साहित्य का साधक

ওলেন


कमल कुमार


साहित्यकारों से ऐसी कोई नजदीकी नहीं रही। जब साहित्य की दुनिया में आई तो नौकरी के साथ गृहस्थी थी। गृहस्थी में दो बच्चे भी थे। ऐसे में पढ़ा पढ़ाया और लिखना तो फिर भी हो जाता था और कुछ नहीं। उस समय साहित्यकारों का अड्डा कॉफी हाऊस होता था। हम जैसी औरतें वहां कहां जा सकती थीं। इधर उधर मोना गुलाटी के साथ जगदीश चतुर्वेदी के चर्चे सुनाई देते थे। एक बार मौका मिला मुझे कॉफी हाऊस जाने का, विष्णु प्रभाकर का मुझे टीवी पर साक्षात्कार लेना था। इसलिए मैं उनसे पहले अनौपचारिक रूप से बात करना चाहती थी। मैं वहां पहुंची थी। सुना था, शुरू में तो कॉफी हाउस रीगल बिल्डिंग में था। वहीं पास में 'दोगची' चाय की दुकान में हिंदी की पत्र-पत्रिकाएं भी मिला करती थीं। बाद में यह मोहन सिंह प्लेस में शिफ्ट हो गई थी। मैं मोहन सिंह प्लेस ही गई थी। विष्णु जी कई लेखकों से घिरे बैठे थे। सब उनके गिर्द इकट्ठे हो गए थे। मेरे लिए जगह बनाई गई थी। वहां आने वालों की लंबी सची थी। गोयनकाजी वहां नियमित रूप से जाते भी थे। उस दिन वहां मैंने देखा थोड़ी देर में लेखकों की आपस में बहस तीखी हो गई। मुझे लगा यह झगड़ रहे हैं। अब क्या होगा। गोयनकाजी ने बताया था, आराम से बैठो, तर्क कुतर्क और वाद विवाद तो यहां की संस्कृति ही समझ लो। थोड़ी देर बाद स्थिति सामान्य होने लगी थी। मैं विष्णजी से बात करने को आतर थी. पर वे जिस तरह लेखकों से घिरे थे, मुझे मौका ही नहीं मिल रहा था बात करने का, विष्णुजी शायद मेरी स्थिति को समझ गए थे।


बोले थे, आज के लिए यह अनुभव काफी है तुम्हारे लिए। पहली बार आई हो न यहां । लेखक वर्ग मुस्करा रहा थातुम घर पर आ जाना। आराम से बात हो सकेगी।' मैं उठी थी, गोयनका जी भी उठकर मेरे साथ सीढ़ियों तक आए थे। 'यह लेखकों का अखाड़ा है, यहां यह सब होता ही है। पर कभी मनमुटाव नहीं होता, कहा सुनी होती है फिर अपने आप सब ठीक हो जाता है।' वह मुस्करा रहे थे। आराम से चली जाओगी? गाड़ी कहां पार्क की है?' 'यहां नीचे ही है, मैं चली जाऊंगी।' मैं लौट आई थी पर गोयनका जी के 'कंसर्न' ने छुआ था।


मैं दूरदर्शन पर पत्रिका की कम्पेरर थी। साहित्यकारों के साथ साहित्यिक मुद्दों पर बहस होती थी। साक्षात्कार होते थे। पुस्तकों पर चर्चा भी होती थी। गोयनका जी भी चर्चाओं में शामिल होते थे। पर उन्हें मैंने दूसरों से अलग कभी आक्रामक होते नहीं देखा था। अपनी बात कहते थे निर्णायक रूप से और बस।


कोई व्यक्ति एकदम मंत्रमुग्ध नहीं करते। धीरे-धीरे कालचक्र के क्रम में उन्हें हम जानते और समझते हैं। साथ ही उनके प्रति आकर्षित भी होते हैं। गोयनकाजी को लेकर मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था। लेखक संगठन की एक गोष्ठी अहमदाबाद में हुई थीहम कई साहित्यकार वहां साथ में गए थे।


उनमें गोयनकाजी भी थे। हम कई लेखिकाएं भी गई थीं। हमें वहां लगा था, कभी भी समय कुसमय अगर हम किसी के साथ निश्चिन्त और आश्वस्त अनुभव करते थे तो वे गोयनकाजी थे। रात में देर हो गई हो, किसी अनजानी जगह जाना हो तो लगता था गोयनकाजी के साथ जाया जा सकता था। गोयनकाजी अपनी शालीनता, सौजन्यता और नम्रता के कारण हम लेखिकाओं में बहुत लोकप्रिय हो गए थे।


हमारे साथ वरिष्ठ लेखिकाएं भी थीं। राजी सेठ, सरोज, विद्या शर्मा, मनोरमा जफा इत्यादि। मनोरमा जफा और मैं एक कमरे में थी। शरारत में कहती, तुम कल ही चली जाना, गोयनका के साथ, 'शाकाहारी' हैं। चिंता की बात नहीं। हम आपस में हंस लेते थे। पर सभी गोयनका जी का सम्मान करते थे। गोयनकाजी जाकिर हुसैन कॉलेज में प्राध्यापक थे। यूनिवर्सिटी में जब पोस्ट निकलती तो हम भी उसके लिए आवेदन देते थे। गोयनकाजी शुरू से ही शोध कर रहे थे। उनके पास पढ़ाने के अनुभव के साथ उनकी प्रकाशित पुस्तकों की लंबी सूची भी थीं। उनके लेख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। जिनकी जानकारी सभी को होती थी। हम उन्हें पढ़ते भी थे और जहां जरूरत होती कक्षाओं में या अपने लेखन में भी उद्धत करते थे। यूनिवर्सिटी में हर इंटरव्यू के बाद नामों की घोषणा का इंतजार रहता। हम सोचते गोयनकाजी का तो हो ही जाएगा। परंतु नहीं, तब नहीं हुआ और कभी भी नहीं हुआउन्होंने जाकिर हुसैन कॉलेज से शुरू किया और वहीं से रिटायर भी हुए। दो बार तो लगभग उनके प्रोफेसर की नियुक्ति तय थी पर फिर वही राजनीति।


तीसरी बार शायद 1997 के आस-पास की बात है जब प्रो. मेहता वायस चांसलर थे। केदारनाथ सिंह विशेषज्ञ थे। डॉ. नित्यानंद तिवारी अध्यक्ष होंगे। डॉ. गोयनका का चुनाव भी हो गया था। फिर वही राजनीति । होते-होते नहीं होने दिया गया। उनका नाम कटवा दिया गया। विश्वविद्यालय में जब से ही कम्युनिस्टों का वर्चस्व रहा उन्होंने किसी दूसरे को विभाग में फटकने ही नहीं दिया। साहित्य के स्तर पर यही हाल था। हर महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्थान में कम्युनिस्ट लॉबी की सत्ता। ये सारे लोग कम्युनिस्ट नहीं भी थे। दोगले थे। अपना काम निकलवाने के लिए कुछ भी कर लेते। एक तो यूं ही हिन्दी जगत में अपने और अपनी रचनाओं को श्रेष्ठ सिद्ध करके, अपने को स्थापित करने की होड़ मची रहती। यह आपाधापी का समय तब भी था और आज भी है। हिन्दी साहित्य में भी इन लोगों ने अपने ही लोगों को परोसा और परोसा फिर कमल किशोर गोयनका को तो जनसंघी और बीजेपी का होने का फतवा दे ही दिया गया था। एक ओर गोयनकाजी जैसा सच्चा, ईमानदार और संघर्षशील व्यक्ति जो निरंतर कर्म में निष्ठा और कार्य करते रहे।


गोयनकाजी ने प्रेमचंद का चुनाव किया अपने अध्यन मनन-चिंतन और शोध के लिए। प्रेमचंद पर गोयनकाजी के लेख छपते जिनमें प्रेमचंद पर आलोचकों की पुरानी मान्यताओं को खंडित करके नयी मान्यताओं और निष्कर्षों का प्रतिपादन होता था। साथ ही प्रेमचंद के अनुपलब्ध, लुप्त और अज्ञात साहित्य को खोजकर सामने लाए। प्रेमचंद पर लगभग 1200 पृष्ठों में हिन्दी उर्दू साहित्य की खोज और उसका प्रकाशन को अद्भुत शोध ग्रंथ माना गया। गोयनकाजी इंटरव्यू में जाते भी थे। परिणाम क्या होगा उसे जानने भी लगे थे। पर वे अपने लेखन कर्म में लगे थे। उन्होंने कालक्रमानुसार प्रेमचंद की जीवनी लिखीं। अपने अनुसंधान द्वारा उन्होंने प्रेमचंद के भारतीयता से परिपूर्ण व्यक्तित्व की स्थापना की। दूसरी ओर कम्युनिस्टों ने प्रेमचंद को भी कम्युनिस्ट बना डाला। इस पर नित्य विवाद होते। निराला और मुक्तिबोध को तो वे अपनी पार्टी में शामिल कर चुके थे। हर लेखक अपने लेखन में आम आदमी के जीवन की असंगतियों, उसके जीवन के विरोधों, उसके साथ हो रहे अन्याय, अनाचार और शोषण को उद्घाटित करता है। हर लेखक फिर प्रेमचंद हों या कोई भी इन्हीं मानवीय सरोकारों का प्रवक्ता होता है। इस अर्थ में वह लेखक होता है।


प्रेमचंद पर गोयनकाजी के साहित्य को विदेशों में मान्यता मिल रही है। वे प्रेमचंद के विशेषज्ञ के रूप में माने जाने लगे हैं। प्रेमचंद पर उनके शोध की मौलिकता और दिए गए निष्कर्षों को सर्वत्र मान्यता मिली है। गोयनकाजी ने प्रेमचंद जन्म शताब्दी पर 'राष्ट्रीय समिति' की स्थापना भी की। जिसके अंतर्गत इंदिरा गांधी के साथ जैनेन्द्रजी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर प्रेमचंद पर कार्यक्रम आयोजित किए गए।


गोयनकाजी ने अथक परिश्रम से प्रेमचंद के मूल दस्तावेजों, पत्रों, डायरी, फोटोग्राफ, बैंक पासबुक तथा पांडुलिपियों के साथ 3000 वस्तुओं का संग्रह किया हैं। गोयनकाजी इसके सार्थक प्रयोग के लिए प्रेमचंद अकादमी और संग्रहालय की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हैं। गोयनका जी मारीशिस में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट से भी संबद्ध हैं। गोयनकाजी के कार्य की सर्वत्र सराहना हुई। उन्हें विशेष सम्मान भी प्राप्त हुए। ज्ञानी जैलसिंह, तत्कालीन राष्ट्रपति ने इन्हें प्रेमचंद विश्वकोश पर पुरस्कृत भी किया।


कितना आश्चर्य और दुःख हुआ जब एक पुस्तक मेले में पार्टी के एक लेखक की पुस्तक का लोकार्पण करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने कहा कि गोयनका 'प्रेमचंद की दुकानदारी' कर रहे हैं। यह किताब उनके अंहकार को चूर कर देगी। ऐसा वक्तव्य! अपने समय के सर्वमान्य आलोचक द्वारा कहा जाना। कितना निंदनीय है। एक ओर जिसने अपना पूरा जीवन प्रेमचंद साहित्य को समर्पित कर दिया, दूसरी तरफ पार्टी का एक लेखक, जिसकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई। ऐसी तुलना! आलोचक एक साथ अपने समय में होने वाले परिवर्तनों को एक सूत्र में पिरोता है, उन्हें मर्यादित करता है। वह अपने से बाहर आता है तभी उसे अलग दुनिया और उसकी उपलब्धियां नजर आती हैं पर नहीं। नामवर सिंह, अपने इस समय में सरस्वती पुत्र हैं। उन्हें सरस्वती मां का वरदान है परंतु उन्होंने हिंदी साहित्य और साहित्यकारों का जितना हित किया उससे कहीं अधिक पार्टीबाजी के कारण साहित्य का अहित किया। डॉ. नामवरसिंह की इस प्रवृत्ति से एक माफिया बना साहित्य में। जिसने हिंदी लेखकों के साथ अन्याय किया। उन्होंने समानांतर लिखे जा रहे साहित्य को हाशिए पर ला दिया। दूसरों को आइना दिखाने वाले यह आलोचक काश अपना चेहरा आइने में देख लेते।


गोयनकाजी निर्भाव से कई दशकों से साहित्य लेखन में लगे हैं। लेखक अपने कारण से लेखक होता है। रिल्के के शब्दों में, 'लिखोगे नहीं तो क्या करोगे?' देश-विदेश में पाठक गोयनकाजी के साहित्य से लाभान्वित हुए हैं। हिन्दी के प्रख्यात लेखकों, प्रोफेसरों, समीक्षकों ने उनके कार्य को सराहा है। उन्हें प्रेमचंद साहित्य के विशेषज्ञ और प्रेमचंद के 'वासवेल' के रूप में मान्यता दी है। गोयनकाजी अपनी मान्यताओं को अपनी निष्ठा के साथ जीते हैं। उनमें कहीं कोई कडवाहट नहीं। उनके व्यक्तित्व में कोई फरेब या आडंबर नहीं था। जो जैसा है वही सामने हैं। वही सत्य भी है। वैसे तो हर व्यक्ति एक महाद्वीप की तरह होता है। पर कुछ व्यक्ति नीले आकाश की तरह होते हैं। कहीं से कैसे भी देखो वही नीलापन। अगाध नीलापन। ऐसे ही हैं गोयनकाजी भी। परंपरा, मिथक, फंतासी को लेखक गढते भी हैं और तोडते भी हैं।


अपने लेखन में भी जीवन में भी।


गोयनकाजी ने कई राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठियों में भागीदारी की है। इस तरह बाहर भी अपनी पहचान बनाई है। उन्होंने प्रवासी साहित्य में अभिमन्यु अनंत पर विशेष काम किया है। साथ ही मारीशिस हिन्दी साहित्य कोश भी लिखा-जिसमें स्थानांतरित भारतीयता के दर्शन होते हैं। साथ ही मारीशस के हिंदी साहित्य के प्रकाशन के लिए निरंतर कार्यरत हैं। वे विदेशों में जहां गए वहां हिंदी साहित्य के विकास की योजनाओं को भी प्रारंभ किया। 'अप्रवासी हिंदी मंच' की स्थापना भी इसी आशय से की गई।


गोयनकाजी को कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से भी नवाजा गया है। इन्होंने इतने विपुल साहित्य की रचना की। हजारी प्रसाद द्विवेदी पर इनकी संपादित पुस्तक देखी तो पता चला इन्होंने प्रभाकर माचवे, जगदीश चतुर्वेदी, मन्मथनाथ गुप्त, विष्णु प्रभाकर, यशपाल पर भी पुस्तकों का संपादन किया हैं। यह कार्य दिन-रात के अथक परिश्रम से ही संभव होता है। साधक की तरह अपने कार्य में लगे गोयनकाजी को देश विदेश में पाठकों ने तो सराहा उनको श्रेय दिया। परंतु क्या हिंदी के आलोचकों ने उनके साथ न्याय किया।


जिस व्यक्ति ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया हो। उसके प्रति ऐसी उपेक्षा कितनी दुःखद है। यह लेखक की नहीं आलोचक की कुंठित सोच का परिणाम है। आलोचक को रचना की सारी संगतियों, असंगतियों को एक सूत्र में पुरोता हैं। उसे व्यवस्थित भी करता है। पर उसके लिए आलोचक को अपने से बाहर आना होता है तभी वह रचना और रचनाकार की उपलब्धियों को देखता परखता है। गोयनका जैसा सच्चा, ईमानदार परंतु सघर्षशील व्यक्ति जो साहित्य को समाजहित के लिए मानते हैं। उन्होंने प्रेमचंद को अपने कार्य के लिए चुना जो आज भी 'मशाल' है लेखकों के लिए और पाठकों के दिल की धड़कन है। इसे गोयनकाजी ने सुना। प्रेमचंद के व्यक्ति अथवा लेखक का कोई ऐसा प्रसंग नहीं है जिस पर उन्होंने नहीं लिखा हो। बल्कि प्रेमचंद के जीवन के 'अनछुए प्रसंग' पुस्तक में उनका भी उदघाटन किया जो उनके जीवन के अनछए पहल थे।


उनका प्रेमचंद पर वहद साहित्य पाठक को आश्चर्य चकित करता है। साथ ही दूसरे साहित्यकारों पर उनकी संपादित पुस्तकें, प्रवासी साहित्य पर उनका लेखन कार्य और अभिमन्यु अनंत को भारत में हर पाठक तक पहुंचा देना उनके लेखक, साहित्यकार और अन्वेषक होने का साक्ष्य है। व्यक्ति के रूप में निरंतर सृजनशील, निष्काम, निर्भाव से साहित्य साधना में निमग्न योगीवत हैं।