नवल कमल : कमल नवल

आलेख


नवलं जायसवाल


मेरे परम मित्र श्री कमल किशोर गोयनका के परिप्रेक्ष्य में प्रवेश करने के कई शब्दीय सशक्त कारण हैं। देवनागरी का समस्त संसार 52 अक्षरों और शून्य से लेकर नौं तक पसरा हुआ है। यह गुणफल समेटने के लिए नहीं बल्कि उसे और विस्तार देने के लिए शब्दों की रचना की गई। इन अक्षरों एवं शब्दों को अस्तित्व में लाने से पूर्व हमारे पूर्वजों से सतयुग से भी पूर्व ध्वनि को सिद्ध कर लिया था। ध्वनि को मूर्त रूप देने के लिए मानव ने लिपि की सृष्टि रच ली और इस उपलब्धि ने अपने अन्दर उपजने वाले विचारों और बिम्बों को निरन्तरता देने का सार्थक प्रयास किया। यह सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि लिपि की रचना के बाद इस संसार में जो भी घटित हआ उसका वर्णन हमें मिल जाता है। मनुष्य यदि थोडा और प्रयास करता तो दृश्य भी सामने आकर अपना परिचय दे जाते। उदाहरण कई हैं, मैं केवल महाभारत काल के "संजय उवाच" का उदाहरण देकर आगे बढूंगा। मनुष्य तंत्र, मंत्र, योग, परिकल्पना, प्रक्षेपण, प्राणायाम, संप्रेषण आदि के माध्यम से अपने आपको शब्दों एवं दृश्यों में प्रवेश करा कर निर्दिष्ट स्थान वह चाहे मूर्त रूप में हो या अमूर्त रूप में पहुंचा सकता है, बस उल्लेख इस बात का है कि वह अपने आपको इस परालौकिक शक्ति के किस उत्थान को सिद्ध कर पाता है। मेरे सारे शब्द गोयनका जी से परिचित हैं।


मैंने मानव उद्विकास पर भी कार्य किया है अतः यह ज्ञात है कि एक ज्वलनशील वायु किस प्रकार जल का रूप धारण कर सकी है। इतना ही नहीं जल ने आंशिक रूप से मिट्टी का स्वरूप पा लिया। इन तीनों की युति ने अनेक प्राणियों के रूप धारण करते हुए मनुष्य जैसे मानव का स्वरूप पाया और अनेक प्रकार की शक्तियों का समावेश अपने अन्दर कर पाया अन्यथा आज मनुष्य की बुद्धि में एकसा संचार होता और योग्यता की विभिन्न धाराओं से अपने आपको दूर पाता। ईश्वर इस सृष्टि पर है और संपूर्ण सौरमंडल को संचालित भी कर रहा है। इस कथन की मूल धारणा यही है कि प्रत्येक मानव का प्रारब्ध ही नहीं उसकी शारीरिक आकृति भी विभिन्न रूपों में हमारे सामने आकर अपना अस्तिव सिद्ध कर रही है। जुड़वा संस्करण में भी कुछ न कुछ भिन्नता अवश्य होती है अन्यथा वे किस प्रकार पहचाने जाते। मेरा आशय उनको व्याख्यायित करना है।


__मैंने अपने आरंभिक शब्द समूहों में जो कहा है वह पूर्णत: नवल कमल और कमल नवल में परिलाक्षित होता है। भाई कमलकिशोर गोयनका जी कहीं और जन्म लेते हैं और नवल जायसवाल कहीं और उतने परिचित हो जाते हैं कि ऐसा अवसर आये और दोनों साथ हों इसकी कामना करते हैं। वे 75 वर्ष पूर्ण करने जा रहे हैं और मैंने 29 जुलाई 2013 को 81 वर्ष पूर्ण कर लिए। अंतर आयु में अवश्य है किंतु गुण, सृजन और व्यापकता में कई वर्ष आगे हैं, मैं उन्हें नमन करता हूं। हम दोनों न जाने कब परिचित हो गये, आगे बढ़ते गये, न जाने कब मित्र बन गये और ऐसे मित्र जो सूची से बाहर जा ही नहीं सकते। मैं आश्चर्य की परिधि में मंथन करता रहता हूं कि हम इतने दूर रहते हुए भी इतने पास क्यों हैं । सारे प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि मेरा दही कभी विकृत हो ही नहीं सकता अत: उसके सम्मान में कुछ अलग से कहने का मन हो रहा है।


___कुछ कहने के लिए आगे बढूं उससे पूर्व शब्दों का आपस में पारिवारिक प्रवेश और परस्पर विधान स्पष्ट करना चाहता हूँ। मेरे स्व. बड़े भाई का नाम कमल और छोटे का नाम किशोर है। कमल-किशोर दोनों मेरे आसपास है फिर क्यों न हो गोयनका जी से निकटता। शब्दों के समूह अक्षर समूह से बनते है, बनते रहे हैं और इन्हें अंक भी दिए जाते हैं। इन गणनाओं के आधार पर प्रारब्ध सजने संवरते रहते हैं जिन्हें भविष्य ही नहीं भूत और वर्तमान भी कहा जाता है। इस अल्पविराम के बाद हम आगे बढ़ते हैं।


मानव उद्विकास की प्रक्रिया यूं ही अटक कर स्थिर नहीं हो जाती है वह सष्टि में अनेक रूपों में सामने आई है। हमारे सामने चारों वेद और कई पुराण उपस्थित हैं आगे की कथा कहने के लिए। साथ ही अनेक रचनाकारों ने अपनेअपने दायित्वों का भी निर्वाह कर समय की व्याख्या करने में किसी प्रकार की कोताही नहीं की है। मानव मस्तिष्क ने अपना काम करना आरम्भ कर दिया और नर-नारी, परिवार, समाज आदि की रचना आरम्भ कर दी। मानव समाज की रचना करता रहा है। उसके उद्देश्य में इसकी संरचना भले ही नहीं रही हो किन्तु यह सब अनायास होता रहा है! जब उसके हाथों यह सब होता रहा है तो उसका उत्तरदायित्व भी स्वीकार करना उसने अपना धर्म माना और विस्तार को अनेक रूपों में लाकर वर्तमान भी दे दिया। कुछ प्रतिशत उसकी इच्छा और प्राकृतिक आचरण इसमें सहयोग करते रहें। अपने कथन को गोयनका जी के आसपास परिक्रमा में रखते हुए यह भी कहना चाहूंगा कि समस्या जो सामने आ गई है उसका निदान भी उसमें समय-समय पर खोज निकाला है। एक समस्या का उल्लेख करना चाहूंगा, अन्य समस्यायों के अतिरिक्त, और वह है मनुष्य की काव्य-प्रदेश में करना। काव्य परिसर मानव मात्र के सामान्य जीवन से हटकर अपना अस्तित्व बनाता है। यह प्रयास अवचेतना से उत्पन्न और उत्प्रेरित होकर उसके मानस-पटल पर क्रियाशील होता है और एक नई उत्पत्ति की संरचना करता है। साथ ही साथ आभास उसके सामने ही नहीं चारों ओर आकर खड़ा हो जाता है और पूछता है, प्रश्न करता है कि काव्य नामक अमूर्त को मनुष्य किस प्रकार सहेजेगा मनुष्य के पास जीवन में रचनाओं की अनेक धाराएँ होती हैं सहज ही उन सबसे पूछता है कि मैं किसे श्रेष्ठ मानूँ और उसको साथ लेकर जीवन में अग्रसर होता जाऊँ । प्रश्न तो पग-पग पर आते हैं किन्तु परालैकिक शक्ति के साथ समन्वय बनाकर मानव की अवचेतना उसका मार्ग दर्शन करने लगती है। सर्व प्रथम यह सम्पूर्ण स्वरूप एक कोरे प्रपत्र की तरह प्रथम पग पर आ जाता है और प्रयासों के प्रभाव से यह यत्न इतना अधिक विशाल रूप रख लेता है कि जीवन भी छोटा पड़ जाता है। यह एक टर्निंग प्वाइन्ट होता है। अपनी क्षमता और विवेक के आधार का प्रश्रय पा वह राह निर्धारित कर लेता हैऔर चल पड़ता है। वह कभी-कभी स्वरूप पाने के लिए कमल किशोर गोयनका जैसे शरीर को अपना माध्यम बना लेता है। पचहत्तर वर्ष की आयु में वे मेरे ही नहीं अनेकों के पास पूरी तरह पहुंच नहीं पाये होंगे। हमारा काम है हम उन्हें और जाने तथा भविष्य को सौंपने का दायित्व सहर्ष स्वीकार करें। हम इसी आशय के साथ आगे बढ़ते हैं।


साहित्यकार में भी एक नदी छुपी रहती है और वह जीवित होकर कहती है, स्मरण कराती है कि मनुष्य साहित्य रूपी नदी को कब प्रवेश करा गया-ज्ञात न हो सका-जन्म तो नदी ले लेती है किन्तु उसे इस बात का संज्ञान नहीं होता है कि वह किस महासागर में विलीन होने को तत्पर रहे। हमारे संस्कार की मान्यता है कि नदी की ससुराल महासागर को माना गया है क्योंकि वह कभी मायके वापस नहीं आती है अतः कहा जा सकता है कि नदी कवि की संपूर्ण प्रक्रिया की परीक्षा लेती रहती है। वह स्वयं प्रसव पीड़ा भोगती हुई सृष्टि पर उपस्थित समस्त अवयवों के जनकल्याण के लिए निकल पडती है। जैसा कि विधान और प्रारब्ध कहते हैं, समस्त सक्रिय धाराओं को साथ लेकर, सदाव्रत का पालन करते हुए, समापन यात्रा हो पूर्व डेल्टा बताते हुए अपनी ससुराल समुद्र में विलीन हो जाती है। ऐसी ही कुछ उपमाओं के साथ अपना साहित्य सृजन करने वाले अग्रज और अनुज श्री कमल किशोर गोयनका मेरे पीछे-पीछे आयें। भाव थोड़ा अप्रिय और जटिल अवश्य हो सकता है किन्तु एक सच्चाई से परिपूर्ण । उनके शतायु होने से मुझे लाभ ही होगा।


__ गोयनका जी एक समर्थ साहित्यकार हैं और अनेक धाराओं में काम करते रहे हैं और करते रहेंगे। जीवन यापन के लिए किसी और पक्ष का आश्रय लिया जा सकता, भले ही उस पथ का साहित्य से कोई लेना देना हो या न हो। काश! मेरे मित्र छायाकला और चित्रकला को अपनाने का अवसर अपने पास रखते तो मुझे भी ढांढ़स बन्ध जाता। कई साथी ऐसे भी हैं जो मेरी तरह अन्य विधाओं में अपना स्थान बनाए हुए हैं और सफल भी हों। मेरी मान्यता यह कि लेखन कोई व्यक्ति अपनाए या न अपनाए लेखक को वाचन और मनन में रखे तो उसे अपनी विधा में बने रहने से कोई नहीं रोक सकता। शब्द कला ऐसी यात्रा है जो परस्पर का योग बनाकर चलती है जिसका लाभ सभी को मिल जाता है इसीलिए ईश्वर ने भी वाणी जैसा चमत्कार मनुष्य को सौंपा है। इन सुविधाओं और योग्यताओं के अतिरिक्त समाज को सहिष्णुता की परम आवश्यकता होती है ताकि वह समाज में अन्य मित्रों और सृजनकर्ताओं के साथ सद्भाव की गुणवत्ता का निर्वाह करता रहे। इस पक्ष को मेरे मित्र गोयनका जी ने भलीभांति अपनाया हुआ है अन्यथा वे आज इतने प्रिय न बन पाते। इस चरित्र निर्माण ने मुझे भी लाभान्वित किया है। आये दिन हम आपस में सहयोग और वार्तालाप करते रहते हैं। कुछ सूचनाएं फोन से मिल जाती हैं किन्तु पत्र लेखन हम दोनों के मध्य सेतु का काम करता है। आगामी पक्ष में मेरे पाठक यह जान पायेंगे कि किस प्रकार गोयनका जी ने मुझे शब्द भेजकर प्रोत्साहित ही नहीं किया बल्कि संसार तक मेरी बात पहुंचाने का भी प्रयास किया है।


जब हम इस परस्पर रूपी सागर में गोता लगाने जा रहे हैं तो मेरा मन हो रहा है कि अपने बारे में भी कुछ बता जाऊ। मैं 1940 के पूर्व से ही लेखन-वाचन की ओर अग्रसर हो गया था। मुंशी प्रेमचन्द जी प्रसिद्ध कथा “दो बैलों की कथा" उस अवधि में पढ़ डाली थीइस कहानी संग्रह को उपलब्ध कराया था मेरे स्व. दोनों काकाओं ने, जिन्होंने जबलपुर में आयोजित त्रिपुरी कांग्रेस में सक्रिय रूप से अपनी भागीदारी दी थी। नेताजी की सफलता को देखकर उन्हें त्यागपत्र देने के लिए गांधी जी ने 80 पृष्ठ का पत्र लिखा था। चित्रकला और मूर्तिकला साथ चल रही थीं। दोनों की साधना और उनके प्रदर्शन का अवसर मुझे कई बार मिला है। छायाकला के बीच भी चिन्तन में आ गये थे1947 में छिन्दवाड़ा से नागपुर आ गया और 1948 से छायांकन कर रहा हूं और आज भी मेरा कैमरा मेरे साथ चलता है। गोयनका जी पत्र देने में भी तत्पर रहते हैं, मेरी तरह।


___ मुंशी प्रेमचनद मेरे प्रिय लेखक हैं। उनके द्वारा रचे गये दृश्य मेरी कला छायांकन में सहयोग करते रहे हैं। उनकी दृश्य रचनाओं पर आधारित चित्रों ने मुझे इस क्षेत्र में अनेक पुरस्कार दिलाए हैं। मैं प्रेमचन्द जी के बारे में क्या कहूं सारा विश्व उन्हें जानता और आज जो 75 वर्ष पूर्ण करने जा रहे हैं वे मुंशीजी के एथोरिटी के रूप में जाने जाते हैं। इस सामन्जस्य का नाम है-कमल नवल।


वर्ष था 2005 का जब सारा देश प्रेमचन्द जी 125वीं जन्म तिथि बशिद्दत्त मना रहा था। मेरा भी कुछ कर्त्तव्य था उनके प्रति अतः मैंने भी प्रेचन्द का हृदय विधान की रचना कर डाली और गोयनका जी को इसकी सूचना दी और कुछ शब्द लिखने का आग्रह किया। उत्तर में आया निम्नलिखित यह अभिप्राय । मैंने इसे अपनी पुस्तक में ससादर सम्मान दियाः


मान्यवर,


आप 'प्रेमचंद का दृश्य विधान' पर शोध-आलेख प्रकाशित कर रहे हैं, यह जानकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई है। प्रेमचन्द का यह पक्ष, अभी तक उपेक्षित तथा अचर्चित ही रहा है। प्रेमचन्द कथाकार थे, लेकिन दृश्य-विधान की अद्भुत कला उनके पास थी। उन्होंने यद्यपि तीन नाटक लिखे, परन्तु उन्हें उसमें वह ख्याति नहीं मिली जो कथा-साहित्य से मिली, परन्तु कथा में भी उन्होंने नाटक को जीवित रखा और दृश्य-विधान की कलाको उच्चता तक पहुंचाया। यही कारण है कि उनकी कहानियों तथा उपन्यासों में ऐसे दृश्यों की संरचना मिलेगी जैसे वे वास्तविक रूप में आपके सम्मुख घटित हो रहे हैं। अतः आपके इस महत्वपूर्ण कार्य की मैं प्रशंसा करता हूंकि अपने प्रेमचंद की इस कलागत उपलब्धि की ओर हिन्दी संसार का ध्यान आकर्षित किया ।


आपको मेरी बधाई।


स्वस्थ होंगे।


सप्रेम,


आपका


कमल किशोर गायनका


मैंने गोयनका जी का साथ नहीं छोड़ा-पत्राचार चलता रहा। इस बीच मैंने नई करवट ली और स्वतंत्रता आन्दोलन को लेकर एक शोध परक पुस्तक की रचना कर डाली। इस पुस्तक में साहित्य की अनेक धाराओं का उल्लेख है। इस तरह का प्रयास समय-समय पर करते रहना मेरी ही नहीं हर भारतीय का कर्त्तव्य है। हमारे देश का नाम भारत है और इस 'भारत' शब्द का अनुवाद हिन्दुस्तान या इंडिया नहीं हो सकता। इस विषय पर फिर भी चर्चा की जा सकती है। तो हमारे सामने शंखनाद का पटल था 'दस मई'। दस मई 1857 को संपूर्ण आन्दोलन का शंखनाद कर दिया गया था। शंखनाद शब्द मदन मोहन मालवीय जी का दिया हुआ है। इसे प्रासंगिक मानकर पूरी पुस्तक में सम्मान के रूप में स्थान दिया गया। गोयनका जी को मैंने इस बारे में बताया तो निम्न संदेश मुझे प्राप्त हुआ ।


दस मई के साथ ही साथ मैं तीन और पुस्तकों पर निरन्तर कार्य कर रहा था। एक उल्हास था कि मई माह से आरंभ की, लोकार्पण श्री इस श्रृखंला को चार माह तक निरन्तरता दी जाय। अगली पुस्तक 'करनी' जो स्वतंत्रता आन्दोलन पर ही केन्द्रित थी का लोकार्पण जून 2010 को किया गया, दिन था 18 मई 2010 महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान दिवस । पुस्तक का नाम था 'करनी' दोनों पुस्तकें मिलने पर मेरे प्रिय गोयनका जी लिखते हैं ।


29 जुलाई को मेरा जन्म दिन आता है अगले माह में अर्थात । जुलाई 'अरगनी' नामक कथा-संग्रह का विमोचन हुआ। 'अरगनी' के बारे में गोयनका चुप नहीं बैठे। अपने मित्र के अनुष्ठान में आहुति देना वे नहीं भूलते हैं। मुझे निश्चित रूप से विश्वास है कि उनकी वाणी और लेखनी मेरे लिए क्या व्यक्त करती है मैं नहीं जानता। मेरी अन्य विधाओं को वे किस प्रकार मान्य करते हैं।


बाल साहित्य पर केन्द्रित मेरी पुस्तक का विमोचन 19 अगस्त 2010 को भोपाल में ही किया गया। 14 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र संघ से भी 'छायादिवस' रूप में मान्यता प्राप्त है और इस दिन को इस नाम से स्थापित किए जाने का श्रेय भारत को जाता है। इस कहानी संग्रह में पांच कहानियां थीं इसलिए इसका नाम प्रसाद के रूप में स्थापित परम्परा 'पंचामृत' ही दिया गया। अबकी बार गोयनका जी अपने अन्त:करण से इस पस्तक को स्वीकारा है:


मेरे द्वारा कुछ अन्य और भिन्न रचने के लिए गोयनका जी का भी सहयोग रहता है। मैं इस बात का ध्यान रखता हूं कि मेरा मित्र मेरा प्रकाशन हो या सृजन की किसी भी प्रकार से अमूल्यंन के क्षेत्र में न ले जाये। ऐसा मित्र मिलना भी सौभाग्य का विषय अवश्य है। 6 साल बड़ा हो जाने के कारण बड़े संकोच के साथ 'आशीर्वाद' शब्द का उपयोग कर रहा हूं। ईश्वर करे उद्धव और माधव का साथ बना रहे और सृजन की निरन्तरता से वे साहित्य जगत को आलोकित करते रहें।


'तथास्तु' देवी को प्रणाम।