समकालीन गजल : आज के समय की धड़कन

आलेख


हृदयेश मयंक


हिन्दी, उर्दू अदब में कविता की जितनी भी शक्लें हैं, उनमें गजल सबसे नाजुक और सबसे छुई-मुई सी है। यह एक ऐसी विधा है जो बिना साज-शृंगार के मन को नहीं भाती। शायद इसीलिए हर दौर के शायर अपने-अपने दौर की बेहतर भाषा और कशिश को अपने लफ्जों में पिरोकर गजल की रूह को सजाते-संवारते रहे हैं। पर यदि पीछे मुड़कर देखा जाये तो कुछ ऐसे हैं जिन्होंने, गजल के नाजुक मिजाज और इसकी रूह की तह में जाकर इसे पहचान पाये। जिन्होंने जाना, जानने की कोशिश की वे, गजल के करीबी होते गये। जो सबसे करीब हुआ वहीं गालिब मीर बन पाया वरना दुनिया में सुखवरों की कमी कभी नहीं थी। आज भी गजल उर्दू अदब में उसी सम्मान व आदर से एक अहम हिस्सा बनी हुई है। अब तो उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं में ही नहीं वरन् भारत की अनेक आंचलिक भाषाओं में भी यह लिखी व पढ़ी जाने लगी है। आज जब हम गजल की बात करते हैं तब मात्र उर्दू या हिन्दी की गजल कहने से काम नहीं चलेगा। गजल अब भारत की अनेक जुबानों, बोलियों की सिर-मौर बन चुकी है। गजल और गजलगों शायरों की व्यापक दुनिया की बात करें तो गालिब का यह शेर कितना सटीक बैठता है कि आज-


'हम वहां हैं जहां से हमको भी


कुछ हमारी खबर नहीं आती।'


यह तो गजल की व्यापकता की बात हुई। गजल अपने बुनियादी दिनों से हीसमाज की धड़कनों की अभिव्यक्ति बन चुकी थी। यह हालात को बयान करने की इतनी खूबसूरत व पुरजोर विधा थी कि लोगों के दिलों को बेध जाती थी। इसके एक एक लफ्ज एक-एक शेर लोगों के दिलों दिमाग पर छा जाते थे। कहा यह जाता है कि कविता दुःख और करुणा के आवेग में उपजी प्रतिक्रिया से पैदा होती है और धीरे-धीरे बारीकियों के रास्ते शायर जनता की रूह का हिस्सा बन जाता है। सूर, तुलसी, मीर गालिब की हजारों उक्तियां आज भी जनता की जुबान पर हैं। आज भी जब हम कोई अच्छा शेर सुनते या पढ़ते हैं तो वाह! वाह! कम आह! ज्यादा निकलती है। यह जनता की आह! और तकलीफों का दौर है। जाहिर है कि इस दौर की शायरी इसी आह, चीख और सिसकारियों की बुनियाद पर टिकी है। हर ओर मातमी शोर है, एक अजीब सन्नाटा है, एक अफरातफरी है। एक दूसरे को रौंद कर आगे बढ़ जाने की अन्तहीन रेस है।


साहित्य में भी बड़ी संख्या में कवि शायर इसी रेस की अन्धी दौड़ में शामिल हैं। ढेर सारे लोग तो ऐसे भी हैं जो 'मतला लिया इधर से मक्ता लिया उधर से' वाली परम्परा के हैं। गजलों का चयन जोर पकड़ा तो हजारों गजलगो ठीक उसी तरह पैदा हो गये जैसे छूत के रोग की तरह हास्य और व्यंग के कवि पैदा हो गये थे।


__ पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने दुष्यंत की परम्परा का निर्वाह करते हुए जब कभी ऐसा दौर आया जब तकलीफ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती थी और उसमें फंस कर गमें जाना और गमें दौरा तक एक हो गये तब उन्होंने जिगर के टुकड़े की तरह शेर निकाले और लोगों के दिलों दिमाग में चढ़ाने में सफल हुए। वैसे तो हर कवि, शायर अपने व समाज के बीच उभरने वाले रिश्तों के द्वन्द्व को ही वाणी देता है। पर जिनके पास सलीका और हट कर कहने का कोई नया तरीका होता है उसकी शिनाख्त बनती है।


साहित्य के सरोकारों पर वह भी गजल के बहाने कछ टिप्पणी का आदेश भाई राम कुमार कृषक जी ने दिया था। एक पत्रिका के संपादक होने के नाते कविताओं, गीत, गजलों (जो बहु संख्यक होती हैं) में से कुछ का चयन करना पड़ता है। यह वाकई कठिन काम होता है जिसे करना ही पड़ता है। वर्गीय सोच का पक्षधर होने की वजह से उन रचनाकारों पर विशेष ध्यान जाता है जो तनिक हटकर कहने की कोशिश करते हैं। गजल के सारे शेर उत्कृष्ठ ही हों ऐसा किसी भी शायर के लिए संभव नहीं होता। पर कुछ अपवाद तो सभी विधाओं में हैं ही। मुंबई के चर्चित शायर हस्तीमल हस्ती आजादी के बाद के दौर पर एक शेर कहते हैं तो दिल को छू जाता है-


'सरहद पे जो कटते तो कोई गम नहीं होता


है गम तो ये सर घर की लड़ाई में कटे थे।'


जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय जैसे कई विभाजनों में बंटे भारतीय समाज पर बहुत सटीक टिप्पणी दिल के करीब तक पहुंचती है। अग्निवेष शुक्ल का एक शेर मुझे खूब भाया था-


'झगड़ा, प्यार, आंसू, मुस्कानें, खुशियां और गम रहते हैं


एक साथ ही मेरे घर में कितने मौसम रहते हैं'


मुंबई के ही बहुत लोकप्रिय शायर राजेश रेड्डी, का एक शेर ही आज के हालात का मार्मिक चित्र उकेर देता है


"मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा


बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है।'


राकेश शर्मा अपने एक शेर में कहते हैं-


"सोचो, गम मसीह, कातिल हो जाये


हत्यारों की टोली में शामिल हो जाये'


मुंबई के मुस्त हसन अज्म कहते हैं -


'एक सायबां है धूप का सर पे तो क्या हुआ


कम है किसी के वास्ते साया हुआ हूं मैं'


या तकलीफों की प्रस्तुति वे अन्यन्त ही रुमानी ढंग से करते हैं-


'मैं तेरे शहर में रहता हूं परेशां अक्सर


तेरे रूखसार पे बिखरी हुई जुल्फों की तरह'


लक्ष्मन भी मुंबई में रहते हुए पूरी दुनिया को ताईद करते हैं-


'हो उठेगा वक्त भारी याद रखना


याद आयेगी हमारी याद रखना


आज पानी दाम पर बिकने लगा है


कल हवाओं की है बारी याद रखना


शायरी तो दर्द का तन्हा सफर है


यह नहीं दूकानदारी याद रखना


आंख में अंटका हुआ यह अश्क है जो


कह न जाये बात सारी याद रखना।'


एक जमाने में मुंबई के उर्दू अदब के बड़े-बड़े, नामचीन शायर रहा करते थे। आज भी एक नई पौध बहुत ही अच्छा लिख रही है।


सैयद रियाज रहीम उसी पौध के एक अच्छे शायर हैं वे आज के माहौल पर और साम्राज्यवादी साजिशों पर कहते हैं-


दुश्मन है अपना बनकर मिलता है


दल दल है रस्ता बन कर मिलता है


रूप बदलते रहना उसकी फितरत है


पीतल है सोना बनकर मिलता है।'


साहित्य का काम अपने समय में एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए नई नई सोच, नये-नये सपने दिखाते रहने का है। दबे कुचले व बेसहारों की आवाज बनकर सत्ता व्यवस्था के परकोटों से टकराते रहने का है। आज देश भर में कही जाने वाली गजलें अपने इस कर्तव्य का बखूबी निर्वहन कर रही हैं। उम्र के 92वें पायदान पर खडे प्रो. नन्दलाल पाठक हिन्दी की गजलों में हिन्दी की मात्राओं और छन्दों के कायल रहे हैं वे कहते हैं-


'जो जमीनी हो वह कहानी दो


फिर भले स्वप्न आसमानी दो


यह जो सदियों से रुका है पानी


दे सको तो इसे रवानी दो।'


इसी बात को दिल्ली के उस्ताद शायर दरवेश भारती कुछ इस तरह कहते हैं-


'हम जिन्दगी की राह खड़े देखते रहे


यानी खुशी की राह खड़े देखते रहे


आयेगी, साथ लायेगी दिल का सुवूसन भी


हम रोशनी की राह खड़े देखते रहे।'


छद्म और छलाओं की बुनियाद पर अच्छे दिनों के स्वप्न दिखानेवाली व्यवस्था पर एक शेर मधुवेश का सटीक बैठता है-


'लो बदलने को चले हैं चार दिन में सब


वो जिन्होंने उम्र भर में कुछ नहीं बदला


रास्ते यूँ और भी थे सामने लेकिन


चंद रोड़ों के असर में कुछ नहीं बदला।'


कानपुर के शायर सत्य प्रकाश शर्मा आज के छलावे और झूठे वादों की राजनीति पर तंज करते हुए कहते हैं-


'सफेद झूठ से सच हार जायेगा, तय है


बशर्ते ढूँढ लो शातिर कोई वकील मियां।'


शायरों अदीबों की दुनिया पर उनका यह शेर कितना मौजूं है-


'हमारे दिल में न होंगी तो फिर कहां होंगी


उदासियों को हम आबाद करने वाले हैं।'


लूट खसोट पर उनका तंज देखें-


'दरिया कितना भूखा है


खा जाता है साहिल तक।' वर्गीय सोच से लैस कई शायर प्रगतिशील जनवादी परंपराओं का आज भी निर्वहन कर रहे हैं। उनके लिए जो अच्छे दिन है वे तो अभी बहुत दूर है। निकट भविष्य में कोई संभावना भी नहीं दिखलाई पड़ रही है। संघर्ष करने वाली ताकतें इक जुट नहीं है। कृषक का शेर शायद आपसी फूट पर ही-


'हम भी मुश्किल में हैं साथी तुम भी मुश्किल में


आओ मिलकर चलें भला क्या रख्खा किल किल में।'


जातीय व धर्मान्ध ताकतों की इक जुटता और पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के नये गठजोड़ ने धर्मनिर्पेक्ष व जनतांत्रिक मूल्यों में भरोसा करने वाली देश भक्त जनता को दिगभ्रमित करने की पुरजोर कोशिश की। तात्कालिक फायदा भी हुआ वे सत्ता व्यवस्था पर काबिज भी हो गये। पर झूठ और प्रचार की राजनीति का पर्दाफाश भी होना जल्दी शुरू हो गया है। उनकी कुटिल चालों को अब जनता समझ रही हैसामान्य जन तक जरूरी सुविधाएं नहीं पहुंच रही हैं। किसान आत्म हत्याएं कर रहे हैं। भूमि अधिग्रहण जैसे बिलों के माध्यम से किसानों से उसकी जमीन छीनने का उपक्रम रचा जा रहा है। तभी तो राम कुमार कृषक जैसे जागरूक शायर कहते हैं-


फिर वही चौपड़ वही पासे जुटाये जा रहे हैं


हैं वही कौरव मगर पांडव बताये जा रहे हैं


एक हों सब एक-जैसे हों हिमायत किसलिए


बांटने को एकता के गीत गाये जा रहे हैं।'


गजल विधा अपने मिजाज व ढब के लिए भी जानी जाती है। ढेर सारे विद्वान हिन्दी-उर्दू की गजलों के बदलते मिजाज चिंतन व शैली पर काम कर रहे हैं। कइयों ने इसे उर्दू-हिन्दी में बांट कर देखने की कोशिश की है। ढेर सारे शायरों की शिनाख्त भी की गई हैं। दुष्यंत के बाद हिन्दी में गजल कहने की परम्परा इतनी विकसित हुई कि जिसने भी कलम पकड़ कर लिखना शुरू किया पता चला कि गीतों और कविताओं के साथ साथ वह गजलें भी लिखने लगा। हिन्दी कविता में प्रयोगवाद के साथ आये उर्दू अदब में जदीदीयत की तरह हिन्दी में गजलों में खूब प्रयोग हुए मुंबई के शायर सूर्य भानु गुप्त इस शेर की वजह से खूब चर्चित हुए थे-


'हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के


मूड आता है तब निकलते हैं'


या


उसकी सोचों में मैं उतरता हूं


चांद पर पहले आदमी की तरह'


इन प्रयोगों के साथ-साथ हिन्दी गीतकारों की एक पूरी पीढ़ी गजलों की ओर आकृष्ठ होती गई। एक दौर था जब मंचों पर गीतकारों को वाहवाही मिलती थीउनकी जगह हास्य व्यंग्य के कवियों ने हड़प लिया मुक्तकों की जगह चुटकुले पढ़े जाने लगे। हां गजलों ने अपने चुटीलों शेरों के माध्यम से उनकी काट प्रस्तुत कीलिहाजा मंच से जुड़ा कवि, गीतकार, गजलों की ओर मुखातिब हुआ और उसे ख्याति भी मिली। पत्र पत्रिकाओं में चुटकुले या हास्य की कोई जगह नहीं थी पर गजलें परम्परागत ढंग से समाहित होती रहीं। परम्परागत मीटर्स के अलावा नये रदीफ काफिए पर कही गजलें लोगों का ध्यान आकर्षित करने लगीं।


शायद यही कारण है कि आज की समकालीन गजल अपनी परम्परा और पुराने लिबास को छोड़कर नये तेवर, नये मिजाज व कहन के नये तौर तरीकों के साथ अपने समय और राजनीतिक परिवेश में हस्तक्षेप करती हुई दिखलाई पड़ती हैं। अब इसके सरोकार प्रेयसी को रिझाने या उसके नैन नक्स का बखान करने की बजाय समय और समाज की पीड़ा को अभिव्यक्ति करना ज्यादा हो गया है। इसकी लोकप्रियता का यह सबसे बड़ा कारण है। बड़ी से बड़ी पत्रिकाएं व्यवसायिक/ अव्यवसायिक सभी के पृष्ठों पर सम्मान पाती गजल आज के समय की धड़कन बन चुकी है।