कुछ पल अंतरंग से

विनीता रघुवंशी


(सहधर्मिणी)


मुझसे प्रेमशंकर जी पर लिखने के लिये कहा गया है। कहाँ से शुरू करूँ? क्या कहूँ? क्या लिखू? समझ नहीं आ रहा है। लिखना तो है ही। शुरू भी करना ही है। पर कहना क्या है? समझ से परे है। श्री अरुण तिवारी जी 'प्रेरणा' में रघुवंशी जी पर परिशिष्ट निकाल रहे हैं। मुझे उसी के लिये लिखना है। श्री प्रेमशंकर रघुवंशी की सहधर्मिणी बनकर जीवन की डगर पर सधे कदमों से यात्रा शुरू की। नहीं जानती थी कि उनके लिखे साहित्य के साथ-साथ जीवन में उनके लिये लिखे उपचार के सफे भी पढ़ना है। पढ़ना है जीवन राग के संगीत को। सहेजना है कविता की सतरंगी सतहों को। उनके लिखे गीत कविता कहानी और संस्मरण । सब कुछ सहेजना है।


बहुत कठिन होता है साथ साथ रहते सोते जागते अलस भोर से घोर निद्रा तक के समय को शब्दों में स्मृतियों में बाँधकर व्यक्त कर देना। बहुत कठिन है स्मृतियों की सघनता के बीच से थोड़े से क्षणों को छाँट बीनकर सबके सामने बिखेर देना। येतो बस अपने मन में छुपाकर रखे गये हीरे जवाहरात मानिक मोती हैं। जो यों ही नहीं लुटाये जाते।


 बहुत सी स्मृतियाँ हैं जिनमें प्रेमशंकर जी मेरे मन मस्तिष्क में जुड़े हुए हैं। मैं दुनिया के व्यवहारिक ज्ञान से एकदम कोरी थी। बाहरी दुनिया के सम्पर्क और आना जाना मेरा नहीं जैसा ही था। बहुत से लोकाचार और औपचारिकताओं से एकदम अनभिज्ञ। फिर साहित्यिक समाज की औपचारिकताओं से तो मैं रू ब रू भी इन्हीं के कारण हो रही थीं। अक्सर साहित्यिक समारोह आदि से हम लौटकर आते ये मेरी कमियों के बारे में या कहाँ कैसे पेश आना चाहिए विस्तार से समझाते मैं मौन रहकर सब आत्मसात करती जाती। तब ये नकली गुस्सा दिखाते। कहते कुछ समझ रही हो या नहीं। तब मैं हौले से कहती हाँ ! आ गया आप मेरे वातायन हैं। दुनिया और घर के बीच जोड़ने वाले । अच्छा तुमने तो पल के पल में मुझे जड़ पदार्थ में बदल दिया। दोनों दिल खोलकर हँसने लगते।


मझे कई बार लगा कि विवाह केवल दो व्यक्तियों के करीब आने की रस्म भर नहीं है। विवाह के लिये जरूरी है मानसिक परिपक्वता। यही परिपक्वता संभवतः हम दोनों के बीच का वह माधुर्य था जो नदी बनकर हमारे बीच के प्रवाह की लहरों को उमंगों में बदल देता था। मेरी इसी बात को पूरी तरह से पुष्ट करती रघुवंशी जी की यह कविता - (द्वैत मिटाती नदियाँ) -


एक नदी/जाने कब/मेरे/अन्दर से फूटी/एक तुम्हारे/और दोनों/अपने आप/मिल गई/हमें पता ही नहीं चला कि नदी बह रही या हम/संगम-संगम/यही तो/करती हैनदियाँ!!


उन्हें नितान्त भावुक लिजलिजी सी बात-बात में आँसू बहाने वाली बाधायें आने पर दूसरों को दोष देने वाली स्त्रियों से चिढ़ सी थी। स्वयं फैसला लें। चुनौती स्वीकार करें। बाधाओं को समाधान में बदलें। यही उनकी स्त्रियोंचित धारणा रही। वे मानते रहे कि समस्याएँ जहाँ है वहीं समाधान भी हैं। मुझे नहीं पता मैं कहाँ तक सफल रही।


साथ रहने का फैसला लिया। हरदा में घर बसना शुरू हुआ। शहर नया। बाजार नया। तौर तरीके नये। नई गृहस्थी की जरूरतें भी नई । गृहस्थी का पैटर्न वही। अपनी माँ की गृहस्थी सी गृहस्थी। गृहस्थी जमाने का उत्साह। कुछ भी कम नहीं। रत्तीभर फर्क नहीं। पर यहाँ तो फक्कड़ और बेफिक्र व्यक्ति के साथ निर्वाह करना है। क्या हो कैसे चले। एक दिन रघुवंशी जी ने मुझसे कहा कि देखो तुम्हें चूड़ी बिन्दी साड़ी चप्पल जो भी चाहिए खुद बाजार जाकर खरीद लाया करो मेरे पर डिपेन्ड मत रहना। मेरे लिये ये सब व्यर्थ की बातें हैं। समय बर्बाद करने जैसा। मेरी भावना को थोड़ा झटका लगामैं भीतर से थोड़ी दुःखी हुई। पीड़ा भी हुई। दर्द आँसू बनकर गालों तक बहे भी। पर थोड़ी ही देर बाद मैं मुस्कराने लगी। ये चकित से मुझे देखने लगे। मैंने कहा आपने बहुत अच्छा किया। मुझे आश्रित होने से बचा लिया। दूसरे मेरी स्वायत्तता भी अक्षुण्ण हो गईं। खरीदारी के फैसले मध्यवर्गीय परिवारों में अक्सर पुरुषों के वर्चस्व का हिस्सा होते हैं। यहाँ मुझे इस प्रकार की छूट देकर इन्होंने मेरी मानसिक आजादी का खुला आसमान मेरे समक्ष उपस्थित कर दिया। जैसा मुझे चाहिए। जो मुझे चाहिए। घर को व्यवस्थित करने की पूरी आजादी। पूरी स्वतन्त्रता। न कोई रोक टोक न कोई हिसाब किताब। क्या लिया? कितने का लिया? कितने पैसे खर्च किये? कोई सवाल जवाब नहीं। मैं कई बार मजाक में कहती भी कि अपने घर का खर्च तो भगवान भरोसे हैं लेने वाले श्री जी, देने वाले श्री जी। इस तरह की मुक्तता आमतौर पर हमारे मध्यवर्गीय परिवारों में कम ही मिलती है। पर हमारे बीच यह मौजूद रही।


एक कविता जो रघुवंशी जी की आत्म स्वीकृति के मनोभाव व्यक्त करती है


लहर-लहर/तुम्हें/लहर-लहर इठलाते रहना/अच्छा लगता है नदी!/मुझे भी/और मैं/ तैर ही तो-/रहा हूँ/लहर-लहर तुममें !!


मैं खरीदारी के लिये बाजार जाती और कभी मुझे रघुवंशी जी के लिये कुते पाजामे का कपड़ा पसंद आ जाता तो और मैं ले आती तो ये अपनी माताजी से मजाक में कहते बाई! मेरे लाने तुमरी बऊ वर्दी लाई है। बड़ी आदमन है री बाई ! मैं तुमरी बऊ को घर रखाऊ हूँ वाके लाने लाई हैं। चौकीदार कूँ बरदी लाके दई है। तुमे भाई के नी भाई। तुम केओ तो बापिस कर दऊँ। मेरी सास अपने पोपले मुँह से खिलखिलाती ठहाके लगाकर कहती तू ऐसी बात काय के लाने कर रयो है। अच्छी तो है। बुन्देली में चलता यह वार्तालाप घर में समरसता घोल देता। मैं एकाएक सकपका जाती। मैं कहती क्यों फालतू बात करते हो । बाई (माताजी ) क्या सोचेंगी। रघवंशी जी कहते क्यों सीरियस हो रही हो? बात है बात का मजा लो। आनंद लेना भी एक कला है।


____ 2001 में रघुवंशी जी की बायपास सर्जरी हुई। हम दोनों चेन्नई के अपोलो हॉस्पिटल में पंद्रह दिन के करीब रुके। अपोलो के डॉक्टर गिरीनाथ की टीम ने 17 मार्च 2001 को इनकी सर्जरी की गई। 21 मार्च को आई सी यू से बाहर आये। इस सबके बीच स्थितियाँ बनती-बिगड़ती रही। हम दोनों 14 की दोपहर से हॉस्पिटल में जाकर रूक गये थे। 1 लाख 47 हजार का पैकेज था। डाउन पेमेन्ट जमा हो गया और रघुवंशी जी भर्ती हो गये। 16 मार्च को बेड नम्बर 14 के पेशेन्ट को ऐन सुबह सर्जरी के लिये स्ट्रेचर पर लिटाया गया। उसके परिजन फूट-फूट कर रोने लगे ये देखकर मेरी और रघुवंशी जी की आँखें नम हो गईं। मुझे लगा जब इनकी सर्जरी का वक्त आयेगा तो मैं अपने को कैसे संभालँगी। 17 मार्च 2001 को दोपहर के एक बजे इन्हें बेड पर से स्ट्रेचर पर लिटाया गया। मुझे नर्स ने साथ चलने के लिये कहा। मैंने रघुवंशी जी से कहा भगवान का नाम स्मरण कीजिये। ज्ञान गुदड़ी का जाप करिये। इन्हें ज्ञान गुदडी कंठस्थ थीं। लिफ्ट और लिफ्ट से सीधे आपरेशन थियेटर के सामने । नर्स ने कहा रुकिये। मेरे हाथ में इनका हाथ था मैंने छोड़ते हुये कहा-फिर मिलते हैं। इन्होंने हाँ में सिर हिलाया। ये दरवाजे के उस पार थे और मैं इस पार खड़ी इन्तजार कर रही थी। सोनिया मेरी भतीजी जो कि अपोलो में एनिस्थिया की डाक्टर के रूप में कार्यरत थी। वह मुझे बार-बार आकर खबर दे रही थी बुआ अब बेहोश कर दिया है। अब पसली की हड्डियाँ काटी जा रही हैं। अब सर्जरी शुरू हो गई है आदि आदि। मैं शान्त मन से उसकी बातों से मिलते ब्यौरों को सुन रही थी। रात दस बजे सर्जरी परी हईआई सी य में रघवंशी जी की परी देह मशीन पर थी। बेहोश । मझसे रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने को कहा डॉ. सोनिया याने मेरी भतीजी मेरे साथ थी। रात के ग्यारह बज रहे थे मैंने उससे एक कप काफी पीकर जाने को कहा। मैं नरेन्द्र और सोनिया बेसमेंट में बने केन्टीन में गये। वहाँ दिनभर की बातें हुई। वो जाते जाते मेरे मन में एक बात जैसे रख गईं। बुआ मैं दिनभर से आपको अंकल की बातें सुना रही हूँ और आप सुन रही थी पर आप कितनी शान्त थीं। कोई घबराहट आपके चेहरे पर नहीं। मैंने जवाब दिया हाँ! मैं सुन रही थी पर उससे ज्यादा उस समय का अंदाज कर रही थी जब उन्हें पूर्ण स्वस्थ करने के लिये मुझे ज्यादा धैर्य और शान्ति की जरूरत रहेगी। 18 मार्च को सुबह जब मैं आई सी यू में इन्हें देखने गई तब ये बेहोशी से होश में आने की प्रक्रिया में थे लेकिन जब शाम के सात बजे मैं फिर दूसरी बार जब इनसे मिलने पहुंची तो पूरे होश में बात कर रहे थे मैंने हालचाल पूछे फिर इन्हें ख्याल आया तो मझसे पछा तुम कहाँ हो? नरेन्द्र हरदा गया? मैंने कहा-मेरी चिन्ता मत कीजिये! मैं ठीक हूँ। यहाँ वेटिंग रूम है। उसी में हूँ। मशीनों में पूरी तरह से जकडे हये कहने लगे तुम्हारी चिन्ता क्यों न करूँ आखिर मैं भी मनुष्य हूँ। उस क्षण को अपनी रचना का हिस्सा अपनी अनुभूति के क्षण को कविता में इस प्रकार व्यक्त किया -


अपना पुनर्जन्म मेरे साथ/तुम ही तो समाई थीं/ऑपरेशन थियेटर के अंदर/शल्यक्रिया के वक्त प्राण में/तुमने ही तो देखा था/बाईपास सर्जरी के बाद झटके खाकर/होश में आते हुए मुझे/तुमने ही तो पाया था/अपना पुनर्जन्म/मेरे पुनर्जन्म के साथ/(कविता संग्रह-प्रणय का अनहद पृष्ठ-50)


___2001 के अक्टूबर-नवंबर में ही रघुवंशी जी के हार्निया के आपरेशन हुए। ये सर्जरी इन्दौर के ग्रेटर कैलाश नर्सिंग होम में हुई। डॉक्टर के एल बन्डी ने हार्निया की सर्जरी की। चार-पाँच दिन इन्दौर रहे फिर हरदा लौट आये। दिन व्यतीत होते गयेमेरा भी शिक्षण-प्रशिक्षण जारी रहा। रघुवंशी जी स्वस्थ हुये। दिन पंख लगाये उड़ने लगे। जिन्दगी अपनी गति से चलने लगी2009 की 31 जुलाई की तारीख। सुबह ग्यारह बजे जब घर से कॉलेज के लिये निकली तब रघुवंशी जी पूर्ण स्वस्थ। जब शाम साढ़े छः बजे घर पहुंची। दिनभर की थकान के मारे दम निकला जा रहा था। बाहर आँगन में चप्पलें निकाली ही थी कि सासू माँ भागती हुई मेरे पास आई और बोली वो भईया कमरे में उल्टियाँ कर रहा है। बात को समझा। तेजी से कदम बढ़ाकर कमरे में गई। देखा रघुवंशी जी का पेट दुःख रहा है। रह-रहकर उल्टी हो रही है। पेट पर सूजन भी आ गई है। इन्हें बिस्तर से उठने के लिये मना किया। एक छोटा टब पलंग के नीचे रखा और माताजी को कहा जब उल्टी आये आप इसे पकड़ कर रखना मैं डॉक्टर सेंगर साहब को बुलाकर लाती हूँ। पड़ोस में रहने वाले डॉक्टर सेंगर को बुलाने के लिये भागीलौटकर आई तो इन्हें कै करते देखा। कै के रंग को देखकर लगा ये उल्टियाँ बदहजमी की नहीं है। कोई और बात है। एक बार फिर रेगिस्तान की तपती रेत मेरे पैरों के नीचे आ लगी थी। डॉक्टर सेंगर ने चेकअप किया। मुझे बताया। रघुवंशी जी की दोनों आँतें उलझ गई है। 1 अगस्त को इन्दौर के बाम्बे हॉस्पिटल में एडमिट कराया। 2 अगस्त को शाम 4 बजे ऑपरेशन के लिये ले जाया गया। वही मेरे हाथ में इनका हाथ और फिर मिलने की बात कहकर ऑपरेशन के लिये मैंने इन्हें भेज तो दिया लेकिन कॉरिडोर में खड़ी होकर करीब आधे घण्टे रोती रही। वहाँ तैनात गार्ड मुझे रोते हुए देखता रहा। इस बार रघुवंशी जी की हालत चिन्ता जनक थी। रात दस बजे ऑपरेशन पूरा हुआ। मुझे डॉक्टर ने पेट से निकाले गये हिस्से को देखने के लिये बुलाया। बेटा राजेश उज्जैन से आ चुका था। मुझसे कहने लगा मैं नहीं देख सकूँगा। मैंने कहा हाँ मैं देखूगीं। चार फीट आँत काट दी गई थी। तसले में रखी कटी आँत को डॉक्टर ने पूरी तरह फैला कर बताया और यह भी कि ऑक्सीजन जाना रूक गया था इसलिये इतनी काटनी पडी। आगे दस पंद्रह दिन इन्दौर में ही बीते । हॉस्पिटल में रहते-रहते ही राखी का पर्व आ गया। छोटी बहन पुष्पा जीजी भी राखी के लिये इन्दौर आ गई। बाम्बे हॉस्पिटल में ही इन्होंने राखी बंधवाई। वहाँ से डिस्चार्ज हुए। फिर रूटीन चेकअप तो चलता रहा लेकिन कोई स्वास्थ्य संबंधी बड़ी समस्या खड़ी नहीं हुई।


तनिक/सुनो!/जरा सुई धागा/लेती आना/क्या हुआ?/देखो तो!/कई जगह से/ उधड़ गया हूँ/तनिक सिल दो!/तुम/सुई धागा भी तो हो-/मेरे लिये। (कविता संग्रहआँगन बुहारते वक्त पृष्ठ -48)


फिर दिन पखेरू बन उड़ चले। मैं अपनी नौकरी और रघुवंशी जी अपनी कविताई में रम गये। लिखना बढ़ गया। जीवन की गाड़ी रफ्तार से दौड़ने लगीरघुवंशी जी की एक कविता यहाँ उद्धृत किये बिना मैं अपने को रोक नहीं पा रही हूँ शीर्षक है-तुम्हारे नहीं आने तक-तुम्हारे नहीं आने तक/कविता का लिखा जाना/स्थगित है/स्थगित है आँगन में/दाल-बाँटी का बनना/तुम्हारे नहीं आने तक/लहसुन की चटनी का/बाजरे की रोटी संग खाया जाना/स्थगित है/स्थगित है नये कारज का शुरू होना घर में/तुम्हारे-/आने पर ही/कट पाएँगें शूल/तुम्हारे आने पर ही यहाँ/सवेरा होगा। तुम्हारे आने पर ही/बसेरा होगा घर में। (कविता संग्रह -प्रणय का अनहद पृष्ठ - 52 )


इसी आशवस्ति से जीवन सामान्य तरीके से चल रहा था। कि फिर 30 मार्च 2014 का वह दिन मेरे सामने आ खड़ा हुआ। जब पहली बार इन्दौर के विशेष हॉस्पिटल में रघुवंशी जी को एडमिट कराना पड़ा। गये थे सिर्फ चेकअप के लिये। लेकिन हरदा से चापड़ा तक ही पहुँचे थे कि रघुवंशी जी को हल्का सा बुखार आ गया। बस डॉक्टर विद्धुत जैन साहब ने उन्हें फुल चेकअप के लिये रोक लिया। धीरे धीरे स्वास्थ्य बिगड़ता गया। 30 मार्च से 8 अप्रैल 2014 तक विशेष देखरेख में रहेहरदा लौट आये। अब श्वाँस की तकलीफ बहुत बढ़ गई। ऑक्सीजन सिलेन्डर साथ में रखना जरूरी हो गया हर पल फिक्र और फिक्र । निश्चिन्तता के दिन चिन्ता में बीतने लगे। 12 अप्रैल 2014 को फिर इन्दौर लौट गये। हॉस्पिटल विशेष में भरती किया20 अप्रैल को इन्दौर से लौटे। जब तब ऑक्सीजन लगाकर थोड़ी राहत देने की कोशिश करने लगी। पर कोई निदान या समाधान निकल नहीं रहा था चिन्ता में वृद्धि हो रही थी। किडनी और हार्ट कमजोर हो रहे थे। हार्ट में ब्लाकेज की समस्या आ गई थी। एक वाल्व में से चौबीस घण्टे में एक बूंद रक्त रिस रहा था और उसका जमाव फेफड़ों में पानी बनकर निरन्तर हो रहा था। डॉक्टर चिन्तित थे। हार्ट फेल्योर की स्थिति में चल रहा । स्वास्थ्य संबंधी कठिनाई बढ़ गई। मुझे कोई रास्ता सूझ नहीं रहा। फिर इनकी तकलीफ भी मुझसे देखी नहीं जा रही। रात-रात भर छः छः तकियों का सहारा लिये बैठे रहते । सीधे लेटना हो ही नहीं रहा। मुट्ठीभर दवाइयां रोज इंजेक्शन। लो होते ब्लड प्रेशर को सम्हालना। स्थानीय डॉक्टर से मिलती मददउनकी सलाह । उनके मशविरे। इसी बीच मेरी शोध छात्रा नीलम जैन के वायवा की तारीख तय हो गई। 16 जून 2014 का दिन तय हुआ। उसके फोन आ रहे थे कि मैं उसके वायवा में उपस्थित रहूँ। मुझे उपस्थित रहना मुश्किल दिख रहा था। वह इनकी तबियत का अन्दाज कर नहीं पा रही थी। न जाने क्यों मैं स्थानीय डॉक्टर वीरेन्द्र अग्रवाल साहब के पास इनकी सभी जाँच रिपोर्ट लेकर गईं। सब कागज उनके सामने रखे। उन्होंने सिर्फ इको रिपोर्ट उठा कर देखना शुरू किया और मुझसे कहने लगे ये इको रिपोर्ट तो दो महीने पुरानी है। मेरे अनुभव से इस समय रघुवंशी जी का हार्ट 25 से 30 प्रतिशत काम कर रहा है। आप एक बार नई इको रिपोर्ट इन्दौर या भोपाल जाकर कराइये। मेरे मुँह से एकाएक निकला कि मैं शायद कल भोपाल वायवा के लिये जा सकती हूँ। उन्होंने मुझे नेशनल हॉस्पिटल के डॉक्टर के नाम चिट्ठी लिखकर दी। फिर भोपाल के लिये रघुवंशी जी को मनाना। सिर्फ इको कराकर लौट आना है। शाम को चार बजे तक लौट आयेंगे। रघुवंशी जी तैयार हो गयेलौटकर आना था इसलिये कपड़े वगैरह साथ नहीं रखे। छोटा ऑक्सीजन सिलेन्डर साथ रखा। नेशनल हॉस्पिटल में सबसे पहले इनकी इको कराई फिर। यूनिर्विर्सटी वायवा के लिये गये। वहाँ इनकी तबियत बिगड़ने लगी। वायवा के कागजों पर दस्तखत किये। नीलम खाने के लिये आग्रह करने लगी इनकी तबियत का वास्ता दिया और नेशनल हॉस्पिटल आ गये। रिपोर्ट लेने । ना जाने क्यों रघुवंशी जी के मन में आया कि क्यों न हम यहां के डॉक्टर पाण्डे जी को भी एक बार दिखाकर सेंकण्ड ओपिनियन ले लें। मैंने भी हामी भरी। डॉक्टर पाण्डे से भेंट शाम चार साढ़े चार बजे हुई। इस बीच हालत बिगड़ने लगी। पर ये मिलने का मन बना चुके थे इसलिये कुछ कहना मुझे ठीक नहीं लगा। डॉक्टर से मुलाकात हुई। उन्होंने चेकअप किया। फिर इनकी हालत देखकर मुझसे कहा कि आप अगर इनको लेकर हरदा गई तो आप हरदा नहीं पहुंच पायेंगी। आपके लिये बेहतर होगा कि आप इन्हें यही हॉस्पिटल में एडमिट कर दें। मैंने कहा-मैं तो इस तैयारी से आई ही नहीं हूँ । क्या करूँ? तब समस्या का हल निकला कि मैं अभी हरदा निकल जाऊँ रघुवंशी जी के पास डॉक्टर धर्मेन्द्र पारे रुकेंगे। रातभर आई सी यू में डॉक्टर पाण्डे जी ने भी मुझे भरोसा दिया कि मैं रघुवंशी जी का ध्यान बिलकुल मेरे अपने परिजन सा रतूंगा। आप निश्चिन्त होकर हरदा जाइये। सुबह नौ बजे तक आ जाइये। मैंने कहा ठीक है। रघुवंशी जी आई सी यू में और मैं हरदा में रात बड़ी बैचेनी से गुजारी। मैं औबेदुल्लागंज तक ही पहुँची कि श्री मनोज जी श्रीवास्तव मध्य प्रदेश के प्रमुख सचिव रघुवंशी जी से मिलने के लिये आ रहे थे एक रचनाकार के रूप में यह भेंट हो रही है। मैंने उनका फोन सुना तो उनसे रिकवेस्ट की कि आप आधे घण्टे बाद आयें तो ठीक रहेगा मैं भी पहुँच जाउँगी। खैर मुलाकात हुई। सब ठीक हो रहा था स्थिति भी ठीक ही थी। दो चार दिन रुक कर वापस हरदा लौटने का मन बना रहे थे। तभी डॉक्टर धर्मेन्द्र पारे ने कहा सर की हालत नाजुक है क्यों न किसी बड़े हॉस्पिटल में ले चलें हमारे कॉलेज की एक मैडम अभी उनके हसबैंड की हार्ट सर्जरी गुडगाँव के मेदांता से करा कर लाई हैं। अपन भी सर को वहाँ ले चलें। मैंने कहा पता करें। अभी विचार-विमर्श चल ही रहा था कि डॉक्टर पाण्डे जी ने रघुवंशी जी के फेफड़ों से दो लीटर पानी निकाल लिया उन्हें लगा इससे तकलीफकम हो जायेगी। सुबह दस बजे यह प्रोसेस की और दोपहर दो बजे तक सब ठीक रहा लेकिन जैसे ही इन्हें खाना खिलाना शुरू किया कि हालत बिगड़ने लगी। 19 जून को वेनटिलेटर पर जान जोखिम में। एक घण्टे में दस हजार के इन्जेक्शन लग गये। लगा कि अब बस दुआ ही काम आ सकेगी। ये स्थिति लगातार पाँच दिनों तक बनी रही। 29 जून को मेदांता के लिये बाय एयर इन्हें शिफ्ट किया। डॉक्टर त्रेहान को कंसल्ट करने की पेशकश की गई।


चार जुलाई को एंजियोग्राफी हुई। 10 जुलाई को डॉक्टर संजय मितल एवं डॉक्टर प्रवीण चन्द्रा ने मुझे उनके केबिन में काउन्सलिंग के लिये बुलाया। कम्प्यूटर पर हथेली के आकार का रघुवंशी जी का दिल धड़क रहा था। एंजियोप्लास्टी के लिये मेरी सहमति चाहिये। उम्मीद जीरो प्रतिशत है। कुछ भी हो सकता है। निर्णय मुझे लेना था। मैंने कहा आप के जीरो से हन्डेरड बनने की संभावना है मेरे पास का जीरो तो जीरो में ही रहेगा। डॉक्टर प्रवीण चन्द्रा ने कहा डन मैंने कहा जी। बस। करीब दो बजे मेरे पास हॉस्पिटल डेस्क से मरीज से मिलने के लिये खबर आई। सामने स्वस्थ से रघुवंशी जी को देखकर विश्वास नहीं हो रहा था। 18 जुलाई को दूसरी एंजियोप्लासटी हुई और बाकी बचा एक स्टैंट डाला गया। 22 जुलाई को बाय प्लेन भोपाल आये। दो दिन नेशनल हॉस्पिटल में रुके। धीरे-धीरे स्वास्थ्य लाभ होने लगा लेकिन निश्चिन्तता पूरी तरह से नहीं आ पाई। अभी किडनी की परेशानी बरकरार थी। पर हाँरघुवंशी जी के चेहरे पर मुस्कराहट लौट रही थी। ये कविता उसी क्षण को व्यक्त करती है।सम्हाले रखना ठीक से हँसी अपनी/अजीब है/हँसी की तासीर/कि जो हल्की-सी/ मुस्कान से शुरू होकर/खनखनाती रहती देर तक/और बिछ जाता/दूर तक बसंत/गजब का हौंसला है/हँसी में/कि कोई भी-/पहाड़ घाटी/बाधा-व्यवधान/अवसाद-निराशा/ रोग शोक/बल्कि मृत्यु तक के/टूट जाते फंदे/यह हँसी ही है सिर्फहँसी/कि जिसका छोर थामे/दिल की शल्यक्रिया कराके/लौट आया घर/जहाँ कुशलक्षेम पूछनेवालों को/मुझसे पहले/तुम्हारी खिलखिलाती हँसी/देती रही जवाब/बला की जिन्दादिल है हँसी/कि जिसने मौत की/काली रात से निकालकर सिखा दिया/उजले दिन सा जीना/जहाँ कहीं जीवंत है हँसी/कोई भी खौफ/नहीं कर सकेगा/बाल तक बाँका/चाहे वह मौत का ही क्यों न हो/ तुम तो-इतना भर करती रहना/कि बुरे वक्त में भी-/हँसते हँसते सम्हाले रखना/ठीक से हँसी अपनी। (मंजती धुलती पतीली पृष्ठ -63)


रघुवंशी जी के स्वास्थ में उतार चढ़ाव तो चल ही रहा था। 21 फरवरी 2016 का वह निर्मोही दिन भी हम पर कहर बनकर टूटा कि रघुवंशी जी चिरनिद्रा में चले गये। देह चली गई पर मेरे मन में अटूट विश्वास है कि वे मेरे साथ हैं हर पल हर क्षण। कोई क्षण मुझसे दूर नहीं हमेशा साथ । इस भरोसे पर कायम है प्रेम । इस प्रसंग को मैं उनकी एक कविता से समाप्त करना चाहूँगी -


कविता का शीर्षक है -अपनी वसीयत नर्मदा को


वसीयत में/मैंने लिख दिया/अपना राष्ट्रगीत/राष्ट्र के नाम -/राष्ट्रध्वज/राष्ट्रभाषा/ और संविधान अपना/विश्व के नाम लिख दिये/चाँद सूरज तारे/हवा पानी प्रकाशपर्यावरण/सबके लिए और अंत में/सूजन के संकल्प/और प्रार्थनाएँ अनन्त/नहीं लिखा/ विनाश का कोई भी शब्द/किसी के लिए मैंने सौंप दी/अपनी वसीयत नर्मदा को/जो अमरकण्ठ में धारण किए/बहती रहेगी समुद्र तक-/सृजन के साथ !! (कविता संग्रहमंजती धुलती पतीली पृष्ठ -48 )