अपनी आखरी सांस पर किसी तरह टिके


कहा था -


"मुझसे बड़ा दूसरा मेरा शत्रु नहीं रहा कोई।


अपनी प्यास के समाधान में मिल भी जाए


अब पानी तो क्या .....ऽऽ.........


#


-"छोड़े जा रहा प्रश्न अपने अनुत्तरित


तुम्हारे लिए


#


बुद्ध, कबीर, गालिब, मुक्तिबोध भी कम बेचैन नहीं थे


सवालों से।


कहा गालिब ने -"जमीन पर तो जल रहे है पांव


आओ चलो,


खोलते हैं मियां आकाश की बंद कुण्डी ।


कहाँ-कहाँ नहीं ले गई बेचैनियां मुक्तिबोध को


अन्धेरों की कितनी-कितनी परतों के नीचे


फिर गहरी चुप्पी में जा कर ......


#


-"धनंजय भैया !


कहाँ मिल जाता है सब कुछ एक ही बार में


ये सारे सवालात भी पता नहीं कितने जन्मों से....


#


सवाल ही देते हैं रास्ता


सवाल को


नये सवालों की खेप के साथ


नये सिरे हम तलाशेगें बार-बार


मतलब, जिन्दगी के।


2


मैं फोन का रिसीवर उठाता हूं और कहता हूं- "हलो!" उधर से आ रही आवाज मैं सुनता हूं- "प्रमोद भैय्या की जय हो।" इसी आवाज में मैं कभी'' 'पंडित प्रमोद त्रिवेदी हो जाता हूं तो कभी "प्रमोद त्रिवेदी" भर रह जाता हूं पर "जय हो।" का स्थायी भाव हर हालत में बना रहता है। लगभग उतर चुके तीसरे पन में यह आश्वस्ति मेरे लिए कम नहीं है कि अब पराजय तो नहीं होनी है। (यों भी कोई मुझे पराजित कर भी दे तो यश तो उसे मिलेगा नहीं, उलटे एक उम्रदराज व्यक्ति को हराकर उसकी भद्द ज्यादा होगी।)....मैं बेफिक्र हो गया


जब धनंजय वर्मा से प्रत्यक्ष मिलना होता है तो प्रसन्नता का इजहार करता उनकावाक्य होता है- “आओ प्यारे भाई पहले गले मिलो।" वह इतने प्रेम से गले लगाते हैं कि मुझे शक होने लगता है- ये कोई और व्यक्ति तो नहीं है धनंजय वर्मा के चोले में? क्योंकि मैंने उनके स्वभाव और व्यवहार के बारे इतनी बातें सुनी हैं कि उनसे मिलने में मुझे हमेशा संकोच हुआ! इसी वजह से मैं हमेशा अपनी हद में ही रहाजैसे कबड्डी का खिलाड़ी विरोधी के पाले की-"टच लाइन" को सबसे पहले छूता है और फिर अपना कौशल दिखाता है, मैंने भी सालों साल उनके पाले की बस "टच-लाइन" ही छुई। उनकी यह छवि बनाने में खुद उनका हाथ ज्यादा रहा या उनके-“मित्रों" का यह मेरे लिए अब भी खोज का विषय है।


डॉ. धनंजय वर्मा अब मन से या बेमन से उज्जैन में लगभग बस ही गए हैं और उन से मेरा मिलना जैसे-जैसे बढ़ा मेरा संकोच टूटा। हम दोनों में कुछ साम्य भी है। सब से खास यह कि दोनों ही कोई बात चाहे वह अच्छी हो या बुरी मन में नहीं रखते और कभी खुद पर तो दूसरों पर हंसते भी खूब हैं। दूसरे हम दोनों ही लगभग अब फुरसत में हैं- पढ़ने लिखने को काम न माना जाए तो.... । मेरे लिए यह सुविधा कि वर्मा जी का आवास अभी मेरे स्कूटर की हद में है और उस तरफ भीड़-भाड़ भी नहीं होती। स्कूटर की सवारी से मैं सकुशल उनके घर से अपने घर आ सकता हूं, इतना विश्वास मुझ में अब भी है।


क्षेपक -


5 जून 2015-गरमी इतनी कि शाम को छह बजे भी घर से निकलने की हिम्मत नहीं हो रही । इसी गरमी की वजह से “प्रभु" के घर जाना नहीं हुआ हो उनके "दर्शनकैसे होते । आज हिम्मत कर ही ली। 'प्रभु' (डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य) प्रसन्न हो गए। उनका आवास तो मेरे घर से और भी पास।


"प्रभु" उवाच-"तुम्हें पता ही होगा, "समावर्तन" का अगला अंक धनंजय (वर्मापर केन्द्रित होगा। अच्छी खासी सामग्री जुट गई है।" 14 जुलाई को उसका जन्म दिन है। एक कार्यक्रम भी रखेंगे उस दिन। उसी दिन इस अंक का लोकार्पण करेंगे।"


प्रमोद त्रिवेदी कुछ खुले। "सरोज कुमार जी (इंदौर) से बात हुई थी उन्होंने बतलाया था।" "प्रभु" जब क्या-क्या होगा उस दिन, बतलाने लगे तो प्रमोद त्रिवेदी श्री सुझाव देने से नहीं चूके। (आदत से मजबूर हैं।) प्रभु ने कहा-"तथास्तु।त्रिवेदी जी और जोश में आ गए- "ऐसा करें सरोकार से संबंधित एक प्रश्नावली के साथ श्रीराम दवे को वर्मा जी के पास भेज दें और वे उनसे बातचीत कर लें।"


-"अरे, यह श्रीराम से नहीं हो सकेगा। यार, यह काम तुम कर लो।"


फंस गए त्रिवेदी जी। - "गए थे नमाज पढ़ने और रोजे गले पड़ गए।" वाली बात हो गई। पर प्रमोद त्रिवेदी को पता था कि अभी तो मरहूम प्रो. विश्वंभरनाथ उपाध्याय की रुह वर्मा जी से मुखातिब है और वह पीछा छोड़ने वाली नहीं हैयही सोचकर प्रमोद त्रिवेदी ने कह दिया-" हो। (याने मैं क्यों मना करके बुरा बनूं।) प्रभु ने कहा"दो दिन में प्रश्रावली बनाकर मझे भिजवा दो। मैं यह काम करवा लूंगा। प्रभु की माया अपरंपार है। वे कुछ भी करवा सकते हैं (औरों को जाने दें "प्रभु" ने "धनंजय" को भी अपने मन मर्जी से हांका है तो मुझ नाचीज की क्या बिसात।"भुगतो अब।" त्रिवेदी भुनभुनाए।


6 जून को प्रश्न प्रभातजी के पास पहुंचे।ज्यादा नहीं थे प्रश्न । प्रश्न पढ़कर प्रभु चौंके। ऐसे प्रश्न (लठ्ठमार ) मैं ही कर सकता हूं। पर उन्हें प्रश्नावली अच्छी लगी। अब पता नहीं धनंजय..... प्रभात जी आशंका में घिर गए। -“आलोचना के अमृत पुरुष" डॉ. धनंजय वर्मा (सं. प्रमोद त्रिवेदी) में एक साक्षात्कार प्रकाशित हो गया था। उसी सिलसिले को आगे बढ़ाया जाए यही ख्याल था। बात सचमुच आगे बढ़े तो...। क्षेपक समाप्त।


यों भी बातों का सिलसिला कभी पूरा नहीं होता। यह बातचीत भी पूरी हो गई तो क्या सचमुच हो गई? तो क्या हमारा मिलना-जुलना बंद हो जाएगा। या बातचीत के मुद्दे खत्म हो जाएंगे? या मेरी प्रश्नाकुलता ही चुक जाएंगी? या क्या पता इस प्रश्नावली के अंतिम प्रश्न में ही अगली बातचीत के नए सूत्र मिल जाएं और उत्साह से भरे धनंजय वर्मा कह उठे -


-पण्डित शिरोमणि प्रमोद की जय हो।


प्रमोद : धनंजय जी, महाभारत में बतलाया गया है कि 'चक्रव्यूह' का भेदन केवल अर्जुन ही कर सकता था। आप भी यह कला जानते हैं। हालांकि अब यह एकाधिकार नहीं रहा । क्या आपको अब लगता है कि 'चक्रव्यूह' हमेशा अन्याय और अधर्म की खातिर ही रचे गए? क्या कभी आपको लगा कि इस षड्यंत्र से बाहर तो आ गए पर वह बची-खुशी नैतिकता भी आज के 'शरों' में नहीं?


धनंजय : मुझे लगता है कि हमारे दोनों महाकाव्य शाश्वत मूल्यवता के व्यंजक हैं। 'रामायण' और 'मानस' जहां शाश्वत आदर्श रचते हैं, वहीं 'महाभारत' शाश्वत यथार्थ को वाणी देता है । चक्रव्यूह का भेदन जानता भले अर्जुन रहा हो लेकिन उसमें प्रवेश किया-अभिमन्यु ने और सात-सात महारथियों द्वारा छल से मारा गया क्योंकि वह व्यूह से बाहर आना नहीं जानता था। मैं यह कला जानता हूं, यह तो मैं भी नहीं जानता। वैसे आपकी जर्रानवाजी का शुक्रिया लेकिन चक्रव्यूह में जिस तरह भूल भुलैयां और कपटजाल रचे जाते हैं उनमें कई बार फंसा मैं भी और 'महारथियों' के प्रहार भी मुझे झेलने पड़े लेकिन, शुकर खुदा का, सही-सलामत बाहर आ गया। हां, प्रमोद जी, चक्रव्यूह हमेशा अन्याय और अधर्म की खातिर ही रचे गये। महाभारत में ही नहीं मानव इतिहास के लगभग हर युग और युद्ध में यही हुआ। अंग्रेजों ने तो एक फिकरा ही गढ लिया कि 'प्रेम और यद्ध में सब कछ जायज है।' कमबख्तों ने प्रेम को भी यद्ध बना दिया। कभी-कभी क्या. मझे तो हर बार लगा कि षडयंत्रों से बाहर तो आ गए लेकिन वो' शरवीर किसी भी नैतिकता से महरूम थे बल्कि नैतिकता को तिलांजली देकर ही वो इस मैदान में उतरे! उन्हें शूरवीर कैसे कहें?


प्रमोद ः राजनीति और राजनैतिक दलों से आपकी अपेक्षाएं क्या रहीं? उनके विफल हो जाने पर ये अपेक्षाएं किससे की जानी चाहिए? राजनीति (और राजनेता ) का भी लक्ष्य कम से कम हमारे देश में तो केवल सत्ता पर काबिज होना हो गया है। 'माफिया' सूत्रधार हो गया तब हमारी निगाह किस पर हो ?


धनंजय : मानव इतिहास के लगभग हर युग में राजनीति ही मानव-स्थिति और नियति को तय करती रही है। 'रामराज्य' में कदाचित 'धर्म' ने यह भमिका निभाई हो लेकिन ज्ञात इतिहास में तो सारा खेल राजनीति ने ही खेला है। जाहिर है मानव भविष्य भी राजनीति ही तय कर रही है। राजनीति और राजनैतिक दलों से हमारी सबकी एक ही अपेक्षा है- 'सबका समग्र कल्याण' । हमारी यह उम्मीद कब, कहां पूरी हुई? लगभग सारे राजनैतिक दल विफल हुए हैं। अब यह अपेक्षा किससे की जाय? अफसोस, सद अफसोस किसी से नहीं! क्या प्लेटो के आदर्श गणराज्य की तरह कभी कहीं कोई आदर्श गणराज्य स्थापित हो सकेगा? क्या 'दार्शनिक(संत)-राजा' की अवधारणा कभी मूर्त रूप ले सकेगी? हमारे देश में ही नहीं हर देश काल में राजनीति और राजनेता का लक्ष्य 'हमेशा सत्ता पर काबिज बने रहना' रहा है और संसदीय प्रजातंत्र में जिसे विपक्ष कहा जाता है उसका भी लक्ष्य सत्ता हथियाना होता है- मुखौटा और नारा भले जन, जनता और आम आदमी का हो । सत्ता पाते ही वह भी सत्तामद में चूर हो जाता है और सत्ता की शक्ति उसे भी भ्रष्टकर देती है। कहावत भी है परम शक्ति व्यक्ति-मनुष्य को चरम भ्रष्ट करती है। जाहिर है अब सत्ता पर काबिज बने रहने और उसे हथियाने के लिए एक पूरा माफिया तंत्र विकसित हो गया है, जिसकी गिरफ्त में बुद्धिजीवी और तकनीकी विशेषज्ञ और अफसर सब आ गये हैं। ऐसे हालात में किस पर निगाह हो? बकौल गालिब : कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती।


प्रमोद : आप खुद किस उम्मीद से राजनीति और विचारधारा की ओर आकृष्ट हुए ? आपका रुझान कैसे बढ़ता चला गया? किस हताशा में आपने सारे संस्थानों से नमस्कार कर लिया?


धनंजय : मैं सीधे-सीधे राजनीति में तो कभी नहीं आया, हां विचारधारा से जरूर आकृष्ट हुआ। छत्तीसगढ़ महाविद्यालय रायपुर, में प्रथम वर्ष के दौरान ही मेरा परिचय कानून के एक विद्यार्थी से हो गया जो सी.पी.आई. से संबद्ध था। उसकी मार्फत पीपीएच और सोवियत यूनियन के प्रगति प्रकाशन से छपा साहित्य पढ़नेलगा। राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी की हैसियत से मार्क्स के दर्शन से परिचय हुआ। उसके 'सर्वहारा के प्रजातंत्र' और वर्ग विहीन समाज' की रचना ने आकष्ट किया पार्टी से संबद्ध विद्यार्थी संगठन में कुछ सक्रियता बढ़ी। नौकरी में आया तो वामपंथी संगठन- आलइंडिया फेडरेशन आफ यूनीवर्सिटी एण्ड कॉलेज टीचर्स आर्गेनाइजेशन्स- में सक्रिय हुआ। जाहिर है वामपंथी विचारधारा और राजनीति में विश्वास बढ़ता गया लेकिन कालांतर में जब वामपंथी दलों की कार्यनीतियों और कारगुजारियों से मोहभंग हुआ और प्रगतिशील लेखक संघ की 'व्यक्ति-पूजा' और गुटबाजी से तंग आ गया तो पार्टी और प्रलेस दोनों को अलविदा कह दिया। यह मोह भंग संगठन और संघ से हुआ, विचारधारा और दर्शन से नहीं। मेरा आज भी विश्वास है कि आन्दोलन और संगठन, व्यवस्था और तंत्र अप्रासंगिक हो सकते हैं, हो जाते , हो गए हैं लेकिन विचार और दर्शन, चिंतन और विचारधारा नहीं। संघारामों और विहारों की अप्रासंगिकता से क्या बुद्ध दर्शन अप्रासंगिक हो गया? सीपीआई के फालतू और सीपीएम के असंगत होने से क्या मार्क्सवाद अप्रासंगिक हो जाएगा? कांग्रेस की अप्रासंगिकता से क्या गांधी विचार-दर्शन अप्रासंगिक हो जाएगा? यह हमारी भौतिक और सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक जरूरत हैं और तब तक रहेंगी जब तक शोषण-रहित वर्ग विहीन विश्व समाज और सार्वभौमिक साम्यवाद की स्थापना नहीं हो जाती। आप गौर करें 'सार्वभौमिक साम्यवाद' का पहली बार प्रयोग स्वामी विवेकानन्द ने अपने व्याख्यान और पत्र में किया था।


प्रमोद : आपने संस्कृति का प्रदर्शन ही नहीं, इसका नेपथ्य भी देखा है। देश के सांस्कृतिक पुनरोत्थान में मध्यप्रदेश अग्रणी रहा है, पर अब कलाकार को अपनी कला पर उतना नहीं, कला प्रायोजकों पर ज्यादा भरोसा हो गया और वे नियंता हो गए। लेखन का 'रीतिकालऔर लेखन के हश्र से हम अवगत हैं ही। क्या अन्य कलाएँ भी अपना ‘पटा दरबार' में लिखवा कर ही सुरक्षित रह पायेंगी?


धनंजय : संस्कृति के नेपथ्य पर मैंने भोपाल के 'जनमत स्वर' में पांच लंबे लेख लिखे हैं जो दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय भोपाल के निदेशक राजरकर राज ने एक पुस्तिका : 'हमको मालम है जन्नत की हकीकत' में संकलितसंपादित किए हैं। उनको विस्तार में दुहराने की न तो अब जरूरत है और न अवकाश। आपने सही कहा कि देश के सांस्कृतिक पुनरोत्थान में मध्यप्रदेश अग्रणी रहा है लेकिन सांस्कृतिक प्रदूषण की शुरूआत भी दुर्भाग्य से यहीं से हुई। इसकी सबसे बडी मिसाल आपके ही शब्दों में यह है कि 'अब कलाकार को अपनी कला पर उतना नहीं, कला-प्रायोजकों पर ज्यादा भरोसा हो गया और वे नियंता हो गए।' एक कल्याणकारी राज्य में सरकार संस्कति के क्षेत्र में भी सक्रिय हो यह तो स्वागत योग्य है लेकिन संस्कृति के संरक्षण और प्रोत्साहन के नाम पर जब वह 'प्रायोजक और 'प्रस्तोता' की भूमिका में आ जाती है, अंदेशे और खतरे तभी मंडराने लगते हैं। सरकार दरअसल है क्या? मंत्री और अफसर ही न। अब मंत्री तो रोजमर्रा की गतिविधियों का नियंता नहीं हो सकता, तो बागडोर होती है अफसर के हाथों-सो मूलत: 'प्रायोजक' और 'प्रस्तोता' ही नहीं 'पुरस्कर्ता' और 'प्रश्रयदाता' भी वही हो जाता है। नतीजतन संस्कृति विभाग के आला अफसर भी लगभग उसी भूमिका में खुद को समझने लगे जो कभी सम्राट अशोक और अकबर महान की थी। उन्होंने भी अपने इर्द-गिर्द अपने-अपने 'नवरतन' पाल लिए। जिसने उनकी लल्लों-चप्पो की उसकी उन्होंने पीठ थपथपाई। जिसने कदमबोशी की उसे उन्होंने खिलअतें अता की और जिसने अपनी असहमति जताई या जरा भी विरोध किया उसे जिलाबदर किया, देश निकाला ही नहीं राहे-मक्तल दिखा दी। आपने हिन्दी साहित्य के उस 'रीतिकाल' का जिक्र किया जिसमें साहित्य-संगीत और कलाओं के संरक्षण और प्रश्रय का जिम्मा राजा-महाराजाओं, नवाबों और जमीदारों ने ले रखा था। आपको याद होगा अभी निकट अतीत में ही अपने यहां 'सेठाश्रय' बनाम 'राज्याश्रय' की बहस चली थी। तो प्रमोद जी अपने यहां साहित्य संगीत और कलाओं का 'रीतिकाल' समाप्त कहां हुआ? राज्याश्रय के बाद सेठाश्रय और अब सरकार आश्रय! इस 'प्रजातंत्र' में मंत्री-संत्री तो नाम के - वास्तविक राजा तो अफसर ही हैं। तो अब लगता तो यही है कि साहित्य संगीत और अन्य कलाएं भी अपना 'पटा दरवार' में लिखवाकर ही सुरक्षित रह पायेंगी। इस माहौल में 'संतन कहा सीकरी सों काम' कहने और बापरने वाले सिरफिरे, अपना किया, भुगतेंगें जैसा कि हम-आप भुगत रहे हैं। लेकिन हमें उसका भी गम नहीं है कि हमारा-आपका रास्ता ही वह नहीं है। फितरत है अपनी-अपनी। यहां तो हर जर्फ के मयकश हैं, हर कैफ भी सहबा है।'


प्रमोद : हमने वह समय देखा है जब साम्यवादी विचारधारा और साम्यवादी दल से सहानुभूति रखने वाला शासकीय कर्मचारी शंका की दृष्टि से देखा जाता था बल्कि वह परेशान भी खूब होता था। आपने भी ऐसे माहौल में महाविद्यालयीन प्राध्यापन आरम्भ किया है। क्या आपको भी ऐसी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?


धनंजय : छत्तीसगढ़ कॉलेज, रायपुर के अपने विद्यार्थी जीवन के लगभग आरंभ की एक घटना मुझे याद है। उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी पर सम्भवतः पाबंदी थी। मैं दादा सुधीर मुखर्जी और रामसहाय तिवारी के साथ राजनांदगांव की मजदूर बस्ती में पार्टी के एक सम्मेलन में शामिल हो गया। वहां से लौटा तो मुझसे पूछताछ और जांचपड़ताल के लिए स्थानीय एल.आई.बी. ने प्राचार्य योगानन्दम जी से संपर्क कियाउन्होंने पहले तो हॉस्टल वार्डन से कहकर मेरे कमरे से सारा साम्यवादी साहित्य हटवा दिया फिर समझाया- 'बेटा, पहले कुछ पढ़-लिख लो वर्ना पार्टी सम्मेलनों में दरी बिछाने-उठाने के काम के ही रह जाओगे।


यह मत भूलो कि अपनी विधवा माता की जिम्मेदारी भी तुम्हारी ही है।' उनकी सीख काम आई । शासकीय महाविद्यालयों में नौकरी के दौरान भी मैं पार्टी से जुड़ा रहाप्रगतिशील लेखक संघ में सक्रिय रहा. प्राध्यापकों के वामपंथी संगठन में भी सक्रिय भागीदारी रही। उनके धरनों और हड़तालों में भी शामिल हुआ लेकिन कोई परेशानी तो दूर किसी ने शंका की दृष्टि से भी नहीं देखा। प्रसंगवश, मैं यहाँ सत्ता और साहित्य के बारे में साहित्यकारों की एक रूमानी सम्भ्रान्ति को दूर कर देना चाहता हूँलेखकों-कवियों को यह खुशफहमी है कि सत्ता उनकी फिक्र या सम्मान करती है। सत्ता या सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या लिख-पढ़ रहे हैं या आप कितने महान कवि या लेखक हैं। शासन के किसी विभाग में बैठा कोई बाबू आपसी वैमनस्य से यदि आपकी शिकायत कर देता है तो आपकी थोड़ी जांचपड़ताल हो जाती है जैसी कि स्वर्गीय अनिलकुमार के प्रसंग में हुई। उन्होंने तत्कालीन राज्यपाल पर छींटाकशी करती हुई एक टिप्पणी स्थानीय अखबार में लिख दी थीउनके परममित्रों ने उसे विभाग अध्यक्ष तक पहुंचा दिया। उनसे स्पष्टीकरण मांगा गया। उन्होंने माफी मांग ली। मामला खत्म। इसी तरह शासन में बैठा आपका कोई परिचित और ‘हितैषी' आपकी सिफारिश कर देता है और आप पुरस्कृत और सम्मानित हो जाते हैं। अधिकांश पुरस्कारों और सम्मानों में यह 'परिचय' ओर 'संपर्क' ही मुख्य भूमिका निभाता है। गौर करें, फिर वह लेखक-साहित्यकार ही होते हैं जो सत्ता-सापेक्ष गठजोड़ और जोड़-तोड़ में मुब्तिला होते हैं। आपातकाल में लेखकों की भूमिका इसकी सबसे मौजूं मिसाल है।


प्रमोद : कवि को आलोचना में भी दखल देनी पड़ी है। यह काम प्रसाद को करना पड़ा, निराला को भी और अज्ञेय को भी। मुक्तिबोध को यह काम कुछ ज्यादा ही करना पड़ा । क्या असहमतियां इतनी गहरी और प्रबल हो जाती हैं कि कवि को अपना कविकर्म मुल्तवी करके यह काम करना पड़ता है ? कृपया बतलाएं कि इनकी आलोचना मुख्य धारा की आलोचना के लिए चुनौती हो सकी?


धनंजय : आपने जिनके नाम गिनाए हैं उनके अलावा भी ऐसे शीर्षस्थ कवि और भी हैं जिन्होंने आलोचना लिखी है मसलन वर्डसवर्थ और कालिरिज, टी.एस.इलियट और एजरा पाउंड। जिन कवियों और रचनाकारों ने आलोचना लिखी है उनके लेखन को गौर से देखा जाए तो उसमें रचना की प्रक्रिया उसके आशय और अभिप्राय के बारे में उनकी अपनी मान्यता का खुलासा मिलेगा। रचना की प्रेरणा, उसकी तकनीक और उसके प्रयोजन के बारे में उनकी अपनी दृष्टि और उनके अपने निर्णय भी वहां मिलेंगी। उनके आलोचनात्मक लेखन में आत्म-विश्लेषण, रचना के आंतरिक संसार की आत्मीय पडताल के साथ ही उनके अपने नज़रिए और नजीरें भी वहां मिलेगी लेकिन (और यह लेकिन बहत अहम लेकिन है) क्या उनमें से किसी के भी नजरिए से सारे साहित्य या सारी कविता की परख की जा सकती है? क्या वह सर्वमान्य कसौटी बन सकता है? क्या उसे ऐसा बनाया जाना  चाहिए? क्या टी.एस. इलियट की आलोचना, पाब्लो नेरूदा, की कविता को परखने का मापदण्ड बन सकती है? क्या प्रसाद की काव्य-दष्टि से निराला का मल्यांकन किया जा सकता है? क्या निराला के गवाक्ष से पंत की कविता परखी जानी चाहिए? क्या अज्ञेय के आलोचनात्मक प्रतिमानों से मुक्तिबोध के कविता संसार की प्रामाणिक पहचान मुमकिन है? क्या एजरा पाउण्ड के नजरिए से गालिब के काव्य को पूरी तरह समझा जा सकता है?


होता यह है प्यारे दोस्त, कि एक कवि जरूरी और जाहिरा तौर पर उस सबका भी विशेषज्ञ नहीं हो सकता जो दूसरे कवि के रचना संसार का केन्द्रीय और अपरिहार्य तत्व है। गालिब या नाजिम हिकमत, मुक्तिबोध या नेरूदा की कविता की दुनिया के भूगोल और खगोल, इतिहास और परिवेशिकी उसकी प्रेरणा और उत्तेजना, उसके मकसद और असर से जरूरी नहीं कि अज्ञेय और इलियट परिचित ही हों और उसे अपने लिए सार्थक, महत्वपूर्ण और श्रेयस्कर मानें क्योंकि उनकी अपनी अद्वितीयता और अपरिहार्य उपस्थिति की जमीन और रचनात्मक तर्क और 'ईथास' ही अलहदा है। इसलिए उनका कवियों और रचनाकारों का आलोचनात्मक लेखन उनका अपना बयान, उनका अपना हलफनामा और अपने पक्ष में दी गयी दलील या गवाही तो हो सकती है लेकिन क्या उसे आलोचनात्मक परख और मूल्यांकन की कसौटी या प्रतिमान भी मान लिया जाए? मेरी अपनी राय में कतई-कतई नहीं।


प्रमोद : किसी भी कुलपति के लिए स्वतंत्ररूप से काम करना अब कठिन हो गया है! कहने को तो हमारे विश्वविद्यालय स्व-शासी हैं पर भीतरी और बाहरी दबावों के आगे कुलपति निरीह और लाचार हो जाता है। 'छुट भैय्ये' खुद को तोप' समझते हैं। कुलपति के रूप में आपका कार्यकाल कैसा रहा?


धनंजय : कुलपति के रूप में मेरा कार्यकाल खासा निराशाजनक और अवसादक रहा। विश्वविद्यालयों की वस्तु स्थिति के बारे में आपका आकलन शतप्रतिशत सही है। दरअसल विश्वविद्यालयों के स्तर में गिरावट के लिए जिम्मेदार है-राजनीति और हमारे राजनेता। कुलपति की नियुक्ति से लेकर छात्रों के प्रवेश, प्राध्यापकों के चयन, कर्मचारियों और अधिकारियों की भर्ती, उनकी पदोन्नति तक में सत्ता-शक्ति और दबावों की राजनीति की वजह से विश्वविद्यालयों के परिसर राजनीति के अखाड़े बन गए हैं। विश्वविद्यालायों में स्थानीय राजनीति भी हावी होती जा रही है। प्रवेश में स्थानीय विद्यार्थी को वरीयता, प्राध्यापकों की नियुक्ति में स्थानीयता का आग्रह और कर्मचारियों तथा अधिकारियों के चयन में भी स्थानीयता की हठधर्मिता ने विश्वविद्यालयों को स्थान विशेष तक सीमित कर दिया है और वे विश्वविद्यालय न होकर 'स्थानीय विद्यालय' होकर रह गए हैं। आजकल विश्वविद्यालयों की तमाम गतिविधियां प्राध्यापकों, कर्मचारियों और अधिकारियों की आपसी खींचतान और ले-लपक तक सीमित हो रही हैं। आप आए दिन विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों द्वारा की जा रही हड़तालों, धरनों, प्रदर्शनों और कुल सचिव या कुलपति के घेराव की खबरें पढ़ते हैं और विद्यार्थी भी स्थानीय छुटभैय्यों नेताओं का सहारा लेकर अपनी जायज-नाजायज मांगे मनवा रहे हैं। प्राध्यापकों को सरे-राह बेइज्जत किया जा रहा है। उन पर कातिलाना हमले किए जा रहे हैं। जब सत्ता की राजनीति ही इन हंगामों को हवा देगी तो उन्हें रोक कौन सकता है? विश्वविद्यालयों में स्वायत्तता अब नाम मात्र की भी नहीं है। उनमें राज्य शासन का हस्तक्षेप बढ़ा हैं। अब उनकी हालत भी शासकीय महाविद्यालयों से बेहतर नहीं है। शासन के प्रमुख सचिव, सचिव और आयुक्त तक 'कुलपति' से भी 'शासकीय सेवक' की तरह व्यवहार करते हैं। इसके लिए स्वयं कुलपति भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। उन्होंने अपनी गरिमा स्वयं खोयी है। अपनी नियुक्ति के लिए राजनेताओं से लेकर अफसरों तक की चिरौरी करना, रोजमर्रा प्रशासन में स्थानीय दबावों के आगे झुकना, स्थानीय राजनीति में इस या उस शक्तिगुट का साथ देना या लेना गर्ज कि कुलपति बने रहने के लिए जब आप इस तरह 'रेंगने लगेंगे तब आप किस सम्मान के पात्र रह जायेंगे?


प्रमोद : संगठन और स्वार्थ अब एक-दूसरे के पर्याय होकर निष्क्रिय नहीं हो गए हैं? एक संगठन से दूसरे नए संगठन का उद्भव वैचारिक से ज्यादा व्यक्तित्व की टकराहट और नेतृत्व की महत्वाकांक्षा नहीं लगते? अपने उद्देश्य से भटककर क्या ये अब जेबी नहीं लगते?


धनंजय : संगठनों के सूरते-हाल पर मैंने 'शिखर वार्ता' (भोपाल) में एक परिचर्चा के अन्तर्गत लम्बा लेख लिखा था- भागो, 'अंग्का' आ रहा है।' कम्बोडिया की खमेर भाषा में 'अंग्का' का मतलब होता है संगठन! वहां की तथाकथित क्रान्तिकारी पार्टी ने 'अनुशासन' के नाम पर क्या-क्या कहर बरपा किए इसका हैबतनाक तफसीली बयान किया है विज्ञान के अध्यापक, सफल डॉक्टर लेकिन फिर बदहाल और भुखमरी के शिकार हुए 'द किलर फील्ड्स' फिल्म के आस्कर पुरस्कार से सम्मानित अभिनेता डॉ. हांगेनोर ने । संगठन की जानिब आपके आकलन से कोई भी ईमानदार लेखक असहमत नहीं हो सकता। यह ठीक है कि 'संघे शक्ति' है लेकिन राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों में वह सब हो, जिसका जिक्र आपने किया है, तब तो कुछ समझ में भी आता है लेकिन लेखकों के संगठन में भी वही सब हो तो समझते देर नहीं लगती कि लेखकों में भी नेतृत्व की आकांक्षा और साहित्येतर महत्वाकांक्षा ने दूर-दूर तक प्रवेश कर लिया है। मेरा तो कुल अनुभव है कि हर किस्म के संगठन अपने आपको खुला हुआ, पारदर्शी और आंतरिक लोकतंत्र का पक्षधर कहते है लेकिन लेखकीय संगठनों तक में असहमति की गुंजाइश नहीं होतीउसे भी ‘विरोध' समझकर 'दुश्मनी' के खाते में डाल दिया जाता है। प्रलेस हो या जलेस उनमें भी ‘सत्ता' 'शक्ति' और 'वर्चस्व' के संघर्ष चलते हैं। प्रचार-प्रसार के पेटी (कोट) झगड़े चलते हैं और प्रसिद्धि और पुरस्कार ही उनकी प्रथम प्रतिश्रुति हो जाती है। इस मामले में वामपंथी हों या दक्षिणपंथी सारे संगठनों और संघों-संस्थानों का मूलचरित्र यकसां है।


प्रमोद : नई आर्थिक सोच ने सारी विचारधाराओं का अंत कर दिया है। पुंजी' ही सबसे बड़ा विचार और भ्रष्टाचार आज की सबसे बड़ी सच्चाइयां हैं। बतलाएं कि विचारहीनता में यह दुनिया आगे कैसे बढ़ेगी?


धनंजय : आधुनिक विमर्श में 'इतिहास का अंत' और 'विचारधारा का अंत' सरीखे नारे खूब उछाले गए हैं। क्या आपको लगता है कि वाकई इतिहास का अंत हो गया? हमारा वर्तमान निरंतर इतिहास बनता जा रहा है और अतीत, व्यतीत होकर भी हमेशा के लिए विद्यमान' होता जाता है। सच तो यह है कि 'विचारधारा का अंत' भी एक विचारधारा है। उसका भी एक 'पंथ' और 'शिविर' है। मुझे नहीं लगता कि चेतन और जागरूक मनुष्य कभी विचार विहीन हो सकता है। वातावरण में 'शून्य' की ही तरह 'विचारहीनता' की स्थिति की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। आज 'पूंजीयदि सबसे बड़ा विचार बन गयी है तो उसका प्रति-विचार भी तो है और मुझे लगता है कि देर-सबेर इसका प्रतिवाद और प्रतिकार जरूर होगा। हम इस पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तहीन शोषण में अनन्तकाल तक जीवित नहीं रह सकते । राजनीति में सिर्फ 'शकुनि' और 'चाण्क्य' का ही अस्तित्व नहीं है, महाभारत में ही भीष्म नीति और विदुर नीति भी है। आधुनिक युग में भी कार्लमार्क्स और महात्मा गांधी के वैकल्पिक विचार दर्शन मौजूद हैं


प्रमोद : आपने हर क्षेत्र को देखा । आप हर जगह टकराए । टूट-फूट' भी कम नहीं हुई । आलोचना आपका मुख्य क्षेत्र रहा और इसका हश्र भी आपने देख लिया। क्या उम्र के इस दौर में आपको नहीं लगता कि कविता, जिसका साथ आपने दीगर व्यस्तताओं में छोड़ दिया था, उसी में मन रमाया जाए?


धनंजय : आलोचना मेरा मुख्य क्षेत्र जरूर रहा है लेकिन उसमें भी मन रमा तो कविता में ही न! कहानी-आलोचक का तमगा लगाया लोगों ने जरूर, कहानीआलोचना लिखी भी लेकिन समग्र आलोचना कर्म का केन्द्र रही तो कविता ही। हां सच कहूं तो अब भी कभी-कभी लगता है कि इस नाशुकरे आलोचना कर्म की बजाय कविता-कहानी-उपन्यास में मन रमाया जाय लेकिन अब वक्त ही कितना बचा है? शरीर भी कहां तक मन का साथ निभायेगा?


प्रमोद : उज्जैन आपको कैसा लगता है ?


धनंजय : इस पौराणिक और पुरा ऐतिहासिक नगर की महिमा तो अपरम्पार है। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि अब हर शहर यकसां होता जा रहा है। रिंगरोड की दोनों ओर की विशाल अट्टालिकाओं और फोरलेन की गहमा गहमी को देखिए तो भरम होता है कि कहीं हम मुम्बई में तो नहीं है? आधुनिकीकरण की पहचान ही यह यकसॉनियत हो गई है। बहरहाल, बिटिया निवेदिता जब से यहां आई है तब से लम्बी-लम्बी अवधि के लिए उज्जैन-प्रवास में रहना होता है क्योंकि भोपाल में घर होते हए भी हम वहां अकेले' हैं और हम दोनों की बीमारियों की वजह से बिटिया हमें अकेले रहने देना नहीं चाहती। हम रह भी नहीं सकते चनांचे अब तो यार लोग पूछते हैं- 'आपका भोपाल प्रवास कब तक है? और प्यारे भाई, अपने लिए जैसा भोपाल, वैसा ही उज्जैन। उज्जैन का मतलब मेरे लिए हमेशा से ही 'प्रभात' रहा है अब प्रमोद भी हो गया है। जैसे उज्जैन में घर तक सीमित रहता है वैसे ही भोपाल में भी घर तक महदूद। यहां आप और प्रभात है, वहां मुकेश, गगन और शिवकुमारवैसे भी उम्र का यह दौर जाल समेटने का है। शरीर इतना अवकाश नहीं देता कि खुला-फैला जाय।


"धन्यवाद" कह दूंगा तो लगेगा मुझे,


हो चुका अंतिम रूप से सब कुछ


और करने या होने को शेष


कुछ भी नहीं बचा


#


हम बुद्ध नहीं हैं कि- "सब्बं दुःखं" मान, दुःख के अतल में


गहरा गोता लगा लें


गोता तो हम जरूर लगाएंगे और खोज भी लाएंगे


दीप्ति, थोड़े सुख की ।


#


कोई सिन्दूरी महक पुकार रही है हमें रह-रह कर।


और धन्यवाद की औपचारिकता परे कर मैं सुन सकता हूं- कभी भी


"प्रमोद त्रिवेदी की जय हो।"


या


"आओ प्यारे भाई गले मिलें।"


#


हम निकल पड़ेंगे लम्बी सैर पर और आप भूल जाएंगे


अपनी बीमारी और मैं,


अपनी तमाम शिकायतें।


इसी सैर में मिलेगी हमें पवित्र नदी


और अपनी ओक में ठण्डा और मीठा पानी पी कर


भूल जाएंगे-मौसम के सारे बद्सुलूक


#


"शुक्रिया" की आमद को मैंने फिलहाल मुल्तवी किया


मुझे लगा है


बातचीत की तीसरी किश्त बजा सकती है कभी भी


हमारे दिलों की घंटी।


मैंने अभी-अभी सुना- “आमीन।" क्या आपने कहा ?


3


प्रमोद : अब आपको कैसा दिखाई दे रहा है? पहले आपको एक आंख की रौशनी मिलीतब भी दूसरी आंख का धुंधलका बना रहा जो निरन्तर खलल पैदा करता रहा । उस धूपछाँहीपन में कैसा महसूस किया ? क्या नहीं हो पाने की आप उन दिनों झुंझलाहट महसूस करते रहे?


धनंजय : मेरी बांयी आंख के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन 06 अक्टूबर 2015 को हआ। एक महीने तक पढ़ना-लिखना स्थगित रहा। अक्टबर के अंत में दीपावली के लिए हम लोग भोपाल चले गए। 26 अक्टूबर को वहीं पत्नी को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। 15 नवंबर को वापस उज्जैन आए। 09 दिसंबर को दांयी आंख के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन तय हुआ लेकिन बड़वानी काण्ड की वजह से श्री अरविन्द इन्स्टीट्यूट आफ मेडीकल साइन्सेस के नेत्र-रोग विभाग अध्यक्ष ने आपरेशन स्थगित कर दिया। फिर 08 जनवरी को पत्नी के दांये घुटने की टोटल रिप्लेसमेन्ट सर्जरी तय हो गयी। इस वजह से 06 फरवरी 2016 को ही दांयी आंख का ऑपरेशन हो पाया। इन चार-पांच महीनों तक पढना-लिखना स्थगित रहा आया। आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि मुझे किस मानसिक यातना से गुजरना पड़ा। जिस शख्स को पढ़ने-लिखने के सिवाय कुछ न आता हो, वो उसीसे महरूम कर दिया जाय तो उस पर क्या बीतेगी? रात तो किसी तरह नींद-उनींद में बीत जाती लेकिन दिन....? याद आता रहा गालिब का वो शेर-


काव-ए-काव-ए-सख्त जानी-छा-ए-तनहाई न पूछ


सुब्ह करना शाम का, लाना है जूए-शीर का।


(ऐसी तनहाई कि न पूछो। हालत ऐसी कि जिसमें प्राण तक मुश्किल से निकलने की कैफीयत हो। शाम का सुबह करना ही जैसे दध की नहर काटकर लाना हो। (शीरी-फरहाद की कहानी में फरहाद को पहाड़ से दूध की नहर काट कर लाने का मश्किल काम सौंपा गया था। वो वहीं सर फोडकर मर गया) 'गालिब को शाम का सुबह करना' सख्तजानी लगा था, मुझे 'सुबह को शाम करना'.... कितना अकेलापन कितना सन्नाटा, कितनी वीरानी! जो जन्मजात दृष्टिबाधित है, उनकी तो खुदा खैर करे, जो किसी हादसे की वजह से दृष्टिबाधित हैं, उनकी जेहनी तकलीफ के तसव्वर से ही कांप-कांप जाता था। सारा वक्त सिर्फ अपने अतीत की अनर्गहा में ही भटकते बीतता। अतीत एक अन्तहीन सुरंग की मानिन्द है जो जब भी याद आता हैअजीब बात है कि सुख के, खुशी के पल याद नहीं आते। शायद इसीलिए गालिब ने कहा है:


कैद ए-हयात-ओ-बन्द-ए-गम, अस्ल में दोनों एक हैं


मौत से पहले, आदमी गम से नजात पाये क्यों ?


(जीवन की कारा और दु:ख के बन्धन, दरअसल दोनों एक ही हैं। मौत से पहले आदमी को गम से छुटकारा कैसे मिल सकता है?.....) कुछ नहीं हो पाने से अधिक कुछ न कर पाने की झुंझलाहट सारा वक्त तारी रहती। एक गहरा घनीभूत अवसाद दिल-ओ-दिमाग को अपनी गिरफ्त में लिए रहता। ना उम्मीदी की हद तक पहुंच कर लगा कि कल यदि मैं न भी रहूं तो किसी को भी क्या फर्क पड़ता है? किसको जरूरत है मेरी?


गालिब-ए-खस्तः के बिगैर, कौन से काम बन्द हैं


रोइए जार-जार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों?


प्रमोद : जब आप दूर का भी साफ-साफ देख सकेंगें और पास का भी तब पहली प्राथमिकता में आप क्या देखना और करना चाहेंगे?


धनंजय : दोनों आंखों की ज्योति लौटते ही, जहां तक करने का सवाल है लिखनेपढ़ने के आधे-अधूरे काम पूरे करना ही मेरी पहली प्राथमिकता होगी। और 'देखने' में अब चुनने के लिए है ही क्या? जो औचक सामने आ जायेगा उसे देखकर ही राहत की सांस लूंगा कि बिल-आखिर 'देख' तो सका!


प्रमोद : मुझे लगता है- कुछ न कर पाने या साफ-साफ न देख पाने की स्थिति में आदमी कविता के ज्यादा करीब हो जाता है । क्या आप भी कविता के लिए ऐसी बैचैनी अनुभव करते है ?


धनंजय : नहीं प्रमोद भाई ! कविता की अन्तः सलिला अब कब की सूख चुकी। 'सरस्वती की तरह वह भी जिंदगी के रेगिस्तान में कहीं समा गई। अब तो जीवन, नीरस, उबाऊ, शुष्क गद्य होकर रह गया है-उसमें कविता कहां बची? सुकान्त भट्टाचार्य की....कुछ पंक्तियां गूंजती हैं-


प्रयोजन नेई कबितार स्निग्धता


कविता, तोमाया दिलाम आज के छूटि


क्षुधार राज्ये पृथिवी गद्यमय


पूर्णिमा चांद जन झलसाना रूटि!


प्रमोद : कुछ अधिक साफ दिखाई देना भी चकाचौंध पैदा करता है। इस अतिरिक्त रौशनी में आप अपने को संशोधित या विस्तारित करना चाहेंगे? .


धनंजय : अब उम्र के इस दौर में क्या संशोधन मुमकिन है? बूढ़े तोते कहां पढ़ सकते हैं? बकौल मोमिन- 'अब आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे? और विस्तारित होने की खूब कही आपने! अब वक्त तो समेटने का है। 'सब ठाठ पड़ा रहा जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा'। ऐसे में क्या फैलाना और क्या अबेरना? शकेब जलाली का एक शेर है :


वक्त की डोर खुदा जाने कहां से टूटे


किस घड़ी ये सर पे लटकी हुई तलवार गिरे ।


प्रमोद : यह रौशनी पाकर हो सकता है- आपकी सक्रियता बढ़े। कुछ नया करने का उत्साह पैदा हो। यह उत्साह आपको क्या-


(क) फिर रम्य-रचना के सृजन की ओर उन्मुख करेगा?


(ख) अध्ययनशीलता आपकी आलोचना-भूमि को नया विस्तार देगी?


(ग) इस उम्र में लगे, यह दुनिया तो देख ली। अब उस ओर देखें जो 'अज्ञेय' है और 'अगम्य' भी। चलो, उसे ही तलाशा जाय !


(घ) या लगे साहित्यिक आलोचना तो बहुत हो गयी, राजनीतिक विद्रूप और विसंगतियों पर नजर डाली जाए और सार्थक हस्तक्षेप किया जाए !


धनंजय : सक्रियता और उत्साह, रम्य-रचना और सजन या नया विस्तार-अब ये सारे शब्द अपने लिए पराए हो चुके हैं। सक्रियता यदि कुछ-न-कुछ करते रहने का नाम है तो जैसे सांसें आ-जा रही हैं वैसे ही अन्य अनेक नैमितिक काम भी हो रहे हैं उसी तरह थोड़ा-बहुत लिखने-पढ़ने का काम भी हो जाता है कि इसके अलावा अब करने को कुछ है भी नहीं, कुछ और करने लायक अब नहीं रह गया हूं और उत्साह, जिस जिजीविषा का लक्षण है, वही अब चराग-ए-सहर है :-


मरहले हयात के तय करके सब


अब बैठा हुआ है फिराक मौत में ताखीर देखकर!


तो अब क्या रम्य और क्या लालित्य? क्या रचना और क्या सृजन । जब सब कुछ रफ्ता-रफ्ता निरर्थक शून्य में समाता जा रहा है तब क्या, कैसी और किसकी हसरते -तामीर! हां, जैसी जो बनी वो दुनिया देख ली, अब उस ओर क्या देखना-जहां कुछ है ही नहीं। आपकी ही तो कविता है:


कुछ नहीं में


बस कुछ नहीं ही


नज़र आता है


एक रास्ता है,


जो कुछ नहीं से शुरू होता है


सारे मोड़ और बीहड़ों से होकर


अन्ततः 'कुछ नहीं' पर जाकर


समाप्त होता है।


मुझे भी तो नहीं लगता कि इस दुनिया से अलग या बाद कोई दूसरी दुनिया भी है जिसका 'भरम' हमें सदियों से दिया गया और दिया जा रहा है:


हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन


दिल के खुश रखने को गालिब यह खयाल अच्छा है।


तो दूसरी दुनिया महज एक खयाल ही तो है जो दिल को खुश रखने के लिए लोगों ने, धर्म ने, दर्शन ने परम्परा ने हमें सौंप दिया है। सच तो यह है कि हम मौत से डरते हैं, हम मरना नहीं चाहते, मृत्यु के ध्रुव सत्य को स्वीकार करने का साहस हममें नहीं है इसलिए हमने कल्पना परिकल्पना कर ली, यह अवधारणा विरासत से हमने पाल-पोष ली कि यह शरीर नश्वर है लेकिन 'आत्मा' अजर-अमर है। वह जीर्णशीर्ण वस्त्रों की तरह शरीर को त्याग कर नये वस्त्र-नया शरीर-धारण कर लेती हैफिर एक 'परम-आत्मा' परिकल्पित कर लिया गया जो अजन्मा और अविनाशी हैउस तथाकथित दूसरी दुनिया से लौटकर कौन आया है? किसने उस दुनिया का 'सच' देखा बताया है कि वह कैसी है? मृत्यु के उपरान्त जीवन-लाइफ आफ्टर डेथ-परामनोविज्ञान और पुनर्जन्मवाद के प्रसंग में कितना कुछ लिखा गया है लेकिन वह सब भी तो 'हाइपोथेटीकल' ही है। आदमी मरता है तो मर ही जाता है। शेष कुछ भी नहीं बचता-राख और अस्थियां भी प्रवाहित कर दी जाती हैं या सब कुछ ज़मीन्दोज हो जाता है। और जो 'अज्ञेय' और 'अगम्य' है, यह ज्ञेय' और 'गम्य' हो ही कैसे सकता है? जो ज्ञेय और गम्य हो गया वह अज्ञेय और अगम्य कहां रहावह तो वही है जिसकी हमने कल्पना परिकल्पना कर ली है- वह फिर एक ऐसी अवधारणा मात्र है जो हमें दूसरों से मिली है। वह हमारा अनुभूत सत्य तो नहीं है नइस प्रसंग में मुझे जदू कृष्णमूर्ति के वाक्य याद आ रहे हैं:-


"We none of us know what is God.. We have been told about God by people around us. Our books and religious leaders. Our priests, all have fed us theories that we have believed as truth, and these beliefs have been strengthened and encouraged over time. So God is a belief. And is belief the truth? Obviously not. So where do we go for the truth? Where do we go to discover this entity called God? And how do we recognise this entity.... Can we recognise some thing that is unknown ? If we can recognise it, if we have any ieda of it, if we can describe it, then obviously it is still in the region of the known. Obviously it is some thing we have imagined with our minds. Obviously it is an opinion we have taken from another, from a book or an oral tradition. It is not some thing we have experienced directly. It is a second hand thing and some thing second hand cannot be real."


भारतीय दर्शनिक परम्परा में सबसे अधिक लौकिक और भौतिक, वैज्ञानिक और तार्किक दर्शन जैन और बौद्ध हैं लेकिन उनका भी हश्र क्या हुआ? अनात्मवादी और अनीश्वरवादी, उनके प्रवर्तकों को भी 'ईश्वरत्व' सौंप दिया गया। उन्हें भी 'अवतार' बनाकर 'पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम्' के चक्र में बांध दिया गया। युवा कवि लीलाधर मंडलोई की एक छोटी कविता है:


ईश्वर क्या है?


एक दूकान,


कितने धर्मों से अपना सफल व्यवसाय करता है


ईश्वर का धंधा कभी घाटे में नहीं चलता।


सदियों से यह धंधा लगातार फल-फूल रहा है। हमारे तथाकथित अध्यात्मिक देश तो वह सबसे अधिक लाभप्रद व्यवसाय है और उसके कर्ता-धर्ता सबसे अधिक धनाढ्य और समृद्ध।


जहां तक राजनीतिक विद्रूप और विसंगतियों पर नज़र डालने और सार्थक हस्तक्षेप की बात है तो आलोचना ही नहीं पूरा साहित्य भी तो उसी पर केद्रिन्त होता है। अपने समय से संवाद और प्रतिवाद करता, इस संसार से अपना एक प्रति संसार रचने वाला साहित्य दरअसल अपने समय के विद्रूप और विसंगतियों से ही तो मुठभेड़ और एक सार्थक विकल्प-चेतना है। साहित्य और आलोचना द्वारा किया गया 'हस्तक्षेप' कितना सार्थक होता या हो सकता है, यह समाज की स्थिति, दशा और दिशा पर निर्भर करता है। फिलहाल तो मुझे नहीं लगता कि हमारा समाज, साहित्य से प्रतिकृत हो रहा है या हो सकता है। उसकी प्राथमिकताएं अलग हैं। उसके दबाव और सरोकार साहित्योत्तर ही नहीं, किसी हद तक मानवेतर भी है। राजनीति में भी अब नीति कहां रह गयी है? और 'राज' भी तो अब 'अर्थ' से ही संचालितपरिचालित हो रहा है। इसलिए अब हमें भी इस मोह से मुक्त हो जाना चाहिए कि हमारा-साहित्य-का-हस्तक्षेप किसी भी सिम्त सार्थक या कारगर हो सकता है।


प्रमोद : आपने अपने विद्यार्थी जीवन में “निराला : काव्य और व्यक्तित्व" जैसी पुस्तक लिखी और आप चर्चित हो गए। क्या यही वजह तो नहीं है कि इस पुस्तक ने आपके लेखन की भावी दिशा ही निर्धारित कर दी और कविता से दूरी बढ़ती चली गयी?


धनंजय : इस प्रसंग में मुझे अक्षय कुमार जैन याद आ रहे हैं। उन्होंने लिखा है"उस समय तक महाप्राण निराला पर कोई प्रामाणिक शोध-ग्रंथ नहीं आया था। पहले प्रकाशन के बाद ही यह स्तरीय आलोचक मान लिए गए। ख्याति बड़ी चिपकू वस्तु होती है। आलोचक होने की ख्याति जो चिपकी तो फिर सम्पादकों, लेखकों,कवियों आदि का आग्रह न टाल सके। धनंजय आलोचना लिखते रहे।"आपने भी तो सही वजह पर ऊंगली रख दी है।


प्रमोद : आलोचक होने का मूल्य आपको भी चुकाना पड़ा और कैसा? आप स्वयं धनंजय हैं। रथी और धनुर्धर । आपने हनहन कर बाण चलाए और समर जीते। आप बतलाएँ क्या आप भी मोहग्रस्त हुए? इस युद्ध की निरर्थकता का एहसास या पश्चाताप आपको कभी हुआ? यदि ऐसा हुआ तो आपने इस भावुकता से उबरकर फिर कैसे दूने उत्साह से चुनौतियों को स्वीकार किया और चुनौती बने?


धनंजय : हां, आलोचक होने का मूल्य मुझे भी चुकाना पड़ा है और खूब चुकाया हैइसका जिक्र शायद मैं पहले भी किसी प्रसंग कर चुका हूं। वाक्या शायद 1957-58 का है। श्री अशोक वाजपेयी तब शायद बी.ए. कर रहे थे। उनके पिता डिप्टी रजिस्ट्रार थे, सो विश्वविद्यालय के प्रशासन तंत्र में उनका दबदबा था। आयोजन की प्रतिभा उनमें संभवतः जन्म जात है। वे 'रचना : फोरम ऑफ क्रियेटिव लिटरेचर' के प्राव्हीजनल सेक्रेटरी थे। प्रेमचन्द जयन्ती के अवसर पर एक संगोष्ठी में उन्होंने मुझसे 'गोदान' पर एक पेपर लिखने का आग्रह किया। प्रेमचंद पर पंडित जी-याने गुरूवर आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी-का लिखा हुआ मैं पढ़ चुका था। मैंने अपने तई पूरी विनम्रता से कुछ मुद्दों पर उनसे असहमति व्यक्त करते हुए एक लेख लिखा। मैंने सोचा कि पंडित जी ने अपनी पुस्तकों में अपने गुरू आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से अपनी असहमति पूरी निर्भीक स्पष्टता से व्यक्त की है तो वो अपने विद्यार्थी की असहमति की भी कद्र करेंगे! लेकिन यह तो बाद में पता चला कि वह न केवल मेरी भूल थी बल्कि खासी बड़ी मूर्खता भी थी। अब असहमति का मतलब हर क्षेत्र में लगभग हमेशा ही विरोध मान समझ लिया जाता है। कोढ़ में खाज उस गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे प्रोफेसर राजनाथ पांडेय जो विश्वविद्यालयीन राजनीति में पंडित जी के धुर विरोधी गुट के थे। उन्होंने मेरे पर्चे की न केवल जमकर तारीफ की बल्कि दो-चार रद्दे पंडित जी पर भी कस दिए। पूरा प्रसंग नमक-मिर्च मिलाकर पंडित जी तक पहुंचाया गया। दूसरे दिन विभाग में उन्होंने मेरे प्रणाम तक को अस्वीकार-सा कर दिया। मुझे देखते ही वो चुप । चेहरे पर तनाव-तमतमाहट। मुझे तो अपने पैरों तले की जमीन खिसकती हई महसूस हई। किस्सा-कोताह, कामर्स के प्रोफेसर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद राय की कृपा से पंडित जी की खफगी दर हई। दसरा वाक्या-मित्र प्रवर डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य ने 1961 में 'कालिदास' का संपादनप्रकाशन किया था। उनके आग्रह पर मैंने एक लेख लिखा था- "साहित्य का अध्ययन अध्यापन और पनवाड़ी क्लास की संस्कृति"। देश में हिन्दी विभागों के मठों में तब्दील होने जाने और उनके अध्यक्षों की सनकों पर विद्यार्थियों के बनते बिगडते भविष्य के साथ ही आम पाठकों की सस्ती रुचि पर एक तीखी-तर्श दिप्पणी वाले उस लेख को लेकर सागर के कुछ खैरख्वाह, दोस्तों ने पंडित जी को समझाया कि वह उन पर सीधा हमला है। संयोग से कुछ ही अर्सा बाद ग्वालियर में मध्य भारत हिन्दी साहित्य सभा के एक सम्मेलन में पंडित जी से मुलाकात हो गयी। दोस्त कामयाब हो चुके थे। पंडित जी की नाराजी साफ-साफ नुमायां थी।.... मैंने 'कालिदास' के उस अंक की प्रति- मूल लेख पढ़ने के लिए पंडित जी को दी और शुकर खुदा का, मैंने उन्हें मना लिया। वह लेख 'रचनाकार, पाठक और समीक्षक : पारस्परिक अविश्वास' शीर्षक से अब मेरी, पुस्तक 'आस्वाद के धरातल' में उपलब्ध है। ....मठाधीशों की जिन-सनकों का मैंने उसमें जिक्र किया था उसका शिकार स्वयं मैं भी हुआ। 1962-63 में मोहन राकेश ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मेरी नियुक्ति के लिए अपने परिचित मित्र वाइसचांसलर से बात करके मेरा बायोडेटा मंगवा लिया। लेकिन तत्कालीन विभागाध्यक्ष (डॉ. नगेन्द्र) अड़ गए। उन्होंने अपने ही विद्यार्थी को उपकृत किया और इस तरह अपन दिल्लीवासी (बतर्ज स्वर्गवासी) होने से बच गए।


एक वाक्या 1960 का भी सुन लीजिए। मैं छत्तीसगढ़ कालेज, रायपुर से इस्तीफा देकर शासकीय महाविद्यालय, जगदलपुर में पदस्थ हो गया था। रायपुर से रीडाइरेक्ट होकर श्री हरिशंकर परसाई के पत्र के साथ 'वसुधा' का एक अंक मिला। उसमें शरद जोशी का निर्मल वर्मा की कहानियों पर एक लेख था। वह 'कृति' में प्रकाशित डॉ नामवरसिंह के लेख 'कालातीत कला दृष्टि' का लगभग जवाब था। निर्मल वर्मा के 'परिन्दे' की कहानियों पर डॉ. नामवर सिंह, का फतवा था (है): “कहानियां फकत सात हैं। संग्रह अभी पहला है लेकिन जिसे हम 'नयी कहानी' कहना चाहते हैं. संभवत: उसका भी पहला संग्रह यही है।"और शरद जोशी का एक जुमला तो आज भी याद है-“लक्ष्मी नारायण लाल भाभी को भऊजी' कहकर आंचलिक होते हैं तो निर्मल वर्मा भी 'बारामदे' को 'कॉरीडॉर' कहकर आंचलिक ही होते हैं। "..... बहरहाल ।


परसाई जी का आग्रह था कि "दोनों विपरीत दृष्टियां हैं। मैं चाहता हूं कि इन कहानियों पर विस्तार से चर्चा हो जाए। आप इन लेखों को पढ़कर एक टिप्पणी आगामी डाक से लिख भेजें।" उस दूरदराज जगदलपुर में, दिल्ली की साहित्यिक राजनीति से बेखबर, मैंने एक लेख लिखाः 'नयी कहानी की समीक्षाः आहत आक्रोश और आक्रान्त भविष्य दृष्टा"। परसाई जी ने लेख की प्रशंसा की और लिखा "इस पर कान्ट्रोवर्सी' चलेगी"। कान्ट्रोवर्सी के विस्तार में न जाऊं, दो प्रतिक्रियाएं काबले-ज़िक्र ज़रूर हैं- शरद जोशी मुझसे जो खफा हुए तो उन्होंने लगभग अपनी अंतिम सांस तक दुश्मनी निभाई और नामवरसिंइ तो आज तक न केवल नाराज हैं बल्कि उसके इज्हार का कोई मौका नहीं चूकते।


डॉ. नामवर सिंह का प्रसंग आ ही गया है तो एक घटना फिर भूले नहीं भूलती।इलाहाबाद की कहानी (पत्रिका)छोड़कर भैरव प्रसाद गुप्त दिल्ली से प्रकाशित 'नई कहानियां' के संपादक हो गए थे। 'नयी कहानी' की चर्चा का केन्द्र 'कहानी' से हट-उठकर 'नई कहानियां' हो गयी थी। उसके मार्च 1962 अंक में एक परिसंवाद आयोजित हुआ। विषय-प्रवर्तन किया-डॉ. नामवरसिंह ने। अपने लेख : 'कहानी : अच्छी और नयी' से। भैरव प्रसाद गुप्त ने मेरी एक कहानी की स्वीकृति के साथ लिखा ( अपने 30 मई 1962 के पत्र में) “परिसंवाद में भी आप अवश्य कुछ लिखिए।" डॉ. नामवर सिंह ने कहानी की पाठ प्रक्रिया के नये प्रतिमान निर्धारित करते हुए निर्गुण की 'एक शिल्पहीन कहानी' और उषा प्रियंवदा की कहानी 'वापसी' की जो और जैसी तुलनात्मक व्याख्या की थी उससे उन्होंने 'वापसी' को तो अच्छी और नयी कहानी सिद्ध किया था और निर्गुण की कहानी खारिज कर दी गयी थी। मैंने लेख लिखा : 'कहानी : अच्छी और नयी : पाठप्रक्रिया के दुहरे मानदण्ड' उसमें मैंने दोनों कहानियों की जो और जैसी व्याख्या पेश की उससे डॉ. नामवरसिंह के निष्कर्ष उलट गए। मेरा बुनियादी तर्क यही था (आज भी है) कि 'व्याख्याओं का क्या है? वे कहीं भी ले जा सकती हैं या कहीं भी नहीं ले जा सकतीं। जरूरत दरअसल पहले संलग्न और फिर निर्लिप्त भाव से रचना की सहयात्रा की है न कि अभीष्ट निष्कर्ष के लिए उनकी मनमानी व्याख्या की।'..... भैरव प्रसाद गुप्त ने मेरा लेख लौटाते हुए लिखा: “आपका लेख मैंने दो बार पढ़ा। हमारे परिसंवाद के 'स्पीरिट' से इसका मेल नहीं खाता। आपकी तर्क प्रणाली चाहे जैसी हो, उससे मुझे शीतयुद्ध की गंध आती है। आपने केवल नामवर सिंह के विरोध में अपनी सारी बुद्धि खर्च की है।".... वह लेख फिर मणि मधुकर ने 'अकथ' में छापा। 'वसुधा' में छपे उस लेख के साथ वह अब मेरी पुस्तक 'हिन्दी कहानी का रचनाशास्त्र' में उपलब्ध है।


फिर भैरव प्रसाद गुप्त की जगह कमलेश्वर 'नई कहानियां' के सम्पादक हो गए। उन्होंने उसका 'प्रेमकथा विशेषांक' निकाला। उसमें बहस तलब एक लेख थाश्रीकांत वर्मा का : प्रेम का बदलता स्वरूप।' कमलेश्वर ने मुझसे भी लिखने का आग्रह किया। मैने एक टिप्पणी लिखी: 'आरोपित पीड़ाः ओढ़ा हुआ दर्शन' । बकौल कमलेश्वर “टिप्पणी बहुत सख्त है पर कहने का हक सभी को है और मैं तुम्हारी उस टिप्पणी को 'इन्सपायर्ड राइटिंग' के रूप में स्वीकार करके दे रहा हूं- क्योंकि इसमें तल्ख ईमानदारी है।" वह छपे, इसके पहले श्रीकांत वर्मा की तत्काल प्रतिक्रिया का जिक्र कमलेश्वर ने अपनी पहली रू-ब-रू मुलाकात में किया थाजिस दिन वह टिप्पणी कमलेश्वर को मिली और वो उसे पढ़कर उठे ही थे कि संयोगवश 'नई कहानियां' के केबिन में श्रीकांत वर्मा का प्रवेश हुआ। इसी बीच कमलेश्वर को राजकमल प्रकाशन की संचालिका श्रीमती शीला संधू ने बुला भेजा।कमलेश्वर ने मेरी टिप्पणी श्रीकांत को पढ़ने के लिए दी। लौटे तो श्रीकांत के चेहरे पर अप्रसन्नता और तनाव था। उन्होंने पछा- "आप इसे छाप रहे हैं?"कमलेश्वर ने कहा- "बेशक, आमंत्रित प्रतिक्रिया है तो छापना तो पड़ेगा ही!" और श्रीकांत वर्मा उठ कर चल दिए।......


उस टिप्पणी से श्रीकांत वर्मा कितने नाराज हुए, इसका पता मुझे 1965 के कलकत्ता कथा समारोह में चला। 'नयी कहानी की उपलब्धियां' वाले सत्र में मेरे प्रस्तावना आलेख पर पहले वक्ता श्रीकांत वर्मा ने मुझ पर जो व्यक्तिगत हमला किया, वह मुझे आज भी याद है। और जब वो राजनीतिक रूप से शक्ति संपन्न और प्रभावशाली हो गए तब बिलासपुर ओर रायपुर के अपने कृपा-पात्र सदस्यों के जरिए उन्होंने मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग में प्रोफेसर्स की सीधी भर्ती में मेरा चयन नहीं होने दिया। संस्कृति विभाग में अपनी प्रतिनियुक्ति के दौरान जब श्रीकांत वर्मा पहला शिखर सम्मान लेने राजकीय अतिथि होकर भोपाल आए तब उनकेऔर संस्कृति सचिव के व्यवहार से मुझे कितना जलील होना पड़ा, मैं ही जानता हूं।


एक दिलचस्प प्रसंग सुनिए। बात नवम्बर 1963 की है। राजेन्द्र यादव के एक लम्बे पत्र का यह हिस्सा सनिए : "मेरे ऊपर शायद आपका ही लेख पहला है और वह भी इतना सुचिंतित और तीव्र अन्तदृष्टि के साथ लिखा गया है कि आगे जो भी लिखेगा, आपकी स्थापनाओं के आसपास ही घूमेगा।" जाहिर है मेरे लेख पर यह उनकी अभिभूत प्रतिक्रिया है। और फिर दिसम्बर 1976 की उनकी एक चिट्ठी का यह हिस्सा : “इधर कुछ लेखों के सिवा अभी तक तुमने कथा-समीक्षा की दिशा में कोई गम्भीर काम नहीं किया है और मुझे भय है कि बाद वाली पीढ़ियां, इन चुटकुलेबाजियों के लिए तुम्हें याद भी रखेंगी या नहीं।..... अब तुम अपने चौथेपन में आ गए हो, इसलिए ऐसा कोई गंभीर काम जल्दी से जल्दी कर डालो। सैद्धान्तिक किताब के लिए जिस प्रकार के पूर्वाभ्यास की जरूरत है उसका एक अवसर मेरे सामने है।... इधर नेशनल पब्लिशिंग हाउस वाले मलिक साहब भी उत्साहित होकर कुछ पुस्तकें फिदवी पर तैयार कराना चाहते हैं।... क्या अपने आपको एक डेढ़ महीना साधकर तुम एक गैर अध्यापकीय अध्ययन करना चाहोगे? वे पुस्तक को जल्दी-से-जल्दी देना चाहते हैं। यानी अगर महीने भर में मिल जाय तो वे पन्द्रह दिन में छाप देंगे।....अगर हिम्मत, गुर्दा, स्वयं और समय पर विश्वास हो तो इस विषय में शीघ्रातिशीघ्र उत्तर दो। पुस्तक तो यह लिखी ही जानी है। 'मुझे खबर न हुई' की शिकायत का अवसर न मिले इसलिए यह पत्र लिख रहा हूं। आगे जैसी तुम्हारी मर्जी।"


जिस हल्के-फुल्के अन्दाज में यह खत लिखा गया, उसी में मैंने भी उत्तर दियाउसके भी कुछ हिस्से आपकी नजर हैं: “मेरी (या आलोचक की) नियति और भविष्य से चिन्तित हे कथाकार बन्धु मैं वाकई आपके प्रति कृतज्ञ हूं। कोई तो है जो मुझसे इतनी संबद्धता महसूस करता हैं। शुक्र गुजार हूं। एक डेढ़ महीने में तो मैं एक लम्बा लेख तक नहीं लिख पाता, आप एक पुस्तक चाहते हैं सो भी अपनी तरह के विविध आयामी लेखक पर।..... अब आपके सुझााव पर मैं जरूर कोशिश करूंगा कि कथा-समीक्षा की दिशा में कोई ऐसा गम्भीर काम करूं ताकि आने वाली पीढ़ियां मुझे याद कर सकें। इसी मकसद से मैं सोच रहा हूं कि मन्नू भंडारी के कथा-सहित्य पर एक बढ़िया-सी रचनात्मक आलोचना की किताब लिखू। आपकी क्या राय है।"...


इस पर लगभग तुरन्त ही राजेन्द्र यादव का जो ख़त आया उससे तो मैं भौंचक"महामहिम वर्मा जी। सादर प्रणाम! आपका अत्यंत ऊंचाई से भरा नीच पत्र मिलाइससे सिद्ध होता है कि बेचारा आलोचक किन कुंठाओं का शिकार है।.... हर साहित्य में इस प्रकार के आलोचक रहे हैं जिनसे बिना सर्टिर्फिकेट पाये कभी कोई लेखक, लेखन के क्षेत्र में जम ही नहीं पाया...... वह महज एक सुझाव था उस व्यक्ति के लिए जिसे मैं समझदार मानता हूं। बाकी किसी के लिखने से या न लिखने ही लेखकों के व्यक्तित्व बनते और बिगड़ते होते तो मेरा ख्याल है कि दुनिया का कोई लेखक कभी जीवित ही न रहता।"...


और आपको हैरत होगी, प्रमोद भाई कि उसके बाद से न केवल हमारे बीच खतो किताबत बन्द हो गयी बल्कि 1961 से बने सारे रिश्ते ही खत्म हो गये। हद तो यह हुई कि मई 2004 के 'हंस' में 'औरों के बहाने' स्तम्भ के अन्तर्गत 'समकालीन सृजन संदर्भ' शीर्षक पूरे एक पृष्ठ की, मुझ पर व्यक्तिगत हमला करती, एक टिप्पणी प्रकाशित हुई जिसमें कुछ ऐसी बातों का भी जिक्र था जिन्हें सिर्फ हम दोनों जानते थे। वह टिप्पणी लेखक को कैसे मालूम हुई? जाहिर है वह टिप्पणी राजेन्द्र यादव द्वारा ‘मोटीवेटेड' थी। एक शेर याद आता है:


“करते किस मुंह से हो गुर्बत की शिकायत गालिब


तुमको बेमेहरि-ए-याराना-ए-वतन याद नहीं।"


(तुम अपनी बेवतनी की शिकायत किस मुंह से करते हो। तुम्हें अपने देशवासी मित्रों की वेवफाई क्या याद नहीं है?)


याद आती है अपने उन दो अजीज दोस्तों की जिन पे कभी फख था। और कौंध गया है शरद जोशी का वह फिकरा भी जो उसने मुझपे चस्पां किया था-"धनंजय तो शानी के प्राइवेट आलोचक है। कुछ दिनों के लिए डेप्यूटेशन पर वो दुष्यन्त के आलोचक भी हो गये थे।" बाद में यही फिकरा हरिशंकर परसाई ने मुझ पर राजेन्द्र यादव के सदर्भ में चिपकाया था। तो पहले दुष्यन्त । मैंने उसके काव्य-संग्रह- 'आवाजों के घेरे', काव्य-नाटक-एक कंठ विषपायी', उपन्यास 'छोटे-छोटे सवाल' पर पहलेपहल लिखा। लेकिन कमलेश्वर के आग्रह पर, दुष्यन्त के दूसरे उपन्यास 'आंगन में एक वृक्ष' की 'सारिका' में समीक्षा लिखी तो वह खफा हो गया। उसकी यह खफगी तब और बढ़ गयी जब मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् के उपन्यासों पर पुरस्कार के एक निर्णायक की हैसियत से उस उपन्यास की जगह मैंने प्रकाश दीक्षित के उपन्यास को वरीयता दी। बात ख़फगी तक ही महदूद रहती तब भी गनीमत थी। हद तो पार तब हो गयी जब एक प्रसंग में वह सरासर मेरे विरोधी की भूमिका में आ गया। विदिशा के जैन महाविद्यालय के प्राचार्य श्री पी.सी.सेठी ने मुझे प्रतिनियुक्ति पर हिन्दी के प्रोफेसर का आमंत्रण भेजा। मध्य प्रदेश शासन के शिक्षा विभाग द्वारा जब मुझे इसकी अनुमति ओर कार्यमुक्ति के आदेश मिले तब डॉ. विजय बहादुर सिंह ने न्यासी मंडल को प्रभावित कर वह प्रस्ताव ही निरस्त करवा दिया। मैं अधर में। श्री अशोक बाजपेयी की कोशिश से मेरे भोपाल तबादले का अनुमोदन हो गया लेकिन दुष्यन्त ने राजभवन के अपने सम्पर्कों से अपने छोटे भाई प्रेमनारायण त्यागी (जो मेरा विद्यार्थी था) के लिए मेरे तबादले के आदेश रूकवा दिए। अन्ततः मैं भोपाल आ तो गया लेकिन इस पूरे प्रसंग ने मुझे दुखी और उदास कर दिया।


और वो शानी! जिससे साहित्य से अधिक मेरे आत्मीय-पारिवारिक रिश्ते थे। उसकी लगभग हर किताब पर पहले-पहल मैंने ही लिखा लेकिन फिर कमलेश्वर के आग्रह पर उसके एक कहानी-संग्रह- 'एक से मकानों का नगर'- की सारिका में समीक्षा लिखी तो वो भी नाराज हो गया। इसका पता मुझे सत्येन के पत्र से चलासत्येन के पत्र में उठाए गए मुद्दों (जो जाहिर है शानी के ही एतराजात थे) पर अपनी सफाई देते हुए मैंने अंतिम वाक्य लिखा थाः “यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है दोस्त, कि एक दोस्त के लिए दूसरे को सफाई देनी पड़ रही है।" सचमुच क्या यह तकलीफ की वजह नहीं है। प्रसंगवश एक वाक्या और याद आ गया। 'लहर' (अजमेर) में दुष्यन्त की पहल पर हम लोगों ने 'नयी कहानी की उपलब्धियां' लेखमाला शुरू की। तय हुआ कि कहानीकार के व्यक्तित्व पर दुष्यंत लिखेगा और उसकी रचनात्मकता की पड़ताल मैं करूंगा। पहला कहानीकार तय हुआ-राजेन्द्र यादव। मेरे लेख पर राजेन्द्र यादव की गदगद, अभिभूत प्रतिक्रिया 'ए फोर आकार के तीन टाइप्ड पृष्ठों में भाई जिसका जिसका एक छोटा-सा हिस्सा मैं पहले उद्धृत कर चुका हूं। दूसरा कहानीकार तय हुआ-रमेश बक्षी। उस पर लिखे मेरे लेख से रमेश बक्षी तो नहीं उनके मित्र 'लहर' के संपादक श्री प्रकाश जैन भड़क गए। उनका जो पत्र आया उसके जवाब में दुष्यंत ने जो पत्र प्रकाश जैन को लिखा उसकी प्रति उसने मुझे भी दी। उसने लिख था : "12 अप्रैल 1964.. कल धनंजय के पास तुम्हारा पत्र देखकर न सिर्फ कोफ्त हुई बल्कि तुम्हारी अभद्रता पर भी क्षोभ हुआ।... रमेश को उसने लेख सुनाकर ही भेजा था। हम तीनों ने उस पर चर्चा की थी। यह मानता हूं और मैने उस समय भी कहा था कि लेख थोड़ा सख्त और ज्यादा ईमानदार है। इसमें थोड़ी बेईमानी होनी चाहिए थी-दोस्ती के नाते । मगर मुझे यह भी लगा था कि अपने किसी दोस्त पर इतनी निस्संगता से लिखना खद में एक बड़ी बात है।" याने दष्यंत और शानी के (क्रमशः) उपन्यास और कहानी संग्रह पर मेरी समीक्षाओं में भी 'थोडी बेईमानी होनी चाहिए थी दोस्ती के नाते।' दुष्यन्त और शानी ने भी यह क्यों नहीं सोचा कि जिस व्यक्ति ने उनकी लगभग सारी किताबों पर इतनी बार और इतना लिखा है-यदि वह उनकी किसी किताब पर उनके अनुकूल नहीं लिख पाया तो खुदा के वास्ते ग़लत तो न समझा जाये। उसमें कोई 'मोटिव्ह' तो न तलाशा जायउसकी नीयत पर तो शक न किया जाय। इसी शदीद तकलीफ में मैंने लिखा था : “आलोचना चाहते सब है, पसंद कोई नहीं करता। यदि वह अनुकूल है तो कहा जाता है कि यह तो रचनाकार का हक है और यदि वह जरा भी अनुकूल न हुई तो वह निहायत नासमझ और दुर्भावनापूर्ण करार दी जाती है।" इस प्रसंग में विष्णु खरे ने कितनी खरी बात कही है।- "जब तक आलोचना रचना के विरुद्ध न जाती होतब तक तो वह सहज क्या, सुखद, प्रीतिकर समझदार वयस्क और प्रौढ़ हो जाती हैजैसे ही उसने रचना को जरा पैने ढंग से देखना शुरू किया, रचनाकार सहज संबंधों से दूर जाने की दुहाई देने लगता है। यानी जो काम व्यापारी आपके साथ करता हैयदि वह मिलावटी माल बेच रहा है और दाम भी ज्यादा लगा रहा है और आप चुप हैं तो वह कहता है-अहा हा; कितना शरीफ ग्राहक है और यदि आप उसे ठोंकतेबजाते हैं-परखते हैं, तो वह कहता है-साहब, आपको लेना है तो लीजिए और फिर कहता है-कहां के टुटपूंजियों से पाला पड़ा है।"


ऐसा नहीं है कि इन या ऐसी ही अन्य अनेक प्रतिक्रयाओं का मुझ पर कोई असर न हुआ हो। आखिर “दिल ही तो है, न संग-ओ-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों?" गालिब के शेर का यह मिसरा कितना मौजूं है लेकिन इसका दूसरा मिसरा-"रोयेंगे हम हजार बार, कोई हमें सताये क्यों" मेरे सन्दर्भ में सही नहीं है । रोया तो मैं नहीं, गुस्सा भी नहीं आया बस दुखी हो गया-खासकर अपने अजीज दोस्तों के व्यवहार से। सताए जाने का भी कोई गिला नहीं। मेरे मेन्टर नरोन्हा साहब कहा करते थे-"यू हैव टू पे फार एव्हरीथिंग इन लाइफ"-सो आलोचक होने का मूल्य भी चुकाया और खूब चुकाया। जो बोया था-सो काटा, उसका मलाल नहीं। शुरू करूं तो नयी कहानी की समीक्षा 'आहत आक्रोश और आक्रान्त भविष्य-द्रष्टा' में मैंने शरद जोशी और नामवर सिंह के विचारों का ही तो विरोध किया था, ठीक वैसे ही जैसे 'कहानी: अच्छी और नयी' की व्याख्या और प्रस्थान से अपनी असहमति दर्ज की थी! तो क्या यह मेरा इतना बड़ा 'अपराध' था कि जिसकी सजा मैं अपने साहित्यिक जीवन के लगभग अंत तक भुगतता रहा। भैरव प्रसाद गुप्त ने आमंत्रित टिप्पणी लौटा दी, ठीक है, यह उनका सम्पादकीय विशेष-अधिकार है लेकिन फिर नामवर सिंह के चेले - चपाटी मेरे पीछे क्यों पड़ गये? मुझ पर गैर साहित्यिक हमले किए गए। मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के पहले ही अधिवेशन (सतना) में मैनेजर पाण्डेय ने मुझ पर व्यक्तिगत हमला किया। चुस्त ये चुस्त फिकरों में मुझे 'रिडीक्यूल' किया। इसी संदर्भ में बन्धुवर डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के एक ख़त की याद आ गयी। उन्होंने 10 दिसम्बर 1986 के अपने पत्र में लिखा था- "मध्य प्रदेशीय प्रगतिशील नेता, केन्द्रीय प्रभावशील 'काकस' के अनुगामी हैं।" सच तो यह है कि यह किसी एक प्रदेश का नजारा नहीं था लगभग हर प्रदेश के प्रलेस में केन्द्रीय 'काकस' के ही 'अनुचर' सक्रिय थे। निष्ठावान मार्क्सवादी और संगठन से अधिक विचारधारा से प्रतिबद्ध लेखक लगातार हाशिए पर धकेले जाते रहे। जिसने भी उस केन्द्रीय काकस के सरगना नामवरसिंह से अपनी असहमति व्यक्त की उसे ही 'विरोधी' और 'दुश्मन' करार देकर घेरा गया, उसका हाका किया गया और मजबूरन उसे प्रलेस ही नहीं पार्टी भी छोड़नी पड़ी। मैंने भी यही किया। मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ का बिलासपुर अधिवेशन आज भी यादों में ताजा है। उसके तत्कालीन अध्यक्ष हरिशंकर परसाई कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. कमला प्रसाद (पाण्डेय), भगवत रावत और राजेन्द्र शर्मा ने मुझे अध्यक्षता के लिए घेरा और फ्रैक्शन मीटिंग में जब मेरे नाम का प्रस्ताव किया गया तो तत्कालीन महासचिव श्री ज्ञानरंजन के गुट ने न केवल उसका विरोध किया बल्कि उसे निरस्त भी करवा दिया। परसाई तो वहां थे नहीं। प्रस्तावक डॉ. कमला प्रसाद को सांप सूंघ गया। भगवत रावत और राजेन्द्र शर्मा के होंठ सिल गए। बिलासपुर के ही एक कामरेड ने मुझे बताया कि केन्द्रीय नेतृत्व नहीं चाहता था कि आप अध्यक्ष बनें। खुद विश्वम्भरनाथ उपाध्यक्ष का भी तो राजस्थान प्रलेस से मोहभंग हो गया था। उनके शब्द है-"क्षुब्ध होकर हम जैसों ने प्रलेस से किनाराकशी कर ली।" हमारी तो कहे कौन डॉ. शिवदान सिंह चौहान तक ने लिखा है- “यह जरूर है कि मन में आखिरी काम निपटाने की जल्दी सी मच गयी है क्योंकि बत्तीस साल पहले जब नामवर सिंह ने एक षड़यंत्र रचकर 'आलोचना' बिना नोटिस दिए, शीलाजी के जरिए छीन लिया था, उस समय उनकी कृतघ्नता से खिन्न होकर मैंने हिन्दी प्रकाशकों से कोई संबंध न रखने का निश्चय कर लिया था। .....नतीजा यह हुआ कि नामवर सिंह की कयादत में एक माफिया साहित्य जगत में आपरेट करने लगा। जिसने सभी पुराने लेखकों और प्रगतिशीलों को हाशिए पर कर दिया। (01 मई 1990 को विष्णु प्रभाकर के नाम लिख पत्र : 'साक्षात्कार' जुलाई 2001 में उद्धृत )


और श्रीकांतवर्मा के 'प्रेम दर्शन' की छद्म दार्शनिकता का ही तो उद्घाटन मैंने किया था। 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' अपने यहां तो शास्त्रार्थ की भी कितनी समृद्ध परम्परा रही है। मंडन मिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ में निर्णायक बनी थीं उनकी पत्नी भारतीतो वैचारिक असहमति के प्रति ऐसी असहिष्णता हमारे यहां क्यों, कब और कैसे आ गयी? असहमति को विरोध और विरोध को दुश्मनी क्यों समझ लिया गया। भारतीय इतिहास के मध्यकाल में जहां कबीर हर प्रकार की कट्टरता के विरोध में लकुटिया लेकर सरे बाजार खड़े हो सके थे वहीं तुलसीदास भी 'दादुर धुनिचहूं ओर सुहाईवेद पढहिं जन बट समुदायी' कह सके थे तो फिर आधुनिकता और विकास की ओर बढ़ते हमारे समाज, राज्य और बुद्धिजीवी वर्ग में भी भिन्न विचार और मत के प्रति यह असहिष्णुता उत्तरोत्तर क्यों बढ़ती जा रही है। हमारा दावा है कि हमारा लोकतंत्र लगातार समृद्ध होता जा रहा है। लोकतंत्र सिर्फ एक शासन-प्रणाली नहीं है। वह एक जीवन दृष्टि और जीवन शैली भी है। बुनियादी रूप से वह एक मानसिकता है और मुझे लगता है कि हमारा भारतीय मानस अपने मूल में ही लोकतंत्रिक नहीं है। जो समाज और राज्य आलोचना विरोधी होता जा रहा हो, जिसमें असहमति की गुंजाइश लगातार खत्म होती जा रही हो उसमें फासिस्टवादी तानाशाही की पदचाप आसानी से सुनी जा सकती है। क्या आपको नहीं लगता कि धार्मिक और राजनैतिक, साम्प्रदायिक और वैचारिक कट्टरता हमारे देश और समाज में ही नहीं, वैश्विक स्तर पर भी लगातार बढ़ रही है।


आपने मेरे नाम से महाभारत का जो रूपक रचा है, वह सांगोपांग तो नहीं हो सकता। वैसे इस जर्रानवाजी का शुक्रिया। साहित्यिक या बौद्धिक वाद-विवाद-संवाद को मैं युद्ध के रूपक तो क्या सादृश्य से भी समझने-समझाने का कायल नहीं हूं। हां राजनीति ही नहीं साहित्य के तथाकथित 'जनतंत्र' से भी अब मोह भंग हो चुका हैयुद्ध की निरर्थकता का एहसास तो पहले से ही था, बौद्धिक विचार-विमर्श, बहसविवाद, संवाद-परिसंवाद इत्यादि की निरर्थकता भी लगातार उजागर होती जा रही है। व्यक्तिगत हमलों (जिनमें से कुछ आप पढ़ भी चुके हैं) का भी जबाव मैं नहीं देता क्योंकि वे गैर साहित्यिक, द्वेष और दुर्भावना पूर्ण थे। राह चलते हाथी पर यदि गली के कुत्ते भौंकते हैं तो क्या हाथी को भी उन्हीं की जबान में जवाब देना चाहिए?


प्रमोद : बतलाएं, आलोचना के लिए सबसे अनुकूल स्थिति वह होती है जब साहित्य पतन की ओर या ढलान पर होता है या वह अपनी रचनाशीलता के शिखर पर होता है?


धनंजय : मुझे याद आता है जनवरी 2011 के 'समावर्तन' में आपने ही लिखा है"जिस दौर में रचना का स्तर ऊंचा होगा, आलोचना का कद भी ऊंचा हो जायेगा पर जब भी रचना में गिरावट आएगी आलोचना का फर्ज हो जाएगा कि वह पूर्वग्रहों से मुक्त होकर सारी वजहों की पड़ताल करे।" मैं आपकी इस बात से शत-प्रतिशत सहमत हूं। याद करें- हिन्दी आलोचना में आज भी जिसका कद सबसे ऊंचा है वो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इतने बड़े आलोचक इसलिए भी हो सके कि उनके सामने हिन्दी ही नहीं, भारतीय साहित्य के सबसे बड़े रचनाकार-तुलसीदास-का समूचा रचना-संसार अपनी सम्पूर्ण भव्यता और गरिमा के साथ मौजूद था। एक दिलचस्प प्रसंग सुन लीजिए। 1962 या 63 का साल था। मैं अपने दोस्त शानी के साथ दिल्ली की यात्रा पर था। शानी के आग्रह पर आगरा रुक कर राजेन्द्र यादव से मिलने का कार्यक्रम बना। राजा की मंडी का चक्कर लगाते-लगाते अस्थाना साहब से पता चला कि राजेन्द्र यादव तो डॉ. रामविलास शर्मा के घर पर है। हम लोग वहीं चले गएनिराला के काव्य पर अपने एम.ए. के लघुशोध प्रबन्ध लिखने के दौरान गुरूवर आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निर्देशानुसार डॉ. शर्मा से पत्र-व्यवहार हो चुका था और मैं अपनी पुस्तक : निराला : काव्य और व्यक्तित्व उन्हें भेंट स्वरूप भिजवा चुका था । परिचय के दौरान रामविलास जी ने कहा- “आपने ही निरालाः काव्य और व्यक्तिगत लिखी है? कद-काठी से तो खासे दुबले-पतले और संक्षिप्त-से लगते हैं।".... मैंने भरसक विनम्रता से कहा- “ऐसा है डाक्टर साहब आपके सामने निराला सरीखा विराट और महान रचनाकार रहा है और मेरे सामने हैं राजेन्द्र यादव और शानी।" डॉ. शर्मा दिलखोल कर हंसे।... तो प्रमोद भाई, आलोचना की जरूरतभूमिका और अहमियत तब भी होती है जब साहित्य पतन की ओर या ढलान पर होता है और जब रचनाशीलता अपने शिखर पर होती है तब तो उसके लिए सबसे अनुकूल स्थिति होती है।


प्रमोद : बन्धुवर ! आपने कविताएं लिखी ही नहीं, अब तो आपका पूरा काव्य-संकलननीम की टहनी-पाठकों के लिए उपलब्ध है। आप बतलायें काव्य रचना की तरह क्या आलोचना भी प्रीतिकर कर्म है?


धनंजय : संस्कृत के आचार्य-कवि राजशेखर ने सन् 880-920 ई. में कहा था'कविता के मर्म को समझने वाला 'भावक' भी सृजन-समृद्ध होता है। वह कवि की 'कारयित्री' प्रतिभा की ही तरह 'भावयित्री' प्रतिभा का धनी होता है। आलोचना मूलतः रचना का भावन ही है। उत्तर आधुनिक विमर्श में तो रचना के कद्रदां (एप्रीशियेटर) को भी सर्जक ही कहा गया है। आलोचना को रचना-इतर या रचनाविरोधी मानने-कहने-समझने वालों को भी समझना चाहिए कि आलोचना कर्म भी अपनी मूल प्रकृति में रचना-कर्म ही है। यदि कविता, कहानी उपन्यास-नाटक की रचना सृजनेच्छा (विल टू क्रिएट) और रूप-धारणा (विल टू फार्म) का परिणाम तो आलोचना भी अपने प्रतिपादन, अवधारण और अभिव्यंजना में भी सृजन ही अत: मुझे तो वह भी उतना ही प्रीतिकर कर्म ही लगता है।


प्रमोद : अपने आलोचनाकर्म की शुरूआत में आप किससे प्रभावित रहे। उस धारा या दिशा से आपने क्या ग्रहण किया और किस तरह आपने अपने लिए स्वतंत्र रास्ता चुना?


धनंजय : अपने आलोचना कर्म की शुरूआत में मैं अपने गुरू आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी से प्रभावित रहा बल्कि उनके सम्पर्क और प्रेरणा की वजह से ही मैंने आलोचना लिखना शुरू किया वर्ना तो मैंने भी लेखन की शुरूआत कविता- कहानी से ही की थी। वाजपेयी जी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक योगदान छायावादी कवि- चतुष्क के नये काव्य के मर्म का उद्घाटन है। उन्होंने ही पहलेपहल प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी के काव्य की नयी भाव-भूमि, नयी अभिव्यंजना और उनकी पूरी रचनातमकता का अंतरंग विश्लेषण किया और आलोचक के रूप में छायावाद की प्रतिष्ठा का श्रेय किसी को दिया जा सकता है तो वे आचार्य वाजपेयी जी ही हैं। उनकी आलोचना में रचना के प्रभाव और आस्वाद के धरातल पर उसकी व्यापक संवेदनीयता का उद्घाटन प्रमुख है। वे कवि की अनुभूति से तादात्म्य स्थापित कर उसकी अभिव्यक्ति के सारभूत अंश की व्याख्या करते हैं और काव्य के गहनतर अभिप्राय, निहित मनोभावना और मूल संवेदना को उजागर करते हैं। उन्होंने भावना के उद्रेक और भाव-उच्छवास के परिष्कार के साथ ही कवि द्वारा नियोजित प्रतीकों का विश्लेषण और खुलासा किया है। उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्रीय प्रतिमानों के साथ ही पाश्चात्य और आधुनिक नये काव्य प्रतिमानों के संश्लेष से आलोचना के नये और आधुनिक प्रतिमान निर्धारित किए हैं। मेरी आरंभिक आलोचना, खासतौर पर 'निरालाः काव्य और व्यक्तित्व' और 'आस्वाद के धरातल' में मैंने उन्हीं के पद चिह्नों पर चलने की कोशिश की है। लेकिन फिर धीरे-धीरे मैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निकट होता चला गया। शुक्ल जी के 'लोकवाद' और 'हृदय की मुक्तावस्था' के साथ ही उनकी भाव-संपन्न ज्ञान दृष्टि और ज्ञान-दृष्टि संपन्न भाव-सृष्टि ने मुझे आकर्षित किया और मैं स्वीकार करूं कि वाजपेयी जी मेरे गुरू हैं, उनके प्रति मेरे मन में आज भी प्रणति-भाव है लेकिन मुरीद मैं आचार्य शुक्ल का ही हूं। हिन्दी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन में आचार्य वाजपेयी का एक अविस्मरणीय योगदान यह भी है कि उन्होंने परास्नातक पाठ्यक्रम में आलोचना के प्रश्न पत्र में भारतीय काव्य-शास्त्र की संपूर्ण परम्परा-भरत मुनि के नाट्य शास्त्र से लेकर डॉ. नगेन्द्र तक और पाश्चात्य काव्य शास्त्र में प्लेटो से लेकर टी.एस. इलियट तक का अध्ययन अध्यापन निर्धारित किया था। इसके व्यापक और विस्तृत अध्ययन और लगभग तीस वर्षों तक मैंने जो अध्यापन किया उसने मेरी आलोचना-दृष्टि को साफ और समृद्ध करने में निर्णायक भूमिका अपनायी। पाश्चात्य काव्यशास्त्र ही नहीं संस्कृत काव्य शास्त्र की भी स्तरीय किताबें अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं। सो अध्यापन के दौरान मेरे विद्यार्थियों ने एक जुमला गढ़ लिया था कि वर्मा जी, हिन्दी भी अंग्रेजी में पढ़ाते हैं।' बहरहाल । नरसिंहपुर सरीखे कस्बे में आठ साल नौकरी करने का एक लाभ यह हुआ कि पढ़ने-लिखने के अलावा कोई मसरूफियत् थी ही नहीं। सो मैने दिल्ली की ब्रिटिश कौंसिल लाइब्रेरी और बम्बई की अमरीकन इन्फर्मेशन सेन्टर लाइब्रेरी की 'अपकन्ट्री मेम्बरशिप' ले ली। एक माह में दो-दो किताबें रजिस्टर्ड पोस्ट से आ जाती थीं ओर उन्हें रजिस्टर्ड पोस्ट से ही लौटाना होता था। सो अंग्रेजी की नयी-से-नयी किताब-खास तौर पर आलोचना- की मुझे उपलब्ध होती रहींकालिरिज और मैथ्यूअर्नाल्ड, टी.एस. इलियट और एफ.आर.लीव्हिस, जार्ज लूकाच और क्रिस्टॉफर काडवेल, जार्ज स्टाइनर और अनफिशर से लेकर रूसो और नीत्शेहसरल और हेडेगर, सास्यूर और लेवी स्ट्रास रोला बार्थ, जूलिया क्रिस्टिना, क्रिस्टाफर मॉरिस और जाकडेरिडा तक को पढ़ने का मौका मिला। मैंने शायद पहले भी जिक्र किया है कि मार्क्सवाद से मेरा परिचय छत्तीसगढ़ कॉलेज रायपुर, में राजनीति शास्त्र के अध्ययन के दौरान राजनीतिक-दर्शन के रूप में हो चुका था। भोपाल के हमीदिया कॉलेज का पुस्तकालय पर्याप्त समृद्ध था। इसके अलावा पीपीएच की दुकान से मार्क्सवादी साहित्यचिन्तन और सौन्दर्यशास्त्र की पुस्तकें भी उपलब्ध हुईमेरी कोशिश किसी भी आलोचक-चिन्तक-सौन्दर्यशास्त्री को यथासंभव मूलतः अंग्रेजी में पढ़ने समझने की रही है। हिन्दी के भ्रष्ट अनुवादकों का सहारा मैंने लगभग नहीं लिया। इन सबके अध्ययन-मनन के साथ उनसे संवाद-प्रतिवाद और मुठभेड़ ने मुझे अपना स्वतंत्र रास्ता चुनने और बनाने में मदद की। खास तौर पर कथा(उपन्यास-कहानी)- आलोचना के क्षेत्र में। संस्कृत में ही नही पश्चिम में भी यह अपेक्षाकृत उदासीनता-उपेक्षा का इलाका रहा है बावजूद इसके कि भारतीय आख्यान परम्परा सबसे समृद्ध है।


प्रमोद : यह सवाल गलत तो नहीं होगा कि आलोचना का सर्वधिक अहित किसने किया?


धनंजय : जाहिर है-आलोचकों ने और हां कवियों-लेखकों ने भी, और फिर इनकी मिली-भगत की राजनीति ने। अव्वल तो कुछ आलोचकों ने यह समझ लिया कि वे रचना और रचनाकार के साथ साहित्य के न्यायाधीश, मार्गदर्शक, अभिभावक और नियंता हैं या हो सकते हैं। अपनी जुमलेबाजी, फिकरेबाजी, फतवेबाजी से वे किसी को जागीरें लुटाते रहे या फिर किसी का कत्ल करते रहे। कम-से-कम समझते तो वे यही रहे। ऐसे अहंकारी आलोचकों ने अपनी मैत्री, रिश्तेदारी, समान विचारधारा और संघीय संबद्धता को रचना और रचनाकार की रचनात्मकता पर तरजीह दी। यह सब इतना गोपनीय भी नहीं है कि किसी के द्वारा उद्घाटन की प्रतीक्षा करें। फिर रचनाकारों ने भी आलोचना से अपने विज्ञापन की मांग और उम्मीद की। मसलन 22 मार्च 1972 के एक खत के इस हिस्से पर गौर करें: "आप सीधे-सीधे यह क्यों नहीं लिखते कि किताब की क्या अच्छाइयां या क्या बुराइयां हैं। बहुत से रीडर्स समीक्षाएं पढकर किसी किताब को खरीदने का फैसला करते हैंतुम्हारी समीक्षाएं उसमें मदद नहीं करतीं।"... यह कहना है कथाकार सत्येन कुमार का। याने आलोचक से आपकी अपेक्षा यह है कि वह आपकी पुस्तक बिकवाने में आपके मदद करे। फिर फरवरी 1966 के 'ज्ञानोदय' में एक अति प्रसिद्ध लेखक की इन पंक्तियों पर गौर करें: “इन सम्मेलनों से मैंने एक बात यह सीखी कि अपना प्राइवेट आलोचक हमेशा साथ ले जाना चाहिए... धनंजय वर्मा रमेश बक्षी के घर पर ठहरे। उनकी सेवा ग्रहण की मगर तीसरे दिन उपलब्धियों वाली गोष्ठी में राजेन्द्रयादव की सबसे ज्यादा तारीफ की।... हिन्दी आलोचना की दुर्गति की बात भी बहुत हुई । मेरा ख्याल यह है- दुर्गति का मुख्य कारण यह है कि आलोचक भी साहित्य में प्रतिष्ठित होने की कोशिश करता है। आलोचक को साहित्य में प्रतिष्ठित होने की कोशिश नहीं करनी चाहिए क्योंकि आलोचना साहित्येतर कार्य है।" इन्हीं लेखक महोदय ने जून 1982 के साक्षात्कार' में छपे मेरे लेख पर अपने पत्र (21.09.1982) में लिखा: “तुमने ये लेख होली ऐनगर में लिखा है जिसमें क्रिएटिव राइटिंग की स्पिरिट है। मेरे डिफेन्स के लिए, मेरा केस बनाने के लिए तुम्हें धन्यवाद तो दूंगा नहीं.... बहरहाल अनगिनत लोगों ने इसे पढ़ा और गदगद हुए। यह कई जगह रीप्रोड्यूस होगा।" फिर उन्होंने अखबारों और पत्रिकाओं में छपे अपने 'कालम्स' की टाइप्ड प्रतियों के साथ यह नोट भेजाः "इन्हें देख डालो। 'पिकविक पेपर्स' भी कॉलम ही थे। इनके सम्बन्ध में टिप्पणी या भूमिका नहीं चाहिए। एक पूरा-4-5 पृष्ठों का लेख होना चाहिए जिसमें इस प्रकार के लेखन का बेस बने और यह तात्कालिक या मात्र जर्नलिस्टिक न माना जाए।".... मैंने उन पर लेख लिखा। वह अक्टूबर-दिसम्बर 1984 के 'समकालीन भारतीय साहित्य' में छपा। उस पर एक कथाकार बन्धु की प्रत्यालोचना, सम्पादक ने मुझे भेजी। वह और उसका जवाब तो मेरे मित्र सम्पादक शानी ने तो नहीं छापी लेकिन मेरे लेख और उसकी प्रत्यालोचना पर उन्हीं लेखक ने 29.09.1983 के पत्र में लिखा: “वास्तव में ऐसे लेख की ही जरूरत थी।... तुमने नये सौन्दर्यशास्त्र से इस लेखन को नासमझों और समझदार धूर्तों को बखूबी समझा दिया है।" और फिर 02.12.2983 को लिखा : तुमने जो स्थापना की है उसकी जरूरत थी। तात्कालिकता में जो गहरा मानवीय सरोकार है, केन्द्र में मनुष्य है, उस पर ध्यान खींचना था।" गौर करें, यह उस लेखक की प्रतिक्रिया है जो आलोचना को 'साहित्येतर कार्य' कह चुका है। मेरा यह तथाकथित 'साहित्येक कार्य' फिर उन लेखक महोदय की रचनावली के दो-दो खंडों की भूमिका के रूप में पेश किया गया। शायद इसलिए कि वह उनके अनुकूल और किसी हद तक प्रशंसात्मक था। आपको हैरत होगी यह जानकर कि ये लेखक महोदय हैं-हरिशंकर परसाई । इन्होंने ही शरद जोशी द्वारा मुझ पर चिपकाया गया जुमला 'प्राइवेट आलोचक' तो मेरे लिए इस्तेमाल किया लेकिन उनके ही एक अंतरंग सखा प्रमोद वर्मा ने अपनी डायरी में जो अंकित किया है, वह भी काबिले गौर है। विश्वरंजन द्वारा सम्पादित 'न होना प्रमोद वर्मा का' के पृष्ठ 66 पर वे लिखते है: "बरसों से खाट पर पड़ा परसाई बीच-बीच में मुल्लाओं की तरह फतवे जारी करने से बाज नहीं आताअभी हाल में जारी हुआ उसका यह फतवा 'प्रगतिशील लेखकों का कर्त्तव्य है कि वे नामवर जी के प्रति आभारी हों कि उन्होंने वास्तविक समझ और नयी दष्टि दी। जिस दलदल में साहित्यालोचना फंस गई थी उसमें से उन्होंने उसे निकाला। स्वाधीनता के बाद जो नया साहित्य लिखा गया उसे नामवर जी ने दिशा दी और उसकी व्याख्या की। उन्होंने जड़ता को तोड़ा।" इसकी वजह क्या यही नहीं थी कि हरिशंकर परसाई मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक महासंघ के अध्यक्ष थे सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि जिस दलदल में साहित्यालोचना फंस गई थी। उसका जिम्मेदार कौन था? उसमें नामवर सिंह की भूमिका कितनी थी? प्रमोद भाई! खुदा के वास्ते यह न समझें कि मैंने परसाई की छवि पर कलंक लगाने के लिए इस प्रसंग का जिक्र किया। मैंने तो उन पर पूरी एक किताब लिखी है- 'परिभाषित परसाई' (2000)। मैं तो महज लेखक-आलोचक संबंधों में आए अन्तर्विरोधों को उजागर करना चाहता हूं।


प्रमोद : बन्धुवर, कवि लेखक भी अपने सर्जनात्मक लेखन में अपने समय, समाज और परम्परा की आलोचना या पुनर्व्याख्या करते हैं। आलोचना क्या इस आलोचना की आलोचना है या पुनर्व्याख्या की पुनर्व्याख्या अथवा सर्जक दृष्टि की आलोचना?


धनंजय : जिसे आप सर्जनात्मक लेखन कह रहे हैं, वह सम्पूर्ण साहित्य, मैथ्यू अर्नाल्ड के शब्दों में 'बुनियादी रूप से 'जीवन की आलोचना' ही है। हमारे यहां कहा भी गया है:


अपारे काव्य संसारे कविरेकः प्रजापति


यथास्मै रोचते विश्वम् तथेदं परिवर्तते


तो इस 'विश्व-संसार' में से कवि (यह शब्द हमारे यहां बहुत व्यापक है यहां तक कि ब्रह्मा-प्रजापति को भी कवि कहा गया है, जिसकी रचना यह विश्व है) को जैसा रुचता है, वैसा ही अपना एक प्रति-संसार (काउन्टर वर्ल्ड) रचता है। कवि से आशय यहां समस्त रचना-की-शब्द कर्मी से भी है। तो साहित्य यदि बनियादी रूप से 'जीवन की आलोचना' है तो आलोचना का तात्पर्य ही समग्रता में देखना है। इस समग्रता में देखने की वजह से ही कवि-लेखक अपने समय, समाज याने संपूर्ण जीवन की आलोचना और व्याख्या ही नहीं करते उसमें परिवर्तन' की प्रेरणा और उत्तेजना भी जागृत करते हैं।....रचना और रचनाकार को समग्रता में देखने के अलावा जब आलोचना समकालीन रचनात्मक गतिविधियों, और प्रवृत्तियों का आकलन करती है और रचना और रचनाकार के विचलन और फिसलन, बहकाव और भटकाव का जायजा लेती है तब वह रचना की महज व्याख्या-पुनर्व्याख्या नहीं, सांस्कृतिक संचरण में स्वयं एक रचनात्मक भूमिका निभाती है। वह साहित्य और समाज की मूल्य चिन्ता और मानवीयता सरोकारों के मद्देनजर समकालीन रचनापरिदृश्य और पूरे सांस्कृतिक सरगम में एक सार्थक और रचनात्मक हस्तक्षेप करती है। जब आलोचना रचना और रचनाकार के अनुभव संसार, भाव बोध और मूल्य चेतना को मानव ज्ञान-विज्ञान के अनेक अनुशासनों से प्राप्त ज्ञान-विज्ञान के अनेक अनुशासनों से प्राप्त ज्ञान-दृष्टि और युगबोध के समानान्तर जांचती-परखती है, जब वह एक वैज्ञानिक विश्वबोध विकसित करती है. एक यगदष्टि अर्जित करती है और उस परिप्रेक्ष्य में रचना और रचनाकार की स्थिति और अहमियत का मूल्यांकन करती है तब वह महज व्याख्या पुनर्व्याख्या नहीं रह जाती, ऐतिहासिक क्रम में एक बेहतर रचना संस्कृति और मानव संस्कृति के निर्माण में अपनी रचनात्मक भूमिका निभाने वाली और अपना दायित्व पूरा करने वाली सभ्यता संस्कृति-समीक्षा हो जाती है। मुक्तिबोध की एक पंक्ति है "यह दुनिया जैसी है, उससे बेहतर चाहिए"...इसी तर्ज पर आलोचना की प्रतिज्ञा भी है रचना जैसी है, उससे बेहतर चाहिए, इसीलिए रचना को आलोचना चाहिए।.....


प्रमोद : सुना है आपको जितना मजा मित्र बनाने में आता है, उतना ही या उससे कुछ ज्यादा मजा अपने शत्रु पैदा करने में आता है। क्या शत्रु आपको ज्यादा सजग और सक्रिय रखते हैं?


धनंजय : जैसे प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है, वैसे ही मित्र बनाने की जरूरत नहीं पडती, मित्र भी बन जाते हैं- जैसे अब आप बन गये हैं और जैसे प्रेम के हो जाने के बाद भी प्रेम करना पड़ता है उसी तरह मित्र बनने के बाद भी मैत्री भी निभानी पड़ती है। इस प्रसंग में मैंने एक रूपक गढ़ा था उसे सुन लीजिए। जैसे मुख की शोभा दांतों से है, वैसे ही व्यक्ति की पहचान उसकी सोहबत से है। अंग्रेजी में कहावत भी है 'अ मैन इज नोन, बाइ द कम्पनी ही कीप्स' जैसे दांतों की देखभाल और और साजसंवार करनी पड़ती है, वैसे ही दोस्तों को भी सहेजना-संभालना पड़ता है। (बकौल लीलाधर मंडलाई-सबसे कठिन है संभालना/दोस्त) सारी देखभाल के बावजूद जैसे कुछ दांत गिर जाते हैं, वैसे ही कुछ दोस्त छूट भी जाते हैं। (बकौल गुलजार-'फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं') और दौरे-उम्र में बावजूद सारे एहतियात के कभी-कभी कोई दांत बेहद तकलीफ देने लगता है और लाइलाज हो जाता है, तब उसे उखड़वाना भी पड़ता है, उसी तरह किसी बेमुरौवत दोस्त से मजबूरन सारे रिश्ते भी तर्क करने पड़ते हैं। ....जहां तक दुश्मन पैदा करने की बात है वो भी पैदा करने नहीं पड़ते पैदा हो जाते हैं-कई बार तो खामखां! मैं शायद पहले भी कह चुका हूं कि मैंने अपने किसी लेख, वक्तव्य या टिप्पणी में किसी लेखक या कवि के विचार या अभिमत से मुख्तालिफ विचार या मत रखा तो उसे स्वीकार-अस्वीकार करने का आपको पूरा हक है लेकिन यदि उसे आप अपनी प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर मेरी 'असहमति' को 'विरोध' समझ कर मुझे 'दुश्मन' समझने लगते हैं तो मैं क्या कर सकता हूं। मै शरद जोशी, नामवर सिंह, श्रीकांत वर्मा, शैलेश मटियानी आदि का जिक्र कर ही चुका हूं। कुछ लोग तो खामखां आपके दुश्मन इसलिए हो या बन जाते हैं कि आपको जो कुछ मिला, उन्हें क्यों नहीं मिला। मसलन एक भूतपूर्व मित्र की मुझसे खुन्नस महज इसलिए है कि वे, अपनी बावजूद सारी कोशिशों के, महज प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष ही बन पाये जब कि मैं उसी विश्वविद्यालय का कुलपति हो गया। वे दुखी प्राणियों की उसी प्रजति के हैं जो इसी बात से गमजदा हैं कि उनका पड़ोसी सुखी है।.... और आपने यह बिल्कुल सही कहा कि 'शत्रु आपको ज्यादा सजग और सक्रिय रखते हैं।' वो कहावत भी तो है- 'नादान दोस्त से बेहतर है दाना दुश्मन।'.....


प्रमोद : सबसे लम्बी मैत्री आपकी किसके साथ निभी? क्या आपके और आपके मित्र के विचार एक से थे या आपको जिरह का सुख मिला या इसके अलावा कोई खास बात रही।


धनंजय : मैं कदाचित कह चुका हूं, उसे फिर दुहराता हूं कि प्रभात कुमार भट्टाचार्य से मेरी मैत्री को छह दशक पूरे हो चुके हैं और वो अभी भी न केवल निभ रही हैदोनों ओर से-बल्कि प्रगाढ़ हो रही है। प्रभात से पहले शानी से हुई मैत्री उसके जाने तक चली। दरअसल मैत्री का आधार हमेशा समान सोच-विचार या सहमति नहीं होता-मसलन शानी और मेरे बीच विचारों के स्तर पर लगभग छत्तीस का रिश्ता रहा है, और हमारे बीच सिर्फ जिरह नहीं, तीखे वाद-विवाद भी हुए हैं। अक्सर ही बहस- मुबाहसों में उभरे स्वर इतने तीखे और उग्र हो जाते रहे हैं कि लोगों ने समझा हम लोग झगड़ पड़े। ऐसा दुष्यन्त के साथ भी होता था लेकिन गर्मा-गर्मी के बाद जब दिमाग ठंडा होता तो हम लोग एक दूसरे के बगलगीर भी हो जाते। याद आता है ऐसे प्रसंगों पर मेरी मां ने कहा था- 'बेटा, तुम लोग इतने बड़े बाल बच्चेदार हो गये हो फिर भी बच्चों की तरह-झगड़ते हो?....


मैं समझता हूं कि मैत्री का आधार वैचारिक से अधिक भावात्मक और भावनात्मक होता है, इम्पलसिव और किसी हद तक सन्टीमेन्टल! 'सेन्टी' कहकर जिसका आजकल मजाक उड़ाया जाता है और आजकल तो ऐसी मैत्री अब होती भी नहीं। याद आता है हमारे और प्रभात के बीच के रिश्तों को लेकर प्रभात के जामाता कर्नल बनर्जी ने ही तो कहा था- 'सच फ्रेन्डशिप इज पासीबल ओन्ली इन योर जनरेशन।' अब लोग अधिक व्यावहारिक और 'कैलकुलेटिव' हो गये हैं। वे मैत्री और रिश्तों को भी 'निवेश' समझते हैं और हानि-लाभ की तुला पर तौलते हैं। आप गौर करें 'पंजीवाद' और 'बाजारवाद' ने हमारे दिल ओ-दिमाग ही नहीं जेहन और रूह तक कब्जा कर लिया है।


प्रमोद : यह तो मैत्री पक्ष है। आप शत्रुता की इन्तेहा के बारे में थोड़ा खुलासा करेंगे? यह आपकी ओर से नहीं, शत्रु पक्ष के इन्तेहा की बात कर रहा हूं। मुझे पता है- आपको न बोदा मित्र पसंद है और न बोदा शत्रु!


धनंजय : शत्रता की इन्तेहा तो हुई श्रीकांत वर्मा की ओर से जिसने न केवल मुझे अपने हक से वंचित करने की साजिश रची बल्कि संस्कृति विभाग में चाकरी केदौरान मुझे जलील भी होना पड़ा।


प्रमोद : बहुत ही निजी सवाल है यह। आपको अब यह तो नहीं लगने लगा है कि इस प्रमोद त्रिवेदी ने तो उंगली पकड़कर पूरा पहुंचा ही पकड़ लिया। उज्जैन में बसना बदा है तो इससे पीछा कैसे छुड़ाएं। इसके पास काम जैसा कोई काम तो है नहीं। सवालों का पुलिन्दा लिया और आ धमके। पर ये सिलसिला कब तक? कितना लंबा चलेगा? मेरे पास यह एक काम तो है नहीं। कितने अधूरे काम मुझे पूरे करने हैं। बस, बहुत हो गया। ऊब गया जवाब देतेदेते.... । (लज्जित हूं और क्षमा चाहता हूं। इस बार यह जहमत उठा लें ।)


धनंजय : क्या कभी आपको ऐसा लगा है प्रमोद भाई कि मैं आपसे पीछा छुड़ाना' चाहता हूं। या आपकी संगति में (या/और)से मैं कहीं 'ऊब' महसूस कर रहा हूंफिर आपके मन में यह सवाल, यह शको-शुबहा उठा ही कैसे? यदि लेश मात्र और लम्हा भर के लिए भी आपको ऐसा लगा हो, तो उसका गुनाह मेरे सर पर....मैं दस्तबस्ता आपसे मुआफी चाहता हूं। उल्टे आपका ही एहसान है मुझ पर, आपकी इनायत है कि आपने मुझे इस संवाद के काबिल समझा। इतनी मेहनत और मनोयोग से सवालों को तरतीब दी, अपना समय जाया किया। इससे बड़ा और महत्वपूर्ण काम क्या होगा कि आपकी वजह से मैं अपनी साहित्यिक यात्रा के इस अंतिम पड़ाव पर अपना ही पुनरावलोकन कर पा रहा हूं। पाठकों की इजलास में अपनी सफाई पेश कर पा रहा हूं। अपनी तकलीफ और मसर्रत इतनी तफसील से बयां कर सका हूं। आप इसे 'जहमत' कहते हैं, मैं तो इसे आपकी 'रहमत' समझता हूं और तहेदिल से आपका मशकूर हूं।


प्रमोद : रचना और आलोचना का रिश्ता कैसा होना चाहिए?


धनंजय : इस विषय पर मैं दो लम्बे-लम्बे लेख लिख चुका हूं। हस्तक्षेप में मेरा 'हलफनामा' है: रचना और आलोचना के रिश्ते और 'आलोचना की जरूरत' में 'रचना और आलोचना के अन्तः संबंध' इन दोनों लेखों में जो बात मैं विस्तार से कह चुका हूं उसे भरसक संक्षेप में कहूं तो रचना और आलोचना के रिश्तों की पड़ताल के लिए हमें पश्चिम में क्विन्टीलियन और होरेस, अरस्तू और अरिस्टो-फेनीज-याने प्राप्त साहित्य के लगभग आदिम युग-तक जाना होगा, वहीं भारतीय काव्य शास्त्र के आदि पुरुष भरत मुनि-याने ईसा के चार सौ से लेकर दो सौ वर्षों पहले तक के साहित्य की पड़ताल करनी होगी। दोनों परम्पराओं में रचना और आलोचना के बीच किसी रस्साकशी के नहीं, बल्कि सह-अस्तित्व और समानान्तरता के भी सबूत मिलते हैं। बेशक रचना के उपकरण और आलोचना के औजारों में फर्क होता है लेकिन इस फर्क को एक पर दूसरे की बरतरी या कमतरी के नजरिए से नहीं बल्कि उन-दोनों के बीच एक सार्थक संवाद, समरसता और परस्पर पूरकता के नजरिए से देखा जाना चाहिए। लेसिंग का यह कहना सही है कि हर आलोचक जीनियस नहीं होता लेकिन हर जीनियस जन्म जात आलोचक होता है क्योंकि उसमें रचना को, कला को परखने का निर्विवाद माद्दा होता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि आलोचना और रचना एक दूसरे के खिलाफ नहीं बल्कि एक-दूसरे की पूरक और सहवर्ती होती हैं। वे दोनों ऐसी कालयात्री हैं जिनकी मंजिल एक है, रास्ता एक हैयहां तक कि पाथेय भी एक ही है।


प्रमोद : बन्धुवर ! हमने तो आलोचना कर्म को भी सारिणीबद्ध कर लिया है। इसी प्रक्रिया में रचना (?) के बहाने रचनाकार को खारिज करने के लिए कुछ जुमले गढ़ लिए हैं। क्या आलोचना 'इनवर्टेड कॉमाज' के बीच की 'स्पेस' है? ईमानदारी से यह धंधा आलोचना के नाम पर चल निकला है, यही नहीं लेखक ने अपने आलोचक भी पाल-पोस लिए हैंबतलाइए क्या यह स्थिति चिन्तनीय नहीं है?


धनंजय : निश्चय ही यह बेहद चिन्तनीय है। लेखक ने अपने आलोचक पाल-पोस लिए हैं तो आलोचकों ने भी अपने-अपने लेखकों, कवियों को प्रायोजित करने का धंधा शुरू कर दिया है। यह स्थिति रचना और आलोचना के साथ पूरे साहित्यिकसांस्कृतिक वातावरण के लिए भी चिन्ता जनक है। मौजूदा दौर में आलोचना की भीरचना की तरह, साफ-साफ दो शक्लें है-जिसका आपने बयान किया और दूसरी वह जो 'जेनुइन' है, जो केवल ईमानदार ही नहीं बल्कि अपने रचनात्मक दायित्वों के प्रति जागरूक और निष्ठावान भी है। 'जेनुइन' और 'फेक' में विवेक की सामर्थ्य हो तो हम दोनो का अंतर समझ सकते हैं और आप तो जानते ही हैं कि कई बार और अक्सर ही नकली मोती की चमक और मांग, असली से कहीं ज्यादा होती है।


प्रमोद : आलोचना कर्म के लिए किस मानसिकता की दरकार होती है? क्या कोई उत्तेजनाआवेश-आक्रोश सारे गलत को सही कर देने का आत्मविश्वास आलोचक को हमेशा सक्रिय रखता है या आलोचक की भूमिका विनम्र होकर भी, सही होकर भी, सही की ओर संकेत का प्रयास है?


धनंजय : आलोचना कर्म की मानसिकता मेरी समझ से, मूलतः 'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर' की होनी चाहिए। उसकी प्रथम प्रतिश्रुति 'रचना' और आत्यन्तिक प्रतिबद्धता 'रचनात्मकता' होती है, होनी चाहिए। मैं लगभग शुरू से ही कहतामानता रहा हूं कि आलोचना का मतलब ही समग्रता में देखना है। किसी उत्तेजनाआवेश या आक्रोश में आप समग्रता का साक्षात्कार नहीं कर सकते। सारे गलत को सही करने का आत्मविश्वास तो दम्भ और अहम्मन्यता ही कहा जायेगा। मैं समझता हं आलोचना की भूमिका विनम्र होकर भी सही की ओर संकेत का प्रयास है। जाहिर है इस कोशिश में गलत अपने आप उजागर हो जाता है। मैं समझता हूं अदब से अदब-नवाजी की जानी चाहिए कि अदब का मतलब सिर्फ साहित्य ही नहीं हर चीज का अंदाजा और हद की तमीज भी है। मैं कह चुका हूं कि आलोचना के भी तीन चरण होते है-बतर्ज मुक्तिबोध के-कला के तीन क्षण! उसका पहला सोपान तो है- रचना का संवेदनशील साक्षात्कार,उसका सम्पृक्त आस्वाद,उसका सह अनुभव और सहअनुभूति या सम-अनुभूति:ही नहीं अन्तरानुभूति भी। याने रचना से समरस होना. उससे तादात्म्य स्थापित करनाफिर दसरा चरण है-जीवन-जगत के प्रत्यक्ष अनुभव, मानव ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न आयामी अध्ययन-चिन्तन-मनन से संचितअर्जित ज्ञान से प्राप्त दृष्टि और समशील रचनाओं के अनुभव संसार के समानान्तर, उस रचना के अनुभव संसार और अभिव्यंजना-सरगम का अवलोकन। तीसरा चरण है-इस अवलोकन के आलोक में रचना के अन्तर्तत्व, उसके प्रभाव, उसके सामाजिक और मानव-सार की पड़ताल और तज्जन्य रूपायन का सौन्दर्याशास्त्रीय या रचनाशास्त्रीय मूल्यांकन।.... इसके साथ ही आलोचना की एक बड़ी और जरूरी भूमिका भी है-एक बेहतर मानवीय सभ्यता और संस्कृति की पक्षधरता और प्रतिबद्धताइसी के तहत वह उस सबके खिलाफ होती है, उसे होना चाहिए, जो मनुष्यता के खिलाफ है।


प्रमोद : आलोचना आपका धर्म है, तो आपकी रुचियां क्या है?


धनंजय : रचनात्मक सौन्दर्य, श्रेष्ठता-उत्कृष्टता बल्कि पूर्णता की खोज और उसे अर्जित करने की कोशिश, लगातार बेहतर और उच्चतर की आकांक्षा।


प्रमोद : आपके साथ होता हूं तो साहिर लुधियानवी की इन पंक्तियों :


मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया


हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।


की अनुगूंजें मुझे घेर लेती हैं। सब जानते हैं आपके गगनाभेदी ठहाके, मित्रों के ठहाकों से होड़ लेते हुए हमेशा बीसे ही रहते हैं। आप क्या इन्हीं की ओट में अपने सारे गमों को छुपाए नहीं रखते ? और उन्हें दबाकर इन्हीं ठहाकों से तो आप अपने संकल्पों को दृढ़तर बनाए रखते हैं?


धनंजय : सच तो यह प्रमोद भाई कि 'मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया' तक ही अपनी सीमा है, 'हर फिक्र को धएं में उडाता चला गया' का दिल-गर्दा अपना कभी नहीं रहा। मैं खासा फिक्रमंद व्यक्ति हं- हमेशा आशंकाओं से घिरा रहने वालाअसुरक्षा-ग्रंथि से ग्रस्त । आपने सही पहचाना- मैं ठहाकों की ओट में अपने सारे गम और दर्दो-कर्ब को छिपाए रखता हूं।...


प्रमोद : अपनी तमाम सक्रियता आपने आलोचना को समर्पित कर दी और अच्छा-खासा यश भी अर्जित कर लिया। वैसे- आलोचक का रौब ही होता है, इसका यश। इस उम्र में क्या आपकी इच्छा नहीं होती कि बची हुई ऊर्जा को किसी दूसरी तरफ लगाना चाहिए?


धनंजय : हां, यह तो सही है कि अपनी तमाम सक्रियता मैंने आलोचना में ही खपा दी। मुझे तो नहीं लगता लेकिन आप कहते हैं तो यश और रौब भी मिला ही होगा। अब ऊर्जा ही कितनी बची है कि इस उम्र मे उसे किसी दूसरी तरफ लगाने की सोचूं। वैसे भी मैं बहु-मुखी प्रतिभा का धनी नहीं हूं। मेरा एक ही मुख है और मैं एक ही पटरी पर चल सकता हूं।


प्रमोद : मैं जानना चाहता हूं कि कविता में वह कौन सा तत्व या तत्व होते हैं जिनकी वजह से उस काव्य और उनके कृतिकारों की उपस्थिति आने वाले समय में बनी रहती है और उनका काव्य भविष्य में ज्यादा प्रासंगिक और अर्थवान हो उठता है। हमारे कबीर, गालिब या भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाएं इसकी मिसाल हैं।


धनंजय : आप गौर करें तो साहित्य और कला के प्रयोजन बदलती दुनिया और सामाजिक संरचना के साथ बदलते तो हैं लेकिन इस बदलाव पर जरूरत से ज्यादा जोर देने की वजह से एक बात अक्सर भुला दी जाती है कि अलग-अलग कालखंडों और किसी हद तक मुख्तलिफ सामाजिक संरचनाओं और स्थितियों के बावजूद साहित्य और कला में कुछ तो ऐसा होता है जो एक अपरिवर्तनीय सत्य को अभिव्यक्त और उद्घाटित करता है। मसलन वाल्मीकि के महाकाव्य-रामायण और वेदव्यास के महाकाव्य-महाभारत आज भी भारतीय रचनात्मकता के अक्षय स्रोत क्यों बने हुए हैं? कालिदास के महाकाव्य और नाटक आज भी हमारी सौन्दर्यात्मक संवेदनाओं को क्यों जागृत और तृप्त करते हैं? 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' से जर्मन कवि गेटे क्यों इतने अभिभूत हुए? तुलसीदास और सूरदास आज भी विद्वानों से लेकर ग्रामीण आमजनों तक में इतने लोक प्रिय क्यों हैं? मुझे लगता है इसका माकूल जवाब किसी लेखक, कलाकार, सौन्दर्यशास्त्री ने नहीं, कार्ल मार्क्स ने दिया है ! वो पूछते हैं : 'ग्रीक कला और महाकाव्य या त्रासदियां, सामाजिक विकास के एक खास कालखण्ड और संरचना से सबद्ध हैं लेकिन सवाल है कि वे आज भी सौन्दर्यात्मक आनन्द के स्रोत क्यों हैं? क्यों वे कई मायनों में आज भी ऐसे आदर्श बने हुए हैं जिन्हें हम उपलब्ध करना चाहते हैं?' और मार्क्स ने ही इसकी जो वजह बताई है- वह खासी अहम और काबिले गौर है और दरअसल वही साहित्य और कला के आत्यन्तिक प्रयोजन और जरूरत ही नहीं उसके भविष्य और उज्ज्वलतर भविष्य का भी केन्द्र है। मार्क्स ने इसका कारण बताया है-इन रचनाओं के 'मामेन्ट्स आव ह्यूमैनिटि,' उनमें अन्तर्निहित मानवीयता के क्षण, इन्सानियत के लम्हात! किसी भी साहित्य और कला में स्पन्दित और रूपायित मानवीयता के इन क्षणों में ही ऐतिहासिक समय के पार जाने की, निरन्तर एक आकर्षण बने रहने की, देश और काल की सीमाओं को अतिक्रांत करने की शक्ति होती है। अपने महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी तो कह ही चुके हैं- 'शाबार ऊपर मानुष सत्य/ताहार ऊपर नाइ।' और अनायास याद आती हैं मुक्तिबोध की पंक्ति : 'कभी खत्म नहीं होती कविता। कि वह आवेगत्वरित काल यात्री है।' और उनकी परम अभिव्यक्ति की खोज' की आत्यन्तिक उपलब्धि भी तो 'जन' ही है।


प्रमोद : हमारे समय में किस कवि में आपको ऐसी संभावना नजर आती है?


धनंजय : हिन्दी में निराला और मुक्तिबोध में ही मुझे कुछ ऐसी संभावना नजर आती है।


प्रमोद : आधुनिक आलोचकों ने 'रस' की अवधारणा को सिरे से नकार दिया है। आपकी क्या राय है? यदि आप काव्य में 'रस' की उपस्थिति को नकारते हैं तो इस अवधारणा के विकल्प के रूप में कुछ नया और उपयुक्त प्रस्तावित करना चाहेंगें?


धनंजय : दर असल आधुनिक आलोचकों ने 'रस' की अवधारणा को समझा ही नहीं और नकार दिया। 'साधारणीकरण' और 'रस' भारतीय काव्य शास्त्र की ऐसी अवधारणाएँ हैं जो देश और काल की सीमाओं को अतिक्रान्त करती हैं और काव्य ही नहीं सम्पूर्ण साहित्य और कलाओं के 'आस्वाद' और तज्जन्य कद्रदानी (एप्रीसिएशन)और आनन्द (प्लेजर) को भी परिभाषित करती हैं। 'रस' के बारे में संस्कृत काव्य शास्त्र ही नहीं अंग्रेजी और मराठी में प्रचुर साहित्य है। उसकी भरसक संक्षेप में ही चर्चा के लिए मैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की 'चिन्तामणि' से दो उद्धरण देना चाहूंगा: 1. "कविता ही मनुष्य को हृदय के स्वार्थ संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठा कर लोक-सामान्य-भाव-भूमि पर ले जाती है, जहां जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है।" (चिन्तामणि : एक पृष्ठ 141)


2. "सच्चा कवि वही है जिसे लोक-हृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को देख सके। इसी लोकहृदय में हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस दशा है।" (चिन्तामणि : भाग दो : पृष्ठ 122)


इस रसदशा को शुक्ल जी 'आनन्द' या 'ब्रह्मानंद सहोदर' नहीं कहते क्योंकि आनन्द में एक ओर मनोरंजन या रंजन का हल्का -सस्तापन है ("इस आनन्द शब्द ने काव्य के महत्व को कुछ कम कर दिया है, उसे नाच-तमाशे की तरह बना दिया है") तो दूसरी ओर 'ब्रह्मानन्द' की लोकोत्तर और अनिर्वचनीय रहस्यात्मक अन्तर्ध्वनियाँ है। इसे वे 'हृदय की मुक्तावस्था' कहते हैं। इस मुक्तावस्था में दर्शक-श्रोता-पाठक मनुष्य का हृदय अपने स्वार्थ संबंधों के निजी और संकुचित मंडल से ऊपर उठकर लोक-सामान्य की भाव-भूमि पर आ जाता है और उसमें शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है। इस लोक सामान्य भाव-भूमि में अपने-पराये की भेद-बुद्धि समाप्त हो जाती है। अपनी पृथक सत्ता की भावना का परिहार हो जाता है। उसका निर्वेयक्तीकरण (डी-पर्सनालाइजेशन) हो जाता है। इसमें ही एक ओर भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के 'साधारणीकरण' तो दूसरी ओर अरस्तू के द्वारा प्रस्तावित 'विरेचन' (केथार्सिस) भी अन्तर्निहित हैं। यही क्यों मुक्तिबोध द्वारा प्रस्तुत 'स्व का परात्मीकरण' और 'पर का स्वात्मीकरण' या स्वयं से अस्वयं' की तदात्मीकरण' प्रक्रिया और व्यक्तित्वांतरण' भी क्या यही नहीं है? दरअसल 'रस' प्रतिमान नहीं, प्रक्रिया है, सिद्धांत नहीं, पद्धति है और दृश्य और श्रव्य काव्य ही नहीं सम्पूर्ण ललित कलाओं के रसास्वादन की प्रणाली भी यही है। नाटक या फिल्म देखते, कविता-कहानी-उपन्यास पढ़ते, चित्र देखते, संगीत सुनते हुए जो एकाग्रता, तन्मयता, तल्लीनता और आत्म-विस्मृति आती है वही तो अपनी पथक व्यक्ति-सत्ता की भावना का परिहार है. मॉमेन्टस आव ह्यूमैनिटी, मानवीयता के क्षणों, इंसानियत के लम्हात की अनुभूति है। यह सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वजनीन, मानवीय प्रक्रिया है। इसे नकार कैसे सकते हैं?


प्रमोद : क्या आप आधुनिक हिन्दी भाषा साहित्य के विकास को भारतीय भाषाओं के साहित्य के विकास के समानान्तर स्वीकार करते हैं? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है कि हमारे यहां काव्य-शास्त्र की समृद्ध परम्परा रही है, पर इस परम्परा को हमने आगे विकसित नहीं किया। यही वजह है कि अपने पारम्परिक काव्य निकषों पर हम नए काव्य का मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं और हमारे अपने निकष अपने प्राचीन काव्य के साथ न्याय नहीं करते। मैं पूछना चाहता हूं कि हमारे आलोचकों को अपना स्वतंत्र और व्यापक काव्य शास्त्र निर्मित करना जरूरी क्यों नहीं लगा?


धनंजय : हां, मैं आधुनिक हिन्दी भाषा साहित्य के विकास को भारतीय भाषाओं के साहित्य के विकास के समानान्तर ही नहीं, विश्व की अनेक समृद्ध भाषाओं के साहित्य के विकास के समानान्तर और किसी हद तक उनसे बेहतर और उच्चतर भी स्वीकार करता हूं। कविता-कथा और आलोचना के क्षेत्र में आधुनिक हिन्दी साहित्य विश्व की अनेक भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य के समकक्ष सगर्व रखा जा सकता है। हमारे यहाँ काव्य शास्त्र की जो समृद्ध परम्परा है, वह पाश्चात्य काव्यशास्त्र की तुलना में अधिक व्यापक और रचनात्मक है। संस्कृत काव्यशास्त्र की इस परम्परा को भारतीय भाषाओं में मराठी और बंगला के साथ-साथ हिन्दी में भी पर्याप्त विकसित किया गया हैआचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्परा को युगानुकूल पुनर्परिभाषित किया और पाश्चात्य-खासकर अंग्रेजी आलोचना से अन्तक्रिया के द्वारा हिन्दी के अपने काव्यशास्त्र की आधार शिला रखी। उनके शिष्य आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने भारतीय और पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अन्तर्सयोजन (फ्यूजन) से आचार्य शुक्ल के कार्य को आगे बढ़ाया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने न केवल शुक्ल जी के अवदान को स्वीकार किया बल्कि उसमें अपनी रचनात्मकता के संश्लेष से उसे नया संस्कार दिया। डॉ. रामविलास शर्मा ने एक ओर शुक्ल जी की भूमिका को रेखांकित किया तो दूसरी ओर मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की परम्परा से अन्तक्रिया कर हिन्दी के अपने साहित्यशास्त्र की रचना में अपना योगदान किया। डॉ. नामवर सिंह ने 'कविता के नये प्रतिमान' से एक नया काव्यशास्त्र प्रस्तावित किया। कृपया इसे आत्मश्लाघा न समझें-खाकसार ने भी इस दिशा में अपनी एक विनम्र कोशिश की है। भारतीय काव्यशास्त्र में कथा (कहानी और उपन्यास) के मुल्यांकन की कोई परम्परा नहीं है। हिन्दी में कथा के एक स्वतंत्र रचनाशास्त्र के रूपायन में मेरा भी यत्किंचित योगदान हैहिन्दी के अपने स्वतंत्र और व्यापक काव्यशास्त्र की रचना की दिशा में किये गये प्रयत्नों की यह मात्र एक रूपरेखा है। इसके विस्तार में जाने का न तो यहां अवकाश है और न शायद फिलहाल जरूरत!


प्रमोद : यह सवाल मैं जानबूझ कर हिन्दी के प्रखर आलोचक और प्रगतिशील चिंतक डॉ. धनंजय वर्मा से पूछ रहा हूं- हमारी आलोचना की एक धारा ने 'कलावाद' के रूप में बहुत कुछ खारिज कर दिया। क्या 'कला' सचमुच इतनी गर्हित है?


धनंजय : सच्ची प्रगतिशील और प्रगतिवादी आलोचना दरअसल 'कला' और 'रूप' का विरोध नहीं करती। हां, वह 'कलावाद' और 'रूपवाद' की पक्षधर वह नहीं है। मैं एक उद्धरण दे रहा हूं : "TRUTH is general, it does not belong to me alone. It owns me, I do not own'it. My property is the' Form which is my spiritual individnality".... नाम न बताया जाय तो यह वाक्य किसी खासे रूपवादी और कलावादी का लगता है। जो 'रूप' को अपनी आत्मिक (या आध्यात्मिक) वैयक्तिकता कह रहा हो उसे आप क्या कहेंगें? लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यह वाक्य कार्ल मार्क्स का है। उसे आप रूपवादी तो किसी भी अर्थ में नहीं कह सकते! लेकिन 'रूप' पर क्या सिर्फ रूपवादियों का एकाधिकार है? शायद वे ऐसा ही समझते हैं जैसे कि कलावादी भी यही समझते हैं कि कला सिर्फ उन्हीं की बपौती है। मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र में कला का उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है जितना कि अन्तर्वस्तु का । रूप की उतनी ही अहमियत है जितनी कि 'वस्तु' की। इसलिए सच्ची प्रगतिशील और प्रगतिवादी आलोचना कला और रूप की कभी अनदेखी या तिरस्कार नहीं करती और जो करती हैं, जिसने किया है वह न प्रगतिशील है और न प्रगतिवादी। वह पार्टी-परक प्रचारात्मक लेखन ओर कोरी नारेबाजी को साहित्य समझने वाले कार्यकर्ता हो सकते हैं-कवि या आलोचक नहीं। वो मायाकोव्स्की ही था जिसने कहा था "You dig for the sake of a single word through thousands of tone of verbalore"... और लुई अरागां ने ही तो कहा था कि कलावादियों और रूपवादियों में ऐसी कला की रचना करने में आपस में होड़ लगी होती है जिसमें कहने के लिए अन्तत: कुछ नहीं होता। कलावाद की सबसे आसान पहचान वह 'रचना' है जिसमें वास्तविक जीवन की कोई ध्वनि, कोई स्पर्श, कोई नक्शा नहीं होता। वहां सब कुछ इतना तरल, संदर्भहीन ओर वायवीय होता है कि अन्ततः रूप भी रूपहीन और अरूप हो जाता है। इसीलिए हम 'रूपवाद' और 'कला के लिए कला' के कलावाद का विरोध करते हैं- कला और रूप का नहीं। प्रसंगवश यह याद रखना भी जरूरी है कि भारतीय चिन्तन में काव्य (साहित्य) को कला नहीं कहा या माना गया है। भारतीय आचार्यों ने 'भेद में अभेद' स्थापित करने वाली 'विद्या' कहा है और कवि को प्रजापति । कवि शिल्पी नहीं, रचनाकार है। कला में 'कौशल' और 'निर्माण' का भाव है जबकि काव्य में शब्द ब्रह्म है और कवि मनीषी, परिभू, स्वयंभू । इसके विपरीत पश्चिम के आचार्यों ने काव्य को कला माना है और आचार्य रामचन्द्र शक्ल और जयशंकर प्रसाद दोनों ने इसका जमकर विरोध किया है। कदाचित इसीलिए कला के 'आनन्द' में शुक्ल जी को हल्केपन और नाच-तमाशे जैसा छिछला मनोरंजन दिखा तो 'सुन्दर' शब्द उन्हें चित्र कला-मूर्तिकला आदि हल्की कलाओं की विशेषता का वर्णन करने वाला लगा और उन्होंने 'कला के लिए कला' ही नहीं अभिव्यंजावाद' पर भी करारी बहसें कीं।


प्रमोद : एक सवाल मेरे मन में रह-रह कर उठता रहता है-हमारी शिक्षा के उच्चतर केन्द्र जिनकी अपनी गरिमा और गरिमा पूर्ण इतिहास रहा है, वे अब मृत और ऊर्जा-विहीन हो गए हैं। किसी भी क्षेत्र में अब कोई चमक और हलचल नहीं होती। शोध कार्य ढर्रे का कार्य होकर रह गया है। इन केन्द्रों से नया कुछ नहीं आएगा तो कहाँ से आएगा?


धनंजय : आपकी चिन्ता और व्यग्रता वाजिब है। दरअसल हमारी शिक्षा के उच्चतर केन्द्रों की गरिमा में यह गिरावट हमारी सम्पूर्ण-सामाजिक-राजनैतिक-प्रशासनिक और नैतिक व्यवस्था की संरचनागत समग्र गिरावट का नतीजा है। पिछले सत्तर वर्षों के समकालीन इतिहास के सामाजिक- राजनैतिक-प्रशासनिक-नैतिक-चारित्रिक हालात का जायजा आप लें तो आपको क्रमशः और निरन्तर एक निगति, एक लगातार गिरावट का तबाहकुन एहसास होगा। यह निगति और गिरावट ऊपर से शुरू होकर लगभग हर सिम्त फैल रही है और मौजूदा हालात तो ऐसे हैं कि लगता है हम इक्कीसवीं सदी में नहीं बल्कि किसी गुजश्ता-मध्ययुगीन सदी, (जिसे यूरोपीय इतिहास में अंधकार युग कहा गया) में जी रहे हैं। फिराक गोरखपुरी ने बरसों पहले कितनी शदीद तकलीफ से कहा था : "हमारे देश में ज्ञान सम्पन्न सोच का अकाल है। मस्तिष्क और अन्त:करण का अन्धापन है। सामाजिक अन्तरात्मा का सर्वथा लोप हो गया है... हमारे देश के बड़े लोग इस देश के सबसे छोटे और सबसे घटिया लोग नजर आते हैं । यह सारा दुर्भाग्य दिल और जज्बात की खराबी से पैदा नहीं हुआ है बल्कि दिमाग के घटियापन का नतीजा है। यह एक अजीब बात है कि जनता की सेवा करने वाले सबसे बड़े समाज दुश्मन होते हैं । जन-भावना का अभाव हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।" और अभी 14 अप्रैल 2017 के 'दैनिक भास्कर' में मैगसे अवॉर्ड से सम्मानित सोशल एक्टीविस्ट बेजवाड़ा विल्सन का एक लेख छपा है। उसके इस हिस्से पर गौर करें: “आज देश में हर तरफ नकली राष्ट्रवाद की हिंसक ध्वनियाँ सुनाई दे रही हैं। देश को एक ही रंग में रंगने, एक ही तरह की सोच, रहन-सहन, खान-पान में ढालने की साजिशें जोरों पर हैं। इन्हें सरकारी समर्थन मिला हुआ है.... असंवैधानिक (एक्स्ट्रा कान्स्टीयूशनल) और गैर संवैधानिक ताकतों को राजनैतिक वरदहस्त प्राप्त है। साधु हो या योगी या मुख्यमंत्री सब खुले आम विरोधियों और उनके विचारों का समर्थन न करने वालों का सिर काटने और फांसी चढाने की बात कर रहे हैं। ....तार्किकता और अंधविश्वास के खिलाफ मुहिमचलाने वालों पर हमले तेज हुए हैं। नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पन्सारे, एम.एस. कलबुर्गी और दलित लेखक कृष्ण किरवाले की हत्या करने वाली सोच बलवती हो रही है।"


हमारे इतिहास के उस मध्ययुग में तो एक कबीर थे, जिनमें धर्मान्धता और फिरकापरस्ती पर कशाघात करने की हिम्मत थी। आज वो होते तो पता नहीं उनका क्या हश्र होता? हमारी प्यारी मातृभूमि ही नहीं पूरी दुनिया के सूरते हाल पर नजर डालिए। कल ही तो अमरीका के ट्रम्प प्रशासन ने आईएस आतंकियों के ख़िलाफ अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर दुनिया का अब तक सबसे बड़ा (दस हजार किलो का) बम गिराया है। उधर उत्तर कोरिया अमरीका को धमका रहा है। चीन के तेवर चढ़े हुए हैं। सुरक्षा परिषद में सीरिया के खिलाफ फ्रांस, ब्रिटेन और अमरीका का निन्दा प्रस्ताव रूस के आठवें वीटों से खारिज हो गया है और सीरिया दावा कर रहा है कि अमरीकी हमले से ही जहरीली गैस फैल रही है जिसमें सैकड़ों लागों की मौत हो गयी है। क्या यह एक संपूर्ण-समग्र विनाश की आहट नहीं है?


तथाकथित भूमंडलीकरण (जो दरअसल है तो भूमंडीकरण-याने सारी दुनिया को एक मंडी में तब्दील कर देने की मुहिम) के इस दौर में, अधारणीय (अन सस्टेनेबल) विकास की अंधी दौड़ में, पूंजीवाद, उपभोक्तावाद और बाजारवाद के कसते जाते शिकंजों में जिस रफ्तार से दुनिया जितनी छोटी होती जा रही है, इंसानी सरोकार उतनी ही तेजी से रफा-दफा हो रहे हैं। याद आता है- एक मुख्यमंत्री ने ही तो सार्वजनिक घोषणा की थी-'स्कूल-कॉलेज और अस्पताल चलाना सरकार का काम नहीं है', चुनांचे उनका निजीकरण ही नहीं पूरा व्यवसायीकरण भी हो गया है। इन हालात में शिक्षा के उच्चतर केन्द्रों से ही आप क्या उम्मीद कर सकते हैं?


अंतराल : प्रमोद :


कर चुके थे हम खुद को


लहरों के हवाले।


अब न इधर का छोर नजर आ रहा था,


और न ही उधर का।


#


अब तो हम भी नहीं थे ।।


केवल लहरें थी- आमंत्रण देती...


एक ही सम्भावना थी


लहरों में समा जाने की....


#


हमारा ही फैसला था


हम ही राजी हुए थे


हम ही चल पड़े थे इस सफर पर ।


अब जो हो।


हो!!!


हम बेचैन लहरों पर ही नहीं थे।


जो लहरें उठ रही थी-


हमारे भीतर,


उनके साथ होने का रोमांच भी कम नहीं था।


4


प्रमोद : अपने जीवन की किसी ऐसी घटना अथवा प्रसंग का उल्लेख करें जिसने आपका मार्ग प्रशस्त किया। इसमें किसी व्यक्ति की राय या सहायता भी महत्व रखती है- साथ ही कोई ऐसी घटना या किसी व्यक्ति का व्यवहार जो याद आने पर आपके घावों को हरा कर देते हों और उसे आप भूलना ही पसन्द करेंगे?


धनंजय : अपनी बातचीत के पहले सत्र के छठवें लम्बे पश्न के तवील उत्तर में मैंने अपनी जिन्दगी के शरूआती दौर का कछ ब्यौरा दिया था। उसमें उन कछ घटनाओं प्रसंगों और व्यक्तियों का भी उल्लेख था जिनसे मेरा मार्ग प्रशस्त हुआ। अपने नाना से लेकर जगदलपर (बस्तर) के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर श्री आर.सी.वी.पी. नरोन्हा (मध्यप्रदेश के लीजेण्डरी चीफ सेक्रेटरी), स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, दार्शनिक और छत्तीसगढ़ कॉलेज, रायपुर के संस्थापक प्राचार्य जनस्वामी योगानन्दम, टूरी हटरी, पुरानी बस्ती, रायपुर के दाऊ श्याम किशोर अग्रवाल, सागर विश्वविद्यालय, सागर के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रख्यात आलोचक आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी और मध्यप्रदेश शासन के उच्च शिक्षा मंत्री श्री मुकेश नायक का मैं जिक्र कर चुका हूं। उनसे जुड़े प्रसंगों को फिर दुहराने की जरूरत नहीं है, हालांकि इनकी बार-बार और लगातार याद जब भी आती है- कृतज्ञता से माथा झुक जाता है और सबसे ज्यादा दुखद और त्रासद घटना और व्यवहार मेरे बड़े मामा का था जिन्हें मैं कंस और शकुनि का मिला-जुला अवतार ही समझ पाता हूं और उन्हें याद करते ही वो सारे घाव हरे हो जाते हैं जो उन्होंने मुझे (हमें) दिए। नाना की उस सम्पत्ति (जिस पर उनका कोई नैतिक और कानूनी अधिकार नहीं था कि नाना अपनी वसीयत में उन्हें उससे वंचित कर चुके थे) पर निष्कंटक एकाधिकार के लिए उन्होंने अपनी सगी छोटी बहन (मेरी विधवा मां) और उसके इकलौते बेटे (मुझे) को घर से बाहर सड़क पर हंकाल दिया। वो हमारी हत्या तक करवा सकते थे। उन्हें मैं भूलना चाहता हूं लेकिन भल नहीं पाता उन्होंने रक्त संबंध ही नहीं. सामान्य मानवीय संबंधों पर से ही मेरा भरोसा छीन लिया। उसकी याद भी त्रासद है प्रमोद भाई, सो उसे छोड़ें !


प्रमोद : अज्ञेय हो या नरेश मेहता, उनके अस्वीकर के हमने साहित्येतर मानक तैयार किए और तो और मुक्तिबोध के जीवित रहते उन्हीं के हल्के के समीक्षकों ने उन्हें तरजीह नहीं दी। उनके निधन के बाद उनके महत्व को प्रतिपादित करने का उत्साह भी अतिरेक पर रहा। बतलाएं ऐसी समीक्षा से किसका हित हुआ?


धनंजय : अज्ञेय हो या नरेश मेहता, मझे तो लगता है, आधनिक हिन्दी साहित्य के परिदश्य में, जितनी स्वीकति और सम्मान, परस्कार और प्रतिष्ठा उन्हें अपने जीवन काल में ही मिली उतनी तो न निराला को नसीब हई. न मक्तिबोध को। फिर भी आप 'साहित्येतर मानकों पर उनके अस्वीकर' की बात कर रहे हैं तो, मैं समझता हूं, आपका इशारा उन प्रगतिशील आलोचकों की ओर है जिन्होंने इन दोनों के प्रतिकूल टिप्पणियां कीं- मसलन् अज्ञेय पर डॉ. राम विलास शर्मा की आलोचना और नरेश मेहता पर प्रगतिशील आलोचकों की लगभग चुप्पी। सच तो यह है प्रमोद भाई, कि अज्ञेय और नरेश मेहता के साथ ही ऐसा नहीं हुआ, ऐसा हरिशंकर परसाई, नागार्जुन, हरिनारायण व्यास और त्रिलोचन के साथ भी हुआ है। दरअसल यह शुद्ध राग-द्वेष और शिविर-बद्धता का मामला है और शिविर सिर्फ प्रगतिशील और प्रगतिवादियों का ही नहीं है, रूपवादियों-कलावादियों-'कल्चर फार फ्रीडम' वाले व्यक्ति स्वातंत्र्यवादियों का भी है जो अधिक साधन सम्पन्न, प्रभता और प्रतिष्ठानों से संबद्ध लोग हैं।


जरा इन पंक्तियों पर गौर करें: "उपन्यास, कहानी या कविता की साहित्यिक हैसियत प्रश्नातीत लगती है और जिसे हम व्यंग्य लेखक नाम देते हैं, उसकी साहित्यिक हैसियत तय करने जैसी जरूरत महसूस होती है... तो क्या व्यंग्यकार परसाई का मूल्यांकन के दफ्तर में अलग खाता ही खुल जाना चाहिए... व्यंग्य उसी मानी में उसी स्तर पर एक स्वतः संपूर्ण और अपनी एक निश्चित परम्परा रखने वाली साहित्यिक विधा नहीं है जिस तरह उपन्यास, कहानी और कविता स्वतंत्र विधाएं हैं... दुनिया के किसी बड़े साहित्यकार ने अपनी साहित्यिक कीर्ति और सामाजिक मुक्ति इस तथाकथित व्यंग्य-लेखक के बल पर नहीं, बल्कि उस कृतित्व के बल पर अर्जित की है, जिसका ताल्लुक कथा, काव्य तथा निबंध संरचनाओं से है.... यदि कोई व्यंग्य लेखन नामक एक निराली विधा के रूप में अपने को स्थापित करने पर तुल जाए तो.... जरा गहरे पैठने पर साफ प्रतीत होगा कि ऐसा करके हम अपनी जातीय विपन्नता को ही अधिक बल पूवर्क-उजागर कर रहें हैं।" ये पंक्तियां हैं श्री रमेशचन्द्र शाह की जो अज्ञेय के सबसे बड़े प्रशंसक बल्कि भक्त हैं। हरिशंकर परसाई की साहित्यिक हैसियत को अस्वीकार करता उनका यह लेख डॉ. कमला प्रसाद द्वारा संपादित हरिशंकर परसाई पर केन्द्रित पस्तक 'आंखन देखी' में शामिल है। डॉ. कमलाप्रसाद में इतनी दयानतदारी तो थी कि उन्होंने परसाई के खिलाफ इस लेख को 'स्वीकार' और शामिल किया। मुझे तो मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग द्वारा स्थापित साहित्य के लिए राज्य स्तरीय पहले शिखर सम्मान की ज्यूरी (निर्णायक समिति) का वह प्रसंग भी याद है। उस वर्ष अनन्य ही नहीं, प्रथमद्वितीय और तृतीय वरीयता क्रम की सर्वाधिक अनुशंसाएं हरिशंकर परसाई के लिए आयी थीं। निर्णायक समिति के सदस्य थे चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन, कथाकार निर्मल वर्मा और कवि शमशेर बहादुर सिंह। जब परसाई के नाम पर विचार शुरू हुआ तो स्वामीनाथन जी ने फरमाया-"परसाई ! इज-ही अक्रिएटिव राइटर? वो तो अख़बारनवीस है, अखबार के कॉलम लिखता है, व्यंग्यकार है और यह सम्मान तो साहित्य के लिए है।" कथाकार निर्मल वर्मा ने उनका अनुमोदन किया और कविवर चुप!... शिखर सम्मान के लिए श्रीकांत वर्मा का चयन हो गया और वह उन्हें मिला भी।


मैंने परसाई के कॉलमों पर एक लम्बा लेख लिखा : 'साहित्य के एक नये सौन्दर्यशास्त्र की जरूरत का एहसास कराते हुए परसाई के कॉलम'। वह 'समकालीन भारतीय साहित्य' में छपा लेकिन उसके सम्पादक शानी ने उसका शीर्षक कर दिया'साहित्य का नया सौन्दर्यशास्त्र।' उस लेख पर प्रतिक्रिया स्वरूप श्री रमेश चन्द्र शाह के कुमायूनी दोस्त शैलेश मटियानी ने बेहद तल्ख प्रत्यालोचना लिखी- 'आलोचकीय विवेक का अन्तर्लयन'। उसका मूल तर्क वही था जो रमेश चन्द्र शाह के लेख का है। शानी ने वह प्रत्यालोचना मुझे अपनी बात कहने के लिए भेजी कि हमला मुझ पर भी था। मैंने जवाब लिखाः 'दे और भी अक्ल उनको, जो न दे मुझको जबां और'। शानी ने फिर दोनों को छापने से इंकार कर दिया। उन पर किसका कैसा दबाव आया यह बताना उन्होंने उचित नहीं समझा।


अब जरा हरिनारायण व्यास से जुड़ा प्रसंग भी सुन लीजिएकमला प्रसाद और राजेश जोशी ने तय किया कि 'इसलिए' का एक विशेष अंक व्यास जी पर केन्द्रित किया जाय। उन्होंने मुझसे कहा कि अशोक वाजपेयी ने अपनी पहली आलोचना पुस्तक 'फिलहाल' में दादा पर एक टिप्पणी लिखी है। उनसे भी कहा जाय कि वे उनकी कविता पर फिर कुछ लिखें। उन दिनों मैं प्रतिनियुक्ति पर संस्कृति विभाग में ही चाकरी कर रहा था और दादा भी उसी के एक उपक्रम भारत भवन के 'वागर्थ' में कार्यरत थे। मैंने वाजपेयी जी से अनुरोध किया। संस्कृति-सचिव वाजपेयी जी ने फरमाया- 'ड़ य थिंक हरिनारायण व्यास इज सच ये मेजर पोएट'? उनके तेवर से मुझमें भी प्रतिक्रिया जागी-'आई थिंक नो (बडी) इज ऑथराइज्ड भी टू प्रोनाउन्स सच ये जजमेंट'...हमें पहले ही समझ जाना चाहिए था कि एक सीनियर आई.ए.एस. अफसर अपने ही मातहत कवि पर लेख कैसे लिख सकता है। प्रसंग आ ही गया है तो अशोक वाजपेयी का एक वक्तव्य और सुन लीजिए। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् (जो अब राज्य की साहित्य अकादेमी है) के सचिव पद पर रायगढ़ (छत्तीसगढ़) से विशेष रूप से आमंत्रित-नियुक्त किए गए-डॉ. प्रभात त्रिपाठी। वे परिषद की पत्रिका-साक्षात्कार-के पदेन सम्पादक भी थे। उन्होंने अशोक वाजपेयी पर केन्द्रित उसका एक विशेषांक निकाला। जाहिर है उसमें उनकी तारीफें कसीदे-खासा तन्दुरूस्त विशेषांक! त्रिपाठी जी ने एक मुलाकात में सूचना दी कि उसमें प्रकाशित अशोक वाजपेयी से लम्बे साक्षात्कार में मेरा भी जिक्र है। मैं चौंका! उनकी महफिल में हमारा जिक्र? क्या कैसे भाई? मैंने वह अंक उल्टा-पल्टा! उस इन्टरव्यू में कवि-आलोचक (कम अफसर ज्यादा) अशोक वाजपेयी जी ने फतवा दिया- "मैं मलयज और रमेशचन्द्र शाह के मुकाबले कमला प्रसाद और धनंजय वर्मा को आलोचक नहीं मानता।"


मेरा आज भी कहना है कि मैं किसी का मुकाबला करने के लिए नहीं लिखता और मैं किसी से भी मुकाबला करूं ही क्यों? साहित्य क्या कोई युद्ध का मैदान या कुश्ती का अखाड़ा है कि लोग एक-दूसरे का मुकाबला करें? क्या वह कोई प्रतियोगिता है? कोई सौ मीटर रेस है? अरे भाई, यदि वह रेस है भी तो मैराथान-रिले रेस है कि पूर्वजों की विरासत में हमें कुछ मिला। हमने अपना यत्किंचित योगदान किया और आने वाली पीढ़ी को सौंप दिया। अव्वल तो आपसे प्रमाण-पत्र लेने-मांगने गया कौन था? फिर आप हैं कौन प्रमाण -पत्र देने वाले? किसने दिया आपको यह अधिकार? क्या साहित्य कोई सौन्दर्य प्रतियोगिता है कि आप उसमें कवि-कथाकार-आलोचकों की प्रतिद्वन्द्विता आयोजित करें और उनका श्रेणीकरण करें। उनमें 'मेजर' और 'माइनर' का उद्वघोष करें। और प्रमोद भाई क्या किसी के अस्वीकार से कोई खारिज हो जायेगा? और 'स्वीकार' से स्थापित! और महान बन जाएगा?


जहां तक मुक्तिबोध की बात है, वे एक ही शिविर की खेमेबाजी और गुटबाजी के शिकार हुए इसीलिए तो उन्होंने शदीद तकलीफ से कहा था-"मेरे ही शिविर में मेरी हत्या हो सकती है, वास्तविक तिरस्कार हो सकता है, हुआ है, होता रहेगा शायद।" इसके भी वजूहात हैं-अव्वल तो मुक्तिबोध की आस्था मार्क्सवाद में जरूर थी लेकिन वे पार्टी के अनुशासन और निर्देशों से बंधे नहीं थे। उन्होंने हमेशा उसकी गतिविधियों या 'पोलीटिकल एक्सपीडियेन्सी' का समर्थन नहीं किया इसलिए पार्टी के 'थिंकटैंक' या 'आडियालॉग' डॉ. रामविलास शर्मा उनके अनुकूल और उनसे प्रसन्न कभी नहीं रहे। मुक्तिबोध ही नहीं राहुल सांकृत्यायन और यशपाल, रांगेय राघव और अमृतराय भी शर्मा जी की खफगी के शिकार हुए। जाहिर है इस तरह के रागद्वेष और शिविरबद्ध, खेमेबाज और गुटपरस्त लेखन से साहित्य और आलोचना का ही नुकसान होता है। हुआ है, होता रहेगा।


प्रमोद : क्या साहित्य की दिशा राजनीतिक विचारधारा को तय करना चाहिए और जो 'निजपथ' पर चले और ‘पर पथ' पर चलना अस्वीकार कर दे उसे लांछित और बहिष्कृत कर देना चाहिए?


धनंजय : मैं समझता हूं कि कोई भी विचारधारा सिर्फ राजनीतिक नहीं होतीमसलन-मार्क्सवाद सिर्फ एक राजनीतिक विचारधारा नहीं है। वह एक जीवन दर्शन और जीवन-दृष्टि भी है। उसकी भौतिक और आर्थिक, ऐतिहासिक और राजनैतिकसाहित्यिक और सौन्दर्य शास्त्रीय विचार सरणियां हैं। जब किसी विचार-दर्शन के अनुसार सामाजिक संरचनागत परिवर्तन की कोशिश में एक संगठन या संघ बनता है तब वह एक राजनैतिक दल में भी तब्दील होता है (जैसे कम्युनिस्ट पार्टी) उसका अपना एक राजनैतिक कार्यक्रम या एजेंडा होता है। अब जरूरी नहीं कि मार्क्सवाद में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति लेखक या कवि उस पार्टी का सदस्य और कार्यकर्ता भी हो । साहित्य की अपनी एक स्वायत्तता, एक स्वतंत्र सत्ता और वैयक्तिकता भी होती है। साहित्य और कला का इलाका इस दुनिया की इंसानी पहचान का अपना खास इलाका है। यहां उसका अपना एक रूप और अपनी एक खासियत होती है। इस बात को पार्टी के कर्ता-धर्ता, संचालक और संगठन कर्ता भी भूल जाते हैं। मुझे लेनिन की ही एक बात याद आ रही है। उन्होंने कहा था- The Universal exists only in the individual, and trrough individual, Every individual is in one way or another) Universal. Every universal is a fragment (or an aspect or the essence) of an individual साहित्य भी व्यक्ति के माध्यम से ही 'सार्वजनीनता' अर्जित करता है। यह इतनी बुनियादी बात पार्टी के लोगों को जाने क्यों समझ में नहीं आती। वे कवि-लेखक के स्वतंत्र चिन्तन, सोच-विचार और अनुभव-दृष्टि को एक निर्धारित दिशा में निर्देशित करना चाहते हैं और जो इससे इंकार करता है, अपनी वैयक्तिकता, स्व-आयत्तता का स्वत्वाग्रह करता है उसे वे अपने खिलाफ समझते हैं। उसे वे लांछित और बहिष्कृत भी करते है। वे किसी निजी पथ को स्वीकार नहीं कर पाते । सारे दल यही करते हैं।


प्रमोद : ज्वलंत मुद्दा है- क्या एक लेखक को 'एक्टिविस्ट' होना ही चाहिए? अभी-अभी देश में पुरस्कार लौटाने का ज्वार उठा था। अब सब कुछ शान्त है। बिलाशक, जो जिसके पास है, उसे लौटाने या अपने पास रखने का उसे अधिकार है। अभी-अभी जो सक्रियता नजर आई उसमें आत्म-प्रेरणा ज्यादा नज़र आती है या इसके सूत्र कहीं 'राजनीति' से जुड़े हैं। क्या ऐसा तो नहीं है कि कवियों-लेखकों ने भावुकतावश अपना उपयोग होने दिया था या किसी बड़े खेल की सोची-समझी छोटी सी चाल थी? आप क्या सोचते हैं?


धनंजय : अव्वल तो मैं समझता हूं कि एक लेखक यादि सोशल या पोलीटीकल एक्टिविस्ट होना तय करता है तो यह उसका चुनाव है-व्यक्ति स्वातंत्र्यवादी मुहावरे में कहूं तो यह उसकी ‘वरण की स्वतंत्रता है। इससे उसके लेखन के मूल्यांकन में कोई फर्क नहीं पड़ता, न पड़ना चाहिए। जहां तक पुरस्कार लौटाने के ज्वार की बात है उसमें कोई ‘एक्टीवीज्म' नहीं था। वह शुद्ध अवसरवाद था। उसमें आत्मप्रेरणा से अधिक आत्मप्रदर्शन था। उसमें कोई राजनीति भी नहीं थी। वह शुद्ध मौकापरस्ती थी। जिन कवियों-लेखकों ने पुरस्कार लौटाये उनमें से अधिकांश खासे चालाक 'कैलकुलेटिव' और 'स्कीमी' लोग हैं। उन्होंने पुरस्कार पाने के लिए भी अपने इसी चरित्र का इस्तेमाल किया था। वे इतने भावुक या भोले नहीं हैं कि अपना उपयोग होने दें। वे तो अपने फायदे के लिए हर किसी का उपयोग करने में माहिर लोग हैं। यह उनकी किसी बड़े खेल की सोची समझी चाल थी जो उतनी ही छोटी और टुच्ची साबित हुई। उससे किसका क्या बिगाड़ा या बना लिया उन्होंने?


प्रमोद : भोपाल राजधानी है। राजधानी का अपना चरित्र होता है। वह कृपावंत होकर कब कुटिल और खूखार हो जाए, पता नहीं चलता। राजधानी के निरंतर चढ़ते तापमान में आपके दिन कैसे कटे?


धनंजय : जब राजनीति का ही कोई चरित्र नहीं होता (वह चरित्रहीन होती है) तो राजधानी का अपना कोई चरित्र कैसे हो सकता है? वह तो हरजाई है-सत्ता की मोहताज है- जिसकी सत्ता, उसकी राजधानी। राजधानी के निरंतर चढ़ते तापमान की बजाय मैं उसे राजधानी का निरन्तर बदलता मौसम कहना पसंद करूंगा। जब भोपाल में कांग्रेस की सत्ता थी तो कांग्रेसियों के चहेते (और किसी हद तक वामपंथी) कवि लेखक दृश्य पर छाये हुए थे और जब भाजपा सत्ता में आयी तो उसके चहेते और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं का दौर दौरा शुरू हो गया। 'हुआ जो शाह का मुसाहिब, फिरा वो इतराता' लेकिन जैसे ही बदली सत्ता, बड़ी बेआबरू होकर निकला वो शाह के कूचे से। आप गौर करें: वो फिर कवि-लेखक ही होते हैं जो सत्ता-सापेक्ष्य गठजोड और जोड़-तोड में मुब्तिला और माहिर होते हैं मसलन मध्यप्रदेश कला परिषद के एक कवि-आलोचक सचिव ने कांग्रेस की सत्ता का भरपूर लाभ उठाया और भाजपा के शासन में जब विधानसभा में उसकी कारगुजारियों और कारस्तानियों पर बहस हुई तो भाजपा के विधायकों-मंत्रियों ने ही उसका बचाव किया। जो इनमें से कहीं फिट नहीं हुआ वो हमारी तरह हाशिए पर ही रहा आया। गम उसका भी नहीं न कोई शिकवा-शिकायत! जब वह रास्ता ही नहीं चना हमने तो उसकी मंजिल ही कैसे और क्यों कर मिलेगी हमें? हम तो प्यारे वहां भी ऐसे ही रहे जैसे यहां उज्जैन में। अपने पढ़ने लिखने और दो चार दोस्तों में मगन।


प्रमोद : आजकल हर कोई अपनी आत्मकथा लिख रहा है। 'एक पत्थर आप भी यदि तबियत से उछालते तो खूब मजा आता।आप यदि यह काम करते तो यह निश्चित रूप से साफगोई की मिसाल होती।खूब ले-दे मचती।वातावरण में गर्मी आती।बरफपिघलती । चट्टानें खिसकतीं। कइयों की परेशानी बढ़ती। आपको यह ख्याल नहीं आया ? अभी भी देर नहीं हुई। तो .....


धनंजय : नहीं प्रमोद भाई, आत्मकथा लिखने का कभी ख्याल नहीं आया। हरिनारायण व्यास जी ने एक दो बार कहा भी लेकिन मैंने उनसे कहा दादा! जो जिन्दगी मैं जी चुका उसे, लिखने के दौरान, दुबारा जीने की सिम्त मुझमें नहीं है और न महात्मागांधी की सी सत्यनिष्ठा मुझमें है। मैं यह भी जानता हूं कि 'एक पत्थर मैं चाहे जितनी तबियत से उछालूं तो भी आसमान में छेद नहीं हो सकता। शायरी और कविता से जिन्दगी जी नहीं जाती। वातावरण में गर्मी, बरफ पिघलाने, चट्टानें खिसकाने और कइयों को परेशान करने में भी अपनी कोई रूचि नहीं है। आत्मश्लाधा, आत्ममुग्धता और आत्मरति से ग्रस्त तथाकथित आत्मकथा लिखने में भी मेरी दिलचस्पी नहीं है।


प्रमोद : आलोचना की 'यारी शाखा' का फलन-फूलन हमेशा रहा है। मैत्री निर्वाह के अलावा भी इसके निहितार्थ बहुत गहरे रहे हैं। उसी के साथ "हिसाब चुकता" करना और नेस्तनाबूद करने की कला को भी आलोचना में शुमार कर लिया गया। आपके सामने तो इसका पूरा इतिहास है। कृपया बतलाएं- इससे आलोचना की साख पर असर पड़ा? पड़ा तो कैसा?


धनंजय : हां, आलोचना में "यारी शाखा" खासी फूली-फली है। मैत्री निर्वाह के निहितार्थ भी बहुत गहरे हुए हैं। हिसाब चुकता कर नेस्तनाबूद करने का मंशा लगभग हमेशा से ही रहा है लेकिन हिन्दी में इधर वह लगता है-अपने चरम पर है। रिश्तेदारी और जातिवाद भी आलोचना में खूब पनपे हैं। इन सबके कुछ नमूनों का शिकार तो मैं भी हुआ हूं- कुछ बानगी मैं आपको दिखा और पढ़वा भी चुका हूं बल्कि अपने पचहत्तरवें और अस्सीवें जन्म दिनों पर जो स्मारिका. पस्तकें और पत्रिकाएं प्रकाशित हुई उनके सम्पादकों से भी मैंने निवेदन किया था कि वे मेरे खिलाफ लिखी गयी इस सामग्री को भी तो शामिल प्रकाशित करें। मेरी किसी ने नहीं सुनी।...जाहिर है इस सबसे आलोचना की साख को तो बट्टा लगा ही, वह बदनाम भी हुई। मेरे जेहन में तो यह सवाल भी उठता है कि क्या हम उसे आलोचना कह-या-मान सकते हैं? इस तथाकथित आलोचना का अंततः हश्र-क्या होता है? क्या उससे कोई स्थापित और प्रतिष्ठित या खारिज और बहिष्कृत हो जाता है? यदि स्थापित और प्रतिष्ठित भी होता है तो कब तक? आज मरे, कल दूसरा दिन... लोग याद भी नहीं करते उनको जो बैसाखियों के सहारे खड़े किए गए और जिन्हें आपने खारिज और बहिष्कृत करने की कोशिश की वे आपके न चाहते हए भी इतिहास में दर्ज हुए ऐसे कि किसी की लाख कोशिशों के बावजूद मिटाये न मिटे! मेरा तो आत्यन्तिक विश्वास यही है कि यदि आपकी रचना, आलोचना में दमखम है तो वह देर-सबेर अपनी अहमियत उजागर करके रहेगी।


प्रमोद : आप बतलाएं आलोचना दायरा कृति होना चाहिए या उस दायरे में कृतिकार को भी ले आना चाहिए ? मान लीजिए एक लेखक अपराधी दुराचारी है पर वह श्रेष्ठ रचना करता है तो हमारा पहले ध्यान व्यक्ति और उसके आचरण पर ही जाता है और हम उसका मिथक निर्मित कर लेते हैं। 'निराला' इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। कृति पर हमारा ध्यान बाद जाता है और उस मिथक की चकाचौध या छाया में हम नतीजे निकालते हैं। आलोचना का सही काम क्या है?


धनंजय : आप कृति को कृतिकार से अलग कैसे करेंगे? गुलाब की खुशबू को गुलाब से अलग कैसे करेंगे? हमारे यहां तो कवि को प्रजापति-ब्रह्मा कहा गया है। ब्रह्म को उसकी सृष्टि से अलग कैसे करेंगे? वह तो स्वयंभू ही नहीं परिभू भी हैसर्वव्याप्त है। वह तो अपनी सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। कृति की रग-रग में कृतिकार की मौजूदगी है। कृतिकार का व्यक्तित्व ही तो उसकी कृति को अद्वितीयता' देता है। आप गौर से देखें तो हर मनुष्य की अपनी एक अलग पहचान है। उसकी बायोमीटिक वैयक्तिकता है। उसके 'फिंगर प्रिन्टस' उसकी व्यक्ति-गतता है। यही व्यक्तिगतता उसकी कृति में भी प्रक्षिप्त होती है। मैंने 'रचना प्रक्रिया : व्यक्तित्व की भूमिका' शीर्षक अपने लेख (आलोचना के सरोकार) में इस विषय पर विस्तार से विचार किया है । मेरा विश्वास है कि कृतिकार का व्यक्तित्व ही उसकी कृति को कलात्मक श्रेष्ठता और प्रासंगिकता देता है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि कोई आदमी अपने जीवन और आचरण में तो टुच्चा और ओछा, खुडपेंची और असामाजिक या समाज विरोधी हो लेकिन उसकी कृति कलात्मक दृष्टि से महान और सामाजिक या मानवीय नुक्त-ए-नजर से प्रासंगिक हो जाय। अक्सर लोग कहते पाए जाते हैं कि कृति का मूल्यांकन करते हुए कृतिकार के व्यक्तित्व का जिक्र ही क्यों किया जाए? ऐसे लोग रचनात्मकता के मूल्यांकन के प्रसंग में एक चोर दरवाजा बनाए रखना चाहते हैं। मुझे इस वक्त अंग्रेजी कविता में स्वच्छन्दतावाद की मुख़ालिफत करने वाले आधुनिकता के पुरोधा टी.एस. इलियट का एक वाक्य याद आ रहा है: "Poetry is not a turning loose of emotion, but an escape from emotion. It is not the expression, of personality but an escape from personality"....वर्डसवर्थ के Spontaneours over flow of powerful feelinas की बजाय टी.एस. इलियट ने कविता को escape from emotion कहा और वर्डसवर्थ के recollected in tranqualitv की बजाय escape from personality कहा। लोगों ने escape का अनुवाद पलायन किया जबकि escape का अर्थ उन्मक्ति और मोक्ष भी होता है। याने कविता में व्यक्ति के भाव और भावना ही नहीं उसके व्यक्तित्व की भी एक सक्रिय भूमिका अवश्य होती है- यह मैंने उसी लेख में इलीयट के द्वारा प्रस्तुत रासायनिक अभिक्रिया के सांकेतिक सादृश्य पर एक पुनर्विचार के द्वारा भी सिद्ध किया है। बहरहाल..... आपने कहा कि "एक लेखक अपराधी-दुराचारी है पर वह श्रेष्ठ रचना करता है" तो यहां आपने लेखक के व्यक्तित्व के सामाजिक, नैतिक और आचारगत मानक की बात की, जो सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं की तब्दीली के साथ बदलते हैं। निराला की मिसाल आपने दी। उनका मिथक किस वजह से बना? उनके मदिरासेवन, मांस भक्षण और यहां तक कि कोठों पर जाने को क्या हम उनका 'अपराध' और 'दुराचार' मान लें? इस तथाकथित चारित्रिक स्खलन के बावजूद उनका औघड़दानी, चरम स्वाभिमानी हिन्दी के लिए बड़े-से-बड़े व्यक्ति और प्रतिष्ठान (यहां तक कि महात्मा गांधी और प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नहेरू तक) से भिड़ जाने वाले दुर्घर्ष योद्धा और इंसानियत के नुक्त-ए-नजर से महान और विराट व्यक्तित्व ही उनकी रचनात्मक श्रेष्ठता, “अनेक क्षितिजों और दिगन्त भूमिकाओं" का उनका प्रचुर साहित्यिक अवदान ही उनके उस मिथक की रचना करता है। हम देख चुके हैं कि रचनात्मकता में मानवीयता के क्षणों, मॉमेन्ट्स आफ ह्यूमैनिटि, इंसानियत के लम्हात की व्यापक समृद्धि ही देश और काल को अतिक्रान्त करती है।...आलोचना का सही काम, मैं दुहराता हूं, समग्रता में देखना है। इस समग्रता में कृति और कृतिकार कर्म और कर्ता दोनों शामिल हैं। हम कृतिकार के रूढ़ सामाजिकआचारगत नैतिक चरित्र की बजाय उसके मानवीय व्यक्तित्व की श्रेष्ठता को रेखांकित करना चाहते हैं। बाल्जाक और दोस्तोएव्स्की भी इसकी बेहतरीन मिसालें हैं। नैतिकता और आचरण के रूढ़ मानकों पर खरे न उतरने के बावजूद उनकी रचनाएं मानवीय दृष्टि से श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण हैं।


प्रमोद : आपने 'नयी कहानी' की परख के मानक तय किए। उस दौर के कहानीकारोंकहानियों की ओर ध्यान खींचा। इस दौर की कहानियों को व्यापक धरातल पर विश्लेषित किया और इस बदलाव को अनिवार्य सिद्ध किया। यही नहीं, पुरानी कहानी और नयी कहानी के बीच विभाजक रेखा भी खींची। यह आपका बड़ा अवदान है। सदी बदली। नए परिवर्तनों ने चकित किया। कहानी की जमीन बदली। तेवर बदले। यथार्थ दुःसाहस के साथ कहानी में व्यक्त होने लगा। आरोप भी कम नहीं लगे। आप बतलाएँ- आज की कहानियों में पिछली कहानियों के कौन से तत्व लुप्त हुए और नया क्या जुड़ा? एक पूरे आन्दोलन के अवसान के बाद उस पर समग्रता में पुनर्विचार या पुनर्मूल्यांकन की जरूरत आपको महसूस नहीं होती?


धनंजय : आपकी जर्रानवाजी का शुक्रिया। 'नयी कहानी' के दौर में मेरे कथाआलोचना में अवदान का आपने नोटिस लिया, मैं आभारी हूं। एक पूरे आन्दोलन के अवसान के बाद उस पर समग्रता से पुनर्विचार और पनर्मल्यांकन मैंने किया है। वह मेरी कथा-आलोचना की पुस्तकत्रयी की दूसरी पुस्तक 'हिन्दी कहानी का सफरनामा में संकलित हैं। उसे दुहराने की यहां जरूरत नहीं है। सदी के बदलने, नये परिवर्तनों की वजह से कहानी की जमीन में आए बदलाव और नये तेवरों को अब नयी पीढ़ी नये आलोचक रेखांकित विश्लेषित करें। पीढ़ियों के अन्तराल जनरेशन गैप के चलते 'सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होने की कहावत को चरितार्थ करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। हां, गाहे-ब-गाहे, वक्तन-फ-वक्तन कुछ नये कहानीकारों, कहानी संग्रहों और उपन्यासों पर भी मैंने लिखा हैजो प्रकाशित तो है, संकलित नहीं है।


प्रमोद : इस सदी में कहानीकारों की एक उत्साही-ऊर्जावान पीढ़ी सक्रिय है। इस नये समय में, नये तेवर की कहानियों के नए मानक तय करके आप अपनी कहानी-आलोचना को अधिक व्यपाक और समृद्ध करना नहीं चाहेंगे?


धनंजय : इस सदी में कहानीकारों की एक उत्साही-ऊर्जावान पीढ़ी सक्रिय है तो उसके समानान्तर नये कहानी-आलोचकों की भी उतनी ही उत्साही और प्रतिभावान पीढ़ी भी मौजूद है जो अपना काम कर रही है। अब मुझमें इतनी शारीरिक क्षमता नहीं बची कि मैं उतना श्रम कर सकूँ। वैसे भी अब मैं निवृत्तिमार्गी हो चला हूं।


प्रमोद : आलोचना के वर्तमान स्वरूप और दशा से लेखक ही नहीं, कई आलोचक भी संतुष्ट नहीं हैं। ऐसी स्थिति में आलोचना का भविष्य क्या है?


धनंजय : लेखकों और आलोचकों का यह असंतोष ही आलोचना का स्वर्णिम भविष्य तय करेगा।


प्रमोद : प्रगतिशील लेखक संघ से आपका रिश्ता बहुत गहरा रहा है। संवाद ने इस संगठन को मजबूत बनाया । कठिन समय में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। बाद में इस संगठन में ऐसे लेखकों को न केवल प्रवेश मिला बल्कि वे संगठन के शीर्ष पर भी नजर आए, जिनकी भूमिका संदिग्ध रही। उन्हें इतनी मान्यता देने की वजह क्या रही? कालान्तर में साम्यवादी दल ही हाशिए पर आ गया तो यह संगठन भी सिमटता चला गया। प्रगतिशील लेखक संघ का विभाजन और जनवादी लेखक संघ का आविर्भाव हुआ। क्या इस विभाजन को टाला नहीं जा सकता था?


धनंजय : अपनी दूसरी बैठक के आठवें प्रश्न के उत्तर में इस प्रसंग में मैं अपनी बात कह चुका हूं। यहां इतना और जोड़ना चाहूंगा कि दरअसल किसी भी निर्माण में ही उसके विनाश के बीज भी अन्तर्निहित होते हैं। गालिब का एक शेर भी है:


मिरी तामीर में मुज्मर है इक सूरत खराबी की


हयूला बर्के-ए-खरमन का, है खून-ए-गर्म देहकां का।


प्रगतिशील लेखक संघ के विभाजन की एक वजह तो आपने बता ही दी है। दुर्भाग्य से लेखक संघों में भी नेतृत्व आकांक्षा और साहित्येतर महत्वाकांक्षा के चलते अन्तर्गुटीय आपाधापी और टुच्ची राजनीति की वजह से ही विभाजन होते हैं-हुए हैं। होते रहेंगें।


प्रमोद : बड़ा बचकाना सा सवाल है। जरूरी नहीं कि इसका उत्तर आप दें ही।(आप यदि खीझ निकालना चाहें तो जरूर निकालें) कभी आलोचना को कवि शिक्षा ( कवि शब्द बड़ा व्यापक और व्यंजक था) याने आलोचक का काम कवि को योग्य बनाना था और आलोचक की भूमिका शिक्षक की होती थी। आलोचना का अपना सिलेबस होता था। जो उत्तीर्ण हो गया सफल। अनुत्तीर्ण विफल। इस तरह क्या वाकई कोई बड़ा कवि बना? क्या ऐसा सर्वमान्य कोई पाठ्यक्रम हो सकता है। और ऐसा आलोचक सचमुच प्रतिष्ठित हुआ।


धनंजय : नहीं बचकाना कतई नहीं. दिलचस्प सवाल है। दरअसल संस्कत काव्य शास्त्र में कवि-शिक्षा' का विशेष उल्लेख है-यहां तक कि उसकी दिनचर्या, स्वाध्याय, शास्त्र-ज्ञान, अभ्यास, अध्ययन के विषय आदि का भी विस्तार से वर्णन है। इस सबका मकसद कवि-प्रतिभा का परिष्कार था। कवि आचार्य राजशेखर ने 'काव्य मीमांसा' में भावकों (जिन्हें आधुनिक भाषा में आलोचक ही कहें) के अनेक प्रकारों का वर्णन किया है। उनमें से तत्वाभिनिवेशी' आलोचक को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। राजशेखर के अनुसार ऐसा आलोचक कवि का मित्र, स्वामी, मंत्री (याने उचित परामर्श देने वाला) और आचार्य (याने गुरू) होता है। वे कहते हैं कि कवि के हृदय में रहने वाले उस काव्य से क्या लाभ जिसे आलोचक चारों दिशाओं में न फैलायें। पोथियों के पन्नों में तो अनेक काव्य घर-घर मिल जायेंगे लेकिन आलोचक को अभिभूत कर दें ऐसी काव्य कृतियां तो इनी-गिनी ही होती हैं। श्रेष्ठ रचनाओं को पढ़ते हुए आलोचक के हृदय में जो अप्रकट, गूढ़ और विलक्षण भाव उत्पन्न होते हैं उन्हें तो नाट्य शास्त्र के निर्माता ब्रह्मा भी नहीं जानते। और कविवर तुलसीदस ने ही तो कहा है-'सुकवि कवित्त बुध कह ही, उपजत अनत, अनत छवि लहहीं।'.. लेकिन आजकल कवि तो 'जन्मजात' होते हैं। ककहरा सीख कर, दो-चार कविताएँ लिख-छपवा कर ही वे खुद को 'महाकवि' समझने लगते हैं। उन्हें किसी कविशिक्षा की जरूरत ही क्या? उन्हें किसी आलोचक की भी जरूरत और परवाह नहीं होती। वे इतने स्वयंभू और परिभू होते हैं कि बिना पढ़े-लिखे ही सर्वज्ञानी हो जाते हैं। पढ़ना और सीखना उनकी मौलिकता को नष्ट करते हैं। संगीत में तो गुरू-शिष्य परम्परा अब भी किसी हद तक विद्यमान है। उर्दू में भी शायरी के लिए उस्ताद की इस्लाह कभी जरूरी थी।अब दोनों क्षेत्रों में गुरू की भूमिका गैरजरूरी होती जा रही है।


प्रमोद : आलोचक पाठक को संस्कारशील बनाए, इस दिशा में भी काम हुआ? यदि हां तो अब पाठक को आलोचना पर पहले जैसा भरोसा क्यों नही रहा?


धनंजय : आलोचक पाठक को संस्कारशील कैसे बनाए जब वह आलोचना पढ़ना ही न चाहें? अब तो कवियों-लेखकों की भी तकलीफ और शिकायत भी यह है कि साहित्य के पाठक लगातार कम हो रहे हैं। किताबों की छोड़िए, पत्रिकाओं की पाठक संख्या भी निरन्तर कम हो रही है। कभी अखबारों के साहित्य-परिशिष्ट निकला करते थे। अब उनकी जगह फैशन और रेसीपी वगैरह ने ले ली है। ऐसे माहौल में आलोचना पढ़ता कौन है, सिवाय उन कवियों-लेखकों के, जिनके बारे में वह लिखी गयी है, वह भी यदि उनके अनकल और प्रशंसा में हो। हां, जो पाठक गम्भीरता से साहित्य-आलोचना पढते हैं वे निश्चय ही संस्कारशील हैं और आलोचना उनके संस्कारों में परिष्कार भी करती है।


प्रमोद : सुना है कभी आपका रुझान भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए रहा। आप कोशिश करते तो आप इस प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो जाते पर आप नहीं गए। ऐसा किस दबाव में हुआ? जबकि प्राध्यापक होकर भी प्रशासनिक जिम्मेदारियों को भी आपने बखूबी निभाया। तब क्या ख्याल आया कि उसी तरफ बढ़ गए होते तो ज्यादा बेहतर होता?


धनंजय : आपके प्रश्न से मुझे बेसाख्ता लगभग साठ बरस पुराना एक प्रसंग याद आ गया। छत्तीसगढ़ कालेज, रायपुर में मेरी मुदर्रिसी शुरू हो चुकी थी। मेरी पहली किताब : निराला काव्य और व्यक्तित्व प्रकाशित हुई थी। उसे भेंट करने मैं अपने गॉड फादर और मेन्टर श्री आर.सी.वी.पी. नरोन्हा के बंगले पर गया। उन्होंने पूछातुमने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा क्यों नहीं दी? मैंने कहा- “सर किसी तरह एम.ए. कर लिया यही गनीमत । जब इस बारे में सोचा तब तक आयु सीमा पर कर चका था।" नौकरी की तलाश में मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग में व्याख्याता के साथ डिप्टी कलेक्टर के लिए भी आवेदन कर दिए थे। नरोन्हा साहब ने छत्तीसगढ़ कॉलेज, रायपुर से इस्तीफा दिलवाकर शासकीय महाविद्यालय जगदलपुर भिजवा दिया था। वहीं से पहले व्याख्याता फिर डिप्टी कलेक्टर के साक्षात्कार के लिए इन्दौर गया। लौटा तब तक भोपाल हमीदिया कॉलेज में ट्रान्सफर पर आ गया। नरोन्हा साहब पहले ही भोपाल सचिवालय में आ चुके थे। व्याख्याता तो था ही, डिप्टी कलेक्टरी के लिए भी चुन लिया गया। मैं फिर नरोन्हा साहब की शरण में गया। उन्होंने कहा तुम शुरू से आखिर तक फर्स्ट क्लास और मेरिट होल्डर रहे होउसका तुम्हें वाजिब गर्व भी होगा। डिप्टी कलेक्टरी में किसी प्रमोटी कलेक्टर से तुम उलझ गये तो वह तुम्हारा केरियर बरबाद कर देगा। तुम व्याख्याता तो हो ही, लेखक भी बन गए हो। मेरी सलाह मानो तुम इसी में बने रहो। कितनी नेक सलाह दी थी उन्होंने। 'प्राध्यापक होकर भी प्रशासनिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभाने' की बात आपने खूब कही। प्रमोद भैया, वह तो 'रपट पडे की हर गंगा' थी। मजबूरी में प्रतिनियुक्ति में दो साल तक संस्कृति विभाग में चाकरी करनी पडी और आदिवासी लोक कला परिषद के सचिव का अतिरिक्त कार्यभार भी सम्हालना पड़ा। वहां से लौटा तो 'जान बची और लोखों पाये, लौट के बुद्धू घर को आए' की कहावत चरितार्थ हई।


प्रमोद : राज्य और लेखक के रिश्ते कैसे होने चाहिए ? कबीर और कुंभन दास और तुलसीदास ने तो अपने रिश्ते स्पष्ट कर दिए थे। रीतिकालीन कवियों ने अपने 'हित' में ही सृजन का हित देखा और रचना के स्वर बदल गए। सर्जक की भूमिका तय हो गयी। आज भी सत्ता बदलती है तो अफरा-तफरी मच जाती है। जो 'उधर' थे इधर नजर आने लगते हैं। प्रलोभन का खेल क्या क्या नहीं करवाता है। जो सामने नजर आता है, उससे कहीं ज्यादा सक्रियता नेपथ्य में होती है। एक अलग 'राजनीति' और गुपचुप खेल। इस आधुनिक 'रीतिकाल' पर कोई टिप्पणी करना आप पसंद करेंगे?


धनंजय : पहले तो संस्कृति विभाग में चाकरी से मिली सीख गांठबांध कर रख ली। अफसर से दुश्मनी तो ख़तरनाक है ही, दोस्ती भी कम दुखदायी नहीं है। वह कहावत भी है न! 'न घोडे की अगाडी अच्छी. न पिछाडी' और राज्य पंजीभत तो अफसरों नेताओं में ही है न! राज्य और लेखक के रिश्तों पर मैंने अपनी पस्तक 'लेखक की आजादी' में विस्तार से एक लेख लिखा है-'साहित्यकार का आत्मसंघर्ष ।' अपने अक्खड़ और फक्कड़ कबीर ने तो सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक पुरोहितवाद तक की लू उतार कर रख दी थी। उनका सा साहसी बल्कि दुस्साहसी फिर कहां हुआ? उधर तुलसीदास ने भी तो साफ-साफ कह ही दिया थाः


"धूत कहो, अवधूत कहो, राजपूत कहो जोलाहा कहो कोऊ


काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जात बिगार न सोऊ


तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रु सो कहै कछु कोऊ


मांगि कै खइबो, मसीत को सोइबो, लैबे के एकु न दैबे को दोऊ"


और


'हम चाकर रघुवीर s पटौ लिखौ दरबार


तुलसी अब का होहिहैं, नर के मनसबदार'


कंभनदास ने 'संतन कहा सीकरी सों काम. आवत-जात पन्हैयां घिस गयीं बिसर गयो हरि नाम' कहकर तो राज्य सत्ता से लेखकों, कलाकारों के रिश्तों पर अपना आत्यन्तिक वक्तव्य दे ही दिया था। ये तो संत थे। हमारी स्वतंत्रता तो इतनी निरपेक्ष और निर्विकल्प हो नहीं सकती, लेकिन अपना विकल्प चुनने की आजादी तो हम बरकरार रख ही सकते हैं। फिर अपनी तकलीफ के इजहार के लिए मुआफी चाहता हूं। जिन्दगी भर सरकारी कालेजों में मुदरिंसी की। उसमें राज्य या सत्ता से सीधे सीधे 'सामना' या 'टकराव' का कभी मौका ही नहीं आया। हां मजबूरी में दो साल की प्रतिनियुक्ति में जरूर अपनी भी 'आवत-जात पन्हैयां घिस गयीं' और अपना हरिनाम (साहित्य और शिक्षा) भी बिसर गया। यहां तक कि 'जिनके मुख देखे दु:ख ऊपजे, उनको करिबो परो सलाम।' की आत्मग्लानि और आत्मप्रताड़ना से भी गुजरना पड़ा, इसलिए दो साल बीतते ही 'पगहैया तुड़ा कर भागे बछड़े' की मानिन्द अपनी मुदरिंसी में लौट आया। गालिब फिर याद आ रहे हैं:


हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता


वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या है?


यह हम-आपको ही तय करना है कि शहर में हमारी-आपकी आबरू क्या है? किस वजह से है? यदि वह सत्ता की वजह से है तो इतिहास इस बात का गवाह है कि सत्ताएं तो बदलती हैं, सत्ता का चरित्र नहीं बदलता। कोई भी सत्ता 'राजा नंगा हैसुनना बरदाश्त नहीं कर सकती। वह तो हमेशा 'आप तो माइ बाप' ही सुनना चाहती है और सत्ता बदलते ही शाह के मुसाहिब उसके कूचे से कैसे कितने बे आबरू होकर निकलते हैं हम आप देख ही चुके है।


राज्य या सत्ता से लेखक बुद्धिजीवी की सीधी आमने-सामने की मुठभेड़ की दो मिसालें अपने इतिहास में ही मिलती हैं एक कौटिल्य का अर्थशास्त्र के लेखक चाणक्य और दूसरी ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़कर देश को आजाद करने वाले महात्मा गांधी। मुमकिन है गीत-कविता और कहानी-उपन्यास के कवि-लेखक इन्हें 'लेखक' कहने मानने से नाक-भौं सिकोडें लेकिन साहित्य की व्याप्ति तो इन तक भी है। चाणक्य ने एक राजवंश को नेस्तनाबूद कर चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य अभिषेक किया और फिर अपनी कुटिया में लौटकर अध्यापन शुरू कर दिया। सत्ता की चाकरी क्या, उन्हें तो उसकी निकटता तक गवारा नहीं हुई। और लगभग ऐसा ही आचरण महात्मा गांधी का था। ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी के जश्न के मौके पर वे कलकत्ता में विभाजन की त्रासदी में साम्प्रदायिकता की आग बुझा रहे थेवे चाहते तो सत्ता में कोई भी बड़ा से बड़ा पद हासिल कर सकते थे। उनका आत्यन्तिक लक्ष्य तो चाणक्य से भी बड़ा और महत्वपूर्ण था। वे तो देश की आजादी के साथ उस मनुष्य की सम्पूर्ण मुक्ति चाहते थे जो स्वतंत्र पैदा हुआ है लेकिन जो हर सिम्त बेड़ियों से जकड़ा है।


प्रमोद : प्राध्यापक का काम केवल क्लास लेना नहीं होता। इसके अलावा भी कई तरह की सक्रियता और उत्तेजना बनी रहती है। इसे भी 'राजनीति' ही कहा गया है। पता नहीं आप इसमें सक्रिय रहे या नहीं पर इस'लीला' के दृष्टा तो आप रहे ही होंगे। इसके छींटे कभी आप पर भी पड़े?


धनंजय : वह कहावत है न- 'काजर की कोठरी में, कैसो हू सयानो जाय, एक लीक लागि है, पे लागि है।'... सो कुछ छींटे मुझ पर भी पड़े। प्राध्यापकों की भी अपनी छोटी-मोटी राजनीति होती ही है- पाठ्यक्रम पाठ्यपुस्तकों में प्रवेश, परीक्षाओं और परीक्षकों की ले-लपक, शोध-समिति और शोध-उपाधियों की कतरब्यौंत, बोर्ड आव स्टडीज में घुस पैठ...! भोपाल विश्वविद्यालय के हिन्दी अध्ययन मंडल के अध्यक्ष जब अक्षय कुमार जैन थे तब मैं उसका सदस्य था। मित्र-प्रवर शानी जी का आग्रह था कि उनका उपन्यास 'काला जल' बी.ए. के पाठ्यक्रम में आना चाहिए। अक्षय बाबू नरेश मेहता का“महाप्रस्थान" लगवाना चाहते थे। हम दोनों में सहमति बनी और दोनों पाठ्यक्रमों में लग गयीं। फिर जब मैं सागर विश्वविद्यालय (अब डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय) के कुलपति पद से मुक्त होकर आया तो मध्यप्रदेश शासन के शिक्षा विभाग ने मुझे स्नातक स्तरीय आधार पाठ्यक्रम का अध्यक्ष मनोनीत नियुक्त कर दिया। उसकी हिन्दी, अंग्रेजी की एक दर्जन पाठ्यपुस्तकों के प्रधान सम्पादक की हैसियत से सम्पादकों के चयन में प्रमुख सचिव : शिक्षा विभाग ने मुझे पूरी आजादी दे दी। नतीजन मेरे कुछ भूतपूर्व मित्रों ने मुझ पर अपनी मनमानी का आरोप लगाया।


प्रमोद : आपकी पुस्तक 'आलोचक का अंतरंग' के एक साक्षात्कार में महावीर अग्रवाल के एक प्रश्न के उत्तर में पुनर्मूल्यांकन की जरूरत पर आपने बड़े मार्के की बात की हैं। पुनर्मूल्यांकन निरन्तर खंगालने और निथारने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से क्या आलोचना भी गुजरती है? यह सवाल आपसे इसलिए भी कर रहा हूं कि आलोचना दूसरों में तो बहुत कुछ देख लेती है पर अपनी मान्यताओं का शोधन वह आसानी से नहीं करती।


धनंजय : पुनर्मूल्यांकन की प्रक्रिया से निश्चय ही आलोचना भी गुजरती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ही क्यों आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. रामविलास शर्मा, अज्ञेय और मुक्तिबोध, विजय देवनारायण साही और डॉ. नामवर सिंह सबकी आलोचना का मूल्यांकन पुनर्मूल्यांकन हो ही रहा है। हर नयी पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी का अपने युगानुकूल मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन करती है और उनकी मान्यताओं, मानदंडों, मानकों और प्रतिमानों में निरन्तर संशोधन और परिष्कार चलता रहता है। बात यह है बकौल अलेन रोब्ब ग्रिये कि “आज जो भी मूल्य विद्यमान हैं वे अतीत के हैं। सिर्फ ये मूल्य ही जो कसौटियों की तरह हो सकते हैं इनकी स्थापना हमारे पुरखों की महान कृतियों के माध्यम से हुई है और ये कृतियां थीं (या हैं) जो अपने समय में नकार दी गयी थीं क्योंकि वे उस समय के जीवन मूल्यों को अभिव्यक्त नहीं करती थीं बल्कि उन्होंने संसार को नये अर्थ प्रदान किए, नये मूल्य, नयी कसौटियां दीं, जिनके जरिए हम जी रहे हैं, लेकिन आज अतीत की ही तरह नयी कृतियां तभी प्रामाणिक मानी जायेंगी जब वे अपनी बारी में संसार को नये अर्थ प्रदान करें और ये अर्थ वे होंगे जिनसे स्वयं सर्जक अभी तक अनभिज्ञ होंगे। वे नयी कृतियों के कारण ही भविष्य में सार्थक होंगे और उनकी बुनियाद पर समाज नये मूल्यों की स्थापना करेगा जो तत्कालीन साहित्य की जांच परख करेंगे। लेकिन आगे चलकर वे पुनः निरर्थक बल्कि कालातीत हो जायेंगे। इस तरह पुनर्मूल्यांकन एक सतत और अनवरत प्रक्रिया है।"(ज्ञानोदय:साहित्य वार्षिकी: जनवरी-2017)


प्रमोद : वे कौन से तत्व थे कि रचना संवेदनशील पाठकों को अपनी लगती ही नहीं, बल्कि उनकी हो जाती थी। इन्हीं से वे अपने को परखने और परिष्कार करते थे। यही नहीं, अपने को उसमें तलाशते भी थे। ऐसी रचनाएं कालजयी सिद्ध हई। प्रेमचन्द इस परम्परा के आखिरी लेखक थे। इसके बाद किसी ने ऐसा लिखा भी तो किसी का ध्यान उस तरफ नहीं गया। क्या साहित्य की भूमिका बदल गयी और क्या साहित्य अपनी नई भूमिका को निभा पाया?


धनंजय : मेरा ख्याल है कि जिस रचना में (वह चाहे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना किसी भी विधा में हो) मेरे-तेरे, उसके-हम सब के एहसासात और जज्बात बयां हुए हैं, वह सहज ही हमारे दिलो-दिमाग में नक्श हो जाती है और अपनी-सी लगती भर नहीं है, अपनी हो भी जाती है। मसलन (इसे, खुदा के वास्ते, मैत्री निर्वाह कदापि न समझें) आपकी 'बेटी' सिरीज की कविताएं, आपका उपन्यास -हंस अकेला या अभी-अभी आया इस सराय में' (जिस पर मैं विस्तार से लिख भी चका हं)। आचार्य रामचन्द्र शक्ल के महावरे में कहा जा सकता है कि जब रचनाकार का हृदय और लोक (पाठक का) हृदय एक दूसरे में सहज ही लीन और समरस हो जाते हैं तब वह रचना न केवल सार्वजनीन बल्कि सार्वकालिक भी जाती है। पाठक उसमें न केवल खुद को देखता परखता है बल्कि उससे उसकी संवेदनाओं का 'विरेचन' और परिष्कार भी हो जाता है। ऐसी रचनाएं उन मानवीय क्षणों से उद्दीप्त होती है जिनमें देश और काल को संतरित और अतिक्रान्त करने की क्षमता होती है। मैं समझता हूं प्रेमचंद इस परम्परा के प्रतिनिधि लेखक तो हैं लेकिन उन्हें आखिरी क्यों कहा जाय? उनकी परंपरा यशपाल और अमृतलाल नागरफणीश्वरनाथ रेणु और नागार्जुन, कथाकार नरेश मेहता और अमरकांत तक चली आयी है। अभी-अभी प्रकाशित सुनील चतुर्वेदी का उपन्यास 'कालीचाट' क्या उस परम्परा की निरंतरता और अग्रिम विकास की कड़ी नहीं लगता? नयी पीढ़ी में ऐसे कई लेखक हैं जिन्होंने उस परम्परा को नये संस्कार और परिष्कार दिए हैंउनका नाम गिनाने की बजाय मैं उनकी शिनाख्त या पहचान को रेखांकित कर सकता हूं। मैं समझता हूं कि किसी रचना को पढ़ते हुए जब हमें लगे कि वह हमारे अनुभव संवेदन में शामिल है और इससे भी आगे वह हमारी भावना और अनुभूति के साथ हमारी दृष्टि के कोण और दिशा को इस तरह बदल रही है कि हम अपने साथ-साथ अपनी चौतरफा जिन्दगी और दुनिया को एक नयी रौशनी, नये संदर्भआयाम और परिप्रेक्ष्य में देखने लगते हैं तो तय मानिए कि हम अपने जमाने प्रासंगिक और प्रमाणिक ही नहीं, सार्थक और महत्वपूर्ण रचना से गुजरे हैं। 


प्रमोद : उर्दू लेखन आज भी मुख्यतः काव्य का क्षेत्र है। वहां आज भी 'इस्लाह' का रिवाज़ बरकरार है। उस्ताद शायर चाहे बड़े शायर न हों पर उन्हें शायरों को संवारने और उन्हें बड़ा बनाने का श्रेय दिया जाता है। हिन्दी में यह परम्परा विकसित ही नहीं हुई। तुलसीदास तो 'कवित्त विवेक एक नहिं मोरे' लिखकर भी महाकवि हो गये। उर्दू में ऐसा नहीं चल सकता। मशविरे का महत्व हमारे यहां क्यों नहीं स्वीकारा गया? ऐसी रवायत हमारे यहां होती तो क्या कविता का चेहरा अलग होता?


धनंजय : नहीं प्रमोद भाई, जहां तक मेरी जानकारी है, उर्दू कथा-साहित्य भी खासा समृद्ध है। मिर्जा हाजी रूस्वा, सआदत हसन मंटो, इस्मतचुगताई, राजेन्दर सिंह बेदी, कृशनचन्दर, कुर्रतुल-ऐन-हैदर एक पूरी गैलेक्सी है। हां शायरी में उस्ताद-ओशागिर्द की परम्परा जरूर सिर्फ उर्दू में रही है लेकिन अब वह भी हिन्दी से संक्रमित हो गयी है। हिन्दी में तो यह कभी रही ही नहीं। इसकी वजह शायद यही है कि हमारे यहां 'कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू' कहा माना ही नहीं गया, वह खुद को ऐसा समझने भी लगा। तुलसीदास सरीखे सांचे मानुष और कवि की विनम्रता उसमें आई ही नहीं। वह किसी अच्छे खां का भी मशविरा क्यों माने? निश्चय ही यदि ऐसी परम्परा हमारे यहां होती तो हमारे कई नये पुराने कवि 'छुट्टा सांड की तरह' उदंड और उच्श्रंखल न होते। हमारे अनेक नये कवि (प्रतिष्ठित और स्थापित भी) हिन्दी काव्य परम्परा से न केवल नावाकिफ हैं वरन उसका मजाक भी बनाते हैं। वे यदि उससे परिचित होते तो अदब के जानिब अदब से पेश आते। उनमें पूरी परंपरा का अन्तःसार, डी.एन.ए. की मानिन्द, प्रवाहित होता और वे उस विरासत के वाजिब हक़दार होते। निश्चय ही तब कविता का चेहरा भी अधिक स्वस्थ और सुन्दर होता।


प्रमोद : पहले जब कविता का ही सर्जनात्मकता पर एकाधिकार था, पद्य में कथा, घटना, उपदेश, प्रसंगों का समावेश होना असहज नहीं था। मैथिलीशरण गुप्त तक कविता ने अतिरिक्त दायित्व निभाया। प्रेमचंद ने कथा तत्व को कविता से मुक्त करवा दिया और कविता के लिए नई चुनौती पेश की। छायावादी काव्य में कविता की नई उठान दिखाई देती है। यथार्थवाद के आग्रह ने एक बार फिर कविता को उन्हीं तत्वों से सजा दिया जिन्हें अनावश्यक और बोझ मान लिया गया था। आप बतलाएं, इससे कविता की ताकत बढ़ी या घटी?


धनंजय : हमारे यहां संस्कृत में तो ज्योतिष और आयुर्वेद तक पद्य में लिखे गये हैं। काव्य में कथाएं भी कही गयी हैं। "मैथिलीशरण गुप्त तक कविता ने जो दायित्व निभाया" उसे आप अतिरिक्त क्यों कह रहे हैं? वह तो कविता का आपद्धर्म ही नहीं अनिवार्य भूमिका भी है। हां, हिन्दी के कुछ सौन्दर्यशास्त्रवादी और कलावादी उनकी कविता में कलात्मकता का अभाव जरूर देखते हैं। आपको ऐसा क्यों लगा कि 'प्रेमचंद ने पहलीबार कथा तत्व को कविता से मुक्त करवा दिया और कविता के लिए नई चुनौती पेश की'? प्रेमचंद के समकालीन ही जयशंकर प्रसाद थे जो उस छायावाद के कवि चतुष्क में सबसे वरिष्ठ थे, जिसमें आपने कविता की नई उठान देखी? कहीं आप 'नयी कहानी' के दौर के 'कहानी बनाम कविता' के प्रायोजित कृत्रिम द्वन्द्वकी ओर तो इशारा नहीं कर रहे हैं? याद आता है कथाकार राजेन्द्र यादव ने फतवा जारी किया था कि 'कविता के दिन अब लद गए। अब युग की आत्मा तो कहानी में व्यक्त हो सकती है।' और कवि श्रीकांत वर्मा ने फिकरा चस्पां किया था कि 'कहानी तो दोयम दर्जे का लेखन है।' मैंने तभी राजेन्द्र यादव को याद दिलायी थी कि मुक्तिबोध अपनी कविता उसी दौर में लिख रहे थे और श्रीकांत वर्मा के बारे में टिप्पणी की थी कि कहानी दोयम दर्जे का लेखन कतई नहीं है, उनकी कहानियां जरूर दोयम दर्जे की हैं। हां, यह जरूर सच है कि प्रेमचंद के दृश्य पर आते ही कथा कहानी और उपन्यास, साहित्यिक आकर्षण का केन्द्र बने और यथार्थवाद कथा ही नहीं कविता में भी महत्वपूर्ण होता गया। याद करें जयशंकर प्रसाद ने ही 'कंकाल' सरीखा यथार्थवादी उपन्यास भी लिखा। 'निराला' ने कुकुरमुत्ता, बेला और नये पत्ते की कविताएं लिखी, पंतजी ने भी 'ग्राम्या' की ओर रूख किया। जिसे आप 'यथार्थवाद का आग्रह' कहते हैं, मैं उसे 'यथार्थवाद की विजय' कहता हूं। मैं नहीं समझता कि यथार्थवाद के आग्रह ने कविता को अनावश्यक' और 'बोझ' मान लिए गए तत्वों से सजा दिया।' मुझे तो लगता है कि यथार्थवादी जीवन दृष्टि ने कविता को जिंदगी का जीवन्त मुहावरा दिया। उससे कविता की ताकत में इजाफा हुआ और वह भी जीवन की भाषा से समृद्ध हुई।


प्रमोद : हमारी परम्परा में हमने कवि को बहुत महत्व दिया। माना यह शब्द तब केवल पद्य रचयिता के लिए ही रूढ़ नहीं था। केवल कवि से संतोष नहीं हुआ तो हमने महाकवि कहना शुरू किया। बाद में महाकाव्य रचना ही अप्रासंगिक होता चला गया।“सम्राटों"ने "महाकवियों" की छवि को धूमिल कर दिया। तब भी कवि का सम्मान हमेशा बना रहा जब कि कहानियों के पाठक बढ़ते चले गए। कहानीकारों को ऐसा सम्मान क्यों नहीं मिला?


धनंजय : आपने सही कहा कि हमारी परम्परा में कवि को बहुत महत्व दिया गया है। इसकी वजह भी साफ है कि तब सारी रचनात्मकता का केन्द्र काव्य ही थानाटक को भी 'दृश्य काव्य' ही कहा गया।...लेकिन हमारी आख्यान परम्परा भी कम समृद्ध नहीं रही। लिखने के पहले कहानी, सुनने सुनाने की वाचिक परम्परा या मौखिक परम्परा में विद्यमान रही है ठीक कविता की तरह। किसी ने सच ही कहा है कि सभ्यताओं के नीचे से कहानियों के स्तम्भ हटा लिए जांय तो वे भरभराकर गिर पड़ेंगी। दुनिया का पहला कथा केन्द्र भारत ही रहा है। लगातार बारह शताब्दियों तक सारी दुनिया को कहानियों के स्रोत यहीं से मिले हैं । वेदों के संवादों, उपनिषदों के उपाख्यानों, पुराण कथाओं, रामायण और महाभारत में बोध और ज्ञान, नीति और धर्म की जो कहानियां मिलती हैं, वे मनुष्य सभ्यता के प्रारंभिक युग से लेकर संस्कृति की समृद्धि तक की यात्रा के वृत्तान्त हैं । बौद्ध जातक और जैन पुराकथाएं, पंचतंत्र और हितोपदेश इस कथा यात्रा के उल्लेखनीय पड़ाव हैं। इसी के समानान्तर वृहत्कथा, कादम्बरी, दशकुमार चरित, वासवदत्ता, जैसी लंबी कहानियां हैं । सिंहासन बत्तीसी, बेताल पच्चीसी की कहानियों को हम कैसे भूल सकते हैं? यह भरम हिन्दी अध्यापकों और आलोचकों का ही फैलाया हुआ है कि हिन्दी में 'कहानी' अंग्रेजी की 'शार्ट स्टोरी' से आई है और उपन्यास अंग्रेजी के नावेल से। वो पदमलाल पुन्नालाल वख्शी जी ही थे जिन्होंने हिन्दी कहानी और उपन्यास को पूर्व और भारतीय आख्यान परम्परा से संयुक्त किया। बीसवीं सदी का वह छठर्वा दशक ही या जब कहानी और उपन्यास ने साहित्यिक रुचि को आकर्षित किया और वे मूल्य चेतना के वाहक बने और कहानीकारों और उपन्यासकारों को पर्याप्त सम्मान मिला। यहां तक कि अनेक कवि भी कहानी और उपन्यास लेखन में प्रवृत्त हुए। निराला और मुक्तिबोध, धर्मवीर भरती और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कुंवर नारायण और नरेश मेहता इसके उदाहरण हैं।


प्रमोद : मतभेद और शत्रुता में बहुत फर्क है। मतभेद होने से हम शत्रु हो जाय यह तो उचित नहीं है पर साहित्य का क्षेत्र हो अथवा राजनीति का, अब सर्वत्र शत्रुता नज़र आती है। हमारे यहां अब संवाद समाप्त हो गए। लड़ाई है तो आर-पार की होनी चाहिए। सह-अस्तित्व के लिए अब जगह ही नहीं बची। जो हमारा नहीं, वह हमारा शत्रु और शत्रुता घरानों में तब्दील होती चली गयी बतलाएं, साहित्य में शत्रुता को गहरा करने का काम आलोचना ने कितना किया?


धनंजय : आलोचना, ज्यादा से ज्यादा, मतभेद है लेकिन उसे कवियों, लेखकों ने ही नहीं, आलोचकों ने भी विरोध' और 'दुश्मनी' समझ लिया। जब ‘मति' ही नहीं है, तब ‘सहमति' तो दूर 'संवाद' ही कैसे मुमकिन हैं? असहिष्णुता इतनी व्यापक और कट्टर होती चली जा रही है कि वह लड़ाई ही नहीं, आर-पार की लड़ाई हो गयी है। यह सब राजनीति की देन है। यहां शत्रुता घरानों में नहीं गिरोहों में तब्दील हो गयी है। कहने को हमारा सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन जहां भिन्न मत, असहमति और दूसरे विचार की ही कद्र न हो वहां कैसा लोकतंत्र! अब तो लगता है राजनीतिक दल भी माफिया गिरोहों की रणनीति अपना रहे हैं। एक दल दूसरे को नेस्तनाबूद कर देना चाहता है। सत्ता किसी विपक्ष के अस्तित्व को ही मिटा देना चाहती है। यह विभाजनकारी, विध्वंसक राजनीति अब इतनी सर्वव्यापी सर्वनाशी ही नहीं, सत्यानाशी भी हो गयी है कि इसने मानवीय गतिविधि और संस्कृति के हर इलाके को ग्रस लिया है इस हद तक कि उसके आक्टोपसी शिकंजे से मुक्ति के अब कोई इम्कानात नजर नहीं आते। लगता है लोकतंत्र अब अंतिम सांसे गिन रहा है।


प्रमोद : बन्धुवर, आप प्रयोग के कितने कायल हैं? मैं प्रयोगवाद की बात नहीं कर रहा। प्रयोगशीलता के मुद्दे पर आपसे आपकी राय जानना चाहता हूं। साथ ही बतलाएं रचना में जिस हद तक प्रयोगशीलता की गुंजाइश होती है, क्या वैसी गुंजाइश आलोचना में संभव है?


धनंजय : नयी रचनात्मकता का आगाज प्रयोग से ही होता है। निराला को अपनी सृजनशीलता के लिए पारम्परिक छन्दों के बंधन अनुपयुक्त लगे। उन्होंने मुक्त छन्द का प्रयोग किया। दरअसल नया कथ्य अपने अनुकूल नया रूप लेकर आता है। मैं समझता हूं हर नयी और समर्थ प्रतिभा प्रयोगशीलता के माध्यम से ही अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करती है। हां, रचना में जिस हद तक प्रयोगशीलता की गुंजाइश है, उतनी और वैसी ही गुंजाइश आलोचना में भी होती है, बशर्ते आप आलोचना को भी 'रचना' मानें। बकौल अक्षय कुमार जैन बहुत से ऐसे ज्ञानी हैं जो आलोचक को रचनाकार नहीं मानते।...अब साहित्य सेवियों को भी यह समझाना कठिन हो गया है कि आलोचना और रचना दोनों ही अंतरतम की रसानुभूति और विचार गहनता के ही परिणाम हैं।" (म.प्र. हि.स.स.की पत्रिका 'विवरणिका जुलाई 2000 का संपादकीय) मैंने भी आलोचना में कई प्रयोग किए हैं मसलन नरेश मेहता के उपन्यास 'डूबते मस्तल' पर मैंने उसकी केन्द्रीय पात्र-रंजना-की ओर से एक शिकायतनामे की शक्ल में लिखा। जैनेन्द्र कुमार, मुक्तिबोध, मोहन राकेश, कमलेश्वर, शिवप्रसाद सिंह, उषा प्रियंवदा, रमेश बक्षी के अलावा युवा कहानीकार दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, गिरिराज किशोर, ज्ञान प्रकाश, सुधा अरोड़ा, प्रणवकुमार वन्द्योपध्याय, सिद्धेश आदि के पहले कहानी संग्रहों पर मैंने दो व्यक्तियों के बीच बहस-संवाद की शक्ल में लेख लिखे जो रमेश बक्षी के संपादन में 'ज्ञानोदय' मैं छपे। वे अब मेरी कथा आलोचना की पुस्तक त्रयी की दूसरी पुस्तक 'हिन्दी कहानी का सफरनामा' में संकलित हैंआलोचना में मेरे अन्य प्रयोगों पर एक टिप्पणी के उद्धरण को, उम्मीद है, आप आत्मश्लाघा नहीं समझेंगे : "उनके आलेख तैयार करने का ढंग अलग है। एक रूपक या किसी कहानी का अंश लेकर बात की मूर्त रूप करते हैं। फिर उसमें निहित प्रवृत्तियों के सूत्रों से मूल विषय पर आते हैं। अपने कथन के प्रमाण में वे अंग्रेजी के लेखकों या क्लासिक शायरों को पेश करते हैं। नैतिक उदात्तता के धरातल तैयार करते हैं। नाटकीय तत्वों का व्यापक उपयोग कर घात-प्रतिघात का दृश्य रचते हैं। प्रश्नों की श्रृंखला शुरू होती है, फिर वर्गीकृत मीमांसा, यह इनके लेखन की प्रविधि है। आलोचनात्मक निबन्धों में वैयक्तिक निबन्धों का रस मिलता है। यहां उमंग, आजादी, आरोह-अवरोह की लय आद्यन्त मौजूद होगी। वाद-विवाद न हो तो वह धनंजय का लेखन नहीं है।" (डॉ. कमला प्रसाद : विवरणिका : जुलाई 2000)


प्रमोद : एक आलोचक की हैसियत से कृपया बताएं क्या रचना में शिल्प के महत्व को नकारा जा सकता है? और यह भी कि क्या महज विचार से बड़ी रचना का (विस्तार की दृष्टि से नहीं) सृजन संभव है?


धनंजय : रचना में रूप-शिल्प का महत्व नकारा नहीं जा सकता। वही तो भाव और भावना, अनुभव आर अनुभूति को रूपायित-अभिव्यंजित करता है । मैं नहीं समझता कि महज विचार से किसी बड़ी रचना का सृजन संभव है। विचार भी शब्द से ही रूप ग्रहण करता है। प्लेटो ने विचार को आत्मा की वाणी कहा था, जो शब्दों में व्यक्त होती है और हमारे यहां वाक' के चार स्तरों-परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी का उल्लेख हुआ हैकालीरिज ने कविता को सर्वोत्तम क्रम में सर्वोत्तम शब्द BEST WORDS IN BEST ORDER कहा था, इस क्रम' से उसका आशय अनुपात और औचित्य और सामंजस्य से ही था जो शिल्प चेतन से ही संभव है। यही अभिव्यंजना को समर्थ बनाती है। यदि अभिव्यंजना ही असमर्थ होगी तो महान से महान विचार भी न तो अभिव्यक्त हो सकेगा और न ही सम्प्रेषित । यह तो सामान्य लेखन की बात है रचना तो नया सृजन होती है। उसके लिए तो अभिव्यंजना का सौन्दर्य, अन्दाजे-बयां की अद्वितीयता और भी आवश्यक है।


प्रमोद : वह समय गुजरे ज्यादा समय नहीं हुआ जब माना जाता था कि सर्जक को यथार्थेन्मुख ही होना चाहिए और इसी का पुनर्सजन करना चाहिए। भावुकता से मुक्ति रचनाकार होने की मुख्य शर्त मानी गयी। रोमांस को हेय दृष्टि से देखा गया। इसी आधार पर हमने अच्छी और बुरी रचना के निकष निर्धारित कर लिए पर अभी अभी प्रेम फिर कविता के केन्द्र में आ गया। प्रेम कविता वे भी लिखने लगे जो प्रेम को लेखन से बाहर रखने के हिमायती रहे। उधर स्त्री विमर्श और नारी मुक्ति के नाम पर ऐसी-ऐसी कहानियाँ लिखी जाने लगी हैं कि यथार्थ भी मारे शर्म के दुबक जाए। इसे साहसी लेखन माना गया। ऐसी लेखिकाओं की पूछ परख भी काफी बढ़ गयी। पत्रिकाओं में भी इसे बहुत प्रोत्साहित किया गया। आप बतलाएँ यह यथार्थ भी क्या उसी रूढ़ यथार्थ का ही पूरक है?


धनंजय : आपके इस सवाल में कई मुद्दे हैं। मैं इन पर क्रमशः (संक्षेप में ही) अपनी बात कहंगा। मैं समझता हं 'यथार्थोन्मखता' सजन की बनियादी शर्त है भारतीय काव्य चिंतन में ही तो कहा गया है कि कवि इसी संसार में से, जैसा उसको रुचता है वैसा ही अपना एक प्रतिसंसार (Counter world) रचता है। भावुकता से मुक्ति, रचना की शर्त क्यों मान ली गयी, जबकि संवेदनशीलता रचनाकार की चारित्रिक विशिष्टता कही गयी है। भावुकता में भाव और भावना की ही सक्रियता होती है तो कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इनसे मक्त कैसे हो सकता है? दरअसल काव्य-इतिहास में हुआ यह कि स्वच्छन्दतावाद के विरोध में जिस आधुनिकतावाद का आविर्भाव हुआ उसमें स्वच्छन्दतावाद (रोमान्टीसीज्म) की भाव-प्रवणता, भावनामयता या भाववाद के बरअक्स बुद्धिवाद एक-दूसरे अतिरेक पर पहुंच गया। वह पेन्डुलम का दूसरा स्विंग था और उसे ही आधुनिकता समझ लिया गया जबकि आधुनिकता के पुरोधा टी.एस. इलियट तक ने कविता को Emotional equivalent of thought कहा है। कहते है कि 'बुद्धि से अनियंत्रित भावना' एक अनुपयुक्त संदर्शिका है (Sentiment unchecked by reason is a bad guide) तो मेरा कहना है कि भावना संवेदना विहीन बुद्धि भी तो उतनी ही खतरनाक है! बुद्धि का अर्थ भावना या संवेदना का विरोध नहीं है। यदि होता तो इलियट कविता को विचार का भावात्मक पर्याय न कहता। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा संदर्शित 'भावसम्पन्न ज्ञान-दृष्टि' और 'ज्ञान-दृष्टि सम्पन्न भाव-सृष्टि' को ही मुक्तिबोध ने 'ज्ञानात्मक संवेदना' और 'संवेदनात्मक ज्ञान' का अन्तर्लयन कहा है। आधुनिकतावाद के बुखार और सन्निपात में कवियों लेखकों ने भावुकता को काव्य-साहित्य का विजातीय द्रव्य मान लिया। मेरा तो ख्याल है कि भावुकता ही तो व्यक्ति को कवि बनाती है बल्कि मैं तो कहूंगा वही तो हमें इंसान बनाती है। प्लेटो ने अपने आदर्श गणराज्य में से कवि को देश-निकाला इसीलिए तो दिया था कि वे 'भावना को उद्दीप्त' करते हैं। इसका प्रतिवाद उनके ही शिष्य अरस्तू ने किया था कि कवि भावनाओं को उद्दीप्त कर उन्हें विरेचित और परिशुद्ध कर देता है और व्यक्ति (पाठक) को ऐसा उच्चर और संवेदनशील मनुष्य बना देता है जो दूसरों (याने नाटकों, कहानियों, उपन्यासों के अभिनेता और काल्पनिक पात्रों) के दुख से दुखी (याने करुणा) और सुख से सुखी (याने समानुभूति) होने की भावना से सम्पन्न हो जाता है। सामान्यत: तो लोग इसे ही भावुकता (सेन्टीमेन्टलिटी) ही कहेंगे लेकिन क्या यही एक बेहतर इंसानकी पहचान नहीं है? लेखक कवि ही नहीं, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति भी रोमांस' या प्रेम को हेय दष्टि से कैसे देख सकता है? हाँ. प्रेम की अवधारणाएं स्वरूप और नजरिए में फर्क जरूर आते हैं। बकौल लीलाधर मंडलोई 'अंधकार से घिरा कविता -घर। छिपा कहीं उसमें 'स्व'/जिसमें गिरफ्तार हैं कविता के विषय/ यहां तक कि हंकाला गया कविताओं में लिखते हए प्रेम।'....प्रेम और प्रेमकविता से मुझे कमलेश्वर के सम्पादन में प्रकाशित 'नई कहानियां के प्रेमकथा विशेषांक (1963) की याद आ गयी। उसमें बहस के लिए कवि श्रीकांत वर्मा का एक लेख छपा था : 'प्रेम का बदलता स्वरूप'। उसके इन हिस्सों पर गौर करें "सब चीजें इतनी तेजी से बदल रही हैं कि धीरे-धीरे बदलना भी एक अर्थहीन शब्द में बदलता जा रहा है। सारा अभिशाप यही है कि स्त्री को साड़ी बदलने में जितना समय लगता है, संबंध बदलने में उससे भी कम समय लगता है। हमारी प्रेम करने की क्षमता नष्ट होती जा रही है....स्त्री जब केवल समर्पिता थी तब प्रेम का अर्थ केवल देना था। उसका स्थान एक आत्म सजग स्त्री ने ले लिया है।...संकट उस शिक्षित और समृद्ध समाज में है। प्रेम भी आखिर में निरर्थकता तक ही पहुंचता है। प्रेम में अकेलापन है। प्रेम एक अनिर्णय की स्थिति है। प्रेम कहानियां लिखने के पहले वह (लेखक) फ्रायड का अध्ययन नहीं करता। प्रेम में एक न्यूरॉसिस है। स्त्री में यह न्यूरॉसिस प्रेम है। कहानी की बुनावट में सेक्स की उपस्थिति से एक उष्णता आती है। यह उष्णता हमारी कहानियों में नहीं है।" कमलेश्वर द्वारा आमंत्रित टिप्पणी में मैंने इस विलक्षण प्रेम दर्शन की छद्य दार्शनिकता और मार्बिडिटी का जो मनोविश्लेषण किया, उससे श्रीकांत कितने आहत हुए, इसका जिक्र मैं कर चुका हूं। आगे चलकर 'हंस' के संपादक राजेन्द्र यादव ने कहानियों में सेक्स की उपस्थिति' और 'उष्णता' की इस मांग की ऐसी आपूर्ति की, कि हिन्दी कहानी का तत्कालीन परिदृश्य सेक्स और तजन्य ऊष्णता से मध्याह्न के सूर्य सा तपने लगा और उस गर्मी का पारा लगातार बढ़ता गया। उनके द्वारा प्रायोजित 'स्त्री विमर्श' के अन्तर्गत पैम्पर्ड बिन्दास लेखिकाओं ने इतनी बोल्ड कहानियां लिखीं कि कामसूत्र के लेखक वात्स्यान की आत्मा भी तृप्त हो गयी होगी। राजेन्द्र यादव ने तो 'हर नारी कथा' को 'अन्ततः सेक्स कथा' ही घोषित किया। यथार्थ न केवल सेक्स बल्कि नग्नता और फूहड़ता तक सिमट कर रह गया। यह यथार्थवाद नहीं, उसका विचलन और विकृति थी।


प्रमोद ः आप हर चीज को बहुत व्यवस्थित और सम्भाल कर रखते हैं। बतलाएं यह अनुशासन और सलीका आपको कैसे आया?


धनंजय : कुछ तो नाना से सीखा। स्कूल में एन.सी.सी. और नौकरी की शुरूआत में ही एन. सी. सी. आफीसर्स की ट्रेनिंग ने अनुशासन का पाठ पढ़ाया। बचपन में श्री मथुरादत्त जोशी (तत्कालीन एक्स्ट्रा असिस्टेिन्ट कमिश्नर और बस्तर के दीवान) के परिवार से खासकर उनकी बड़ी बेटी शकुन जोशी (तिवारी) से करीना-सलीका सीखा। उन्होंने ही पढ़ने में रूचि जागृत की। बोलने-चालने, रहन-सहन की तहजीब भी उन्हीं से मिली।


प्रमोद : एक आलोचक की हैसियत से एक लेखक से आप क्या अपेक्षा करते है? और उसकी रचना से आप क्या पाना चाहते है?


धनंजय : एक आलोचक बुनियादी रूप से एक ऐसा पाठक ही होता है जो जागरूक और संवेदनशील है जिसे पढ़ने-लिखने की आदत है, जिसने उस भाषा के साहित्य के अलावा भी विश्व साहित्य की कुछ श्रेष्ठ कृतियों का रसास्वादन भी किया है और इस माध्यम से एक समृद्ध रचना-संस्कृति का साक्षात्कार किया है। अतः उसकी वाजिब उम्मीद किसी भी कवि-लेखक से यही होगी कि वह विद्यमान रचना संस्कृति में कुछ इजाफा करे, अपने साहित्य की परम्परा में कुछ उल्लेखनीय संयुक्त करे। उसकी रचना उसे आकर्षित-उद्वेलित-आन्दोलित ही न करे, उसे वैचारिक स्तर पर भी संपन्न और समृद्ध करे।


प्रमोद : आज की स्थिति में आलोचना लगभग अप्रासंगिक हो गई है। वर्तमान के तनाव, गहराती विषमताएँ, टूटन और बिखराव, इतनी ले-लपक के बीच क्या आपको नहीं लगता कि बहुत हो गयी आलोचना, अब वापस सर्जनात्मक लेखन पर लौटना चाहिए?


धनंजय : मुझे नहीं लगता कि किसी भी स्थिति मे आलोचना कभी अप्रासंगिक हो सकती है और किसने कहा कि आलोचना गैर सृजनात्मक लेखन है? जब रचना परिदृश्य में इतना तनाव, इतनी गहराती विषमता, बिखराव, टूटन और ले-लपक हो तब तो आलोचना और भी जरूरी है। तब तो उसकी सक्रिय भूमिका और भी अपरिहार्य और निर्णयक होती है। नहीं, आलोचना से मेरा मोहभंग नहीं हुआ है। मैं कह चुका हूं कि रचना जैसी है, उससे बेहतर चाहिए इसीलिए रचना को आलोचना चाहिए। आलोचना कर्म को मैं रचनात्मक लेखन से किसी भी रूप में कम या कमतर नहीं मानता। आलोचना भी अपने आप में एक रचनात्मक कर्म है। मुझे अलेन रोब्ब ग्रिये फिर याद आ गये हैं। वे कहते हैं: “आलोचना मुश्किल काम है, देखा जाय तो सृजन से भी ज्यादा मुश्किल । उपन्यासकार अपने हर-एक विकल्प को सदैव ही समझने का प्रयास किये बिना स्वयं के विवेक पर बिल्कुल निर्भर रह सकता है और उसके सामान्य पाठक अपने ऊपर, पुस्तक के किसी प्रभाव से बेखबर पसन्दगी या नापसन्दगी से उदासीन, अपने लिए उसके किसी योगदान से अनभिज्ञ रहकर भी असन्तुष्ट रह सकते हैं लेकिन आलोचकों के लिए इन सभी बातों का कारण बताना जरूरी है। उन्हें स्पष्ट करना होगा कि रचना का योगदान क्या है या उसे उन्होंने पसंद क्यों किया। उन्हें उसका चरम मूल्यांकन करना ही होगा।...आलोचक की एक मश्किल और है उसे समकालीन कतियों को उन कसौटियों पर जांचना परखना पडता है जो अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में भी इन कृतियों के लिए किसी काम की नहीं हैं। उसे लगातार नये पैमाने खोजने की प्रक्रिया से गुजरते रहना पड़ता है।" मैं इसमें इतना और जोड़ना चाहूंगा कि आलोचक को नयी रचना के आस्वाद के धरातल और मूल्यांकन के प्रतिमान भी तय करने होते हैं।


प्रमोद : यह सवाल केवल आप से ही पूछा जा सकता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति और आलोचना भूमि को लेकर दो विरोधी खेमे खड़े कर दिए गए। एक को बड़ा और दूसरे को छोटा सिद्ध करने, पूर्वाग्रह ग्रस्त और गर्हित सिद्ध करने की होड़ सी लग गयी। आप अन्यथा न लें तो मैं कहना चाहूंगा कि यह लड़ाई ‘साम्प्रदायिक' ज्यादा बना दी गयी। इस 'यज्ञ' में कौन-कौन कैसे 'मंत्र' पढ़ेगा और किसे कैसी 'आहुतियां देनी है, तय हो गया। आप बतलाएं क्या यह युद्ध जरूरी था? और उचित था? 'दूसरी परम्परा की खोज की गयी। तीसरी परम्परा की भूमिका तैयार हो गयी। मुद्दे गौण हो गए, बस जिरह जारी है। क्या आप इसे 'राजनीति' मानेगें और ऐसा है तो यह आलोचना के कितने हित में हुआ?


धनंजय : 'दूसरी परम्परा की खोज' से शुरू करूं तो सवाल है कि यह जरूरी क्यों हुआ? मैं समझता हूं कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मुकाबले में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को स्थापित करने के मकसद से यह खोज हुई। खोजकर्ता डॉ. नामवरसिंह के गुरू आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी स्वयं आचार्य शुक्ल के बारे में क्या कहते हैं? सुनिए: "भारतीय काव्यालोचनशास्त्र का इतना गंभीर और स्वतंत्र विचारक हिन्दी में तो दूसरा नहीं हुआ, अन्यान्य भारतीय भाषाओं में हुआ या नहीं, ठीक से नहीं कह सकते । शायद नहीं हुआ।" इन्हीं द्विवेदी जी को 'ठाकुर' नामवर सिंह ने आचार्य शुक्ल के खिलाफ खड़ा करना चाहा। वह कहावत है न! गुरू तो गुड़ ही रह गये चेला शक्कर बन गए। सच तो यह है कि आचार्य शुक्ल के बाद जितने भी महत्वपूर्ण आलोचक हिन्दी में आए-लगभग सभी ने उनसे मुठभेड़ की, उनका मुकाबला करने की कोशिश भी की लेकिन सबके योगदान का सार्थक और उल्लेखनीय हिस्सा वही है जिसमें प्रकारान्तर से आचार्य शुक्ल के चिन्तन की अपरिहार्य उपस्थिति है। वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हों या आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र हों या डॉ. शिवदान सिंह चौहान, डॉ. रामविलास शर्मा हों या स्वयं डॉ. नामवरसिंह-सबके काव्य चिंतन और साहित्यिक प्रतिमानों की बुनियाद में आचार्य शुक्ल से वाद प्रतिवाद या संवाद अन्तर्निहित हैआलोचना ही क्यों लगभग सम्पर्ण आधुनिक हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण, सकारात्मक, प्रासंगिक और जीवंत रचनात्मकता ने आचार्य शुक्ल के साहित्यादर्शों और काव्य प्रतिमानों का ही सत्यापन किया है। वह चाहे नयी कवितावादियों का 'लघुमानव' हो या परिमलवादियों का 'सामान्यजन,' प्रगविादियों का 'आम आदमी' हो या वामपंथियों का 'सर्वहारा,' या फिर जनवादियों का 'जन' सबका अन्तर्भाव शुक्ल जी के 'लोक' में हो जाता है। विजय देव नारायण साही का 'सामाजिक मंगल' शुक्ल जी के लोकमंगल से कहां अलग है? और मुक्तिबोध की ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की अवधारणा शुक्ल जी की ज्ञान दृष्टि सम्पन्न भाव सृष्टि और भाव सृष्टि संपन्न ज्ञानदृष्टि से कितनी भिन्न है? हमारी हिन्दी आलोचना भी भारतीय काव्यालोचना की परम्परा का ही अद्यतन प्रवाह है-विकास है और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल उसके आधुनिक प्रवर्तक । एक सादृश्य के माध्यम से कहा जा सकता है कि परम्परा उस गंगा की तरह होती है जिसके निरन्तर प्रवाह में अनेक सरिताएं मिलती हैं। प्रयाग में संगम के बाद यमुना भी तो गंगा के नाम से आगे बढ़ती है और आगे चलकर हुगली और पद्मा भी तो गंगा ही हैंउनका नामकरण आप भले अलग कर लें। हद ताकि ब्रह्मपुत्र भी गंगा में मिलकर फिर गंगा ही हो जाता है। ठीक उसी तरह जैन और बौद्ध दर्शन भी तो अन्ततः भारतीय दार्शनिक परम्परा में ही अन्तर्भूत हैं।


प्रमोद : विगत वर्षों में दलित साहित्य ने अपना आलोचनाशास्त्र निर्मित किया जो दलित विरुद्ध सवर्ण के आधार पर टिका और विकसित हुआ। वे तो प्रेमचन्द को भी अपनी नजर से देखते और खारिज करते हैं। इन्होंने राजनीतिक लड़ाई को भी साहित्य में घसीट लिया है। इस आलोचना पर आप कुछ कहना चाहेंगे?


धनंजय : अव्वल तों मैं साहित्य को सवर्ण और दलित, पुरुष और महिला लेखन सरीखे खानों में बांटकर देखने का ही कायल नहीं हूं। बेनदेतो क्रोचे ने तो समस्त कलाओं को एक ही अखंड रचना व्यापार कहा है। समस्त साहित्य भी एक ही सृजन-इच्छा का परिणाम है और पूरे साहित्य को समग्रता में देखना ही आलोचना है, इसलिए न तो साहित्य को खानों-वर्गों में बांटा जाना चाहिए और न उसकी आलोचना के अलग-अलग शास्त्र बनाये जाने चाहिए। राजनीति की विभाजनकारी शक्तियों और वोट बैंक की रणनीति ने जैसे सम्प्रदायों और जातियों को आपस में लड़ाकर सत्ता हथियने या उस पर काबिज बने रहने का खेल रचा है, वैसे ही साहित्य में भी अब सवर्ण और दलित, महिला और पुरुष लेखन के द्वैत और द्वैध खड़े कर दिए गए हैं। आपने सही कहा कि राजनीतिक लड़ाई को साहित्य में भी घसीट लिया। वह चाहे दलितवाद हो या स्त्रीवाद और अब आदिवासीवाद....यह सब निश्चय ही शिविर बद्धता, फैशन, पत्र-पत्रिकाओं में प्रचलित फर्माइशी लेखन और अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश है । प्रचार और प्रसिद्धि और अपनी अलग पहचान बनाने के जुनून पर जाने किस शायर का यह शेर याद आ गया :


तमन्ना-ए-शोहरत अजब इक शै है अब तो


लोग बेलिबास हो जाते हैं अखबार में छपने के लिए।


आदिकवि वाल्मीकि के इस श्लोक पर जरा गौर करें:


मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगः शाश्वती समाः


यत्क्रौंच मिथुनादेक वधीः काम मोहिताम


व्याध के द्वारा मारे गये क्रौंच/कौंचिनी की चीत्कार से कवि वाल्मीकि के हृदय में करुणा का जो उद्वेक हुआ उससे नि:सृत यह कविता मनुष्य ही नहीं प्राणिमात्र के दुःख से द्रवित होकर सृजित हुई हैं। यह विश्व की पहली कविता ही नहीं तथाकथित दलित और स्त्री-विमर्श की भी पहली कविता है क्योंकि यह दलित और स्त्री दोनों के पक्ष में है। मैं कहना यह चाहता हूं कि साहित्य है ही मूलत: करुणा की अभिव्यक्ति और दूसरों के दुख से द्रवित होना ही करुणा है वह चाहे दलित हो, स्त्री हो, आदिवासी हो, साहित्य हमेशा मनुष्य-प्राणिमात्र-के दुख के साथ संवेदना, सहअनुभूति और अन्तरानुभूति से ही उपजता है। यदि दलित आलोचना प्रेमचंद को खारिज करना चाहती है तो क्या वाल्मीकि को भी वह खारिज करेगी क्योंकि वाल्मीकि ने तो 'निषाद' को शाप दिया है। प्रेमचंद तो साहित्य के इतिहास में तथाकथित दलित साहित्य और दलित आलोचना के आविर्भाव के पहले से ही विद्यमान और प्रतिष्ठित है! किसी के खारिज करने से उनकी अहमियत कम नही होगी।


अंतराल : प्रमोद :


वे बात करते-करते कई बार


अचानक रूक गए!


पता ही नहीं चला,


कब?


किस मुकाम पर वे छूट गए!!!


#


कोई गांठ पता नहीं कैसे खुल गई थी


(वैसे, वे कभी कमजोर नहीं होते।)


कुछ था, जो उन्हें मुक्त होने नहीं दे रहा था।


कोई सीढ़ी पानी में डूबी पकड़


वे बाहर आना चाहते थे


और पानी की ठेल...


#


वे नही,


एक गुबार सहसा बाहर आया।


उसके धक्के से मैं घबरा गया।


बड़ी देर के बाद उन्होंने कहा


माफ करना भाई।


#


मुझे लगा-शायद उनका रक्तचाप बढ़ गया है


या शूगर लो हो गई है।


अपराधी-सा मैं उन्हें देख रहा था।


फिर आंखों से बह चले उनके आंसू बोलने लगे !!


फिर गहरा सन्नाटा बोलने लगा!!!


(ये मेरे किन सवालों के जवाब थे?)


#


"चलता हूं।" यही कहा था मैंने


उन्हें अकेला छोड़ते हुए


और उन्होंने बस दोहराया था


"माफ करना भाई।"


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प्रमोद : एक बात बल्कि दो बातें मुझे करती हैं- आपके नाना जिनकी छत्रछाया में आपका बचपन बीता, वे कट्टर आर्य समाजी थे। ज्ञान ही उनके लिए सर्वोपरि रहा। वेद उनके सोच का मूलाधार। यज्ञ कर्म में भी उनकी आस्था रही होगी। आपकी नानी और मां उतनी सनातनी-वैष्णवी-बहुदेव पूजक। ऐसे वातावरण में आपके बाल-किशोर मन पर भी असर जरूर पड़ा होगा पर आप साम्यवादी विचारधारा की ओर मुड़गए-आधुनिक और बौद्धिककालान्तर में दोनों राहन पाई' का बोध आप में कैसे गहराया पता नहीं। और गांधी की आप झुकते चले गए जबकि साम्यवादियों ने गांधी को कभी स्वीकार नहीं किया। आप यह परिवर्तन क्यों कर आया और इसके नतीजे कैसे रहे?


धनंजय : कहते हैं बचपन की यादें उन सपनों की मानिन्द होती है, जिन्हें आप जागने के बाद या जागते हुए देखते हैं। हां, नाना कट्टर आर्य समाजी थे। त्रिकाल संध्या नहीं कर पाते थे क्योंकि दोपहर कचहरी में बीतती थी। अलस्सुबह और शाम वे नियमित वैदिक संध्या करते थे। आरोह-अवरोह के साथ उनका सस्वर मंत्र जाप कभी कभी सपनों में अभी भी गूंज जाता है। साप्ताहिक या पाक्षिक, जब जैसा सुयोग हुआ, यज्ञ का आयोजन होता था। उनकी चरम आस्था और परम विश्वास से उपजे साहस की एक घटना याद आ रही है। नानी, मामी और मां ने हरितालिका का निर्जला व्रत रखा था। नाना के आमतौर पर आने जाने के मार्ग को बरकाकर बाजू के एक कमरे में उन्होंने तीज की पूजा के लिए फुलेरा वगैरह सजाया था। उस दिन पता नहीं क्यों वे अपने कमरे से सीधे उसी कमरे में दाखिल हो गए। खट-खट्-खड़ाऊं पहनते थे, घर में। उनकी नजर फुलेरा पर पड़ी-शिव के विग्रह पर! उनका गुस्सा सातवें आसमान पर। मेरे घर में यह पाखंड-मूर्ति पूजा ! और प्रमोद! उन्होंने शिव के उस विग्रह पर जो लात मारी तो पूजा का सारा सरंजाम तहस-नहस! नानी-मामी-मां सबकी सिट्टीपिट्टी गुम! वो तीनों चुपचाप रोने लगीं। पूजा भंग हो गयी। पता नहीं अब घर पर क्या कहर बरपा होगा? मेरा बाल मन नाना के खिलाफ हो गया।...अपनी संपूर्ण आधुनिक वैज्ञानिक समझ और साम्यवादी विचारधारा के बावजूद मुझमें तो इतना साहस बल्कि दुस्साहस नहीं है आज भी कि मैं शिव के विग्रह या चित्र का भी इस तरह अपमान कर सकूँ। फिर किसी को क्या हक है किसी की आस्था-विश्वास पर चोट करने का!


जब नाना ने अपना मकान बनवा लिया तब बड़े मामा और उनके परिवार को वहीं किराये के मकान में छोड़कर वे नये मकान में हम लोगों मां और छोटी बहन को साथ लेकर रहने लगे। उस मकान में पहले तल की सीढ़ियों के नीचे एक छोटा लंबा सा कमरा था। उसमें मां ने अपनी पूजा पाठ का इंतजाम कर लिया था। उसमें सुविधा यह थी कि उसके दरवाजे बन्द कर दें तो पता नहीं चलता था वहां क्या हो रहा है। बहन चूंकि छोटी थी इसलिए माह के तीन दिनों मां के निर्देशन में खाना पकाने के साथ सुबह शाम की पूजा भी मुझे करनी पड़ती थी। साम्यवादी विचारधारा की ओर मुड़ा तो मैं तब जब छत्तीसगढ़ कालेज, रायपुर में पढ़ने गया। दोनों राह न पाई'... आपने भली कही! किसको मिली है राह.. प्रमोद भाई! क्या कोई राह भी है वाकई? या सब मन भरमाने की बातें हैं। महात्मा गांधी की ओर झुकने का समय तो याद नहीं लेकिन हुआ यह कि किसी आयोजन में 'बुके की बजाय बुक' भेंट में मुझे जो पुस्तकें मिलीं उनमें गांधीजी की आत्मकथा भी थी। मैं उसी शाम उसे पढ़ने बैठ गया और उसे पूरी पढ़कर ही सो पाया। उसने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। फिर तो मैंने ढूंढकर गांधी साहित्य पढ़ाहिन्दी और अंग्रेजी दोनों में। उन्हें विस्तार से पढ़कर ही जाना कि वे क्या थे या क्या हैं। साम्यवादियों ने क्या, खुद कांग्रेसियों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। वे पंडित नेहरू ही तो थे जिन्होंने कहा था (है) "वे बहुत मुश्किल व्यक्ति थेकभी- कभी तो उनकी भाषा एक औसत आधुनिक आदमी की समझ से बाहर की होती थी। अक्सर हम लोग आपस में उनकी सनक और विलक्षणताओं की चर्चा किया करते थे और मजाक में कहा करते थे कि स्वराज्य के बाद उनकी इन सनकों को कभी प्रोत्साहन न दिया जाय।" नेहरू जी ने जो कहा था, करके भी दिखा दियाउन्होंने यह बात भले मजाक में कही हो लेकिन आजादी के बाद उनमें ही नहीं, हम सबमें गांधी से छुटकारा पाने की कितनी बेचैनी रही है?


एक प्रसंग बरबस याद आ रहा है। गांधी-साहित्य पढ़ने के लिए मैंने गांधी भवन (भोपाल) के पुस्तकालय की सदस्यता ली। उसमें उपलब्ध पुस्तकें तो पढ़ता ही था, वहां संचालित गांधी साहित्य विक्रय केन्द्र से पुस्तकें भी खरीद लाता था। एक दिन का वाक्या है: मैं कॉलेज से लौटता हुआ गांधी भवन चला गया। केन्द्र के विक्रेता से थोडी पहचान हो गयी थी। उस दिन महादेव देसाई की डायरी के उपलब्ध खण्डों और प्यारेलाल (नैयर) की 'पूर्णाहुति' के खण्ड मैंने अपने लिए छांट लिए। उनकी कीमत का मीजान जब लगा तो जेब में उतनी रकम नहीं थी। मैंने विक्रेता महोदय से निवेदन किया कि 'पर्णाहति' की कीमत तो मैं अदा कर देता हं। कपया महादेव देसाई की पस्तकें मेरे लिए सुरक्षित रख लें, मैं इन्हें कल ले जाऊंगा।' विक्रेता महोदय ने कहा-'पुस्तकें आप सब ले जाइए। कीमत उनकी कल चुका दीजिए।' मैंने उनसे पूछा-'आपने इतना भरोसा किसी अपरिचित व्यक्ति पर कैसे कर लिया? उनका जवाब था: 'जो व्यक्ति खरीदकर गांधी साहित्य पढ़ रहा है, वह किसी को धोखा नहीं दे सकता।' यह है एक आम आदमी के भीतर बैठा गांधी। और गांधी में उसकी निष्ठा की मिसालप्रमोद : आपके नाना अनीश्वरवादी थे। ईश्वर में आस्था रखने वाले व्यक्ति के लिए तो सब कुछ ईश्वराधीन मानकर संतोष कर लेने का आधार मिल जाता है। आस्तिक व्यक्ति तो जो भी मिला उसे 'दाता की देन' मान लेता है। आपने भी कम विपत्तियां नहीं झेलीं। क्या-क्या नहीं सहा?! तब आपने किसको दोष दिया? उन परिस्थितियों से कैसे उबरे? आपके पास तो ईश्वर जैसा भ्रम भी नहीं रहा । आप जैसे आधुनिकतावादी के लिए तो ईश्वर मखौल उड़ाने का जरिया रहा होगा। तब भी वह उपस्थित तो रहा ही! कोसा तो किसे कोसा? सराहा तो किसे सराहा ? और बूझा तो कैसे बुझा?


धनंजय : नहीं, नाना को मैं अनीश्वरवादी नहीं कह सकता। आर्य समाजी होने के बावजूद वे शाम की संध्या के बाद अक्सर भजन गाया करते थे : मसलन


पितु मातु सहायक स्वामी सखा, तुम ही एक नाथ हमारे हो


जिनके कुछ और आधार नहीं, तिनके तुम ही रखवारे हो


या


अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं


खिलाता है जो सब जग को, उसे कैसे खिलाऊं मैं


तुम्हारी ज्योति से रौशन हैं सूरज-चांद और तारे


महाअन्धेरा है कैसे तुम्हें दीपक दिखाऊं मैं


यही नहीं, दिया बाती के बाद मां उन्हें सस्वर, मधुर कंठ से 'रामचरित मानस' भी सुनाती थींआर्य समाजी मूर्तिपूजा मैं विश्वास नहीं करता। लेकिन एक निराकारनिर्गुण ब्रह्म में तो उसका विश्वास होता है। नास्तिक वह नहीं होता। और जीवन के पूर्वार्द्ध में मां से पाये गये संस्कारों की वजह से आस्तिक तो मैं भी रहा हूं। जब भी जो भी विपत्ति आयी, यही मान और समझ कर झेल ली कि यह भी 'दाता की देन' है। लेकिन फिर धीरे-धीरे समझ में आया कि सब कुछ दाता की देन नहीं है, मनुष्य की भी देन है। मसलन जब बड़े मामा ने मुझे और मां को एक साजिश के तहत घर से हंकाल दिया तो उसे 'दाता की देन' कैसे मानता? नाना का आसरा, नरोन्हा साहब की कृपा, योगानन्दमजी का स्नेह, दाऊ श्यामकिशोर अग्रवाल की सहायता, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी की उदारता-यहां तक कि मुकेश नायक की पवित्र जिद-सबको किसी अज्ञात शक्ति का वरदान समझकर ही, नतशिर होकर, कृतज्ञता से, स्वीकार किया लेकिन इसके बावजूद जब विपरीत परिस्थितियों और प्रतिकलताओं से नजात नहीं मिली तो धीरे-धीरे आस्था दरकने लगी, विश्वास खंडित होता चला गया और एक लगभग समग्र मोहभंग हो गया। मैंने पजा-पाठ सब छोड दिया। मां को बरा भी लगा। उनके पूजा-पाठ और नियमित मानस-पारायण, व्रतों उपवासों पर जब मैंने कहा-'इस सबसे बावजूद हमारे दुखों का अन्त नहीं है तो क्या मतलब है इस सबका?' माँ का तमतमाया चेहरा याद आता है-'तुम तो पढ़-लिख का गये, सरभंगी हो गए। का पूजा पाठ मतलब से करो जात हे? तुम्हें नई करने, तो मत करो, हमाव तो जोई आसरो है।'....


और प्रमोद, एक घटना ऐसी हो गई कि उसने मुझे भीतर तक हिला दिया। मैं जब नरसिंहपुर में था 1965 या 1966 का वाकया है। जबलपुर से हरिशंकर परसाई का एक रुक्का मिला। 'फलां तारीख को यहां एक गोष्ठी में तुम्हें आना है।' स्टेशन जाते हुए मां ने याद दिलायी कि कल तुम्हारे पिता की तिथि है। तुम सुबह तक जरूर आ जाना। मैं उलझ गया। नहीं आ पाया। दूसरे दिन जब रात को पहुंचा तो दरवाजा श्रीमती जी ने खोला और लगभग बरस पड़ीं वे- "माँ कल से बिस्तर पर हैं। दो बार डॉक्टर चौहान आ चुके हैं। ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है। सर बांधे पड़ी हैं और रो रही हैं।" मैं सीधे मां के बिस्तर पर बैठ गया। उन्होंने अपनी बांह मेरे कंधे पर रखी और फफक-फफक कर रो पड़ीं- "हमाय जीते जी तुम अपने बाप खों पानी तक नई दे रये, हमाय मरबे के बाद तुम का कर हो?" आत्मग्लानि से मैं भी रोने लगा।...और उसी दिन मैंने तय किया कि मैं उनके सुख-संतोष के लिए वह सब करूंगा जो वो चाहती हैं, जो वो कहेंगी और चाहेंगी। सुबह के कॉलेज की वजह से रोज पूजा-पाठ तो नहीं, मगर हां जन्माष्टमी, रामनवमी, शिवरात्रि, दुर्गा अष्टमी, दीपावली, यम द्वितीया आदि उनके व्रतों उपवासों में मैं भी उनका साथ देने लगा और विधिवत पूजा भी करने लगा। मुझे लगा कि जिस मां ने इतने लम्बे वैधव्य और इतने दुःख-कष्ट झेले हैं, यदि उन्हीं को मैं सुख-संतोष नहीं दे सका तो लानत है मुझ पर। ...थोड़ी बहुत सुख शांति उन्हें मिली थी जब मैं नौकरी से लग गया। मुश्किल से दस ही बरस बीते होंगे कि उनके सर पर फिर 'दाता की देन' विपत्ति मेरी छोटी बहन विधवा हो गयी। उसके भी चार छोटे-छोटे बच्चे। उन प्रतिकूल परिस्थितियों का जिक्र अब न ही करूं तो ही बेहतर। मां भीतर से टूट गयीं। उनके पूजा-पाठ की अवधि और मानस-पारायण का समय बढ़ता गया। उन्होंने अंतिम सांस भी अपनी बेटी के घर ली। मां के नसीब में 'दाता' ने इतना सारा दुःख क्यों लिखा था? दुःख ही उनके जीवन की कथा रही। उन्होंने आखिरी सांस भी दुःख में ही ली होगी। पंडित और धर्माचार्य 'कर्म सिद्धान्त' पेल देंगे, पूर्वजन्म दे मारेंगे मुंह पर। क्या यह सब बौद्धिक व्याख्या (रैशनलाइजेशन) भर नहीं हैं? कोरी बकवास। उनके जाने के बाद मेरा मन भी उचट गया। मैं बिल्कुल अकेला हो गया। धीरे-धीरे सब छूट गया सब छोड़ दिया। ...कोसा तो अपनी किस्मत को और सराहा तो उन्हें जिन्होंने अयाचित कृपा की। कुलपति पद से त्यागपत्र देकर सागर से लौटा तो एक पुस्तक-प्रदर्शिनी में अकस्मात 'वैदिक संध्या' की पोथी मिल गयी। लगा नाना मेरे भीतर आ गये। सुबह-शाम मैं भी वैदिक संध्या करने लगा। वामपंथी दोस्तों ने फिकरा चस्पां किया वर्मा जी, अब भाजपा में जाने की तैयारी कर रहे हैं। मैंने हंस कर टाल दिया।


और 2009 में एक हादसे में उन्नीस-बीस बरस के ऊंचे-पूरे, खूबसूरत और असाधारण प्रतिभाशाली अपने नाती को खो देने पर मुझे जो मानसिक आघात लगा उसने रहीसही आस्था और बचा-खुचा विश्वास भी छीन लिया। हर सिम्त एक महाशून्य। निचाट सूनापन। अब बूझू भी तो क्या बूझू? किसको बूझू। मखौल भी उड़ाऊँ तो किसका? कोई कहीं हो तब तो?


प्रमोद : कहा गया-'दुःख मांजता है। यदि यह सही है तो दुःख मनुष्य को काटता और तोड़ता भी है। वह किसके जीवन में नहीं आता? आपके जीवन में प्रतीक्षातुर दुःखों की कतार रही। बताएं दुःखों ने आपको किस तरह मांजा?


धनंजय : यह अज्ञेय जी की पंक्ति है- “दुःख सबको मांजता है। जो दुःखमय है, वह दृष्टा हो सकता है।" मैंने इस पर कभी हाशिया लगाया था, खुदा जाने वह दुःख किस ब्राण्ड का डिटरजेन्ट है जो सबकों मांजता है। ज्यादातर तो दुःख, जैसा आपने भी कहा, काटता और तोड़ता है। हां, आता है, सबके जीवन में दुःख आता है लेकिन फिर दुःख और दुःख में भी फर्क हो जाता है। मसलन शाहरूख खान का यह दुःख कि उसकी फिल्म बॉक्स आफिस पर हिट नहीं हुई या उसकी सिल्वर जुबली नहीं हई, वह ब्लॉक बस्टर नहीं हई और एक छोटे किसान का यह द:ख कि उसकी फसल बरबाद हो गयी। वह दाने-दाने का मोहताज हो गया। बाजार की मंदी से अंबानी और अडानी को भी नुकसान होता है। उनका भी दुःख है और किसी के घर के चूल्हे का न जल पाना भी दुख है । मुमकिन है, दुःख ने अंबानी अडानी को मांजा हो लेकिन किसानों ने तो आत्महत्याएं की हैं ! उन्हें इस हद तक तोड़ा है उनके दुःख ने।...दुःखों ने मुझे 'मांजा' है या मैं 'दृष्टा' हो गया हूं, इतना दम्भ तो मेरा नहीं हैं, हां, चूंकि दुःख देखे-झेले हैं चुनांचे भरसक कोशिश करता हूं कि मेरी वजह से किसी को दुःख न पहुँचे। इस कोशिश में कितना कामयाब हुआ खुदा जाने।...अपने एक खत में गालिब लिखते हैं "अगर तमाम आलम न हो सके, न सही, जिस शहर में रहूं उस शहर में तो भूखा-नंगा नजर न आऊँ! खुदा का मकहूर (कोप भाजन)खल्क का मरदूद (जन्म से तिरस्कृत) बूढ़ा, नातवान (दुर्बल) बीमार, फकीर, नकबत (दरिद्रता) में गिरफ्तार, मेरे और मुआमिलात-ए-कलाम-ओ कलाम शायरी और उसके गुणों से कत-ए-नजर करो (उन्हें अनदेखा करो) वह जो किसी को भीख मांगते न देख सके और खुद-ब-खुद भीख मांगे-वह मैं हूं।" गनीमत है अपने हालत ऐसे न हुए।


प्रमोद : यह सवाल किसी के लिए भी दुःख को बढ़ाने वाला ही होगा। मुझे यह सवाल पूछते हुए संकोच हो रहा है पर सवाल कौंधा तो लगता हैं- पूछ ही लेना चाहिए। आदमी अपनी नसीब में घुमक्कड़ी लिखवाकर इस धरती पर आया। अन्न-जल की तलाश में कहांकहां नहीं भटका।खेती करने का हुनर आया तो जीवन में स्थायित्व आया। उसने घर बनाया और टिक गया। टिका तो उसका सोच बदल गया। फिर जमाने की रफ्तार बढ़ी तो आदमी का घर फिर छूट गया। रफ्तार बढ़ी तो भटकाव का दायरा भी बढ़ गया। घर, सराय हो गया। दूरियां खत्म हो गयीं। हम फिर से उसी बंजारा मानसिकता में जी रहे हैं। 'अर्थ' सबको भटका रहा है और अनर्थ' को हम ढो रहे हैं। .....ग्राम छातेर में आपने पहली बार आंखें खोली। नियति आपको सुदूर बस्तर ले गयी। वहां से रायपुर, सागर फिर रायपुर, जगदलपुर, भोपाल, खंडवा, नरसिंहपुर, भोपाल फिर सागर, बरेली फिर भोपाल, सागर, भोपाल और अब उज्जैन। बार-बार भोपाल-सागर-रायपुर-जगदलपुर मानों सांप-सीढ़ी का खेल हो गया। चढ़ाव-उतार फिर चढ़ाव-उतार । कहा जाता है जातक के पैरों में चक्र का निशान हो तो वह आजीवन भटकता रहता है। भोपाल में तो आपने अपना आशियाना बनाया भी। लगा होगा कि अब सारे भटकाव खत्म हो गए। अपने घर में सुकून मिलेगा पर उसे भी छोड़ अब आपको उज्जैन में रहना पड़ रहा है। यहां क्या आपका मन सचुमुच लग गया? इस आजीवन यायावरी और इस उम्र में अपना घर छोड़कर परदेस' में बसकर आपको क्या ख्याल आते हैं?


धनंजय : कायदे से 'बसना' कभी, कहीं, कहां हो पाया प्रमोद भाई! आपके पूरे वक्तव्य में मेरा ही दर्दोकर्ब गूंज रहा है। अपने उस आशियाने की व्यथा-कथा क्या कहूं। 1977 में मध्यप्रदेश गृहनिर्माण मंडल से वह मकान लिया। मां ने कहा था'बाप (दादा) तुम्हारे भोपाल रियासत से उजड़ कर नरसिंहपुर जिले की तहसील गाडरवारा के गांव पलोहा-बड़ा में बस गए थे। भगवान ने तुम्हें भोपाल में मकान दिलवा दिया।' उमंग में भरकर उन्होंने गृह प्रवेश की पूजा करवायी थी मगर वो उसमें रह नहीं पायीं। उन दिनों वह आबादी से दूर था। किराये पर दे दियाकिरायेदार की साजिश से वह मुकदमें में फँस गया। मुकदमा भी किससे? हिन्दुस्तान मोटर्स लिमिटेड से। वह तो शुकर समकालीन हिन्दी लेखक सम्मेलन, बम्बई के महासचिव महेंद्र कार्तिकेय का, जिनके हस्तक्षेप से श्री चन्द्रकान्त बिड़ला ने उसे खाली करवा दिया। मां के इंतकाल के बाद 1984 में हम लोग उसमें रहने आ गये। 1995 में वह सरकारी मार्टगेज से मुक्त हुआ और उसका मालिकाना हक मिला। सन् 2008 से उसे 'केयर टेकर' के भरोसे छोड़कर, आप जानते ही हैं कि, किन मजबूरियों में हमें उज्जैन में रहना पड़ रहा है। इस उम्र में अपना घर छोड़कर 'परदेस' में रहकर क्या खयाल आते हैं-मुमकिन गालिब का यह शेर मेरी ज़हनी तकलीफ कुछ बयां कर सके:


किससे महरूमिये किस्मत की शिकायत कीजे


 हमने चाहा था कि मर जायें, सो वो भी न हुआ


प्रमोद ः एक समय में शुद्ध कविता' की बड़ी चर्चा रही। इसका विरोध भी कम नहीं हुआ।आप बतलाएं, ऐसी जुमलेबाजी का मकसद क्या होता है? और समचुच शुद्ध कविता है तो उसके मानक क्या है? और कविता में क्या अशुद्धता घुस गयी जो शुद्ध कविता की याद आई?


धनंजय : आपने खुद ही उसे जुमलेबाजी कहकर उसके मकसद का खुलासा कर दिया है। ऐसी जमले लोगों का ध्यान खींचने, चौंकाने और कुछ नया करने-दिखनेकहने के शिगूफे होते हैं। कुछ दिनों अखबारों-पत्रिकाओं में चर्चा परिचर्चा के बाद फिर किसी को ये जमले याद भी नहीं रहते। वे अपनी मौत मर जाते हैं।


प्रमोद : आपसे जब भी बातचीत का मौका मिला है, बात बार-बार उर्दू की काव्य परम्परा पर आकर टिक जाती है। वहां अभ्यास का बड़ा जोर है। एक गजल कहने के लिए पता नहीं कितने शेर कह दिए जाते हैं। उनमें से कुछ शेरों से गजल पूरी होती है, शेष मश्क के खाते में चले जाते हैं। हिन्दी में अब ऐसा श्रम शायद ही कोई करता है। नई कविता के जमाने में भी कवियों को छन्द का अभ्यास था। निराला ने अपनी कविता को छन्दमुक्त किया तो उसके पीछे तर्क था और सुविचारित युक्ति थी। अब वह बात नहीं रही। बतलाएं अभ्यास' का रचना के लिए आज भी महत्व है या नहीं?


धनंजय : उर्दू में भी तो अब नयी कविता की तर्ज पर नयी शायरी आ गयी है और आजाद नज्मों का भी चलन हो गया है। दूरदर्शन उर्दू और जी सलाम पर मैं अक्सर 'कारवाने-सुखन' और 'महफिले-शायरी' सुनता हूं। उनमें पेश शायरी भी अब उस नफासत और अजमत से महरूम लगती है जो रियाज और उस्तादाना इस्लाह से हासिल की जाती रही है।...निराला ने कविता को छन्द मुक्त इस मायने में किया कि पारंपरिक छन्दों और उनकी रूढ़ियों से उसे मुक्त किया लेकिन उसे 'छन्दविहीन' नहीं किया, उसे मुक्त छन्द दिया। इस प्रसंग में विस्तार से मैं अपनी पुस्तक 'निराला-काव्यः पुनर्मूल्यांकन' में लिख चुका हूं। यहां संक्षेप में यही कि निराला का मुक्त छन्द वेदों से चली आ रही छन्द परम्परा का ही विकास है। 'छन्दः पादौतु वेदस्य'। छन्द को वेद का चरण कहा गया है। 'परिमल' की भूमिका में निराला कहते भी है: "मुक्त छन्द तो वह है जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है।" मुक्त छन्द का सामर्थ्य उसका प्रवाह है। वही उसे छन्द सिद्ध करता है। यह प्रवाह उस 'लय' में होता है जो छन्द की आत्मा है। यह मुक्त छन्द अमरीकी कवि वाल्टव्हिट मैन के 'लीव्ज आफ ग्रास' और फ्रेन्च कवि बोदलेयर के 'लिटिल पोयम्स इन प्रोज' से तो भिन्न है ही वह फ्रेन्च ‘वर्स लिब्रे' से भी अलग, निराला की अपनी अद्वितीय देन है। उसमें 'पढ़ने की कला' (Art of Recitation) का निखार है।


'अभ्यास' का किसी रचना में आत्यन्तिक महत्व है। जीनियस की एक गणितकीय परिभाषा कहीं पढ़ी थी- एक प्रतिशत प्रेरणा (INSPIRATION) और निन्यानवे प्रतिशत पसीना (PERSPIRATION) ही किसी व्यक्ति को प्रतिभाशाली बना सकते हैं। लेकिन अब जमाना तो सफलता का है। येनकेन प्रकारेण सफलता अर्जित करने के मौजूदा दौर में अब अभ्यास का धैर्य कहां किसमें है?


प्रमोद : एक लेखक की हैसियत से आप अपने पाठक से और आलोचक की हैसियत से आप लेखकों से क्या अपेक्षा रखते हैं?


धनंजय : एक लेखक की हैसियत से अपने ही नहीं, साहित्य के किसी भी पाठक, कला के किसी भी दर्शक और श्रोता से मेरी अपेक्षा यही है कि यह अदब और कला का इलाका है. इसमें बाअदब, बामलाहिजा. होशियारी से पेश आएं सिर्फ मनबहलाव. स्वाद-परिवर्तन और तफ्रीहन यहां आने की जुर्मत न करें। लेखक से अपनी अपेक्षा और उसकी रचना से उम्मीद के बारे में मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूं।


प्रमोद : आपने निराला और मुक्तिबोध, नागार्जुन और शमशेर, मीर और गालिब, फिराक और फैज आदि कवियों पर बड़े मनोयोग से लिखा है। कहानी और उपन्यास पर विचार करते हुए अपने समकालीन कथाकारों के अवदान की चर्चा भी मन से की है । क्या अपने समय के किसी कवि पर भी आपकी नजर है जो बहुत सार्थक लिख रहा है और आप उस पर लिखना चाहते हैं?


धनंजय : अपने समय के युवाकवि लीलाधर मंडलोई को पढ़कर मुझे अन्तः प्रेरणा हुई कि 1977 से लेकर 2016 तक उनके प्रकाशित दस कविता-संग्रहों की कविता पर मुझे लिखना चाहिए। मुझे वह समकालीन जीवन-जमाने की प्रासंगिक और प्रामाणिक ही नहीं, सार्थक और महत्वपूर्ण कविता लगी सो मैंने उस पर एक लम्बा लेख उसी मनोयोग से डूबकर लिखा। वह 'समीक्षा' (अक्टू-मार्च 2017) में छप भी गया है।


प्रमोद : हमारी वाचिक परम्परा में कई खूबियां रही हैं पर कालांतर में हमने इस परम्परा के कवियों, गीतकारों को कवि मानने से ही इंकार कर दिया।गीतकारों को देखकर हमने मुंह फेर लिया। अच्छे और बुरे कवि और अच्छी-बुरी कविता हमेशा रहे हैं। कवि सम्मेलन जनसंवाद के कभी सशक्त माध्यम रहे। इन्हें हमने कुकवियों के हवाले कर दिया। उसके नतीजे क्या रहे?


धनंजय : निश्चय ही हमारी वाचिक परम्परा बडी समृद्ध रही है। गीत और गीतकारों की भी एक सम्पन्न धारा रही है। प्रसाद, निराला और महादेवी के गीत अविस्मरणीय हैं। प्रदीप के गीत तो जन-मन के गीत हो गये हैं। बच्चन और वीरेन्द्र मिश्र के गीत भी लोक प्रिय हए हैं। लेकिन फिर जिन गीत गीतकारों को कवि मानने से ही इंकार किया गया वे दरअसल गीतकार ही नहीं थे। वे तुक्कड़ थे (या है) ऐसे ही गीतकारों से न केवल आलोचकों ने वरन स्वयं कवियों ने भी मुंह फेर लिया। समर्थ गीतकारों को हम आज भी पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ लेते हैं। नईम और ओमप्रभाकर के कवि होने पर किसको शक है? कौन उन्हें खारिज कर सकता है? हां, आजकल के कविसम्मेलनों में जरूर कुकवियों की भरमार है। उन्होंने कविता और गीत के नाम पर हल्की-फुल्की तुकबाजी, और चुटकुलेबाजी ओर हास्य-व्यंग्य के नाम पर मसखरेपन और बफूनरी परोसना शुरू कर दिया है। मनबहलाव के लिए तफ्रीहन लोगों की भीड़ भी जुटने लगी है। इसी तमाशबीनी का नतीजा है कि साहित्यिक रुचि लगातार विकृत हो रही है और साहित्य और कविता से ही हमारा जन भी कट रहा है। साहित्य में बाजारवाद की यह भी एक मिसाल है।


प्रमोद : लेखन और विशेष रूप से कविता भी तो कवियों के बीच सिमट कर रह गयी है। क्या यह शुभ लक्षण है?


धनंजय : निश्चय ही नहीं। वाशिंगटन के नेशनल पोएट्री फेस्टीवल (1962) में हावर्ड नेमरेव ने खासी तकलीफ से कहा थाः "All most no one reads poetry, who does not also write it. Many persons who write poetry, evidently do not read it" लेकिन लेखन और विशेष रूप से कविता की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या स्वयं लेखक और कवि भी नहीं? बेशक, भूमंडलीकरण (जिसे मैं भूमंडीकरण कहता हूं) और संचार-क्रांति, उपभोक्तावाद और पॉप-कल्चर, सिनेमा और टेलीविजन ने सभ्यता और संस्कृति के मानवीय पहलुओं को भी बाजार के हवाले कर दिया है लेकिन ठीक यही स्थिति तो है जिसमें बुद्धिजीवियों, लेखकों कलाकारों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपनी गजदन्ती मीनारों से निकलें. 'इलीटवाद' से मक्त हों और राजनीति-पंजी और धर्म के गठबंधन से हो रहे अमानवीयकरण के खिलाफ अपनी मानवीय पक्षधरता का सबूत दें।


प्रमोद : आपके अनन्य मित्र डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य ने अपने एक लेखः धनंजय वर्माः शून्य से शिखर तक' में आपकी संघर्षमय जीवन यात्रा और उसके विभिन्न पड़ावों का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है। शायद हर व्यक्ति 'शून्य' से ही शुरू करता है पर वह 'शिखर' तक पहुंचता है या नहीं, कहा नहीं जा सकता। इस लेख में आपके उत्तरोत्तर विकास का ऊर्ध्वगामी ग्राफ स्पष्ट नजर आता है। सागर विश्वविद्यालय का कुलपतित्व पाना या मिल जाना इस ऊर्ध्व यात्रा का सुमेरू माना गया पर यह तो आनी-जानी स्थिति है। कल उस शिखर पर आप थे, आज नहीं हैं तो क्या यह यात्रा का ढलान है? गुस्ताखी की माफी चाहूंगा। उस पद पर पहुंचने के पहले ही आपने आलोचना में सार्थक हस्तक्षेप करके जिस 'शिखर' को छुआ उस पर आप सदा बने रहेंगे। आप बतलाएं पद और प्रतिष्ठा परस्पर जुड़े होते हैं? और यह भी कि बिना पद के भी प्रतिष्ठा अर्जित की जा सकती है?


धनंजय : प्रभात और आपका शुक्रिया। आप दोनों की जर्रानवाजी का तहेदिल से शुक्रगुजार हूं। उस लेख का अंत होता है 'करपात्री से कुलपति'। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने पहली ही भेंट में मुझे करपात्री कहा था। करपात्री उस भिक्षुक को कहते हैं जिसके पास भिक्षा-पात्र तक नहीं होता। कर ही जिसका भिक्षापात्र है वह करपात्री। करपात्री साधुओं का एक सम्प्रदाय भी है। ये साधु दिन में एक बार, एक ही घर से भिक्षा मांगते हैं जितनी मिल गयी स्वीकार ली, नहीं मिली तो दूसरे घर नहीं जाते। उस दिन उपवास! प्रभात का आशय 'शून्य' से शायद यही करपात्री रहा हैऔर 'शिखर' से आशय कुलपति पद! प्रभात ने जिसका जिक्र किया वह मेरी जीवन यात्रा से अधिक आजीविका यात्रा है। 'शून्य' से बन्धुवर 'हर व्यक्ति शुरू' नहीं करता उनका घर-परिवार होता है, नाते-रिश्तेदार होते हैं, उनके पांवों के नीचे जमीन होती है, सर पर किसी का साया होता है। मेरे पास तो यह कुछ भी नहीं था, जब मैं आचार्य वाजपेयी के सामने खड़ा था। बहरहाल । मैं नहीं समझता कि पद और प्रतिष्ठा परस्पर जुड़े हैं। पद की वजह और नतीजे में जो प्रतिष्ठा मिलती है, वह पद के छूटते ही क्यों गायब हो जाती है? और अहमियत शिखर तक पहुंचने की नहीं होती अहम होता है उस पर टिके रहना। कुलपति मैं कभी था, आज नहीं हूं। आज तो मैं एक आम आदमी ही हूं। हां, साहित्य में, लेखन में यदि कुछ मुझसे हुआ है, हो सका है, कुछ किया धरा है तो उसका ही कुछ मूल्य है या हो सकता है। बकौल आपके “आपने आलोचना में सार्थक हस्तक्षेप करके जिस 'शिखर' को छुआ है, उस पर आप सदा बने रहेंगे" यह आपकी सदाशयता, सद्भावना और शुभ कामना है। इसके प्रति कृतज्ञता ही व्यक्त की जा सकती है। आप इस वाक्य के बाद 'तथास्तु' और कह दें तो यह ब्राह्मण-वाक्य (आशीर्वाद) ही नहीं ब्रह्म वाक्य भी हो जायेगा।


प्रमोद : आप उर्दू भाषा और उर्दू काव्य के अनुरागी और मर्मज्ञ हैं। दुष्यन्त कुमार ने अलग मिजाज की गजलें कहीं। उन्हें हिन्दी गजल का पुरोधा माना गया। नये कवियों में गजल कहने का शौक जगाया। आप बतलाएं वह किस तरह से हिन्दी गजलगो हैं? वे हिन्दी के कवि-नाटककार लेखक जरूर रहे हैं। उनका गजल में हस्तक्षेप एक हिन्दी के कवि-लेखक का हस्तक्षेप है, जिसने नए कवियों-गीतकारों में गजल के प्रति आकर्षण पैदा किया?


प्रमोद : आप उर्दू भाषा और उर्दू काव्य के अनुरागी और मर्मज्ञ हैं। दुष्यन्त कुमार ने अलग मिजाज की गजलें कहीं। उन्हें हिन्दी गजल का पुरोधा माना गया। नये कवियों में गजल कहने का शौक जगाया। आप बतलाएं वह किस तरह से हिन्दी गजलगो हैं? वे हिन्दी के कवि-नाटककार लेखक जरूर रहे हैं। उनका गजल में हस्तक्षेप एक हिन्दी के कवि-लेखक का हस्तक्षेप है, जिसने नए कवियों-गीतकारों में गजल के प्रति आकर्षण पैदा किया?


धनंजय : मैं उर्दू भाषा और उर्दू काव्य का अनुरागी तो हूं, मर्मज्ञ होने का दावा मेरा कतई नहीं है। हां, दुष्यन्त ने जो गजलें कहीं (या लिखीं) उन्हें हिन्दी गजल क्यों कहा गया, मेरी भी समझ में नहीं आया। बरसों पहले 'धर्मयुग' में मेरा एक लेख छपा था-'गजल को गजल ही रहने दो।' वह मेरी पुस्तक 'आलोचना की जरूरत' में उपलब्ध है। उसमें भी मेरा कहना यही था (है) कि गजल में अलग से हिन्दी चस्पा करने की क्या जरूरत है? आपने 'अलग मिजाज' का जिक्र किया। दरअसल यह 'मिजाज' ही है जो गजल को गजल बनाता है और मुझे मुआफ किया जाय-गजल की जो थोड़ी बहुत तमीज मुझे है, उसकी बिना पर मैं कह सकता हूं कि हिन्दी में वह मिजाज आ ही नहीं सकता जो गजल की शर्त है। हिन्दी में गजल कहने का वो 'शऊर' ही नहीं है जो गजल की जरूरी शर्त है। किसी भी तत्सम शब्दावली में भाषा की वो रवानी आ ही नहीं सकती जो उर्दू जबान का खुसूसी अंदाज है। बहर' और रदीफकाफिया मिलाने भर से गजुल मुकम्मल नहीं होती। दुष्यन्त को हिन्दी में गजल का पुरोधा कहने का क्या मतलब है? क्या उसके पहले हिन्दी में गजल कही नहीं गयी?


हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या


रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या


यह है कबीर की गजल का मुखड़ा। मई 2017 के नया ज्ञानोदय में छपी इस गजल पर खासा विवाद भी हुआ था। द्विवेदी युग के श्रीधरपाठक मैथिली शरण गुप्त, केशव प्रसाद मिश्र, मन्नन द्विवेदी, सत्यनारायण कविरत्न, माधव शुक्ल, बदरीनाथ भट्ट, ठाकुर गोपाल शरण सिंह, राय देवी प्रसाद पूर्ण, रामनरेश त्रिपाठी, लाला भगवानदीन ही नहीं जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, शमशेर और त्रिलोचन ने भी गजल में जोर आजमाइश की, लेकिन निरपेक्ष वक्तव्य का खतरा उठाकर भी कहा जा सकता है कि गजल के मिजाज-ओ-शऊर के नुक्त-ए-नजर से सिर्फ शमशेर ही गजल कहने वाले शायर कहे जा सकते हैं। बाकी तो सिर्फ प्रयोग के लिए प्रयोग करने वाले ही कहे जायेंगे। शमशेर इसलिए कि वे उर्दू के भी उतने ही बड़े मर्मज्ञ जितने हिन्दी के। उनका अन्दाजे-बयां उस्तादाना है। सॉनेट में बला की महारत हासिल कर चुके त्रिलोचन के इस शेर पर गौर करें:


प्रशंसा परार्थनुसंधान की है


कहां स्वार्थ का रंग गहरा न देखा


परार्थानुसंधान सरीखे समास, गजल में खप ही नहीं सकते। उसे पढ़ते ही जबान को जो धचक्का लगता है, वह गजल की बर्दाश्त के बाहर है और दुष्यंत के दो अशआर देखें:


तुमको निहारता हूं, सुबह से ऋतम्भरा


अब शाम हो रही है, मगर मन नहीं भरा


या


मत कहो आकाश में कोहरा घना है


यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है


यहां 'ऋतम्भरा' के साथ 'भरा' और 'घना' के साथ 'आलोचना' का अन्त्यानुप्रास खालिस तुकबन्दी लगता है और 'व्यक्तिगत' से शेर की वैसी ही दुर्गति हो रही है जैसी प्रशंसा से त्रिलोचन के शेर की। उसमें शेर या गजल की कैफीयत ही नहीं हैबात यह हुई कि दुष्यंत के बाल सखा और फिर समधी कमलेश्वर ने कहानी की पत्रिका 'सारिका' में उनकी गजलें प्रकाशित कर उन्हें इतना 'बजाया' कि फिर लगभग चारों दिशाओं से 'हुआ... हुआ' का समवेत स्वर गूंजने लगा। दरअसल दुष्यंत की काव्य-प्रतिभा 'सूर्य का स्वागत', 'आवाजों के घेरे', 'जलते हुए वन का वसंत' और उनके मैग्नम ओपस ‘एक कंठ विषपायी' में श्रेष्ठता और उत्कृष्टता के जिस स्तर पर है, वह 'साये में धूप' में नहीं!


प्रमोद : आप कुलपति रह चुके हैं। आपका ध्यान भी इस ओर गया होगा कि शिक्षा के प्रति विद्यार्थियों का आकर्षण कुछ गिने-चुने विषयों में ही रह गया है और तो और अब शुद्ध विज्ञान के विषयों के लिए भी गहरी उदासी नजर आती है। सामाजिक विज्ञान के विषयों और साहित्य की ओर तो वे विद्यार्थी आकर्षित होते हैं जिनका न तो कोई लक्ष्य है और न ही रूचि! बहुत ही व्यावहारिक शिक्षित पीढ़ी आकर्षक पैकेज की तरफ भाग रही है। समाज का विघटन हो रहा है। नई-नई समस्याएं पैदा हो रही हैं। इनके पास अपने लिए भी समय नहीं है। इनका कोई दायित्व और प्रतिबद्धता नहीं है। शिक्षा का यह ढांचा ही हमारी प्रगति का मानक बन गया है। सारा वैविध्य समाप्त हो गया। ऐसा क्यों हुआ?


धनंजय : ऐसा तथाकथित भूमंडलीकरण के चलते हुआ जिसने सारी दुनिया को एक मंडी में तब्दील कर दिया है। पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था, बाजारवाद और उपभोक्तावाद की सफलता-अभिमुखता की वजह से शिक्षा अब वह शिक्षा कहां रही जिसका मकसद व्यक्तित्व-परिष्कार और सुसंस्कृत नागरिक का निर्माण था। ऊंची से ऊंची नौकरी, और बड़ा से बड़ा पैकेज हासिल करने की होड़ होकर रह गयी 'शिक्षा' से अब क्या उम्मीद की जा सकती है? सूचना के विस्फोट और संचार क्रान्ति के चलते 'ज्ञान' की जरूरत किसे है? विज्ञान में किसकी रुचि है? सामाजिक विज्ञान की उपयोगिता भी अब कितनी रह गयी है? और साहित्य वह भी हिन्दी? याद आता है, सागर विश्वविद्यालय में जब जब आचार्य नंददुलारे वाजपेयी की कृपा से मुझे हिंदी साहित्य में प्रवेश मिल गया तब राजनीतिशास्त्र के एक प्रोफेसर डॉ. सुशीलचन्द्र सिंह ने ही तो कहा था 'आपने हिन्दी में एडमीशन क्यों लिया? बी.ए. में तो राजनीतिशास्त्र में आपके सबसे अधिक अंक थे?' और डिप्टीरजिस्ट्रार श्री परमानन्द वाजपेयी कहा-“हिन्दी में एम.ए. तो लड़कियां करती हैं। क्या तुम हिन्दी के मास्टर बनना चाहते हो?" और पैंतीस-छत्तीस बरसों की हिन्दी में मुदर्रिसी का मेरा अनुभव है कि महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में साहित्य वह भी हिन्दी में विद्यार्थियों की संख्या लगातार घट रही है। अब विद्यार्थी या तो इंजीनियरिंग में जा रहे हैं या मेडीकल मेंइंजीनियरिंग, आई.टी., बी.ई. करके किसी मल्टी नेशनल कंपनी में बढ़िया पैकेजजो व्यवस्था मनुष्य को 'अर्थ पिशाच' बनाने पर तुली है, उसमें 'मानवता' और 'संस्कृति' की किसे चिन्ता है? विकास की अंधी दौड़ में अब तो हमारा शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय' भी 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय' हो गया है, गोया मानव भी कोयला और लोहे के मानिन्द विकास का एक संसाधन भर हो । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के 'ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेन्ट' (HRD) में 'ह्यूमन' और 'ह्यूमैनिटी कितनी शेष है? जरूरत है, तो 'हायर' करो, जरूरत खत्म हुई, तो 'फायर' करो। अब हमारीआपकी सोच वाले लोग अपने बेटों के लिए भी गुजरे जमाने के 'सेन्टी अजूबेबनकर रह गए हैं। चौतरफा विघटन के इस माहौल में मानवीय संबंधों की कहे कौन, पारिवारिक और रक्त-संबंधों में भी अब दायित्व और प्रतिबद्धता, दकियानूसी और पिछड़ापन ही नहीं, सेन्टीमेन्टल मूर्खता मानी जाने लगी है।


प्रमोद : हर लेखक आलोचक से अपनी कृति पर लिखवाने के लिए लगा रहता है। आलोचक पर कई तरह के दबाव भी डाले जाते हैं। लेखक यह भी चाहता है कि आलोचक के निष्कर्ष कैसे हों? दबाव में लिखा गया या लिखवाया गया 'समीक्षा' नहीं होती। मुलाहिजे में लेखक को आलोचक ने संतुष्ट कर भी दिया हो, पर वैसा काम क्या उसे खटकेगा नहीं? और यदि आलोचक ने सही जगह ऊंगली रख दी तो खुद लेखक, समीक्षक बन जाएगा और समीक्षक को उसकी औकात दिखा देगा।'मठ' और 'मठाधीशों में भी आलोचना की फजीहत कम नहीं हुई। इस पूरी लीला' को आपसे बेहतर दूसरा नहीं जानता । जानता हो तो साफ-साफ कहने की हिम्मत नहीं करता। आलोचना इस क्षरण से खुद को कैसे बचाए और आलोचना की 'मुंह देखकर तिलक लगाने वाली धारा पर लगाम कसे?


धनंजय : आलोचना के समकालीन क्षरण पर आपकी बेबाक टिप्पणी से मैं पूरी तरह मुत्तफिक हूं। मुझ पर भी ऐसे दृश्य-अदृश्य दबाव आए हैं और मैंने भरसक उनसे बचने की कोशिश भी की है। नतीजतन खामियाजा भी भगता है। मसलन कविआलोचक अशोक वाजपेयी ने 'पूर्वग्रह' में प्रमोद वर्मा की पुस्तकों पर लिखने का प्रस्ताव किया। मैंने उनसे निवेदन किया कि प्रमोद जी मुझे कवि आलोचक दोनों रूपों में प्रिय और महत्वपूर्ण लगते हैं लेकिन मैं उन पर लिखंगा नहीं क्योंकि मुझ पर अपने दोस्तों (शानी और दृष्यन्त) पर लिखने की तोहमत लग चुकी है। प्रमोद जी पर लिखूगा तो जाति-बिरादरी और नाते-रिश्तेदारी की तोहमत चस्पॉ हो जायेगी। अशोक जी ने कहा 'तो फिर विनोद कुमार शुक्ल की किताबों पर लिख दें।' मैंने अर्ज किया मुझे वो कतई पसन्द नहीं हैं, न कवि और न उपन्यासकार! अशोक जी ने फरमाया- 'यह अजीब बात है। एक पर आप इसलिए लिखना नहीं चाहते कि वो आपको, पसंद हैं और दूसरे पर इसलिए कि वो आपको पसंद नहीं है।' मैंने कहा 'जी! दोनों स्थितियों में आलोचना की वस्तुपरकता रहेगी कैसे?' और प्रमोद भाई, नफा और नुकसान दोनों से वाकिफ होने के बावजूद मैंने तय कर लिया था कि मैं न तो अशोक वाजपेयी पर लिखूगा और न सुदीप बैनर्जी पर। क्योंकि वो दोनों आई.ए.एस. अफसर और लाभदायी पदों पर आसीन हैं। अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित 'पहचान' सिरीज पर 'साक्षात्कार' में लिखने का आग्रह शानी ने किया था। मैंने लिखा भी लेकिन उसने वह लेख मुझे लौटा दिया-यह कहकर कि इससे तो अशोक जी मुझसे खफा हो जायेंगे! बहरहाल! जहां तक इस क्षरण से खुद को बचाने और 'मुंह देखकर तिलक लगाने वाली धारा' पर लगाम कसने का सवाल है तो मैंने अपने तई उसका एक रास्ता यह निकाला है कि अब मैं उसी रचना और रचनाकार पर लिखता हूं जिस पर लिखने की अन्त:प्रेरणा होती है। जहां लगता है इस पर लिखने से किसी को ठेस पहुंचेगी, उस पर मैं लिखता ही नहीं। बढ़ती उम्र और अस्वस्थता का रेडीमेड बहाना हमेशा तैयार रहता हैऔर अब इस चलाचली की बेला में मेरे पास खोने (और पाने को भी) क्या है जो मुझे मुंह देखकर तिलक लगाने की जरूरत और मजबूरी झेलनी पड़े!


प्रमोद : अपने सुदीर्घ लेखकीय अनुभवों से गुजरते हुए रचना क्षेत्र के बड़े-बड़े परिवर्तनों के आप साक्षी रहे हैं। कई शिखर ध्वस्त हुए- तब की मान्यताएं धूमिल हो गयीं। कुछ तो अप्रासंगिक भी।लेखन का मिजाज बदला, आस्वाद बदल गए। इन परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में आप अपनी मान्यताओं स्थापनाओं में कुछ संशोधन करना चाहेंगे?


धनंजय : हां, जरूर। वैसे तो लेखन के दौरान ही इतनी काट-छांट, संशोधनपरिष्कार करता हूं कि किसी लेख का तीसरा मसौदा ही 'फाइनल' होता है। उसके बाद भी जब वह छपकर आता है तो लगता है कि इस बात को यदि इस तरह कहता तो बेहतर होता। मुझे अपनी पुस्तकों निरालाः काव्य और व्यक्तित्व' ही नहीं निराला काव्यः पनर्मल्यांकन और 'आस्वाद के धरातल' तक की भाषा अब बहत कत्रिम, सायास और गरिष्ठ लगती है। मैं निश्चय ही उनमें संशोधन-परिष्कार ही नहीं उनका पुनर्लेखन करता, यदि समय होता। इसी तरह निश्चय ही अपनी मान्यताओं और स्थापनाओं में भी बहुत कुछ संशोधन ही नहीं बहुत कुछ को खारिज करने तक का मन करता है। मैं उन 'आत्ममुग्ध', 'आत्मतृप्त' लेखकों में से नहीं हूं जो अपना हर लिखा हुआ 'अप्रतिम' समझते हैं।


प्रमोद : अपनी स्मृतियों को खंगालने के लिए मैं आपको काफी पीछे ले जाना चाहता हूं। याद करके बतलाएं, बस्तर जैसे सुदूर और हर तरह से पिछड़े इलाके में पराधीनता के दिनों में, पराधीनता से मुक्ति के लिए कोई हलचल-छटपटाहट थी? क्या होता था उन दिनों स्थानीय स्तर पर? इस आन्दोलन का नेतृत्व किसके हाथ में था और जन को आन्दोलन से कैसे जोड़ा जाता था जबकि तब वहां शिक्षा का अभाव रहा होगा। उस दौर की ऐसी किसी घटना का उल्लेख करें जिससे उस समय की हलचल पर रोशनी पड़ती हो। यदि आप अपने को कुरेद सकें और कुछ याद आता हो तो।


धनंजय : नाना हमें जगदलपुर ले गये थे तब मैं पांच-छह बरस का था। 1947 में मेरी उम्र रही होगी बारह बरस और मैं प्राइमरी पास कर मिडिल स्कूल की पांचवीं में पढ़ रहा था। तब कहां होश था-पराधीनता स्वाधीनता क्या होती है। मुक्ति के लिए कोई छटपटाहट और आन्दोलन रहा भी होगा तो मुझ अबोध को उसका क्या बोध । हां आठवीं में पहुंचा तब (याने 1950 के आसपास) से सिलसिला बनता है यादों का। मेरे छोटे मामा- सोमदेव जी दक्षिणबस्तर के भैरमगढ़ (अब जिला बीजापुर की एक तहसील) में बस गये थे। छोटे-मोटे कारोबार से शुरू कर उन्होंने फिर खासा व्यापार बढ़ा लिया था अपना। स्कूल की गर्मी की छुट्टियों में वे मां के साथ हमें भैरमगढ़ ले जाते थे। घने जंगलों की सुबह-दोपहर-शाम-रातों में बैलगाड़ियों से यात्राओं की यादें बसी हैं और आदिवासियों के अमानवीय और बर्बर शोषण की भी। छोटे-छोटे व्यापारियों, कोचियों द्वारा उनकी लूट! तौबा-तौबा। जितना नमक देते, उतनी ही चिरौंजी ले लेते। एक साधारण पुलिस कान्स्टेबल (जिसे वे 'पाइक' कहते) का भी क्या रौब-दाब! गांवों में होती थी पाइक गुड़ी (पुलिस विश्राम गृह)। पाइक के पहुंचते ही उसकी साफ-सफाई, भोज के लिए चावल दारू मुर्गा! यदि उसका तबादला हो गया तो उसका सारा सामान कांवड़ में लाद कर उसके गंतव्य तक पहुंचाने की बेगार । उनका कहीं-कोई पुरसां हाल नहीं। डिप्टी कमिश्नर (आजकल के कलेक्टर) श्री आर.सी.वी.पी. नरोन्हा, ज्ञात इतिहास में पहले प्रशासक थे जिन्होंने अबूझमाड की यात्रा की थी। कोकोमेटा से वे दक्षिण की ओर चले और कचपाल, कुतुल, धुरबेडा, गोमांगल, कोकापाल, ईतुल, कोरोवाही, कुटरू होते हुए भैरमगढ़ पहुंचे थे। अबूझमाड के आदिवासी गांवों में रातें बिताते, पहाड़ियां लांघते, नमक बांटते जमीन-जायदाद के झगड़े सुलझाते, घने जंगलों में आदिवासियों को आदमखोरों से नजात दिलाते उन्होंने माड (पहाड़) की यह यात्रा पैदल की थी। उन्होंने प्रशासन को भी कसा और आदिवासियों की कुछ खोज खबर शुरू हुई थी।


प्रमोद : प्रगतिशील लेखक संघ और साम्यवादी विचारधारा के पोषक होकर क्या आप नक्सलवादी विचारधारा के समर्थक रहे? सक्रियता की नहीं, वैचारिक समर्थन की बात पर आपकी राय जानना चाहता हूं। जिस तरह का विकास हुआ, विषमताएं निश्चित रूप से बढ़ी हैं। और यह भी बताएं कि यह लड़ाई क्या केवल विषमता खत्म करने के लिए लड़ी जा रही है?


धनंजय : वामपंथी रुझान की वजह से शुरू-शुरू में नक्सलवादी आन्दोलन के प्रति थोड़ा आकर्षण जरूर था। चारू मजूमदार और कानू सान्याल वगैरह की कुछ प्रचार सामग्री भी पढ़ी थी लेकिन फिर धीरे-धीरे वामपंथी पार्टियों की रीति-नीति, तौरतरीकों से जो मोह भंग हुआ तो घोर निराशा भी हुई। सीपीआई, सीपीएम, सीपीएमएल और माओवादी नक्सलवादी खुद को मार्क्सवादी कहते हैं लेकिन उनकी विचारधारा और रीति-नीत उतनी ही फासिस्ट है जितनी नाजीवाद और हिटलर की थी। रूस में भी मार्क्सवाद के नाम पर स्तालिनवाद और लेनिनवाद पसर गये और चीन में माओवाद, जिसकी तथाकथित 'सांस्कृतिक क्रान्ति' ने कितना नरसंहार किया, किसी से छिपा नहीं है। जगदलपुर से मेरा तबादला 1961 में हो गया और बस्तर लगभग हमेशा के लिए छूट गया। उसके बाद लगभग दस-दस, बारह-बारह वर्षों के अन्तराल से दो तीन बार जाना हुआ। सहपाठियों और विद्यार्थियों के अलावा छोटे मामा के परिजनों से संपर्क बना रहा। बस्तर में नक्सलवाद के बारे में मेरा अपना आकलन यह है कि जब भी कोई विचारधारा, किसी संस्था, संघ और संगठन, राजनीतिक दल या पंथ में कायान्तरित होकर 'सत्ता हथियाने का हथकंडा' और 'शक्ति-राजनीति का मोहरा' बन जाती है, तब वह कितनी विकृत और कुत्सित, खौफनाक और घिनौनी, कट्टर और बर्बर, अमानवीय और मानव-विरोधी हो जाती है, इसका जीता जागता उदाहरण हैनक्सलवाद! भैरमगढ़ में मेरे ममेरे छोटे भाई धीरेन्द्र वर्मा की नक्सलवादियों ने घर में घुसकर, धोखे से, सिर्फ इसलिए हत्या कर दी कि वह न केवल आदिवासियों के हितों का पक्षधर था बल्कि राजनीतिक रूप से भी प्रभावशाली था। एक प्रख्यात पत्रकार और मेरे विद्यार्थी किरीट दोषी ने मुझे बताया कि उस क्षेत्र के दलम नेता से एक साक्षात्कार में उन्होंने इसका जिक्र किया तो उसने बडी बेशर्मी से कहा- 'वे मारना किसी और को चाहते थे, गलती से उनकी हत्या हो गयी।' ऐसी असंख्य अमानवीय हत्याएं नक्सलवादियों ने की हैं। वे तो बुनियादी संरचनात्मक विकास के भी विरोधी हैं। वे सड़क, स्कूल, अस्पताल तक वहां बनने देना नहीं चाहते। कभी भी किसी आदिवासी को पुलिस का मुखबिर कहकर भून देते हैं, उनकी फसल लूट लेते हैं, उनकी महिलाओं से बलात्कार करते हैं। वहां के आदिवासी और आम नागरिक लगातार दिन-रात इस दहशत में जीने को मजबूर हैं कि पुलिस उन्हें कभी भी नक्सलियों का समर्थक और नक्सली उन्हें पुलिस का मुखबिर समझकर खत्म कर सकते हैं।


प्रमोद : साहित्य में जुमलेबाजी नई नहीं है। पिछली सदी के सातवें दशकों में नए-नए आन्दोलनों ने लेखन को प्रभावित किया और लेखन की धारा को मोड़ा भी। बतलाएं इन आन्दोलनों से साहित्य में आधारभूत परिवर्तन क्या नजर आए और ये कितने केवल ध्यानाकर्षण कर चुक गये?


धनंजय : पिछली सदी के छठवें दशक में 'नयी कहानी' और 'नयी कविता' के आंदोलन उरूज पर थे। दोनों ने लेखन को प्रभावित किया और जैसा आपने कहा 'लेखन की धारा को मोड़ा भी।' 'नयी समीक्षा' की थोड़ी सुगबुगाहट भी हुई थी। लेकिन फिर 'अकहानी', 'अकविता', समांतर कहानी', 'विचार कविता', 'सहज कहानी' और 'सनातन सूर्योदयी कविता', 'गीत' और 'नवगीत' वगैरह न जाने कितने आंदोलन धूम केतुओं की तरह साहित्याकाश में उभरे और विलीन हो गए। वहीं कमलेश्वर जो कभी 'नयी कहानी' के अलमबरदार थे, 'समांतर कहानी' का परचम लहराने लगे और राजेन्द्र यादव 'स्त्री विमर्श' के प्रयोजक बन गये। उन दोनों का हश्र क्या हुआ? 'नयी कहानी' के स्वयं नियुक्त प्रवक्ता आलोचक प्रवर 'कविता के नये प्रतिमान' निर्धारित करते-करते 'दूसरी परम्परा की खोज' के जंगल में भटक गये। उनसे साहित्य में आधारभत परिवर्तन क्या नजर आते? सब तो अनारदानों और फुलझड़ियों के मानिन्द फूटे, रोशन हुए कुछ देर और फिर फुस्स!


प्रमोद : सुना है आपको गुस्सा बहुत आता है और बहुत जल्दी आता है। बतलाएं किन-किन बातों पर आता है? गुस्सा उन्हीं को आता है जो स्वभावतः भावुक होते हैं। ऐसी भावुकता में क्या कभी आपको इतनी ही खुशी के पल भी आए? यदि हां, तो सर्वाधिक खुशी के यादगार पल कौन से रहे!?


धनंजय : आचार्य रामचन्द्र शक्ल ने 'चिन्तामणि' में भाव और मनोविकारों का अद्भत मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। वे क्रोध को उद्रेक का मूल-दुःख मानते हैं। क्रोध की अभिव्यक्ति होती भी इसलिए है कि जिससे दु:ख मिला है, उससे फिर दुःख न मिले । सो जब चोट लगती है तभी 'आह' की बजाय (और साथ-साथ) यदि गुस्सा आ जाता है तो यह स्वाभाविक अनुक्रिया ही है न। चोट सिर्फ शारीरिक या भौतिक नहीं होती, मानसिक, भावात्मक और भावनात्मक भी होती है। एक बार कमलाप्रसाद बोले "दादा, आप बहुत जल्द गुस्सा करते हैं।" मैंने उनसे पूछा- “ऐसा कैसे हो सकता है कमला बाबू कि मेरी पीठ पर किसी ने जोर से एक मुक्का मारा अभी, और मेरे मुंह से आह निकले आधाघंटा बाद?।" इतना चतुर सुजान में नहीं बन पाया कि फिलहाल अपना गुस्सा रोक लूं और सही वक्त आने का इंतजार करूं। ऐसे लोग जो मस्लहतन अपने को जब्त कर लेते हैं वे बड़े कैलकुटेड' तरीके से अपना 'बदला' निकालते हैं। उनकी तथाकथित शान्त प्रकृति के पीछे उनकी सोची-समझी चाल और साजिश होती है। वे चालाक होते हैं। आपने सही कहा- "गुस्सा उन्हीं को आता है जो स्वभावतः भावुक होते हैं।" मैं भावुक हूं, सेन्टीमेन्टल और इम्पल्सिव भी हूंव्यावहारिक भाषा में मूर्ख भी कहा जा सकता हूं। जानता हूं कई बार इससे मुझे ही नुकसान होता है, हुआ है, होता रहेगा। अब इस उम्र में अपनी प्रकृति और स्वभाव को बदल तो नहीं सकता। हां, रफ्ता-रफ्ता थोड़ा सब्र करना आ गया है।


सर्वाधिक तो नहीं कह सकता लेकिन हां, नजीर दी जाती रही हो जिसकी, उस अकादेमिक केरियर के बावजूद जिस विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मुझे लेक्चररशिप नसीब नहीं हुई, उसी विश्वविद्यालय का कुलपति बनने पर जो खुशी हुई वह आज भी याद है। खुशी के पलों की याद के बारे में एक शेर बेसाख्ता कौंधता है:


हयात एक मुस्तकिल गम के सिवा कुछ भी नहीं शायद


खुशी भी याद आती है, तो आंसू बन के आती है।


प्रमोद : मझे पता है- आप पनर्जन्म में विश्वास नहीं करते. पर मझ जैसों को ऐसी ही फैन्टेसीज़ में मजा आता है। कल्पनाओं में ही सही यह जीवन को एक तरह का दिलासा है। थोड़ी देर के लिए ही सही, आपको दुबारा जीवन जीने को मिले तो क्या आप फिर से यही जीवन जीना चाहेंगे? यदि नहीं तो वह वांछित जीवन कैसा होगा?


धनंजय : न केवल पुनर्जन्म में मेरा विश्वास नहीं है बल्कि ईसाईयत के पुनर्जीवन (रिजक्शन) और इस्लाम के आखिरत' और 'जन्नत' में भी मेरा कोई अकीदा नहीं है। जहन्नुम मैं देख- भोग चुका हूं। बकौल गालिब:


आतिशे-दोजख में यह गर्मी कहां


सोजे-गमहाए निहानी और है।


(नरक की आग में भी वह ताप-जलन नहीं जो मेरे दिल में दिये हुए दुःखों की दाह में है।)


सो 'यदि दुबारा यही जिन्दगी जीने को मिले तो' तौबा, तौबा ...मेरी तो ख्वाहिश क्या हिम्मत भी नहीं है। और यदि जन्म-पुनर्जन्म का चक्र सही है तो, सच पूछिए तो, मैं इस आवागमन के चक्र से ही मुक्त होना चाहता हूं।


प्रमोद : अब आपको नादान की दोस्ती और जी का जंजाल' का अर्थ उज्जैन आकर और मेरी संगत में साफ-साफ समझ आ गया होगा। आपका कीमती वक्त जाया करने के लिए मैं सचमुच शर्मिन्दा हूं।....पर हम मालवी ऐसे ही चिपकू हैं। कल मौका मिले न मिले, आज मौका मिला है तो जी भर के खींच लो।आपको मैंने बहुत थकाया।अब आप आराम करें।... हां, बातचीत बहुत ही उम्दा रही और सारा श्रेय आपके धैर्य को है। अब ऐसा लिहाज दुबारा न कीजिएगा। तो....?


धनंजय : कहते हैं- बुढ़ापे में नई दोस्तियां हुआ नहीं करती, लेकिन आपसे जो दोस्ती हुई वह इस कहावत का सार्थक अपवाद है। आपकी-सी-संगत, नसीब वालों को ही नसीब होती है। यहां अपना वक्त तो वो कोहन है जो कमबख्त न कहींसे न सरकता है और न कहीं से कटता है। आप इसे कीमती कह रहे है ! आपने इसे सार्थक ढंग से जीने में, व्यतीत करने में, अपना बेशकीमती वक्त जाया किया, इसका शुक्रिया-सद शुक्रिया। मेरी एक पुस्तक-आलोचक का अंतरंग 2005 में आई थी। उसमें तीस-पैंतीस बातचीत. भेंट वार्ताएं और साक्षात्कार हैं। उसके बाद भी लगभग दस-पन्द्रह बातचीत और साक्षात्कार पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं लेकिन इस अर्द्धशती के बाद आपसे बातचीत जितनी दिलचस्प और विचारोत्तेजक गंभीर और आह्लादकारी हुई उतनी, अब तक कोई नहीं। आपने मुझे इतना स्नेह-सम्मान दिया, इतने विस्तार और निर्द्वन्द्व भाव से खद को प्रस्तत और अभिव्यक्त करने का मौका दिया इसके लिए मैं तहेदिल से आपका शुक्रगुजार हूं और अंतिम सांस तक रहूंगा।


* * *


प्रमोद : ...औपचारिक रूप से यह बातचीत पूरी हो गई थी। धनीभूत मौन हमें घेरे था। शायद हम दोनों ही इस बातचीत की अनुगूंज में थे और इससे बाहर आना नहीं चाह रहे थे। माना, यह पूरी बातचीत टुकड़ों में ही पूरी हुई, पर आज इस पूरी यात्रा की थकान धनंजय जी पर घिर आई थी! यही होता है, जब कोई काम पूरा हो जाता हैइस पसरे मौन से उबरने या मुझे उबारने के लिए उन्होंने एक सीढ़ी तलाशी। थके चेहरे पर मौन हंसी झलकी।'...तो? ' बातचीत के बाद उस घिरे सन्नाटे में मैंने यही सुना। मन में थोड़ी शर्मिन्दगी ने धिक्कारा । इस-'तो...?' के कई अर्थ मुझ में झिलमिला गए!


- तो आपका काम आज पूरा हो गया।'


-'अब कुछ और या....?'


-'अच्छा नमस्कार।


-'कुछ और बचा तो नहीं?'


-'या...'


-'या...'


-'या...'


उनके मन में जो कुछ भी हो या न हो, शायद नहीं ही होगा, पर मेरे ‘घोड़े' बेछूट भागने लगते हैं।.... अक्सर सोचता हूं, मैंने ऐसे बेलगाम घोड़े क्यों पाल लिए जो मुझसे ही नहीं संभलते?


उन्हें उनके-'तो..?' के साथ छोड़ने का फैसला लेते हुए कहा-'अब इजाजत दें। मैं निकलूंमेरे बेछूट घोड़ों की लगाम कसी। घोड़े काबू में आ गए चाय का महत्व उतना नहीं था। पर सहज हो कर विदा लूं, मैं भी यही चाहता था और चाय से बेहतर कोई विकल्प हो ही नहीं सकता था। मैंने कहा- 'चाय की जरूरत तो मुझे भी थी' मैंने कहा तो जरूरत महसूस हुई। हम सतह पर आ रहे थे


बाहर तो अन्धेरा घिर आया था, पर भीतर से आज कुछ ज्यादा ही रोशन था। शायद'बन्धुवर भी....


चाय भी आ गई । हम तब भी चुपचाप चाय पीते रहे।


-"अब इजाजत दें।"


"जाएंगे?"


- "हां, अब लौटूं।"


-"हां, अन्धेरा भी घिर रहा है


दिक्कत होगी तुम्हें।


फिर भी, थोड़ा तो और रूको यार!


बैठो।"


#


अच्छा लगा


इतनी बातें हुईं


कहां-कहां नहीं पहुंचे


क्या कुछ नहीं पाया।


#


अक्सर मैं पहुंच जाता हूं


और वह कहते हैं


-"अच्छे आये तुम्हें ही याद कर रहा था।"


बात में से बात निकलती चली जाती है।


और रोशन होने लगते हैं-


सारे कोने-अंतरे।


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अपनी रौ में बहते हुए पता नहीं किस छोर से


वह कहते हैं-"जिंदा कौमें ही सवाल करती हैं।"


और कहते-कहते मैं फिर रूक जाता हं कि


"मुझे अब इजाजत दें।


#


साथ-साथ होकर


कभी गहरे मौन में तो कभी


बातों की बेहद्दी में


हम पता नहीं कितने व्योम पार कर जाते हैं।


समय की कितनी हदें!


हम नहीं बोलते तब


अदृश्य घोड़ों की टापें लगातार सुनाई पढ़ती है!


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पूरी हो जाने के बाद भी कुछ छूट ही जाता है


दोनों को बेचैन करते रहने के लिए।


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मुझे पता है,


इस समय वह पंडित जसराज के साथ होंगे


और उनकी बगल में बैठे भीमसेन जोशी


समझा रहे होंगे


परवीन सुलताना होने का मतलब


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मुझे पता है,


जब अगली बार उनसे मिलूंगा तो वह कहेंगे


"उनके साथ मौन


बल्कि अवाक हो जाने का सुख है


अनिर्वचनीय!


तो तुम्हारे साथ


विकट बीहड़ों से गुजरते हुए विकल होने का सुख भी


कम नहीं!"