उनकी ही कविता-पंक्तियों से

रामकुमार कृषक


डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी की एक संस्मरण कृति है 'टिगरिया का लोकदेवता भवानी प्रसाद मिश्र।' देखने में सब कुछ बेसिलसिला, लेकिन सिलसिला ऐसा कि उनकी सृजनात्मकता जा जादू सिर चढ़कर बोले । उन्हीं के कहे, 'यहाँ आप संस्मरण विधा को एक समावेशी विधा के रूप में देख सकेंगे।' सिर्फ बातों का संपादनसंयोजन।' मैं इसे रघुवंशी जी की विनम्रता कहूँगा, क्योंकि यह एक संपादक की नहीं, रचनाकार की कृति है, और उनकी इस रचनात्मक संपादकीय दृष्टि को कवि विजेंद्र केंद्रित 'लेखन सूत्र' के विशेषांक में भी देखा जा सकता है।


_ 'टिगरिया के लोकदेवता' में रघुवंशी जी ने भवानी भाई के कुछ विचारों को भी सामने रखा है। उनमें से एक यह भी है-'मैं भारतीय कवि हूँ, हिंदी का कवि नहीं। भाषा नहीं, चेतना कवि की असली पहचान है। भाषा तो कपड़ा है, जिससे चेतना जरा सज-संवर जाती है। पर चेतना न हो तो बेजान लाश है। इसलिए किसी भी कवि की पहचान उसकी चेतना से करनी होगी-जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान । भाषा जाति है, ज्ञान-देवता नहीं।' एक अन्य स्थान पर उन्हीं के शब्दों को रघुवंशी जी इस तरह रख रहे हैं- 'केवल किताबों में बंद या मंच पर खडी कविता, मैं मन में भी नहीं रहना चाहता, मन से पार निकल जाना चाहता हूँ। मेरी समझ से सोच-विचार का कविता से संबंध नहीं। संबंध भावना से है। विचार जब भावना हो जावे तब लिखना चाहिए। विचार रच-पच जाये, तब फूटे। न फूटे तो अच्छा। नई कविता, पुरानी कविता-क्या अर्थ है इसका सबका। कोई अर्थ नहीं है, और अर्थ है।'


कविता का संबंध भावना से और भावना का कवि के 'अंतस' ('अंतस के निर्झर', जीवित रहते रघुवंशी का अंतिम कविता संग्रह) से होता है। विचार को भावना का होना होगा। दोनों का घर-बार और दायित्व, नेह-छोह सब एकमेक होने चाहिए। और जब कोई सच्चा लेखक अपने वरिष्ठों को देखता है तो स्वयं को भी देखता है। उसके लिए वे कसौटी की तरह होते हैं। उपरोक्त उद्धरणों में भवानी भाई हैं तो रघुवंशी जी भी हैं।


रघुवंशी जी को गीत-नवगीत की काव्यधारा में बहुत कुछ नया जोड़ने के लिए जाना जाता है। लेकिन वे वहीं तक सीमित नहीं हैं। विधाओं का उनके वहां उल्लेखनीय वैविध्य है। रचना और आलोचना, दोनों में समान गति । गीत को वे 'पाठ प्रांतर' का निवासी मानते हैं और उसकी सांगीतिक संगति को उसके लिए घातक। यह साहसिक स्थापना है, और इसने कई गीत कवियों को परेशान किया है। इस मुद्दे पर उनसे हुई चर्चा के हिसाब से इसका कारण सिर्फ यह है कि हमारे अनेक गीतकार गीतों में टेक और तुक में अंतर नहीं कर पाए। इसे लेकर उनके इस कथन के साथ खड़ा हुआ जा सकता है कि 'गीत के संदर्भ में तो उसकी अभंगता अनिवार्य है। वह गीत की आनुवांशिक अनिवार्यता है। वह उसकी सहज वृत्ति और सहज स्वभाव है। तुकें उसकी चेष्टाएँ हैं । स्वभाव और सहजता के बजाय मात्र चेष्टाओं के चक्कर में पड़कर गीत की जो दुर्गति हुई, उसे आज भी गीतकारों ने नहीं समझा, और चिल्लाते रहे कि गीत की उपेक्षा हो रही है।' (अलाव/जुलाई-अगस्त, 2013)


__ याद रखें, यह क्षोभ एक गीतकार का है, जो गीत की पूरी परंपरा से परिचित है और उसकी आलोचकीय अनदेखी से भी। लेकिन वह उसके कारणों तक भी जाता । यही रघुवंशी जी हैं । खुली-आँखों स्वयं को देखने वाले साहसिक।


_और, उनकी यही साहसिकता अपनी एक वरेण्य विधा के प्रति ही नहीं, जीवन और जीवन संघर्ष के प्रति भी रही। दुर्भाग्य से रघुवंशी जी से मेरी एक ही भेंट हो पाई, और वह भी अस्पताल में । गुड़गाँव स्थित मेदांता' में वे हृदय-चिकित्सा के लिए दाखिल थे। साथ में सिर्फ विनिता जी। दिल्ली एन.सी.आर. में भी उन्होंने मुझे और मंडलोई जी को ही सूचना दी थी। उनकी इस आत्मीयता के प्रति मैं आज भी विनत हूँ, हालांकि बार-बार अस्पताल आने से मना करते रहे-नाहक परेशान मत होना कृषक भाई। लेकिन कोई भी परेशानी हमारे मित्र-बंधुओं के दुख से बड़ी नहीं हो सकती। कारागार जैसे अस्पताली अनुशासन के कारण विनिता जी नीचे रिसेप्शन तक आई थीं। और जब मैं उनके कक्ष में पहुँचा तो बेड से इस तरह उठे, मानों स्वस्थ होंदेर तक मैं उनके हाथ थामे रहा, वे मेरे। बोले-'जाँचें हो गईं हैं सभी। इलाज भी ठीक हैपहले से, भोपाल से जब यहाँ आया था, अब बेहतर फील कर रहा हूँ।' वही स्नेहिल स्वर। वही अंदाज, जिसे मैं जब-तब फोन पर सुनता रहा था। पहचान रघुवंशी जी से बरसों पुरानी थी, लेकिन महज कागद की लेखी। रू-ब-रू हम पहली बार हुए थे।


सितंबर-अक्टूबर 2009 में 'अलाव' का एक अंक मैंने नवगीतकार और अनूठे काष्ठशिल्पी नईम पर केंद्रित किया था। उसी वर्ष अप्रैल में वे गुजरे थे। रघुवंशी जी से भी मैंने उसमें लिखने का आग्रह किया। पता चला, काफी बीमार हैं। आँतों का एक बड़ा ऑपरेशन कराया है। फिर भी मेरा आग्रह और नईम साहब से जुड़ी उनकी अनमोल यादें। आगे की कथा उन्हीं की कलम से – 'यह ऑपरेशन इंदौर के उसी बाम्बे अस्पताल में हुआ था, जहाँ नईम का अंत तक उपचार हुआ। इस हालत में लिखना-पढ़ना स्थगित था। पूरा आराम करने को डॉक्टर ने कहा था। कृषक जी ने सारा हाल जानने के बाद कहा कि 'अलाव' का नईम केन्द्रित अंक बिना आपके आलेख के रिलीज नहीं होगा। यह वाक्य उन्होंने आत्मीय आग्रह की जिस मिठास से कहा था, वह उसी भाव में मेरे रोम-रोम में समा गया और मुझे आत्मीय आग्रह की गहरी प्रतीति से भर गया। मैं भूल गया कि मेरा इतना बड़ा ऑपरेशन हुआ था और डॉक्टर ने मुझे लंबे समय तक आराम करने को कहा है। पलंग से उठकर तभी कागज-पत्तर संभालना शुरू कर नईम पर अपना आलेख कोई आठ दिनों में पूरा कर कृषक जी को पोस्ट करवा दिया।' ('क्रमशः' का कृषक केंद्रित विशेषांक/संपादक : शैलेंद्र चौहान/अगस्त, 2014)


और, उनके जीवट की एक और बानगी : मार्च-अप्रैल, 2013 में जब मुझे बाइपास (2005) पर बाइपास की नौबत आई तो उन्होंने एक चिट्ठी में लिखा-'प्रिय भाई कृषक जी, नमस्कार। पहले तो ढेर-ढेर उत्साह आपको कि आप सोत्साह स्वस्थ रहें। आजकल 60 प्रतिशत व्यक्ति डॉक्टरों की वजह से अस्वस्थ हैं और 40 प्रतिशत अपनी वजह से। डॉक्टर डरा देता और वह डर जाता है। इन दोनों की वजह से रोग आ बैठता है। आप स्वस्थ हैं और संयमी भी। कोई फैशन में कृषक नाम नहीं रखा है आपने। शेष फोनाचार द्वारा। सस्नेह, प्रेमशंकर रघुवंशी।'


डॉक्टर डरा देता है और रोगी डर जाता है। रघुवंशी जी की यह टिप्पणी प्राइवेट अस्पतालों या निजी चिकित्सा तंत्र के व्यापारीकरण को लेकर है, और उनके स्वास्थ्य-संघर्ष को देखते हुए स्वानुभूत भी। 2013 में वे स्वयं अस्वस्थ थे, फिर भी मुझे भावनात्मक संबल दे रहे थे।


आज उनकी रचनाएँ हमारा संबल हैं। नहीं जानता, पुनर्जन्म में उनका कितना विश्वास था, मेरा नहीं है; तो भी मैं संदर्भ से हटकर ही सही, भवानी भाई की याद में लिखी गई उनकी कुछ कविता-पंक्तियों से उन्हें याद करना चाहता हूँ -


हो चुका समारोह राम-राम .... सतपुड़ा जब याद करे फिर आना/


अब की जब आओगे सारे वन चहकेंगे/पर्वत के सतजोड़े टेसू से दहकेंगे/बजा-बजा सिनसिटियाँ नाच उठेंगे कछार/खनकेंगे वायुके नूपुर-स्वर द्वार-द्वार/गोखरू पुआल पास करमासी झूमेंगी/वनवासी आशाएँ थिरकन को चूमेंगी/बदली की छैया जब याद करें फिर आना।