समकालीन हिंदी गजल के बढ़ते आयाम

आलेख


डॉ भावना


गजल दरअसल अरबी भाषा का स्त्रीलिंग शब्द है, जिसका अर्थ होता है सूत काटना। फारसी, उर्दू और हिंदी में गजल का अर्थ है प्रेमिका से बातचीत । गजल सर्वप्रथम फारसी में ही एक विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। उर्दू गजल व समकालीन हिंदी गजल की उत्पत्ति के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक आधार एवं कारण एक दूसरे से भिन्न हैं। एक ओर उर्दू गजल का जन्म जहां राजदरबारोंनर्तकियों के कोठे, मंदिरों एवं पूजाघरों में देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के लिए हुआ है। वहीं, समकालीन हिंदी गजल का जन्म असंतोष, असहमति, आक्रोश और प्रतिरोध की सार्थक अभिव्यक्ति के लिए हुआ है। आज की हिंदी गजलें बेतहाशा बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, मुफलिसी, बदहाली और लाखों किसानों की आत्महत्या जैसी संजीदा मसलों से रूबरू है। आज की गजल की जमीन बेहद तल्ख है। अपने समय की चुनौती को चुस्त छंद और लय में संपूर्ण जटिलता के साथ अभिव्यक्त करने की कोशिश में लगातार अग्रसर है। सच्चा रचनाकार वहीं है, जो समतल जमीन पर अपनी रचना न करे, अपितु अपने लिए नयी जमीन तोड़े, गोड़े तब फसल उगाये। जब यथार्थ बदलता है तो उसकी अभिव्यक्ति के तरीके भी बदल जाते । आज की हिंदी गजल यथार्थवादी जमीन पर मजबूती से खड़ी दिखाई देती है।


दुष्यंत कुमार एक युग का नाम है, जहां से समकालीन हिंदी गजल अपनी वास्तविक दिशा और गति पाती है। भारतेंदु, निराला, शमशेर, त्रिलोचन व जानकीवल्लभ शास्त्री जैसे महान कवियों का स्पर्श पाकर भी जो हिंदी गजल जनता के बीच अपनी पहचान नहीं बना सकी, उसे दुष्यंत ने कलात्मक तेवर से एक अलग रूप दियादुष्यंत की गजलें वैचारिकता से पूर्ण आर्थिक, राजनीतिक जटिल प्रश्नों से संपन्न थीदुष्यंत ने तमाम रुढ़ियों को तोड़ते हुए समकालीन कविता से संश्लिष्ट अनुभवों को गजल के तौर पर पाठकों को पेश किया। प्रसिद्ध आलोचक नरेश जी ने दुष्यंत की इन्हीं खूबियों को देखते हुए कहा, '1970 के आसपास जब दुष्यंत ने गजल के माध्यम से क्रांतिकारी विचारों की अभिव्यक्ति की तो नयी कविता में छंद की धरती पर जैसे अषाढ़ का बादल बरसने लगा।'


शासक वर्ग, सत्ताधारी, शोषक शक्तियों को ललकारते हुए दुष्यंत कहते हैं,


'ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा/मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा'


दुष्यंत की शैली व्यंग्यात्मक और संबोधनात्मक दोनों रही है -


'भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ/आज तक दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ'।


समकालीन हिंदी गजल किसी भी प्रकार के बनावटीपन, अलंकारिता और चमत्कार से संयम बरतते हुए अपने पीछे की संपूर्ण सांस्कृतिक चेतना को आत्मसात कर आधुनिक जीवन-मूल्यों की सही पहचान व परख के साथ शिल्प और संवेदना की जमीन, बहुआयामी भंगिमाओं की खोज में प्रयत्नशील है। समकालीनता का अर्थ 'एक समय में' या 'एक युग में' है। संकटों की परवाह किये बगैर समय के क्रूर यथार्थ से अनेक संबंध स्थापित कर समय को चुनौती देने का साहस समकालीनता कहलाती है। दरअसल समकालीनता समय-सापेक्षता में मूल्य-सापेक्षता की मांग करती है। अगर एक वाक्य में इसे कहं तो जो पहले बीत चका है, उस इतिहास बोध को और जो घटने की संभावना हो, उस भविष्य-बोध को अपने वर्तमान में सम्मिलित करके पूरे युग के रूप में उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति करना ही समकालीनता है।


____ 1. समकालीन गजल में सम-सामयिक जीवन और युग-बोध : अदम गोंडवी कहते हैं- 'तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है/ मगर ये आंकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है/ तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे जाम सोने के/यहां जुम्मन के घर में आज फूटी रकाबी है' अनिरुद्ध सिन्हा कहते हैं- 'जब भी चेहरे उदासियां ओढ़ एक भोली हंसी हंसा करना/दीप बुझने का दर्द क्या जाने जिनकी फितरत है बस दवा करना' जहीर कुरैशी कहते हैं, 'न चाहते हुए लड़ना है युद्ध जीवन का, हरेक व्यक्ति में कायर व वीर शामिल है' गजलों में सम-सामयिक जीवन व युग बोध को कहने की हमारे यहां लंबी परंपरा रही है। आप किसी भी गजलकार की रचनाओं को उठा कर देखें, उनकी रचनाओं में सम-सामयिक जीवन मिलेगा।


2. प्रतिरोध की संस्कृति : इस संदर्भ में भी गजलकारों ने खुलकर अपनी बात कही है। दुष्यंत कहते हैं, 'सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं/मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए' तो अदम गोंडवी कहते हैं, 'जिसकी गर्मी से महकते हैं बगावत के गुलाब/ आपके सीने में महफूज चिंगारी रहे' कुंवर बेचैन कहते हैं, 'चरखे से बर्फ काट रहे हैं यहां के लोग/तू इंकलाब कात जरा और बात कर' जहीर कुरैशी यूं बयां करते हैं'चिंतन ने कोई गीत लिखा या गजल कही/जन्मे हैं अपने आप ही दोहे कबीर के' अनिरुद्ध सिन्हा कहते हैं, 'नहीं पहचान हो पायी पड़ी वह लाश किसकी थी/लहू से जो बने धब्बे दिखाओ हौसला होगा।


3. व्यवस्था विरोध का स्वर: आज शासन और व्यवस्था पूंजीपतियों, व्यवसायियों और सेठ-साहूकारों, नेताओं के हाथों का खिलौना बन चुका है। ऐसे में भला गजलकार चुप कैसे रहे। गजलकार जनता को उसके अधिकार दिलाने के लिए व्यवस्था प्रति गहरा आक्रोश जताता है। शेर देखें, 'उसे यह अहसास हो चुका है हमारी चुप में कोई जलजला है/ उसूलों से नहीं कोई जिसको मतलब उसी के साथ सबका फैसला है'।


बल्ली सिंह चीमा कहते हैं, 'हर तरफ काला ही मासूम दिखाई देगा/ तुम भले हो या बुरे कौन सफाई देगा/इस व्यवस्था के खतरनाक मशीनें-पुर्जे जिसको रौंदेगे वही शख्स दुहाई देगा' इसी क्रम में मुझे अपनी गजल का शेर याद आ रहा है, 'ये गुस्सा फूट लावा हो रहा है, उन्हें लगता दिखावा हो रहा है, प्रलोभन है कि मांगें पूरी होगी/ मगर यह तो भुलावा हो रहा है/ वो पानी में दिखाने चांद लाया/बड़ा अच्छा छलावा हो रहा है' एक और, 'जब जिसे चाहो उसे सत्ता के मद में रौंद दो क्यूं भला होती नहीं है हुक्मरानी की वजह' । सुप्रसिद्ध छंदशास्त्री दरवेश भारती जी का व्यवस्था के विरोध के संदर्भ ये शेर देखें, ‘ली थी शपथ जो मुल्क की खिदमत के वास्ते/क्या कर रहा है अपनी अना को जगा के देख'।


एहतराम इस्लाम कहते हैं, 'धन की राहें ढूंढ ली,सत्ता की गलियां ढूंढ ली/डूब मरने के लिए लोगों ने नदियां ढूंढ ली'।


___4. सामाजिक समस्याएं : आज के इस मशीनी युग में जहां एक ओर मनुष्य का जीवन सुविधापूर्ण हुआ है, वहीं दूसरी ओर बौद्धिक व सामाजिक स्तर पर विभिन्न समस्याओं को जन्म दिया है। महत्वपूर्ण गजलकार देवेंद्र आर्य का यह शेर देखें, कुछ खास ही चेहरे पर बरसती रही रौनक/ इस देश के मनहूस का चेहरा नहीं बदला/ बदला तो कई बार किताबों का मौसम, मजदूर के माथे पर पसीना नहीं बदला'। वहीं विज्ञानव्रत कहते हैं, 'फिर वही बारिश का मौसम खस्ता हालत फिर छप्पर की/ रोज सबेरे लिख लेता है चेहरे पर दुनिया बाहर की'हमारे सामाजिक परिवेश की कई समस्याएं गजल में व्यक्त हुई हैं। गजलकारों ने उसे अपनी दृष्टि से देख कर गजलें कही हैं। ऐसा कोई भी पहलू नहीं है, जिस पर उनकी नजरें नहीं गई हों।


5. समकालीन गजल में महानगर : समकालीन गजल न केवल गांव की समस्याओं की जड़ तक जाती है, अपितु महानगरीय जीवन की दुश्वारियां भी व्यक्त करने में पीछे नहीं रहती। इसकी झलक ज्ञान प्रकाश विवेक के शेरों में इस तरह देखी जा सकती है- 'ये तेरा शहर गले सबको लगा लेता है पर किसी शख्स का अपना नहीं होने देता' या कोई समझता ही नहीं दोस्त बेबसी मेरी/ महानगर ने चुरा ली है जिंदगी मेरी' या 'राजधानी में अगर ले लूं तेरी रंगीनियां/ प्रार्थना करती हुई इस सादगी का क्या करूं' 


6. समकालीन गजल में राजनीतिक चेतना: समकालीन हिंदी गजल में राजनीतिक चेतना मुख्य रूप से दुष्यंत के समय आयी है। आपातकाल के समय किसी में साहस नहीं था कि परिस्थितियों को चुनौती दे सके। ऐसे विद्रूप समय में तमाम दबावों के बावजूद उन्होंने गजल से जो क्रांतिकारी चेतना प्रवाहित कर दी, वह हिंदी गजल की निधि बन गयी। दुष्यंत के बाद अदम गोंडवी, बल्ली सिंह चीमा, जहीर कुरैशी लेकर राजेश रेड्डी तक ने खुद शेर कहे। अदम जब कहते हैं, 'काजू भूने प्लेट में व्हिस्की ग्लास में उतरा है रामराज्य विधायक निवास में जनता के पास एक ही चारा बगावत/ यह कह रहा हूं मैं होशो-हवास में' वहीं जहीर कुरैशी कहते हैं, 'संविधानों की जो रक्षा नहीं कर पायी वो मूकदर्शक बनी सरकार से डर लगता है' बल्ली सिंह चीमा के इस धार को देखें'उल्लू को सौंप दी गर बागों की देखभाल/फिर रात ही करेगी उजालों की देखभाल/क्या बात है हमारे इस लोकतंत्र की/चीतों को करनी पड़ गयी हिरणों की देखभाल' एक शेर और, 'सियासत और संसद में अजूबे रोज होते हैं/ जरा-सा डांट दे गूंगा तो बहरा बैठ जाता है' राम मेश्राम का यह शेर देखें - 'लोक बेचे, तंत्र बेचे, बेच खाया संविधान/वाह दलदल के मसीहा यह तेरी सरकार है।


7. समकालीन हिंदी गजल में धर्म, सांप्रदायिकता और आतंकवाद : धर्म की आड़ में आज सांप्रदायिकता और जातिवाद का घिनौना खेल पूरे विश्व में खेला जा रहा है। धीरे-धीरे सांप्रदायिक रंगों और धार्मिक उन्माद के सच से जनता रूबरू हो रही है। आज जनता ये बखूबी समझ गयी है कि धर्म के नफरत व टकराव के बीज डाल कर हवाओं को जहरीला बनाने का हर संभव प्रयास किया जा रहा है। ये काम राजनीतिक दल, पाखंडी व मुल्ला के वेश में ये लोग कर रहे हैं। अत:गजलकार अपने दायित्वों का पालन कर जनता को जागृत करने का प्रयास कर रहे हैं। इसी क्रम में अदम गोंडवी का शेर देखें, 'गलतियां बाबर की थी जुम्मन का घर फिर क्यों जले/ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत देखिये/छेड़िए इक जंग मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ/ दोस्तों मेरे मजहबी नगमात को मत छेड़िये।


गोपाल दास नीरज कहते हैं, 'अब तो मजहब कोई ऐसा चलाया जाये जिसमें इन्सान को इन्सान बनाया जाये/ जिसकी खुशबू में महक जाये पड़ोसी का भी घर/ फूल इस किस्म का हर सिम्त लगाया जाये' राम मेश्राम कहते हैं, 'आग भड़की खून पानी हो गया/ खौफ में दिल ब्रह्मज्ञानी हो गया।


ओमप्रकाश यति के ये शेर भी देंखे, 'निराशा जब भी घेरे, उसमें मत डूबो निकल आओ/ वहीं उम्मीद की कोई किरण भी पा ही जाओगे। वहीं हरेराम समीप जी का शेर बहुत ही महत्वपूर्ण है -रात होते ही हमेशा सुबह का पीछा करूँ/रोशनी की खोज में चलता रहूं,चलता रहूं या जंगल में एक चिड़िया बची है तो बहुत है/वो चीख के खामोशियां तो तोड़ रही है।


8. नारी जीवन का यथार्थ : साठोत्तरी साहित्य में युगों से उपेक्षित स्त्री-जीवन पर दृष्टि तो डाली, लेकिन वहां भी उसे महिमामंडित कर देवी का दर्जा दे दिया गयासत्तर के बाद स्त्री के संघर्ष को सही मायने में अर्थ मिला और सभी गजलकार ने नारी की परंपरागत शृंगारिक छवियों के खोज से अलग उसके श्रमजीवी सौंदर्य की तलाश की। आपके हाथों की मेंहदी तो नुमाइश के लिए हमने चूमे हाथ वे आये थे गोबर सान कर' बल्ली सिंह चीमा कहते हैं, 'ये अभाव से उलझती काम करती औरतें/ अब अंधेरों में मशाले बन जलेंगी औरतें' डॉ मधु खर्राटे के आलोचना के आयाम पुस्तक के अनुसार बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में महिला लेखन अत्यंत तीव्रता से उभर कर सामने आया। अदम गोंडवी ने कहा है, 'औरत तुम्हारे पांव की जूती की तरह है/ जब बोरियत महसूस हो घर से निकाल दो' । जहीर कुरैशी कहते हैं, 'घुघरूओं को बांध लेने की विवशता आ गयी/ घुघरूओं के मौन को झंकार करना है अभी' । नारी जीवन के यथार्थ को व्यक्त करते हुए अशोक अंजुम कहते हैं-ये लड़की भी क्या शै बनाई है या रब/जनम से मरण तक ये घर ढूंढती है । वहीं वशिष्ठ अनूप का ये शेर देंखे -कहीं तलाक कहीं अग्नि परीक्षाएं हैं/आज भी इन्द्र है,गौतम है अहिल्यायें हैं।


9. दलित विमर्शः दलित साहित्य का मुख्य उद्देश्य समाज में दबे-कुचले लोगों को उनकी पहचान देना है। समकालीन हिंदी गजल में दलित विमर्श भी मुख्य स्वर में शामिल है। जहीर कुरैशी कहते हैं, 'अपने कद की लड़ाई लड़ी एक पर्वत से राई लड़ी/या मैं आम आदमी हूं तुम्हारा ही आदमी/तुम काश देख पाते मेरे दिल को चीर के' दलित विमर्श का एक बेहतरीन शेर देखिए। बल्ली सिंह चीमा कहते हैं, 'हमारा नरक सा जीवन बुरा यूं भी है और यूं भी/मरे भूखे, मरे लड़ कर सजा यूं भी है और यूं भी'। वहीं हरेराम समीप का ये शेर भी देंखे-खो गई है रात की तारीकियों में जिन्दगी/खोजने इसको न जाने कब उजाला जायेगा।


10. समकालीन हिंदी गजल में बचपन : कहा जाता है कि चाइल्ड इज द फादर ऑफ द न आज के बच्चे ही कल के भविष्य होते हैं। इनके भविष्य को संजाना-संवारना हमारा ही काम है। आज न्यूक्लियर फैमिली होने से बच्चे बहुत अकेले हो गये हैं। जिससे उनका सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है। ये टीवी की दुनिया के बच्चे हैं। दूसरी तरफ गरीबी की मार झेलते बच्चे हैं, जो अपने पेट पालने के लिए बाल मजदूरी करने पर विवश हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में गजलकार भला कैसे चुप रह सकता है। जहीर कुरैशी शहरी बचपन को दर्शाते हए लिखते हैं. 'पैर छना तो याद क्या रखते/शहरी बच्चे प्रणाम भूल गये' वहीं बच्चों की दुर्दशा पर उन्होंने लिखा है, 'वो भीख मांगता ही नहीं था इसीलिए उस फूल जैसे बच्चों को अंधा किया। वशिष्ठ अनूप ने भी क्या खूब लिखा है -होटलों की प्लेट में तकदीर अपनी खोजता/बेवजह पिटता हुआ मनहूस-सा बचपन मिला। वहीं हरेराम समीप जी असुरक्षित बचपन पर अपनी चिंता जाहिर करते हुए बहुत माकूल शेर कहा है-जीवन की नई पौध सुरक्षा में नहीं है, इस बात की चर्चा कहीं दुनिया में नहीं है। वहीं अशोक अंजुम के ये शेर देंखेमाँओं की गोदियों में कुछ फूल-से खिले हैं/फुटपाथ पर हैं रोते कुछ जार-जार बच्चे।


11. समकालीन हिंदी गजल में प्रकृति : समकालीन हिंदी गजल में जहां वर्तमान वैज्ञानिक और यांत्रिक युग के मूल्यों, विचारों, भावों को नयी दृष्टि से आत्मसात करना शुरू किया है। वहीं इसने प्रकृति को भी नये अर्थ, नयी परिभाषाएं, नयी भाव-भंगिमाएं और नये कलेवर में रुपायित करना आरंभ कर दिया है। दुष्यंत के शेरों में प्रकृति के अद्भुत चित्रण मिलते हैं, 'कहीं पर धूप की चादर बिछा कर बैठ गये/ कहीं पर शाम सिरहाने लगा कर बैठ गये, यह सोचकर की दरख्तों में छांव होती है। यहां बबूल के साये में आकर बैठ गये' या तूने यह हरशृंगार हिला कर बुरा किया, पांव की हर जमीन को फलों से ढक दिया' या 'तुमको निहारता हं सुबह से ऋतंभरा/ अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा' प्रकृति के चित्रण में गजलकार दिनेश प्रभात कहते हैं, 'नदियां नाले पुर झमाझम बारिश में साजन तुम क्यूं दूर झमाझम बारिश में मौसम पानीदार हवाएं बर्फीली/दिल है पर तंदूर झमाझम बारिश में'।


12. समकालीन हिंदी गजल में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण : कुंवर बेचैन कहते हैं, 'हमने तो इतना देखा है, वो भी किसी जमाने की सारी घड़ियां चल पड़ती है, मन की सूई घुमाने से'। बहुत सारी गजलों में गजलकार ने समकालीन यथार्थ का मंजर उपस्थित किया है। वहां गजलें रिवायति-रूमानियत से हटकर विसंगतियों को उघाड़ने में कामयाब हई हैं।'आईने में खरोचें न दो इस कदर/खद को अपना कयाफा न आये नजर इन पंक्तियों में राजनीतिक उठापटक तथा पैंतरेबाजी की चिंता नहीं है। इसे उलझाऊ बना कर पेश करने की कोशिश नहींशेर देखें, 'भेदे जो बड़े लक्ष्य को वो तीर कहां है/ वो आईना है किन्तु वो तस्वीर कहां है/ देखा जरूर था कभी मैंने भी एक ख्वाब/ देखा नहीं उस ख्वाब की ताबीर कहां है।


13. आशा और निराशा : अनिरुद्ध सिन्हा कहते हैं, 'उम्र के किस्से में थोड़ी-सी चुभन बाकी रहे, दिल धड़कने के लिए यह बांकपन बाकी रहे' वहीं दिनेश प्रभात कहते हैं, 'चल पड़े इक बार तो लंबा सफर मत देखना/पेड़ की हर छांव में अपना बशर मत देखना'। आशा और निराशा गजलों में शुरू से प्रतिबिंबित होती रही है। गजलकार के मनोभावों को हम उनके अश्आर में देखते हैं। दरवेश भारती का ये शेर देखें, 'नफरत का जहर फैल रहा है यूं हर तरफ/पल भर सुकू मिले कोई मौका नहीं रहा' और 'जब से किसी से दर्द का रिश्ता नहीं रहा/जीना हमारा तब से ही जीना नहीं रहा', हालांकि आशावादी गजलकारों की संख्या अधिक है। इस कड़ी में कई गजलकारों का नाम लिया जा सकता है।


14 मूल्यों में परिवर्तन : परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। बदलते समय में मूल्यों में होने वाले परिवर्तन की छाप गजलों पर स्पष्टतः देखी जा सकती विज्ञानव्रत का यह शेर द्रष्टव्य है, 'सारा ध्यान खजाने पर है, उसका तीर निशाने पर है' अब इस घर के बंटवारे में झगड़ा बस तहखाने पर है' मूल्यों में जैसे-जैसे बदलाव आता गया उसकी बानगी गजल में भी देखने को मिलती रही। हमारा मूल्य समय सापेक्ष रहा समय के बदलते दौर से गजलकार अलग नहीं हुआ। हालांकि बदलते समय इंसानियत को बरकरार नहीं रखने की टीस भी गजलों में दिखती रही है। इसी क्रम में अनिरूद्ध सिन्हा का ये शेर भी बड़ा महत्वपूर्ण है-नये लफ्जों के लहंगे में सियासत जब उतरती है/सहम जाती है हर ख्वाहिश शराफत घुटके मरती है।


15. मीडिया की भूमिका : मीडिया को लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ माना जाता है। आज विश्व भर में मीडिया ऐसा शक्तिशाली माध्यम है, जो मनुष्य के विकास में प्रभावी भूमिका निभा रहा है। यह अलग बात है कि कभी-कभी मीडिया की नकारात्मक भूमिका भी देखने को मिलती है। बालस्वरूप राही कहते हैं, जिसको पढ़ कर ये लगे लोग अभी जिंदा है कोई तो ऐसी खबर लाओ कभी अखबारों' मुझे एक अपना शेर भी याद आ रहा है : 'रुठे सागर को मनाने का हुनर आता है/चांद को ख्वाब दिखाने का हुनर आता है/ वो जो एक पल में तिल का ताड़ बना देते हैं, उनको अखबार चलाने का हुनर आता है वहीं अशोक अंजुम कहते हैं-कहाँ तक डरोगे,कहाँ तक बचोगे/ ये दुनिया है दुनिया,खबर ढूंढती है।


___ 16. उत्तर आधुनिकता, बाजारवाद और भूमंडलीकरणः दरअसल हिन्दी के दहलीज पे गजल ने जब पांव रखा तो हिन्दी कविता में प्रेम, यथार्थ, विरोध के मिले जुले स्वर घूमने लगे। हिन्दी गजल में प्रयोग के तौर पर विभिन्न विषयों का संचयन होने लगा, जिनमें उत्तर आधुनिकता, बाजारवाद और भूमंडलीकरण जैसे मुद्दे प्रमुखता से आने लगेअनिरुद्ध सिन्हा का ये शेर देखें- 'पत्थर के तेरे शहर में रुकते भी हम कहांवो धूप थी कि पेड़ का साया न मिल सका' एक और शेर उनका बाजारवाद पर गहरा प्रहार करता हुआ देखें- 'वफा, खुलूस, मुहब्बत ये खो गये हैं कहां/तलाश आज भी करते हैं हम दिया लेकर' दुष्यंत कहते हैं - 'मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं /हर गजल अब सल्तनत के नाम इक बयान है' तो जहीर कुरैशी कहते हैं- 'आज कल जब भी दो देश आकर मिले/सन्धि होने लगी मुक्त व्यापार की' या फिर 'खेल है सांप-सीढ़ी का बाजार में/ हुक्म पूंजी का चलता है व्यापार में'। वहीं हरेराम समीप जी का ये शेर देंखे-कर्जे पे उठा लाया टी वी मैं घर लेकिन/मुश्किल है कि अब मुन्ना चीजों पे मचलता है। वशिष्ठ अनूप का ये शेर देंखे-एक ऐसे दौर में जब नींद बहुत मुश्किल है/अजब शख्स है ख्वाबों की बात करता है।


गजलों के विभिन्न आयाम देखने पर पता चलता है कि गजलकारों ने जीवन व जगत के तमाम बिंदुओं पर अपनी दृष्टि डाली है। व्यक्ति से जुड़ी ऐसी कोई समस्या नहीं, जिस पर गजलें नहीं कही गयी हो। समय व परिवेश के अनुसार गजलकारों की सूक्ष्म दृष्टि समस्याओं की पड़ताल करती रही है। उनकी पीड़ा, उनके सपने व उनकी सोच को शब्दों की संवेदना मिलती रही है। समाज की कई विद्रूपताएं भी हम इन गजलों में व्यक्त होते देख सकते हैं। दुष्यंत के जमाने से लेकर आज के गजलकारों ने समय की अवधि का इतिहास लिख दिया है। एक ही विषय पर सैकड़ों शेर मिल जाते हैं। अंतर सिर्फ कहन के अंदाज का होता है। गजलें हमारी धरोहर हैं। एक तरह से कहा जाये तो यह हमारी जीवन संवेदना का खुला बयान है।