अज्ञेय और शमशेर का काव्य-चिंतन

Alekh


कमल किशोर श्रमिक


सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय एवं शमशेर बहादुर सिंह को जन्म 1911 में हुआ था। आधुनिक काल में तुलसीदास की भांति कोई बच्चा चौपाई करता हुआ पैदा हो जैसी बातों पर अब भरोसा नहीं किया जाता। अतः मान लिया जाना चाहिए कि 1930 के आसपास उक्त दोनों महाकवियों की काव्ययात्रा प्रारंभ हई होगी। कथित आजादी के सत्रह वर्ष पूर्व का यह काल भारतीय नवजागरण की तीब्रता का काल था, सामाजिक परिवर्तन के गुणात्मक जागृति का काल था, राजनैतिक उथलपुथल का काल था एवं राष्ट्रीय मुक्ति के युगबोध का काल था। यह इतिहास का वही कालखंड था, जब भगतसिंह जेल में थे और एक वर्ष के बाद फांसी पर चढ़ा दिये गये थे। यहां यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि भगतसिंह को राजनीति के साथसाथ साहित्य की भी पर्याप्त समझ थी एवं कविता से उन्हें विशेष लगाव था। लगभग एक दर्जन किताबें सात वर्ष के अंदर लिखना वह भी तीन भाषाओं (अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी) में उनके सफल लेखक होने का प्रमाण है। 1929-30 में ही भगतसिंह ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी थी। निराला, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि अनेक कवि भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपनी कविता को वैचारिक अस्त्र की भांति प्रयुक्त कर रहे थे। इनमें मार्क्सवादी एवं गैर मार्क्सवादी दोनों प्रकार की कविताओं के काव्य की केंद्रीय धारा राष्ट्रीय (देशप्रेम) की थी और उक्त कवि छायावादी कुहासे से बाहर आकर राष्ट्रीय मुक्ति या मानव मुक्ति के लिए प्रयत्नशील थे। अंग्रेजी साहित्य से प्रभावित छायावाद भी उपधारा के रूप में हिंदी साहित्य (काव्य) में दृष्टिगत हो रहा था और कहना न होगा कि अज्ञेय और शमशेर इस कालखंड में छायावादी उपधारा में बहते हुए रोमान्टिक अंदाज के साथ नये प्रतीकों, शब्दों के द्वारा बौद्धिक मौलिकता की तलाश में भटकते हुए युगबोध की उपेक्षा कर रहे थे। 1931 में मात्र 23 वर्ष की आयु में जब भगतसिंह अपने खून से एक नये इतिहास की रचना कर रहे थे, तब इसी आयु के गैर माक्सवादी कवि दिनकर ने लिखा था।


उठ भूषण की भाव रागिनी, लेनिन के दिल की चिनगारी


युग मर्दित यौवन की ज्वाला, जाग-जाग री क्रांति कुमारी।


या


क्रांति धात्रि कविते जग उठ आडंबर में आग लगादे,


पतन पाप पाखंड जले जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।


ब्रिटिश सत्ता किसानों मजदूरों का अमानवीय दमन, महाजनी परंपरा का उत्पीड़न अंग्रेजों के भारतीय चाकर जमीदारों के द्वारा किसानों पर जुल्म इस कृषि प्रधान देश के आम आदमी के दिलों में उस वैचारिक आग को और प्रज्जवलित कर रहे थे, जो 1857 के पूर्व से ही किसानों या आदिवासी संघर्षों, विद्रोहों के रूप में सुलग रही थी। स्वतंत्रता प्राप्त हुई मगर भगतसिंह या आम आदमी के सपनों का भारत नहीं बना। प्रेमचंद के शब्दों में जॉन के स्थान पर गोविंद बैठ कर शोषण, दोहन की यथास्थित बनाये रहा। अब विषय वस्तु पर सीधे आने के लिए हमें यह देखना होगा कि 1930-36-40 के बीच हमारे उक्त दोनों महाकवि अज्ञेय व शमशेर क्या लिख रहे थे। आमतौर पर हिंदी साहित्य के समीक्षक उक्त कवियों को प्रारंभ में उत्तर छायावादी और बाद में प्रयोगवादी, तारसप्तकी घोषित करते हैं। अज्ञेय पर टीएस इलियट एवं शमशेर पर मार्क्स के प्रभाव की बात भी कही जाती है। मेरे विचार से इस बात में आंशिक सत्य होने के बाद भी यह एक सरलीकृत मूल्यांकन है। जो इनके काव्य की अंतर्वस्तु को या व्यक्ति की नियति को पूरी पारदर्शिता के साथ उजागर नहीं करता। 1933 में अज्ञेय का भग्नदूत' काव्य संकलन प्रकाशित होता है और 1942 में चिंता नामक काव्य संकलन। नियतिवादी नैराश्यजन्य अमूर्त चिंतन की अभिव्यक्ति इन काव्य संकलनों की देन है जो उत्तर छायावादी कवियों के काव्य की मूल आत्मा कही जा सकती है। 'चिंता' में यातना और चिंता के वैयक्तिक भाव हैं। इसे प्रणय काव्य भी कहा जा सकता है। रोमांटिक भावना का स्तर बहुत सतही है एवं भाषा जैसे लंगड़ा व्यक्ति चलने का प्रयास कर रहा हो। हालांकि बाद में भाषा के स्तर पर अज्ञेय को सराहा गया है। 'इत्यलम' 1946 भी रोमांटिक भावबोध की कविता का प्रतीक है, जिसमें क्रांतिकारी-एडवेन्चरिज्म का पुट भी कहीं-कहीं दृष्टिगत होता है। निरंतर प्रयत्न और अभ्यास से भाषा को मांजने वाला यह कवि आखिर लिखता क्या है? वैचारिक स्तर पर प्रगतिवादी का विरोध करने वाले इस कथित महाकवि की प्रयोगवादी भाषा की कविता को निहितार्थ क्या है? व्यक्ति की स्वतंत्रता या चेतना की वकालत करने वाला कवि वैचारिक स्तर पर कुंठा, निराशा एवं आत्मरति के अतिरिक्त पाठक को क्या प्रदान करता है ? व्यक्ति के केंद्र में घूमने वाला एकांतवासी, अभिजात्य वर्गीय कवि जो पल को संपूर्णता में जीने का स्वांग करता है, आम लोगों की सामूहिक त्रासदी को घृणा की दृष्टि से देखता है। भाषायी जगलरी एवं चौकाने वाले शिल्प के अतिरिक्त इन कलावादियों के पास होता क्या है? मनुष्यता द्रोही प्रवृत्तियों के समर्थन में बौद्धिक अस्त्रों के साथ खड़े उत्तर आधुनिकतावादियों के बारे मे क्या कहेंगे आप? आखिर अपने समय की लाइन तो वही थी। व्यवस्था के संरक्षण में सुरक्षित रहने वाला अभिजात्य बुद्धिजीवी यही तो करता है यूरोप के अस्तित्ववादियों का जनवादी विरोध तारसप्तक या अज्ञेय के रूप में भारत में जन्म ले चुका था। किसी से सहज होकर न मिलना, बिना काम के व्यस्त रहना, अपने आपको शिखर पुरुष (महान) समझना अज्ञेय का व्यक्तित्व रहा है, जिसकी छाप उनके काव्य में भी स्पष्ट दिखाई देती है। वैचारिक धरातल पर अपने आपको केंद्र में रखकर केवल अपने प्रति प्रतिबद्ध होना कौन सा वाद कहा जायेगा? इसे तो वादों से मुक्त किसी आदर्श की संज्ञा भी प्रदान नहीं की जा सकती। भारतीय स्वतंत्रता के दो वर्ष बाद हरी घांस पर क्षण भर' उनका काव्य संकलन प्रकाशित हुआ, जिसमें उनका व्यक्तिवाद खुलकर पाठकों के सामन प्रकट होता है। उनके प्रशंसक इस संकलन की कविताओं को आत्मान्वेषण की संज्ञा प्रदान करते हैं। सत्य कभी-कभी आदमी के सिर पर चढ़कर बोलता है। इसी संकलन में वह स्वयं अपनी कविता में कहते हैं।


अहं अंतर्मुहावासी


स्वरति


क्या मैं चीन्हता दूजी न कोई राह


जानता क्या नहीं निज में बद्ध होकर


है नहीं निर्वाह ?


क्षुद्र नलकी में समाता है कहीं बेथाह ?"


मुक्त जीवन की सक्रिय अभिव्यज्जना का तेजहीन प्रवाह!


जानता हूं। नहीं सकुचा हूं कभी


समवाप को देने स्वयं का दान!


विश्वजन की अर्चना में नहीं बाधक था


कभी इस व्यष्टि का अभिमान।"


इस पूरी कविता में “निज में बद्ध होकर है नहीं निर्वाह" का सत्य पूरी पारदिर्शता के साथ उभरा है। 'नदी के द्वीप' में भी व्यक्तिवाद अपनी तरह के कलावादी रुझान के साथ व्यक्त हुआ है। मृत्यु के द्वारा जीवन में प्रगति देखने का दर्शन 'बावरा अहेरी' काव्य संग्रह का सारतत्व कहा जा सकता है। यह एक चौकाने वाली वृत्ति है जो प्रगति विरोधी अभिजात्य संस्कृति का गुण है। प्रगतिवादी चेतना के विरुद्ध तारसप्तक का व्यक्तिवादी रुझान, प्रगतिशील लेखक संघ के बरअस्क परिमल की स्थापना, दूसरे तारसप्तक के बाद 1953 में "नेहरू-अभिनंदन ग्रंथ" नवभारत टाइम्स का संपादन मात्र संयोग नहीं था। इस जनविरोधी (लोक विरोधी) नीति के कारण इस क्षमतावान साहित्यकार को इतिहास क्षमा नहीं करेगा। चंद डेमोक्रेट विपक्ष के नेता राजनीति में जिस प्रकार व्यवस्था को सहयोग करते रहे, साहित्य में वही भूमिका अज्ञेय की रही है। अंत में अज्ञेय के प्रशंसक डॉ अरविंद पांडेय के शब्दों को उद्धृत करना यहां अप्रासंगिक नहीं होगा- " समीक्षकों ने सबसे अधिक जिस बात के लिए खिंचाई की है, वह बात है 'अज्ञेय समाज की जीती जागती तपनयुक्त वास्तविकताओं से कतराकर निकल गये। दूसरी बात यह है कि घुटन, संत्रास, अजनबीपन और किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थितियों को रचना में नहीं उभारा। यह आरोप बहुत हद तक सही भी है। इसका कारण चाहे जो हो।"


दुनिया में कोई दो व्यक्ति या दो साहित्यकारों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व कभी एक समान (कार्बनकापी) नहीं होता, किंतु गुण-दोषों का आनुपातिक साम्य अगर मिलता है तो उसे उसके सदृश कह दिया जाता है। इतिहास में हिटलर और मुसोलिनी को एक समान कहा गया है। इस आधार पर शमशेर को अज्ञेय के साथ जोड़ा जा सकता है। जहां तक व्यक्तित्व का प्रश्न है, दोनों ही अंग्रेजी दां थे या अंग्रेजों के कवियों से प्रभाव ग्रहण करने वाले, एकांतप्रिय, प्रणयी, मांसल सौंदर्य के चितेरे, अभिजात्य वर्गीय, मनोगत दुःखों से पीड़ित, व्यक्तिवादी धारणाओं वाले कवि रहे हैंहां अज्ञेय जहां लोगों (समकालीन लेखकों) से मिलने पर काप्लेक्स ग्रस्त रहे वहीं शमशेर में शालीनता के साथ नम्रता उनके व्यक्तित्व का अंग रही है। यह आकस्मिक नहीं था कि नागार्जुन एवं केदार पर दृष्टि न डालते हुए अज्ञेय ने अपने तारसप्तक के कवियों में शमशेर का चयन किया था। इसका कारण अज्ञात नहीं है। अपने देश काल के दारुण यथार्थ से आंखें चुराकर अंग्रेजी के कवियों के काव्यगत विचारों से अपनी भूमिका तलाशने वाले शमशेर और अज्ञेय का तालमेल तो बनना ही था। शमशेर ने निराला, अज्ञेय. त्रिलोचन, भवनेश्वर, मक्तिबोध, नरेद्र शर्मा, जिन्सवर्ग, मोहन राकेश आदि साहित्यकारों पर भी कविताएं लिखी हैं। यह उनके वैचारिक द्वंद्व को भी चिन्हित करता है। 1930-32 से काव्य के क्षेत्र में पांव रखने वाले शमशेर का अपना काव्य संकलन 1959 में प्रकाशित होता है। उनके काव्य संग्रह 'चका भी नहीं हं मैं' कछ रचनाएं 1935-40 के बीच प्रकाशित होती है। इस दौरान 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हो चुकी थी और भारतीय कवि भारतीय यथार्थ से प्रभावित हो मुक्ति के सामूहिक प्रयासों को अपने काव्य में शामिल कर रहे थे, किंतु शमशेर सामूहिक त्रासदी से आंखें चुराये अपने वैचारिक बंधु अज्ञेय की भांति निराशा, कुंठा, अकेलेपन, मृत्यु की इच्छा अंधेरे का एकान्तवास या यात्रा जैसी मानसिकता की कविताएं लिख रहे थे। इसकी अभिव्यक्ति उनकी किरण रेखा, शिला का खून पीती थी। तिलक, सींग, नाखून, सीता आदि रचनाओं में स्पष्ट देखी जा सकती है। इस संदर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि उक्त निराशा का कारण 1935 में उनकी पत्नी का देहावसान था। कौन जाने व्यक्तिगत दुखों की तलाश में तृप्ति का कारक उनकी पत्नी की मृत्यु भी रही हो । शमशेर ने बाद में मार्क्सवाद से प्रभावित होकर जनपक्षधर कविताएं भी लिखीं लेकिन प्रारंभ में वह पश्चिम के कवियों के प्रभाव में या तो घोर निराशा के गहन अंधकार में यात्राएं करते रहे या फिर बुजुर्वा आदर्शवादी मानवतावाद के प्रभाव में विश्व संस्कृति के समन्वयवादी मानसिक शांति को राग अलापते रहे। उन्होंने 'आत्मतम' कविता में अपनी उक्त भावना को व्यक्त किया है।


पूरब और पश्चिम


मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं।


और मैं यूरोप और अमेरिका की नर्मआंच की धूप छांव में


बहुत हौले-हौले नाच रहा हूं।


सब संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर हैं।


क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख शांति का राग हूं।


बहुत आदिम बहुत अभिनव।


मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैव्यू उतना ही प्यारा है


जितना मास्को का तारा।


आज मैंने गोर्की को होरी के आंगन में देखा


और ताज के साये में राजर्षि कंग को पाया"


इस तथाकथित समन्वयवाद में या सुख शांति के आदिम अभिनव राग में वर्ग संघर्ष की भावना कहीं दूर-दूर तक दृष्टिगत नहीं होती। वह खुद अपने बारे में अपनी कविता में लिखते हैं- “उससे पूंछा तुम्हारी कविताओं का क्या मतलब है! मैंने कहा कुछ नहीं। उसने पूछा फिर तुम क्यों लिखते हो? मैंने कहा-ये लिख जाती हैं। तब इनकी रक्षा कैसे हो पाती है! उसने क्यों यह प्रश्न किया? फिर बहुत से गीत खो गये।"


 अब जो कविता अपने आप लिख जाती है उसके बारे में क्या कहा जाये? बहुत संभव है कि उनसे उनकी कविता के बारे में किसी ने पूछा ही न हो। यह उनका अपना मानसिक द्वंद हो। मुझे लगता है वे मानसिक द्वंद के शिकार अंत तक रहे। जैसे-


दवा मेरे दिल की मिलनी है मुहाल


शब्द भाव प्रेम वर्जित कर दिया गया।


मेरे जीवन में कितना/कि मैं अब समाजवादी बनूंगा


और समालोचक वक्ता आर्ट पर/मेरी कला चीखेगी।


अपार व्योम में। अपनी अभिव्यक्ति के लिए।"


इस मार्क्सवादी चेतना के द्वंद के बाद शमशेर ने आम आदमी की पक्षधरता में भी बहुत कुछ लिखा है। जैसे


उनके मिट्टी के तन में है अधिक ताप।


उसमें हे कवि विरह मिलन के पाप जलाओ


काट बुर्जुआ भावों की गुमटी को गाओ।।" या


जरूरी क्या है हिंदुस्तान पे कब्जा किया जाये


जो धर्मों के अखाड़े है उन्हें लड़वा दिया जाये।


अपने लेखन की प्रेरणा उन्हें निराला से एवं शब्द चयन (भाषा) पंत से प्राप्त करने की बात स्वयं स्वीकार करने वाले शमशेर ने मानसिक चेतना के विकास क्रम में जनवादी कवितायें भी लिखीं जो अज्ञेय ने कभी नहीं लिखा लेकिन उनकी प्रगतिशील कविताओं में भी जनपक्षधरता या निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध की भांति प्रतिबद्धता की तीव्र अनुभूति कभी परिलक्षित नहीं होती।


 वे अपने काव्य की बुनावट या मानसिक अनिर्णय के कारण अज्ञेय के निकट अधिक दिखाई देते हैं। बहुत संभव है अपने जीवन काल में अज्ञेय की कट आलोचना एवं जनवादी कवियों की जनप्रियता के कारण या मानसिक विकास के कारण वह जन पक्षधर कविताओं की ओर झुके हों जैसा कि निराला के प्रतिद्वंद्वी पंत ने अपने को प्रगतिवादी बनाने का प्रयास किया। बुद्धिजीवी प्रयास करके भी आंशिक सफलता प्राप्त कर लेते हैं। पंत एवं शमशेर ने भी वैसी सफलता अर्जित की। मगर इस तथाकथित सफलता के बाद भी यह कहा जा सकता है कि होने और बनने में एक फर्क तो होता ही है। शमशेर बौद्धिक विकास या युगीन रुझान के कारण अपनी काव्य रचना में निजत्व से लोक की ओर भले ही चले गये हों किंतु वे अपनी प्रयोगवादी रोमांटिक वृत्ति से कभी मुक्त नहीं हुए। उन्हें शील, केदार, निराला, नागार्जन की भांति जन पक्षधरता का व्यवहारिक संघर्ष नहीं करना पडा। मुक्तिबोध के शब्दों में अब संघर्ष अच्छे और बरे का नहीं बल्कि अच्छे और बेहतर का हैप्रकृति में कविता के उपमान तलाशने वाले अन्य कवियों की भांति शमशेर के साहित्यिक अवदान का पर्याप्त मूल्यांकन करते हुए यही कहा जा सकता है कि शमशेर का काव्य विनम्रतापूर्वक चिंतन जनवादी कवियों की अपेक्षा अज्ञेय के अधिक निकट है।