कविता
कैलाश मनहर
दरवाजे से निकलते ही लगी ठोकर कि
ठोकर का दर्द अपने पाजामे की जेब में रख लिया मैंने
गली के नुक्कड़ पर चुभ गया नुकीला कांटा
और कांटे की चुभन मैने अपनी मुट्ठी में बन्द कर ली
चौराहे पर एक सांड ने टक्कर मारी मुझे
तो कमर की पीड़ा को मैंने कमीज से बांध लिया
बीच बाजार कुछ गुण्डों ने हाथापाई की
बहते हुये खून की कुछ बूंदें मैंने आंखों में भर ली
कानून के रखवालों ने मुझे गालियां दी बिना बात ही
गालियों के अपमान को मैंने सीने में रख लिया
शाम को थका-हारा घर लौटा और
ठण्डी रोटियों के साथ खा कर अपने तमाम द:ख-दर्द
घुस गया बिस्तर में गहरी नींद
ऐसे ही बीतता है जीवन शायद सभी का