एक सत्यान्वेषी यानी कमलकिशोर गोयनका

आलेख


गिरीश पंकज


डॉ. कमलकिशोर गोयनका जैसे लोग सदियों में पैदा होते हैं।


एक सांसारिक साधक-तपस्वी कैसा हो सकता है, वह देखना हो तो गोयनका जी को देखा जा सकता है। उनसे मिला जा सकता है। मिल कर मेरी बातों की तस्दीक की जा सकती है। मुंह देखी करने की आदत नहीं रही और यह कलम किसी के लिए भी नहीं चलती। बड़े-बड़े राजनेता और लम्पट किस्म के महान साहित्यकार तरस गए, उन पर एक लाइन नहीं लिखी लेकिन जब गोयनका जी जैसी विभूति पर कुछ लिखना हो तो अपनी कलम अपने आप दौड़ने लगती है।


गोयनका जी को बचपन से ही पढ़ता आया हूं। वे सत्यान्वेषी हैं। खोजी प्रवृत्ति के। साहित्य के भी अनेक छिपे रहस्य इन्होंने ही खोजे हैं। अनेक झूठे चेहरों से नकाब भी हटाए हैं। सत्य को सामने रखने का नैतिक साहस अगर देखना हो तो गोयनका जी के यहां देखा जा सकता है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के बारे में प्रगतिशील खेमे ने एक भ्रम-सा फैला कर रखा था, खास कर प्रेमचंद जी की गरीबी या बदहाली के बारे में। उस झूठ को गोयनका जी ने प्रमाण सहित तोड़ा और प्रेमचंद जी का वो बैंक खाता सबके सामने रखा जिसमें उनकी मृत्यु के कुछ समय पहले एक बड़ी रकम जमा थी। अनेक प्रमाणों के साथ गोयनका जी ने सिद्ध किया कि प्रेमचंद को गरीब कहना, उनके फटे जूते दिखाना आदि गलत है। प्रेमचंद हमारे समय के सबसे बड़े लेखक हैं। इससे कौन इंकार करता है मगर उनका दयनीय रूप पेश करना कहां का इन्साफ है? और भी अनेक महत्वपूर्ण बातें हैं जिससे प्रेमचंद जी के जीवन के कुछ पहलू सामने आते है। और इसका पूरा श्रेय जाता है गोयनका जी को। उन सबका यहां जिक्र करना लेख को अनावश्यक विस्तार देना होगा। संक्षेप में यही कहना चाहता हूं कि गोयनका जी ने कथा सम्राट प्रेमचंद का एक वो मानवीय रूप सामने रखा जो किसी भी मनुष्य को होता है या हो सकता है।


डॉ. गोयनका जी को जानता तो शुरू से ही हूं। एक पाठक के नाते उनके लेखन से परिचित था ही मगर पिछले एक दशक से उनसे व्यक्तिगत परिचय भी हुआ। यह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उनसे परिचय हुआ और उनके साथ ही बड़े नाटककार दयाशंकर सिन्हा से भी परिचय हुआ। वे भी मेरे छोटे-मोटे कामों से परिचित थे। खास कर 'सद्भावना दर्पण' के प्रकाशन से। और मेरी राष्ट्रवादी सोच से भी। यही कारण है कि जब मेरा उपन्यास "एक गाय की आत्मकथा" के द्वितीय संस्करण का दिल्ली में लोकार्पण हुआ तो गोयनका जी उस कार्यक्रम में न केवल शरीक हुए वरन मेरे उपन्यास पर एक विस्तृत समीक्षात्मक आलेख भी लिख कर लाए। उनकी समीक्षा मेरे लिए यादगार घटना बनी क्योंकि उसे लिखने वाला एक शीर्षस्थ लेखक था, जो किसी भी कृति पर ऐसे ही कलम नहीं चलाता। उन्हें लगा कि मैंने भारतीय गायों की दुर्दशा पर लिखने का एक प्रयास किया है। और इस वक्त गाय के सवाल को उठाता है? खास कर हिन्दी के उत्तर आधुनिक किस्म के लेखक । मेरा उपन्यास जैसा भी हो, लेकिन मैंने साहित्य में गौ विमर्श तो शुरू किया। गोयनका जी ने मेरे इस प्रयास पर मनोयोग से लिखा और मेरी भावनाओं को स्वर देते हुए कहा कि इस देश में गौ हत्या पर प्रतिबंध लगना ही चाहिए।


गोयनका जी को पता है कि मेरी पत्रिका भारतीय एवं विश्व साहित्य के अनुवाद को प्राथमिकता देती है। और देश-विदेश में लिखे जा रहे साहित्य को प्रमुखता से प्रकाशित करती है इसीलिये उन्होंने दो वर्ष पहले मुझे फोन करके कहा कि सद्भावना दर्पण को मॉरीशस के लेखक अभिमन्यु अनत पर एक विशेषांक प्रकाशित करना चाहिए। वे पचहत्तर वर्ष के हो रहे हैं गोयनका जी की बात सुनकर मेरी तो खुशी का ठिकाना न रहा। अभिमन्यु अनत से मैं मॉरीशस प्रवास के दौरान मिल चुका था। और बचपन से ही उनकी कहानियां एवं उपन्यास पढ़ने का अवसर मिलता रहा हैमुझे खुशी हुई कि अनत जी की हीरक जयन्ती पर विशेषांक निकालने के लिए उन्होंने मुझे याद किया। गोयनका जी ने मुझे अनत जी की रचनाएँ और उनके अनेक छाया चित्र मुझे भेज दिए। उनके सहयोग से मेरी पत्रिका का अभिमन्यु अनत विशेषांक निकल गया। उसकी कुछ प्रतियां मैंने मॉरीशस भी भिजवा दी। विशेषांक का जब काम चल रहा था, तभी मैंने एक दिन गोयनका जी से बातचीत के दौरान कहा कि आप भी तो पचहत्तर के हो चुके हैं या होने वाले होंगे।मेरी बात सुन कर उन्होंने ठहाका लगाया और कहा-"आपने भी खूब पकड़ा। अभी दो महीने बाद मैं भी पचहत्तर वर्ष का होने जा रहा हूं।"


उनकी बात सुन कर मैंने कहा-"तो फिर एक विशेषांक आप पर भी केंद्रित होगा।"


मेरी बात सुन कर वे संकोच में पड़ गए। मना करने लगे लेकिन मैं जिद पर अड़ गया। आखिर वे झुके और मैंने 'सद्भावना दर्पण' का एक विशेष अंक उन पर केंद्रित किया और ये भला कैसे न होता कि दुनिया भर के लोगों पर कलम चलाने वाले मनीषी पर कोई बात न हो। इस दृष्टि से डॉ. मिथिलेश दीक्षित का गोयनका जी पर केंद्रित ग्रन्थ निकालना अभिनंदनीय कदम है। इस में मेरा लेख न होता तो मुझे बाद में बड़ा पश्चाताप होता। साहित्य की दुनिया में अनेक शातिर लोग छाए हुए हैं। तोड़मरोड़ कर लिखने की कला में पारंगत आलोचक उनके पास हैं। साहित्य में गिराने और उठाने की कला में माहिर कुछ जमूरे भी शातिर माफियाओं के पास हैं। उनसे लड़ते हुए गोयनका जी ने न जाने कितने खतरे उठाए हैं। इसलिए उन पर किसी पत्रिका का विशेषांक निकले, उन पर कोई ग्रन्थ प्रकाशित हो, इससे बढ़ कर कोई सुन्दर बात हो नहीं सकती।


अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध हरदम खड़े रहने वाले गोयनका जी आपातकाल के दौरान जेल में भी गए। उनके रचनात्मक तेवरों के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया, मगर वे झुके नही। जेल से छूटने के बाद भी वे अपना काम करते रहे। संघ से उनका रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। इसलिए तथाथाकथित वामपंथी लेखक उन्हें दक्षिण पंथी कह कर उनको नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं.. लेकिन इससे उन्हें कभी फर्क नहीं पड़ा। वे अपना लेखन करते रहे.. । गोयनका जी की साहित्य की दुनिया में एक सम्मानजनक उपस्थिति हमेशा बनी रही। उनके आलोचक भी उनकी अध्ययनशीलता और अन्वेषी-प्रतिभा का लोहा मानते रहे हैं। भाजपा सरकार जब केंद्र में आयी तो हम लोगों को लग रहा था उन्हें कोई अति महत्पूर्ण पद पर बिठाया जाएगा, लेकिन उनके चाहने वाले निराश नहीं हुए। उन्हें केंद्रीय हिन्दी संस्थान आगरा का उपाध्यक्ष बना दिया गया। गोयनका जी के आने के बाद अनेक लघु पत्रिकाओं को, हाशिये में पड़े लोगों का ध्यान रखा गया। इसके पहले गटबाजी के कारण अनेक साहित्यिक प्रतिभाओं को सम्मान से वंचित रहना पड़ता था, लेकिन इस बार ऐसे लोगो को सम्मानित किया गया जो वर्षो से साहित्य की उपेक्षा का शिकार होते रहे। जबकि इनकी लेखनी लोक मंगल के लिए समर्पित रही। गोयनका जी की महानता और उदारता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि संस्थान से एक-दो ऐसी पत्रिकाओं को भी अनुदान दिया जा रहा है जो वामपंथी सोच वाली हैं। गोयनका जी का मानना है कि ये पत्रिकाएं भले ही एक विशेष विचारधारा सेप्रतिबद्ध हों, मगर वे साहित्य में बौद्धिकविमर्श तो करती ही हैं।


 डॉ. गोयनका जी शतायु हों खूब लिखें और हम सबका मार्गदर्शन करते रहें ये लोग बरगद हैं। छायादार बरगद। और ऐसे बरगद जिसके नीचे साहित्य की नयी पौध भी पनप सकती है। पनप रही है। जबकि कहा जाता है कि बरगद के नीचे कोई पौधा नहीं पनपता। गोयनका रूपी बरगद अपवाद हैं। आप नयी पीढ़ी को प्रोत्साहित करते हैं। उनका मार्गदर्शन करते हैं और अपने कर्म से ही सबको सन्देश देते हैं कि लेखक को कैसा होना चाहिए। हिन्दी में अनेक व्यभिचारी लेखक-आलोचक भरे पड़े हैं। सुरा-सुंदरी और मांसाहार आदि के शौकीन ये लोग साहित्य के उन्नयन की जब बात करते हैं तो हंसी आती है। ऐसे लोगों के कारण स्त्री-विमर्श फूहड़ प्रहसन में तब्दील हुआ। ऐसे खतरनाक लोगों के बीच गोयनका जी जैसे सात्विक लेखकआलोचकों की उपस्थिति आश्वस्त करती है कि जब तक इनके जैसे मुट्ठी भर अच्छे लोग विद्यमान हैं, सामाजिक-साहित्यिक मूल्य कायम रहेंगे।