अभूतपूर्व व्यक्तित्व, दी मास्टर, सुविरव्यात निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर :गोविन्द निहलानी

फिल्म


मेरी एंट्री दिल्ली के एन.एस.डी. से जब बंबई की फिल्मों में हुई, बंबई स्वर्ग था खुली हवा बहती थी, चौड़ी सड़कें, आबादी भी ज्यादा नहीं थी। समुद्र को निहारने का जी करता था। जीवन सुलझा हुआ था। बड़े-बड़े कलाकार लोकल ट्रेन में सफर करते थे। कला की हर क्षेत्र में पूजा होती थी। टैलेंट की खोज जारी रहती थी और लगता था बंबई मानों कला का असली गढ़ था। फिल्में बनती थी, प्यार मोहब्बत परवान चढ़ती थी और बड़े-बड़े फिल्मी लोगों को मिलकर लगता शायद कला ही उनके खून में रची बसी थी। 


बड़े-बड़े साहित्यकारों से मेरी दोस्ती दिल्ली में ही हुई क्योंकि वह लोग साहित्य नाटक अकादमी में अवार्ड लेने आते थे। रजिन्दर सिंह बेदी, अमृता प्रीतम, ख्वाजा अहमद अब्बास वगैरह। वेद राही जी के साथ बम्बई आने पर खूब काम किया। रजिन्दर सिंह वेदी और अब्बास साहब अक्सर कहते, सवि तुम बड़ी ईमानदार और भोली हो, सीधी हो, तुम्हारे चेहरे पर खूब नमक है, बेटा आप दिल्ली लौट जाओ तो मैं कहती सर बम्बई का पानी पिया है, कर्ज तो चुकाना पड़ेगा न सुनकर दोनों खूब हंसते और कहते मरजानी कलम की भी धनी है। उन दिनों फिल्म स्टारों की न वैनिटी का चलन था और न सैल फोन का। प्रिंट मीडिया बहुत सतर्कथा। पचासों रसाले थे मार्केट में। बहुत ताकत थी प्रिंट मीडिया में । लेखन की वजह से सब मीडिया वाले मेरे मित्र थे और मैं उनका बहुत सम्मान करती थी लेकिन जीवन बहुत कठिन था, सुविधायें कम होने के बावजूद हर तरफ प्यार स्नेह का वास था


फिल्में बोलती थीं। हर जगह कलाकारों के काम की चर्चा होती थी स्टार सिस्टम तो तब भी था उनके नाम से फिल्में बनती थीं, बिकती थीं। हाँ एक आध निर्देशक अपने नाम से जाना जाता था जैसे गुरूदत्त या फिर सुनील दत्त, राजकपूर वगैरह क्योंकि वह स्टार भी थे। संगीतकारों के नाम उनके संगीत की वजह से काफी मशहूर थे। दिन रात रेडियो पर उनके गाने बजते लेकिन किसी कैमरामैन उर्फ सिनेमेटोग्राफर का नाम कभी नहीं सना था। मझे गुरुदत्त की फिल्में बहुत भातीं थीं मसलन 'प्यासा' मन में कसक उठती थी कि फिल्म का केमरामैन कौन था। मेरी यह इच्छा वी.के. मूर्ति जो (प्यासा के) कैमरामैन थे। तब पूरी हुई जब मैंने उनका माधुरी पत्रिका के लिए साक्षात्कार लिया और जाना आपने गुरुदत्त की सारी फिल्मों का छायांकन किया था। 'गोविन्द निहलानी' का नाम आर्ट सर्कल में जरूर सुना था लेकिन इन्हें जाना फिल्म 'निशान्त' के निर्माण के दौरान और जब जाना तो मैं इनकी जबरदस्त फैन हो गई और -- जी करता, कहूं - आप जैसा कोई दूजा नहीं।


___ गोविन्द जी अव्वल दर्जे के कैमरामैन और निर्देशक हैं। प्रकाश, ध्वनि, वेशभूषा और उन तमाम चीजों में दक्ष हैं जिसे फिल्म क्राफ्ट कहते हैं। गरज यह कि फिल्म का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसमें आप पारंगत न हों। एक सर्वकुशल व्यक्ति ही सच्ची और खूबसूरत रचना का निर्माण कर सकता है इनकी फिल्में देखिये । 'अर्ध सत्य', 'आक्रोश'। हाँ यह भी जरूरी नहीं कि वह नये दर्शकों को नई युक्तियों और कला की नई बारीकियों का ज्ञान देगा क्योंकि जब तक आप गोविन्द निहलानी को जानेंगे नहीं उनकी उच्चकोटि की फिल्मों का निर्देशन या छायांकन नहीं देखेंगे, आप समझ नहीं सकेंगे सहृदय को बड़ा या पारंगत बनाये बिना उसे परख को उस कोटि पर कैसे ले जाया जा सकता है जहां कला यारचना का वास न हो। इनका कद इनकी कला के जरिए बड़ा बनता गया जैसे सर्जक के लिए हर अक्षर धडकता है वैसे ही गोविन्द जी को फिल्में देखकर दिल की हर धड़कन में स्पन्दन होता है। इन्होंने कैमरा और निर्देशन को वैसे ही छुआ है। इनकी फिल्मों में छोटे से छोटे अभिनेता का आवयिक महत्व है। हां. काम करवाते समय बस एक ही जमला कानों से टकराता है-गिव मी मोर इन्टैनसिटी. यह मैं अपने अनभव से कह रही हं क्योंकि मैंने आपके साथ खब काम किया है। गोविन्द जी एक दयावान महान व्यक्तित्व के भी धनी हैं


किसी व्यक्ति विशेष का व्यक्तित्व या जीवन उन सब बातों से प्रभावित होता है जो उसके संपर्क में था। गोविन्द जी मशहूर हस्ती सिनेमेटोग्राफर स्व. वी.के. मूर्ति जो गुरुदत्त की फिल्मों के कैमरा मैन थे, कभी उनके असिस्टेंट थे। मूर्ति जी पर काम की साधना का जुनून सवार था गोविन्द जी पर भी मूर्ति साहब का काफी असर, प्रभाव दिखाई देता है। सेट पर पूरा समय मानसिक, शारीरिक और अनुशासन, आत्मिक ऊर्जा । अनुशासन फिल्म का अन्तनिर्हित एक अंग है, उसे अलग नहीं किया जा सकता लेकिन दुःख की बात है अनुशासन आज के जवां फिल्मी माहौल से नदारद है। मैंने श्याम बेनेगल की जितनी फिल्में की गोविन्द जी ही कैमरामेन थेजब निर्देशक बने, मेरे मन में इनके प्रति श्रद्धा और सम्मान बढ़ता गया। आप किसी भी तरह फिल्मी आदमी लगते ही नहीं। सोचती पता नहीं यह आदमी किस मिट्टी का बना है, न किसी की बुराई, न क्रोध आता है। न किसी से झगड़ा, हर हाल में शांत रहता है। लगता है कहीं से साधना का तप करके फिल्म इंडस्ट्री में एंट्री ली होगी, कौन जाने। एक श्रेष्ठ व्यक्ति, बेहद संजीदा, विश्वास से परिपूर्ण चुम्बकीय व्यक्तित्व के धनी स्नेह सौहार्द । किताबें पढ़ने और लिखने का शौक। ज्ञान, दिग्दर्शिता सब कुछ सीखने और सिखाने की विचारधारा हमेशा इनके साथ रही। आपने इस विचारधारा को आगे बढ़ाया और अपने इन्हीं सब गुणों को अपने असिस्टेंट शिष्यों को भी दी। असंभव और अविश्वसनीय शब्द इनके शब्दकोश में नहीं हैं, सर्वश्रेष्ठ काम में चाहे वह निर्देशन हो या कैमरा वर्क, निष्णात रंगकर्मियों के आदर्श पुरुष हैं । तराशी हुई हिन्दी और हिन्दुस्तानी निर्धारित उच्चारण में बोलते हैं गोविन्द जी। आपने अपनी फिल्मों के जरिए हिन्दी के राष्ट्रीय स्वरूप का निरूपण कियाइनकी कला के सारे विपर्यय और विलक्षण देखकर लगता है प्रतिभा कला या फिल्म कला और अन्य कलाओं और क्षेत्रों में सहज ही परिवर्तित हो जाती है। इन्होंने अपने उपयोगों का निर्देश का रंगकर्मियों और कलाकारों को अखट प्रयोगों की प्रेरणा देते हए उनकी संभावना का क्षितिज चौडा किया। फिल्म क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाते हुए अपनी विश्व दृष्टि का विकास किया।


गोविन्द जी ने पचासों अवार्ड देश और विदेश से जीते और आपके शिष्यों ने भी अपने गुरू गोविन्द जी की ही तरह बहुतेरे अवॉर्ड पाये और गुरू का नाम रौशन किया। गोविन्द जी की बड़े सितारों वाली फिल्म 'देव' नहीं चली थी लेकिन आप निराश नहीं हुए। समय का तकाजा था। कुछ न कुछ आये दिन रचा जाता है चाहे वह लेखन का ही क्षेत्र क्यों न हो। कभी किसी पुस्तक का विमोचन करते हैं या फिल्मी अवार्ड फंक्शन में बतौर अतिथि शरीक होते हैं।


देश-विदेश में फिल्मी महोत्सवों के जज बनते हैं या विदेश में किसी बड़े प्रोग्राम में लेक्चर देते हैं। मतलब गोविन्द जी अभी भी कला केसब क्राफ्ट से जुड़े हैं। कभी मिले तो कहते हैं-कैसी हो सविता, लेकिन मेरी एक हसरत है, चाहती हूं आज की युवा पीढ़ी के लिए गोविन्द जी कोई छोटी सी यादगार फिल्म बनायें जहां मक्सद सिर्फ पैसा कमाना न हो बल्कि एक-एक संवाद जवां दर्शक को झकझोर कर रख देदेखो वह समय कब आता है लेकिन मुझे यकीन है मेरी बात गोविन्द जी के दिल तक जरूर पहुंचेगी, आमीन।