कविता में बांध प्रभावितों की बदहाली

राकेश दीवान


प्रेमशंकर रघुवंशी की लंबी कविता 'डूबकर डूबा नहीं हरसूद' का पहला पाठ करते हुए विक्रम सेठ की बरसों पहले (1991 में प्रकाशित) पढ़ी लंबी कविता बीस्टली टेल्स याद आती रही। सेठ ने अंग्रेजी कविता में एक काल्पनिक बांध से डूबने वाले जंगल के रहवासी तमाम जानवरों के साहस और संघर्ष की मार्फत विस्थापन और फिर डूब की विस्तृत व्यथा-कथा सुनाई है। रघुवंशी अपनी हिंदी की इस लंबी कविता में इंदिरा सागर बांध की चपेट में आए खंडवा (मध्यप्रदेश) जिले के एक भरे-पूरे कस्बे हरसूद और उसके आसपास के गांवों को पानी का सामना जुड़ी दिखाई देती हैं। जहां सेठ बीस्टली टेल्स में बांध विरोध के आंदोलन का खाका खींचते हैं वहीं रघुवंशी करीब ढाई दशक चले आंदोलन के बाद डूब की त्रासदी भुगतते आम लोगों का दर्द उजागर करते हैं। सेठ की कविता से जहां बांध के पक्ष और विपक्ष की राजनीति का अंदाजा लगाया जा सकता है वहीं रघुवंशी अपनी कविता के जरिए डबने वालों की अमानवीय प्रताडना का खलासा करते हैं।


थोड़ी और गहराई में जाएं तो संभवतः इन कविताओं के बीच कुछ और सार्थक जोड़ बिठाए जा सकते हैं, लेकिन एक बात प्रेमशंकर रघुवशी की कविता को इस या इससे मिलते जुलते विषय पर लिखने वालों में अलग खड़ा कर देती है। वे डूबते हरसूद की पीड़ा को उन्हीं लोगों के बीच, ठीक उसी जगह उजागर करते हैं। यह कमाल अपने विषय के साथ जैविक रिश्ते के बिना नहीं किया जा सकता है।


इस लिहाज से देखें तो यह कविता ठेठ उन लोगों की त्रासदी बयान करने वाली कविता हो जाती है जो खुद डूब का सामना करते हुए अपनी-अपनी जिजीविषा को बरकरार रखे हुए हैं । त्रासद विस्थापन को भुगत रहे निमाड़ के आम बांध प्रभावितों के साथ कवि कैसे एकाकार हो जाता है? कैसे उसकी कविता डूबने वालों में से ही किसी एक की कविता हो जाती है? इसे जानने के लिए रघुवंशी समेत उन लोगों को जानना जरूरी होगा जो नर्मदा या ऐसी ही किसी नदी के ठेठ किनारों पर बसे हैंतमाम संसार की तरह, नदी, पानी का एक अविरल स्रोतभर है? यदि नहीं तो फिर उनके जीवन में नदी किन-किन अवतारों में प्रगट होती है?


देशभर की नदियां अपने आसपास के समाज को तरह-तरह से उपकृत करती हैं। जाहिर आदिवासी नदी की बाढ़ को उसका सूज जाना कहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे भागीरथी के किनारे का समाज बाढ़ को नदी का बौखला जाना या गुस्सा हो जाना कहता है। सूजना या बौखलाना इंसानी गुण है और यह किसी निर्जीव जलस्रोत की हरकत नहीं हो सकती। इसलिए भीलों के लिए नर्मदा घर की एक बुजुर्ग, मोटली माई है जैसे उत्तराखंड के लोगों के लिए भागीरथी मां हैं।


एक और उदाहरण है, भील भिलाला आदिवासियों के गायणा का । समाजशास्त्र में मिथ ऑफ क्रिएशन के नाम से पहचाना जाने वाला लंबा, रात-रात भर गाया जाने वाला यह गीत प्रकृति के निर्माण और संलाचन के रहस्य खोलता है। इस गीत में नर्मदा यानि मोटली माई की भी लंबी कहानी है जिनमें उन्हें समुद्र यानी डूडा हामद से प्रेम हो जाता है। प्रेम में डूबी प्रफुल्लित नदी नाचते गाते समुद्र से मिलने जाती है और इस यात्रा में अपने निकट आने वाले हरेक प्राणी को उदारता से कुछ न कुछ देती चलती है। कई प्रकार के पेड, वनस्पति, बीज, अनाज इस सुखद यात्रा के नतीजे में तटवासियों को मिलते हैं। आनंद में आकंठ डूबी नर्मदा को अंत में समुद्र का भाई दुखद खबर देता है कि आप नाच-गाने में लगी हैं, लेकिन उधर तापी समुद्र से मिल चुकी है। मिलन से ज्यादा प्रेम में होने के सुख का महत्व बताने वाली इस कहानी के नतीजे में नर्मदा का टेढ़ा मेढ़ा और तापी का लगभग सीधा यात्रा पथ इसी कहानी को पष्ट करता बताया गया है। यहां उन आदिवासियों का उल्लेख भी किया जाना प्रासंगिक होगा जिन्होंने प्रेम की इतनी गहरी व्याख्या की है और जिन्हें हमारा रहता है।


भील-भिलालों की तरह नर्मदा किनारे की गोंड, कोरकू, भारिया जैसी जनजातियां भी अपने-अपने गीतों, नृत्यों की मार्फत नर्मदा के होने का उत्सव मनाती रहती हैं, लेकिन उनके लिए भी नदी घर के किसी बेहद वरिष्ठ सदस्य की हैसियत रखती हैं।


गैर आदिवासी समाजों में भी नर्मदा को केवल पानी के स्रोत से इतर देवी या मां का दर्जा मिला है। प्रेमशंकर रघुवंशी का नर्मदा से इसी तरह का रिश्ता है और नदी किनारे के निमाड़ी होने के नाते वे भी इसी परंपरा के कवि हैं। जाहिर है, नर्मदा की उनकी कविता भी केवल आज के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक संकट की कविता भर नहीं है, उसमें नदी किनारे के समाज की धड़कन सहज रूप से आवाजाही करती रहती है। मिसाल के तौर पर इस लंबी कविता में कई ऐसे शब्द अंश देखे जा सकते हैं जो ठेठ स्थानीय निमाडी या बंदेली भाषाओं में प्रयोग किये जाते हैं।


___ नर्मदा से रघुवंशी का यही लगाव उन्हें अपने संगी-साथियों, नाते-रिश्तेदारों, पास-पड़ोसियों की असमय, अत्याचारी डूब का भागीदार बना देता है और इसी प्रेरणा से वे इस लंबी कविता की रचना करते दिखाई देते हैं, लेकिन क्या ऐसी लगती हैं कि वे इस पर रत्तीभर स्याही तक बर्बाद नहीं करना चाहते?


__ पत्रकार विजय मनोहर तिवारी ने भोपाल गैस त्रासदी पर लिखी अपनी किताब 'आधी रात का सच' में मध्यप्रदेश और भोपाल के लेखकों, पत्रकारों पर तीखा सवाल करते हुए पूछा है कि इतनी जहरीली, गंभीर और हजारों को मारने वाली दुर्घटना पर उन्होंने अपनी कलम क्यों नहीं चलाई? समूची 1312 किलीमीटर की नर्मदा पर प्रस्तावित और निर्मित तीस बड़े बांध देश के बीचों-बीच भरी-पूरी किसानी, आदिवासी संस्कृतियों, लाखों जीवन और बेहद उपजाऊ जमीनों को डुबो रहे हैं। लेकिन हमारी भाषा हिन्दी के किसी कवि, साहित्यकार को ये विषय अपनी रचनाओं के लायक नहीं लगते। सामान्य पत्रकारीय जिम्मेदारी के तहत लिखे गये समाचारों, लेखों के अलावा इक्का दुक्का साहित्यिक आलेखों को छोड़ दें तो हिन्दी जगत को नर्मदा पर बनने वाली बांधों की त्रासदी कलम चलाने को प्रेरित नहीं कर पाती।


अलबत्ता यह सवाल अपनी जगह है कि दूसरी भाषाओं में ऐसा क्यों नहीं होता? मराठी के कवि दया पवार की सैकड़ों बार पढ़ी-सुनी जाने वाली कविता धरण बांध की त्रासद सच्चाई को कुछ इतनी शिद्दत से बयान करती है कि पढ़ने सुनने वाला खुद उसे महसूस करने को मजबूर हो जाता है। बांग्ला, तमिल, मलयालमप्रभावों को उजागर करने की ललक दिखाई देती है। इन तमाम भाषाओं के अनेक रचनाकार मौजूदा विकास के तमाशों और उनसे उपजती मानवीय तकलीफों पर अपनी-अपनी लेखनी चलाते हैं, लेकिन हिन्दी में इस तरह का चलन दिखाई नहीं पड़ता। इस लिहाज से प्रेमशंकर रघुवंशी उन इक्का-दुक्का में एक, शायद इकलौतेहिंदी के कवि हैं जिन्हें डूब की भयानक त्रासदी ने कविता लिखने की प्रेरणा दी।


___ मानवीय और प्राकृतिक त्रासदियां केवल तकलीफें ही नहीं उपजाती। वे प्रतिरोध संघर्ष और इसके नतीजे में भोगी जाने वाली अनंत व्याधियों को भी समाज कोई स्थान नहीं दिया है। डूब का संकट भुगतता निमाड़ी समाज केवल दर्द झेलता दयनीय समाजभर नहीं है, उसने दुनियाभर के सामने मौजूदा विकास के तिलिस्म की धज्जियां उधेड़ कर रख दी हैं। आज बांध बनाने के लिए लपलपाते सत्ता और सेठों के कुत्सित गठबंधन पर यदि किसी तरह की रोक लगी है तो उसमें निमाड़ के उन अनेक किसान आदिवासियों का भी हाथ है जिनकी तकलीफों पर रघुवंशी ने कलम चलाई है। समय और स्थान की सीमाओं का उल्लंघन कर लिखी गई लंबी कविता संघर्ष के इस आख्यान के बिना अधूरी दिखती है। शायद रघुवंशी जी ने यह विषय अपनी अगली लंबी कविता के लिए छोड़ दिया है।