प्रेमचंद की कहानी 'जिहाद' : तब और अब

आलेख


कमल किशोर गोयनका


भारत का विभाजन इस्लामी कट्टरवाद का दुष्परिणाम था। पाकिस्तान के मुस्लिम देश बनने पर भी भारत हिन्दू देश नहीं बना और उसने लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता को अपना कर सभी धर्मों को स्थान दिया, परन्तु भारत स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान की धार्मिक कट्टरता का विगत कई दशकों से शिकार होता रहा। पाकिस्तान से बराबर घुसपैठिये, आतंकवादी और तालिबान कश्मीर एवं देश के दूसरे स्थानों पर आते रहे और कश्मीर से चार लाख हिन्दुओं को मार-मार कर वहां से भगा दिया। अब इन इस्लामी तालिबानों ने सिक्खों को धमकी दी है कि वे या तो इस्लाम कबूल करें या कश्मीर छोड़कर चले जायें। बंगला देश और पाकिस्तान में भी लाखों हिन्दुओं को या तो भगा दिया गया या उनका धर्मान्तरण किया अथवा उन्हें मार दिया गया। भारतीय संसद और मुंबई में हुए इस्लामी आतंकवादियों ने तो पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। अमेरिका में 11 सितंबर को हुई घटना में तो हजारों निरपराध लोग मारे गये। इसने यह बता दिया कि इस्लामी धर्मान्धता और जिहाद अंतर्राष्ट्रीय रूप ले चुका है।


यह मुस्लिम कट्टरता का आधुनिक रूप है जब हवाई जहाजों को ऊंचे भवनों से टकराकर उन्हें ध्वस्त किया गया और हजारों लोग उसमें दबकर मर गये। प्रेमचंद के जमाने में भी ऐसा ही एक दौर बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में दिखायी देता है, जब देश के कई स्थानों पर हिन्दू-मुसलमानों के दंगे हुए और हजारों की संख्या मेंहिन्दुओं का नर-संहार हुआ, उनका धर्मान्तरण हुआ, उनकी बहन-बेटियों को बेइज्जत किया गया और उन्हें अपने मूल स्थान से भागने को विवश किया गया। सन् 1921 में मोपाला मुसलमानों ने सैकड़ों हिन्दुओं को लूटा, मारा धर्म-परिवर्तन किया। महात्मा गांधी ने माना कि मोपालओं ने हिन्दु परिवारों को तबाह किया और जबरिया धर्म-परिवर्तन कियाइसके बाद अमृतसर, मुल्तान, पंजाब, अमेठी, सम्भल, सहारनपुर, आगरा, अजमेर और गुलबर्गा आदि अनेक स्थानों पर सम्प्रदायिक दंगे हुए और हिन्दुओं की बड़ी मात्रा में जान-माल की हानि हुई । गुलबर्गा में तो अनेक मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया गया। इसी कड़ी में 9-10 सितंबर, 1924 को कोहाट में मुसलमानों ने बड़ाभारी नरसंहार किया, लूटपाट की और हिन्दुओं ने आत्मरक्षा के लिए रावलपिंडी में शरण ली। असल में कोहाट के लगभग तीन हजार हिन्दुओं को जबरदस्ती कोहाट से निकाल बाहर किया गया। महात्मा गांधी ने हिन्दुओं पर हुए इस हमले के लिए स्वयं को दोषी माना और दिल्ली में मुहम्मद अली के घर पर 17 सितंबर, 1924 को 21 दिन का उपवास किया। गांधी ने हिन्दुओं की कायरता और नामर्दी पर फटकारा और 19 मई, 1924 को 'यंग इंडिया' में लिखा कि मैं कायरता एवं पलायन की जगह हिंसा को पसंद करूंगा। उन्होंने यहां तक कहा कि मुसलमान आमतौर पर धींगाधींगी करने वाला और हिन्दू दब्बू होता है। उन्होंने इसी समय यह भी कहा कि बनिये और ब्राह्मण अहिंसात्मक तरीके से अपनी रक्षा में असफल होने पर हिंसात्मक तरीके से अपनी सुरक्षा करना सीखें। गांधी ने कोहाट की घटना पर 26 दिसम्बर, 1924 को 'यंग इंडिया' में लिखा कि कोहाट में हिन्दुओं को अपनी जान बचाने के लिए वहां से भागना पड़ा, लेकिन वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों को दिखाना चाहिए कि अल्पसंख्यक हिन्दू उतने ही सुरक्षित हैं जितने बहुसंख्यक हिन्दुओं के होने पर वे होते। कोहाट के मुसलमानों को तब तक चैन न लेना चाहिए जब तक कि एक-एक हिन्दू शरणार्थी को कोहाट वापस नहीं ले जाते । गांधी फिर 5 फरवरी, 1925 को रावपिंडी में कहते हैं कि चाहे हमारा आस्तित्व मिट जाये, किन्तु हमें अपना धर्म-परिवर्तन नहीं करना चाहिए। हमारा सच्चा धन रुपया-पैसा नहीं है, जर और जमीन नहीं है। ये तो ऐसी चीजें है जो लूटी जा सकती हैं, किन्तु हमारा सच्चा धन हमारा धर्म है। स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद द्वारा 23 दिसम्बर, 1926 को उनके घर पर जाकर हत्या करने के बाद गांधी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मुस्लिम हिंसा पर टिप्पणी करते हुए लिखा, "मुसलमानों को अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि छुरी और तलवार चलाने में उनके हाथ जरूरत से ज्यादा फर्तीले हैं। तलवार वैसे इस्लाम का मजहबी चिन्ह नहीं है, मगर इस्लाम की पैदाइश ऐसी स्थिति में हुई जहां तलवार की ही तूती बोलती थी और अब भी बोलती है। मुसलमानों को बात-बात पर तलवार निकाल लेने की बान पड़ गयी है। इस्लाम का अर्थ है शान्ति । अपने नाम के अनुकूल बनना है तो तलवार म्यान में रखनी होगी। यह खतरा तो है कि मुसलमान लोग गुप्त रूप से इस कृत्य (हत्या) का समर्थन ही करें। मुसलमानों को सामूहिक रूप में इस हत्या की निन्दा करनी चाहिए" ('सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय,' खंड: 24, पृष्ठ 469-70)


प्रेमचंद की कहानी 'जिहाद' की प्रेरणा-भूमि को समझने के लिए इतिहास के इस पक्ष को प्रस्तुत करना आवश्यक था। प्रेमचंद स्वयं गांधी के समान हिन्दूमुस्लिम एकता के समर्थक थे और उन्होंने इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद तथा उस के मानवीय मूल्यों की प्रशंसा में कई कहानियां लिखी थीं। देश में साम्प्रदायिक दंगों का दौर चल रहा था तब प्रेमचंद ने हजरत मुहम्मद के जीवन पर 'नबी का नीति-निर्वाह' कहानी लिखी जो 'सरस्वती' के मार्च, 1924 के अंक में छपी। इसी प्रकार 'मन्दिर और मस्जिद' (अप्रैल, 1925) कहानी एवं कायाकल्प' (1926) उपन्यास में हिन्दू-मुस्लिम दंगों का व्यापक चित्रण है, लेकिन इस्लाम धर्म और संस्कृति के प्रति उनमें प्रशंसा का भाव बना रहा। उन्होंने अपने 'इस्लामी संस्कृति' (प्रताप', दिसंबर, 1925) लेख में यहां तक लिखा कि जिन सिद्धान्तों का श्रेय कार्लमार्क्स एवं रूसो को दिया जाता है, उनका जन्मदाता तो अरब का वह उम्मी था जिसका नाम मुहम्मद था। प्रेमचंद ने हिन्दू और मुसलमान दोनों की बदगुमानियों, कट्टरताओं तथा दुष्प्रवृतियों की बराबर चर्चा की और वे गांधी के समान दोनों की एकता को आवश्यक मानते रहे, इस पर भी वे अपने लेख 'हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न' ('प्रताप' सितंबर, 1924) जो कोहाट की घटना के बाद छपा था, में वे मुसलमानों के 'गुंडापन' और हिन्दू औरतों को भगाकर जबरदस्ती निकाह करने की प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं। प्रेमचंद की इस मनोभूमि तथा देश की साम्प्रदायिक परिस्थितियों के बीच रखकर ही 'जिहाद' कहानी को पढ़ना चाहिए। इस कहानी का महत्त्व यह भी है कि यह कहानी प्रेमचंद ने लिखी है, उस प्रेमचंद ने जो इस्लाम धर्म का प्रशंसक था, किन्तु उन्हें अपने हिन्दू धर्म पर भी गर्व था। कहानी की लगभग 80 वर्ष के बाद सार्थकता यह है कि कश्मीर एवं कुछ क्षेत्रों में इस्लामी जिहाद की प्रवृत्ति आज भी दिखायी देती है, बल्कि वह अब अन्तर्राष्ट्रीय रूप ले चुकी है। कश्मीर में जो कुछ हुआ, संसद तथा मुंबई में जो हमले हुए वह क्या कोहाट की ही आवृत्ति नहीं है? प्रेमचंद का मत था कि इस्लाम धर्म फ्रांस की क्रान्ति के समान न्याय, भ्रातभाव और समता पर आधारित है, परन्तु वे फिर भी 'जिहाद' कहानी की रचना करते हैं। गांधी और प्रेमचंद दोनों ही मानते हैं कि इस्लाम धर्म में अनुदारता और असहिष्णुता को निकालना चाहिए, सब का धर्म एक बना देने का काल्पनिक ख्वाब' भी छोड़ देना चाहिए। उनका सन्देश यही था कि देश में विभिन्न धर्मों के अनुयायी रहें, परस्पर आदर-भाव और सहिष्णुता रखें और विविधता में एकता का उदारहण प्रस्तुत करेंआज इस सन्दर्भ से इस कहानी को पढ़ना चाहिए।


जिहाद


प्रेमचंद


बहुत पुरानी बात है। हिन्दुओं का एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बातबात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगडों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून, इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान, मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंद परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे। पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है। एक मुल्ला ने न जाने कहां से आ कर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरूष खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरज कर कहता है- खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिर के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशनी कर देने का सबाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएं लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा। और सारी जनता यह आवाज सुन कर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र ओर इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सख भोगने लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिंदओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मंदिर ढ़ाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियां दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं, बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिल्कुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पांव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जगह छोड़कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आंधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं। यह काफिला भी उन्हीं भागने वालों में था। दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। यह लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहां तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छांह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआं नजर आया। यहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूक भर कर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियां बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीन पोंछने और बिखरे हुए केशों को संभालने लगींसभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। चिंता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहां तक कि बच्चे जोर से न रोते थे।


दोनों युवकों में एक लब्बा, गठीला रूपवान है। उसकी आंखों से अभिमान की रेखाएं-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहें हैं। दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भांति रोरोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है, इसका खजानचंद।


धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहातुमने अपने लिए क्या सोचा? कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी?


खजानचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया-लाख-सवा लाख की तो नहीं, हां, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे


'तो अब क्या करोगे?'


'जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूंगा : रावलपिंडी में दो-चार संबंधी हैं, शायद कुछ मदद करें। तुमने क्या सोचा है?'


'मुझे क्या गम! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। यहां इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।'


'आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं।'


'मैं तो मना रहा हूं कि एकाघ शिकार मिल जाय। एक दरजन भी आ जायें तो भून कर रख दूं।'


इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएं की ओर चली। प्रीत की सुरहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी


दोनों युवक उसकी ओर बढ़े लेकिन खजांचंद तो दो-चार कदम चल कर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोट-डोर ले लिया और खजांचंद की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएं की ओर चला। खजांचंद ने फिर बंदूक संभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेश मात्र भी संदेह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है। खजांचंद की सारी संपत्ति धर्मदास के रूप वैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार खजांचंद को हताश कर चुकी थी, पर वह अभागा निराश होकर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था। तीनों एक ही बस्ती के रहने वाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी। उसकी अभिलाषा थी कि खजांचंद उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अंतिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाये, लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एकमात्र अवलम्ब है। खजांचंद ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिंदा सब कुछ था और यह जानते हुए भी श्यामा उसे जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता तो वह शायद अब तक उसे लुटा कर फकीर हो जाता ।


धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखाई दिये। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पांच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियां धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढ़ेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जायें। इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते । अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआमुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुंचे और तुरंत उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था, पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आंखों में अंधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी। पांचों उसी के गांव महसदी पठान थे। एक पठान ने कहा-उडा दो सिर मरदद का। दगाबाज काफिर।


दूसरा-नहीं नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले. तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दगा की क्या सजा दी जाय? हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुंचा दिये जाओ, लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।


धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा-जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसेपहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं


तीसरा- कुफ्र है ! कुफ्र है!


पहला- उड़ा दो सिर मरदूद का,धुआं इस पार।


दूसरा-ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे ओर साथी कहां है धर्मदास?


धर्मदास-सब मेरे साथ ही हैं


दूसरा-कलामे शरीफ की कसम, अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लओ,तो तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा।


धर्मदास- आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे।


इस पर चारों सवार चिल्ला उठे-नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है।


इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है?


धर्मदास सिर से पैर तक कांप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूं तो क्या साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी?


दूसरा-हां, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।


पहला-हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो । क्या चाहते हो? हां या नहीं?


धर्मदास ने जहर का चूंट पी कर कहा-मैं खुदा पर ईमान लाता हूं।


पांचों ने एक स्वर से कहा-अलहमद व लिल्लाह! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।


__ श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों मर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर खजांचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा-अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती


खजांचंद-बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है।


श्यामा-न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब! दुष्ट ने उनकी बंदूक तानी है!


खजांचंद-जरा और समीप आ जायें, तो मैं बंदूक चलाऊं। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।


श्यामा-अरे! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है?


खजांचंद-कुछ समझ नहीं आताश्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया?


श्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया?


खजांचंद-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।


श्यामा-मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ


खजांचंद-धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।


श्यामा-कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूं, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़ेकायर! निर्लज्ज ! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पांव फूल गये। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूंगी।


खजांचंद- मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास.


श्यामा-तुम्हें तो विश्वास न आयेगा। लाओ, बंदूक मुझे दो खड़े क्या ताकते हो? क्या जब ये सिर पर आ जायेंगे, तब बंदूक चलाओगे? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान हो कर जान बचाओं? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है, मगर उसे अब मुंह न दिखाना।


खजांचंद ने बंदूक चलायी। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने 'अल्लाहो अकबर' की हांक लगायी। दूसरी गोली घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर 'अल्लाहो अकबर' की सदा लगायी और बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया, पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान खजांचंद के सिर पर पहुंच गये और बंदूक उसके हाथ से छीन ली।


__एक सवार ने खजांचंद की ओर बंदूक तान कर कहा-उड़ा दूं सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है


दूसरे सवार ने जो इनका सरदार माहलूम होता था, कहा-नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। खजांचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, तीन इल्जाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है?


चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें खजांचंद के सिर पर तान दिया मानो 'नहीं' का शब्द मुंह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जायेंगी!


खजांचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आंखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला-तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुंचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरतनहीं! चारों पठानों ने कहा-काफिर! काफिर!


खजांचंद-अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूं। मैं उस धर्म को मानता हूं, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल...


चारों पठानों के मुंह से निकला 'काफिर! काफिर!' और चारों तलवारें एक साथ खजांचंद की गर्दन पर गिर पड़ी। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब खजांचंद की सारी संपत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक ममाहित-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी।ज्यों ही खजांचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपट कर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आंचल से रक्त-प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुंदर बेल-बूटोंवाली साड़ियां पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियां रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।


ऐसा जान पड़ा मानो खजांचंद की बुझती आंखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी थी। उन नेत्रों में कितना संतोष कितनी तृप्ति कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।


__ धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़ कर कहा-श्यामा, होश में आओ, तुम्हार सारे कपड़े खून से तर हो गये हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा? ये लोग हमारे मित्र हैं,हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे?


श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देख कर कहा- तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा हैतो जाओमेरी चिंता मत करो, मैं अब न जाऊंगी। हां, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो तो उन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अंत करा दो।


धर्मदास करूणा-कतार स्वर से बोला- श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गयीं कि हमसे-तुमसे क्या बातें हुई थीं? मुझे खुद खजांचंद के मारे जाने का शोक है, पर भावी को कौन टाल सकता है?


श्यामा-अगर यह भावी थी, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूं, जिसका मैंने सदैव निरादर किया यह कहतेकहते श्यामा का शोकोदगार, जो अब तक क्रोध और घणा के नीचे दबा हआ था. उबल पड़ा और वह खजांचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डाल कर रोने लगी।


चारो पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देख कर करुणार्द्र हो गये। सरदार ने धर्मदास से कहा- तुम इस पाकीजा खातून से कहो, हमारे साथ चलेहमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी। हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे।


धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी। वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुंह भी नहीं देखना चाहती थी। बोलाश्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आंसुओं की नदी बहा दो, पर यह जिंदा न होगी। यहां से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जा कर समझाता हूं। खान लोग हमारी रक्षा करने का जिम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जायगी। खजांचंद की दौलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करोरोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं।


श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देख कर कहा-और इस वापसी की कीमत क्या देनी होगी।? वही जो तुमने दी है?


धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका। बोला-मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या?


श्यामा-ऐसा न कहो। तुम्हारे पास यह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंदसिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पांवों पर लौटना तुम्हें मुबारक हो। तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर खजांचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दियाजीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके साथ जो उदासीनता दिखायी उसका अब करने के बाद प्रायश्चित करूंगी। यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचने वाला कायर नहीं! अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रियाकर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो, तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूंगी।


पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया। देखतेदेखते वहां लकड़ियों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियां काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने खजांचंद की जान ली थी उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रखा। ज्वाला प्रचंड हुई। अग्निदेव अपने अग्मुिख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे


पठानों ने खजांचंद की सारी जंगम संपत्ति ला कर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं पर एक छोटा-सा मकान बनवाया और वीर खजांचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी बृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी और सब लोग पठानों के साथ लौट गये, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। खजांचंद के बलिदान धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मस्जिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये, पर उसका वहां पता न थाचारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला


सालभर गुजर गया। संध्या का समय था। श्यामा अपने झोपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थीअतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ थावर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएं भविष्य पर अवलंबित थीं। और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई संबंध न था! आकाश लालिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढ़की हुई थी। वृक्षों की काँपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियां भर रही हो।


उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से मूंक उठा। श्यामा ने चौंक कर देखा चिल्ला उठी-धर्मदास!


धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा- हां श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूं। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूं। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूं, पर मौत भी नहीं आती।


धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला-क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ! तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया!


श्यामा ने उदासीन भाव से कहा-मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी


'मैं अब भी हिंदू हूं। मैंने इस्लाम कबूल नहीं किया है।'


'जानती हूं!'


'यह जान कर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती!'


श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली- तुम्हें अपने मुंह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती ! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूं, जिसने हिंदूजाति का मुख उज्जवल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूं। तुमने हिंदू-जाति को कलंकित किया हैमेरे सामने से दूर हो जाओ।


धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया! चुपके से उठा, एक लम्बी सांस ली और एक तरफ चल दिया।


प्रातः काल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी। दो-चार गिद्ध उस पर मंडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जा कर देखा और पहचान गयी। यह धर्मदास की लाश थी ।