प्रिय कमल किशोर : थोड़े लिरवे को बहुत समझना

आलेख


नरेन्द्र मोहन


प्रिय भाई कमल किशोर गोयनका,


तुम्हारा पत्र मिला। तुम 75 के हो गए, तुमने तीनचौथाई सदी पार कर लीइसकी तुमने भनक न पड़ने दी। मैं नहीं जानता था कि तुम इतने बड़े उम्र चोर होतुम्हारे तीनचौथाई सदी पार कर लेने पर तुम पर लेख लिखने वाले और पुस्तकें संपादित करने वाले अनेक होंगे, सोचता हूं मैं तुम्हें एक लंबा आत्मीय पत्र लिखूपहले भी कई बार सोचा लेकिन हर बार टल जाता। कोई न कोई बाधा उपस्थित हो जाती। पत्र लिखने से पहले ही खत्म हो जाता और मैं ठगा-सा देखता रह जाताआज सभी तरफ से अपने को समेटकर बैठ गया हूं। देखता हूं कैसे पत्र पूरा नहीं होता।


 अपनों से बातचीत का सिलसिला चलता ही रहता है और कई बार यह बातचीत दूसरों तक फैलती जाती है। ऐसा भी हुआ है कि यह दोहरी बातचीत चुपचाप चलती रही और इसमें नई पुरानी ध्वनियां जुड़ती गईं। तुम्हारे साथ संबंध की प्रारंभिक छवियों और ध्वनियों से मैं अक्सर घिरता रहा हूं। तुम्हारा निश्छल हंसता चेहरा, तुम्हारी आंखों की चमक, तुम्हारा बेलौस रवैया, आत्मीयताभरा यह एक ऐसा बिंब है जिसे मैं आज भी सहेजे हुए हूं। दोस्तों की किसी महफिल में जब तुमसे पहली बार मिला तो मुझे पता न था कि तुम क्या करते हो, क्या लिखते पढ़ते हो, कितने भावुक या तटस्थ हो, किस विचारधारा के हो और आज जब मैं तुम्हारेबारे में काफी कुछ जानता हूं। तुम्हारी कई प्रकार की परस्पर टकराती छवियों की परख- पड़ताल कर सकता हूं, तो भी सब से ऊपर ही रहता है। तुम्हारा वही निश्चल हंसता हुआ चेहरा जो मैंने पहली मुलाकात में देखा था। मत-मतांतर में मैं तुमसे कई बार दूर हुआ, तुम पर भी, नाराजगी के मौके भी आए लेकिन वे टिके नहीं, टिका वही चेहरा । तुम्हारे साथ दोस्ती में वह चेहरा मेरे बड़े काम आता रहा। स्मृतियों में दमकते चेहरे को जैसे मैंने संभाले रखा, मेरे दोस्त, तुम भी उसे हर हाल में संभाले रखना।


आपातकाल (जून 1975) को कौन भूल सकता है? एक तरह की स्तब्धता पसर गई थी। लगा था जैसे घने अंधेरे की सलवटों में मुझे किसी ने रोल कर दिया हो। मीसा डीआईआर, प्रेस सेंसरशिप और इन्हीं के साथ 26 जून की वह रात जब विभिन्न राजनीतिक दलों के लोगों को, समाजसेवियों, पत्रकारों और यूनिवर्सिटी के प्राध्यापकों को और तुम्हें भी कैद कर लिया गया। उस दौर में तुम्हारे परिवार पर, पत्नी और बच्चों पर क्या बीती, किन विपदाओं से उन्हें गुजरना पड़ा, इस बारे में तुम ज्यादातर चुप ही रहे। कोई आत्मकथात्मक नोट तक न लिखा। तेजी से फैलती अफवाहों में से कई बातें छन कर मुझ तक आती रहीं जिनसे मैं तुम्हारी पत्नी (शायद बच्चे तब बहुत छोटे थे) की पीड़ा और साहस का अंदाजा लगा सका। मुझे याद है तीन महीने बाद जब अन्य अध्यापकों के साथ तुम जमानत पर छूटे तब कई दिनों तक तुम एक सदमें में घिरे रहे थे।


उखड़ना जुड़ना शायद मेरी नियति रही है और उसी में मुझे मजा आता रहा है। एक शहर से दूसरे, दूसरे से तीसरे और पंजाब के कई कॉलेजों-यूनिवर्सिटियों में प्राध्यापन कार्य करता हुआ जब मैं खालसा कॉलेज दिल्ली (1967) आया तो मैंने पहले-पहल बड़ा अजनबी महसूस किया लेकिन जैसे-जैसे शहर मेरे लिये और मैं शहर के लिए खुलता गया, कॉलेज में और विश्वविद्यालय में तुम्हारे जैसे और तुमसे भिन्न दोस्त भी मिलते गये। मैं यहां रमने लगा और अपनापन महसूस करने लगातुम्हें याद होगा हम कभी किसी गोष्ठी में या दोस्तों के घर मिलते रहे। कभी कभार टी. हाऊस में भेंट हो जाती। तब तक तुम 'प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प विधान' पर शोध कार्य कर चुके थे और मैं कविता में विचार को रेखांकित करता हुआ लंबी कविता के विमर्श को सामने लाने की पहल कर चुका था। यही वह समय था जब तम ने 'प्रेमचंद विश्वकोश' पर कार्य प्रारंभ किया था तम्हारे अनरोध पर तब मैंने प्रेमचंद विषयक तीन-चार टिप्पणियां लिखी थीं। प्रेमचंद को एक विशाल फलक पर ले जाने का तुम्हारा यह पहला बड़ा उपक्रम था, जिसके लिए तुम्हें स्वीकृति और अस्वीकृति, प्रशंसा और आलोचना एक साथ मिली और दोनों को झोली में डाल तुम आगे बढ़ गये थे। तुम्हें याद होगा कि 1984-85 के आसपास तुमने 'जगदीश चतुर्वेदी : एक विवादास्पद रचनाकार' पुस्तक संपादित की थी और उन्हीं दिनों चतुर्वेदी के साथ दोस्ती बावजूद मेरे तीखे मतभेद उभरे थे। इस प्रकार के संपादन के महत्व को मैंने तब रेखांकित किया था हालांकि अकविता के प्रति मेरा रुख आलोचनात्मक था। हां तुम्हें एक दोस्ताना मशविरा दिया था कि समकालीन कवियों पर उच्चस्तर पर संपादन कार्य को तुम्हें परवान चढ़ाते रखना चाहिए, लेकिन तुम कैसे करते वैसा, तुम्हारे सिर पर तो प्रेमचंद सवार था। प्रेमचंद पर तुमने शोध-कार्य क्या किया कि प्रेमचंद के ही हो गये और प्रेमचंद पर तुमने किताबों की झड़ी लगा दी जिनमें से बहुचर्चित रही 'प्रेमचंद की अप्राप्त कहानियां' 'प्रेमचंद वाद, प्रतिवाद और संवाद' और 'प्रेमचंद की कहानियों कालक्रमानुसार अध्ययन' मैं जानता हूं किताबों की आड़ में तुम्हारा विरोध ज्यादा हुआ और किताबों पर जितना विचार होना चाहिए था। वही नहीं हुआ जहां तक जानता हूं तुम्हें ये गुमान नहीं है कि तुम प्रेमचंद के सबसे बड़े आलोचक हो। हां, यह गुमान तुम्हें है और ठीक ही है कि प्रेमचंद पर सबसे बड़ा काम तुम्हीं ने किया हैआलोचनात्मक स्तर असहमतियों के बावजूद। हिंदूवादी और मार्क्सवादी के झमेले में तुम बेवजह पिसते रहे हो। बड़ी बात यह है कि दोनों तरफ से तुम वार सहते रहे लेकिन हार नहीं मानी।


प्रिय कमल किशोर, प्रेमचंद को लेकर तुमने जो शोधकार्य किया है और कर रहे हो उसके लिए तुम प्रेमचंद की तरह याद रखे जाओगे। तुम कितने बड़े आलोचक हो, इसे लेकर लोगों में मतभेद हैं लेकिन आलोचना को शोध निर्भर बनाकर तुमने शोध के गिरते हुए ग्रॉफ को ऊपर उठाया है और उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई है। तुमने अपनी शोधपरियोजना और संपादन कार्यों द्वारा अथक मेहनत और अध्यवसाय प्रेमचंद विषयक जो शोध सामग्री प्रस्तुत की है, उसके आधार पर आने वाली पीढ़ियाँ अनुसंधान की सीढ़ियां चढ़ती रहेंगी और नये-नये आलोचनात्मक निष्कर्षों तक पहुंचती रहेंगीं। तुम्हारे सभी शोध बिंदु स्वीकार्य ही होंगे, यह भ्रम न तुम्हें है न मुझेतुम स्वीकार किये जाओ या खारिज, चर्चा के केंद्र में रहोगे ही। यकीन मानो तुम्हें अन-नोटिस किये जाने के दिन लद गये। तुम्हारी स्थापनाएं और निष्कर्ष आने वाले शोधार्थी द्वारा परखे जायेंगे, कन्टेस्ट किए जाएंगे, प्वाइंट काऊंटर प्वाइंट खड़े किए जाएंगे और इस तरह की आलोचनात्मक प्रक्रिया के जरिये नये आलोचनासत्रों की खोज संभव हो सकेगी।


तुम हिंदूवादी सोच के कायल हो कि नहीं, यह तुम जानो, मैं इतना जानता हूं कि तुम भारतीयता के कायल हो जिसमें हिंदूवादी सोच अपना करतब दिखाती रहती । हो सकता है यह सोच बचपन से ही तुम्हारे अवचेतन में निर्मित हो गई हो जो तेजी से बदलती तुम्हारी परिस्थितियों के दबाव में आगे चलकर मजबूत धारणाओं में बदल गई हो। मेरी बात और है। मैं मानता हूं कि सत्ता कोई भी हो, लेखक की भूमिका प्रतिपक्ष की ही है। शायद, इसीलिए, मैं विचार के सक्रिय, गतिशील होने का कायल हूं। मेरी यह सोच मेरी अनुभूति से जुदा नहीं है। मैं तुम्हारे कितना करीब हूं। कितना दूर, यह तुम जानो, तुम्हारे बारे मैं इतना जानता हूं। कि तुमने अपनी सुनिश्चित सोच को संबंधों में या दोस्ती में आड़े नहीं आने दिया है। यह बात मैंने अपने संदर्भ में तब देखी जब प्रतिस्पर्धा लेने के बावजूद विभाग में मेरी नियुक्ति पर तुमने दोस्तों के बीच खुलकर खुशी का इजहार किया। इसी तरह मेरे नाटक, 'कहै कबीर सुनो भाई साधो' के रेडियो पर प्रसारण को जब अलोकतांत्रिक तरीके से रोक दिया गया तो तुमने इस तरह की कार्रवाई का अन्य लेखकों के साथ मिलकर विरोध किया था। 'मि. जिन्ना' नाटक के प्रदर्शन को जब प्रतिबंधित कर दिया गया तो प्रतिबंध को गलत ठहराने वालों में तुम भी थे। मंटो की जीवनी 'मंटो जिंदा' है का भी तुमने खुले दिलदिमाग से स्वागत किया था।


__तुम मानो न मानो, तुम्हारी साहित्यिक छवि के सामने, तुम्हारी राजनीतिक छवि कहीं नहीं ठहरती, यह बात और है कि दोनों को लेकर जाने-अनजाने तुम एक कशमकश से गुज़रते रहे हो। हिंदूवादी और मार्क्सवादी इरादों की सोच के मोर्चों पर तुम और तुम्हारा प्रेमचंद लहूलुहान होते रहे हैं। दोनों तरफ के कठमुल्लाओं के बीच में अपनी बात रखते रहना मुश्किल हैं, मेरे दोस्त पर तुम यह काम करते रहे हो। विचार या विचारधारा के रूढ़ि बनने से पहले ही हम उससे बाहर निकलने का प्रयत्न करते हैं, वैसे ही जैसे हम स्वनिर्मित लेखकीय आदतों या रूढ़ियों से निजात पाने के लिए नए प्रयोगों की ओर बढ़ते हैं यानी हर हाल में कनडिशनिंग को तोड़ना चाहते हैं। कभी कभी लगता है तुम अपनी धारणाओं के गर्दो गुबार में अटके हुए हो और वहां से टस से मस नहीं होना चाहते। कभी लगता है कि तुम उस सड़क पर आ गये हो जहां बेशक अंधेरा है, लेकिन प्रेमचंद के विचारों की रोशनी तुम्हारी राह को रोशन कर रही है। इस राह पर चलते रहो, दोस्त, यह परवाह किये बिना कि अंधेरा कितना छंटता है या क्या ईनाम मिलता है।


___मैं जानता हूं, यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर न हो सकना तुम्हें आज भी सालतासताता है-रिटायर हो जाने के दस साल बाद भी। तुम जानते हो, तुम्हें पसंद करने वालों और नापसंद करने वालों का एक छोटा-मोटा वर्ग पहले भी था, आज भी हैजितने तुम्हें सीढ़ी पर चढ़ाने वाले हैं, उससे कई गुना तुम्हे सीढ़ी से गिराने वाले भी हैं, बहरहाल मैं उन दिनों की बात कर रहा हं जब आखिरी कोशिश के बावजद तम प्रोफेसर नहीं बन पाये थे। उस वक्त की तुम्हारी उदासी और गम का अंदाजा में लगा सकता हूं लेकिन यकीन मानो प्रोफेसर न हो पाना, तुम्हारे लिए छिपा हुआ वरदान ही सिद्ध हुआ है। अच्छा ही हुआ कि तुम उदासी के घेरे से बाहर आये और एक चमक के साथ अपने काम में जट गए।


पता नहीं तुम्हें टिकटें इकट्ठी करने का शौक कब से लगा कि अब तक नहीं छूटा। है तो यह बचपन का ही शौक, पर तुमने अपने अंदर के बच्चे को संभाले रखा है। वही तो है जो पार्टी लिप्त सयाने-समझदार गोयनका को पीछे पछाड़ टिकटें इकट्ठी करता रहता है। तुम्हारी पोलिटिकल- अपोलिटिकल सरगर्मियों के बावजूद, तुम्हारे अंदर का बच्चा जिंदा है, यह छोटी बात नहीं है। हो सकता है कि टिकटें संग्रह करने वाला यह बच्चा ही तुम्हें प्रेमचंद को सहेजने की तरफ ले गया हो। क्या खूब है कि तुम्हारी ये दोनों आदतें आज भी बरकरार हैं। बचपन की आदतों का छूटना मुश्किल ही होता है। मुझे लगता है प्रेमचंद का रुतबा भी तुम्हारे लिये टिकट से कम नहीं है। जिसकी बदौलत तुम जिंदगी का सफर तय करते रहे हो । सफर ही क्यों, यह टिकट तुम्हारे अस्तित्व की, तुम्हारे होने' की गवाही है। अमृता प्रीतम के शब्दों को उधार लेकर कहूँ तो यह रसीदी टिकट है, एक तरह का हलफनामा। दोस्त, यह चतुराई से ऊपर का मामला है, इसके प्रति तुम जितने ईमानदार रहोगे, लिहाफ़ों गिलाफ़ों और लबादों को जितनी तेजी से उतारते रहोगे, शोध की सीमा से आगे बढ़कर हद-बेहद के मैदान में जितनी तीव्रता से लोगों की याददाश्त में उतर जाओगे, उतनी ही तुम्हारी विश्वसनीयता बढ़ेगी।


पता नहीं तुम मानते हो कि नहीं तुम्हारे अंदर एक भोला और जिद्दी बच्चा बैठा हुआ है। जब वह हठ पकड़ लेता है और कुछ करने की ठान लेता है तो तुम्हें झख मारकर वह करना ही पड़ता है। तुमने जो मूल्य कमाए हैं, यातना झेलते हुए, संघर्ष करते हुए लेखन में जो अर्जित किया है, उस किसी विचारधारा का नहीं, उस बच्चे का बड़ा हाथ है। दोस्त तुममें अद्भुत जिजीविषा है। हर सूरत में हर हाल में, वह कायम रहे और जिंदगी के आखिरी लम्हों तक तुम लेखन कार्य करते रहो, यही मेरी हार्दिक कामना है।


प्रिय कमल किशोर, थोड़े लिखे को बहुत समझना,


तुम्हारा अपना


(नरेन्द्र मोहन)