प्रेमचंद का अधूरा उपन्यास 'मंगल-सूत्र' और इसके 'मंगल-सूत्र की तलाश

आलेख


कमल किशोर गोयनका


हिन्दी में प्रगतिशील समीक्षकों ने जहां समीक्षा में नई दिशाओं तथा नये प्रतिमानों का उद्घाटन किया, वहां उन्होंने उसे विकृत एवं पथभ्रष्ट भी किया। हिंदी के अधिकांश प्रगतिशील समीक्षक मार्क्सवादीपार्टियों के सदस्य रहे और इन्होंने साहित्य को मार्क्सवादी चिंतन और उसके राजनीतिक हितों की दृष्टि से देखने-परखने तथा प्रचारित एवं विकसित करने का एक संगठित आंदोलन ही शुरू कर दिया। इसकी शुरूआत इंग्लैंड से सज्जाद जहीर, डॉ. मुल्कराज आनंद, डॉ. के. एस. भट्ट, डॉ. जे.सी.घोष, डॉ. एस. सिन्हा एवं एम.डी. तासीर ने की और वहां 'दि इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन' की स्थापना की और उसका मैनिफेस्टो प्रेमचंद को भेजा। प्रेमचंद ने 'हंस' के जनवरी, 1936 के अंक में 'लंदन में भारतीय साहित्यकारों की एक नई संस्था 'शीर्षक से इस मैनिफेस्टों को प्रकाशित करते हुए इसका स्वागत किया। प्रेमचंद ने इस मैनिफेस्टो के कुछ अंश 'हंस' में प्रकाशित किए। इन मैनिफेस्टो में कहा गया कि भारतीय समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहा है, पुराने विचारों तथा विश्वासों की जड़ें हिलती जा रही हैं। पिछली दो सदियों में भक्ति और वैराग्य का भावुकतापूर्ण साहित्य लिखा जाता रहा और विचार एवं बुद्धि का बहिष्कार हुआ। इस सभा का उद्देश्य है कि साहित्य को इन अप्रगतिशील वर्गों के आधिपत्य से निकालकर 'जलतर के निकटतम संसर्ग' में लाया जाए, उसमें जीवन और वास्तविकता लाई जाए। "इस मैनिफेस्टो में आगे कहा गया है", हम भारतीय सभ्यता की परंपराओं की रक्षा करते हुए अपने देश की पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों को बड़ी निर्दयता से आलोचना करेंगे और आलोचनात्मक तथा रचनात्मक कृतियों से उन सभी बातों का संचय करेंगे, जिससे हम सभी मंजिल पर पहुँच सकें। हमारी धारणा है कि भारत के नए साहित्य को हमारे वर्तमान जीवन के मौलिक तथ्यों का समन्वय करना चाहिए और वह है, हमारी रोटी, हमारी दरिद्रता का, हमारी सामाजिक अवनति का और हमारी राजनीतिक पराधीनता का प्रश्न। तभी हम इन समस्याओं को समझ सकेंगे और तभी हममें क्रियात्मक शक्ति आएगी। वह सब कुछ जो हमें निष्क्रियता, अकर्मण्यता और अंधविश्वास की ओर ले जाता है, वह सब कुछ जो हममें समीक्षा की मनोवृत्ति लाता है, जो हमें प्रियतम रूढ़ियों को भी बुद्धि की कसौटी पर कसने के लिए प्रोत्साहित करता है, जो हमें कर्मण्य बनाता है और हममें संगठन की शक्ति लाता है, उसी को हम प्रगतिशील समझते हैं।"


इसके साथ ही 'हंस' के इस संपादकीय में 'दी इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन' द्वारा स्वीकृत प्रस्तावों का भी उल्लेख है जिनमें संस्था ने भारत में लेखकों की संस्थाएँ बनाने, प्रगतिशील साहित्य की सृष्टि और अनुवाद करने के साथ भारत के 'सांस्कृतिक अवसाद' एवं 'भारतीय स्वाधीनता और सामाजिक उत्थान' की ओर बढ़ने का संकल्प किया तथा 'हिदुस्तानी' को राष्ट्रभाषा और 'इंडो-रोमन लिपि' को राष्ट्रलिपि स्वीकार कराने का उद्योग भी शामिल है।


प्रेमचंद के लिए इस मैनिफेस्टो के उद्धृत अंश तथा स्वीकृत प्रस्तावों में से अधिकांश सहज रूप से स्वीकार्य थे, क्योंकि वे लगभग 30 वर्षों से इसी चिंतन-धारा को लेकर साहित्य की रचना कर रहे थे। प्रेमचंद की प्राथमिकताएँ थीं-देश की स्वाधीनता, निर्धनता एवं शोषण से मुक्ति, भारतीय संस्कृति को मानवीय तथा मर्यादाशील परंपराओं की रक्षा, व्यक्ति और समाज का परिष्कार एवं उत्कर्ष, अंधविश्वास, जड़ता तथा निष्क्रियता को भंजित करके जागृत, कर्मशील, स्वाभिमानी, देशभक्त, सेवाव्रती समाज का निर्माण, आलोचना तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत की मूल कृषि संस्कृति की रक्षा तथा समाज में सामंजस्य एवं समन्वय की स्थापना आदि। प्रेमचंद ने 'इंडो-रोमन लिपि' के प्रस्ताव का अवश्य विरोध करते हुए लिखा कि हम नागरी-लिपि को पर्ण बनाकर उसे सभी भारतीय भाषाओं के लिए उपयोगी बनाना चाहेंगे।


यहाँ इस मैनिफेस्टो के उल्लेख का अभिप्राय यह है कि इसमें मार्क्स का कहीं उल्लेख नहीं है, पूँजीपतियों के शोषण तथा सर्वहारा द्वारा खूनी संघर्ष की चर्चा नहीं है और न कम्युनिस्ट पार्टी तथा रूस के लेनिन तथा स्टालिन का संकेत है और न इस 'प्रगतिशील लेखक-संघ' को मार्क्सवाद तथा कम्युनिष्ट पार्टी से संबद्ध करने का ही संकल्प है। अतः प्रेमचंद लखनऊ में होने वाले 'प्रगतिशील लेखक-संघ' की अध्यक्षता को स्वीकार करते समय तथा उसका भारत में स्वागत करते समय वे निश्चय ही मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, रूस तथा चीन किसी से भी प्रेरित-संचालित 'प्रगतिशील लेखक-संघ' का अभिनंदन नहीं कर रहे थे। प्रेमचंद ने 'प्रगतिशील लेखक संघ' की अध्यक्षता भी अनिच्छा से स्वीकार की। उन्होंने सज्जाद जहीर को 15 मार्च, 1936 को लिखे पत्र में लिखा था कि मिस्टर कन्हैया लाल मुंशी, डॉक्टर जाकिर हुसैन, पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा पंडित अमरनाथ झा में से किसी को सभापति बनाएँ, क्योंकि ये मुझसे अधिक उपयुक्त और बेहतर होंगे। इस पर भी सज्जाद जहीर का दवाब रहा और उन्होंने सभापति बनना स्वीकार कर लिया। हमारे प्रगतिशील समीक्षक तथा लेखक प्रगतिशील लेखक संघ' को कम्युनिष्ट पार्टी एवं मार्क्सवादी चिंतन से जोड़ते समय बड़े उत्साह में कई दशकों से यह राग अलापते रहे हैं कि प्रेमचंद ने इसी चिंतन-पद्धति पर आधारित 'प्रगतिशील लेखक-संघ' के प्रभावी अधिवेशन का सभापतित्व किया था और उनका भाषण इसी प्रगतिशील विचारधारा का उद्घोष था। मुझे अफसोस के साथ लिखना पड़ता है कि इन सभी प्रगतिशीलों कम्युनिस्ट पार्टी के साहित्यकारों ने यह भाषण ठीक प्रकार से पढ़ा भी नहीं है और यदि पढ़ा भी है तो उन्होंने प्रेमचंद की इन पंक्तियों को नजर अंदाज कर दिया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि 'प्रगतिशील लेखक-संघ' यह नाम मेरे विचार में गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार न होता।


प्रेमचंद की दृष्टि 'प्रगतिशीलता' के संबंध में बिल्कुल साफ थी। वे प्रगतिशील लेखक-संघ' में प्रगतिशील' शब्द को निरर्थक मानते थे और उनकी यह कल्पना में भी नहीं हो सकता था कि बाद में इसके संस्थापक तथा उनकी कम्युनिस्ट पार्टी के लोग अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस शब्द को अपना साहित्यिक हथियार बना कर भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्य में अपनी कम्युनिस्ट विचारधारा तथा कम्युनिस्ट पार्टी का वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न करेंगे। इन राजनीतिक साहित्यकारों के लिए प्रेमचंद, टैगोर, पंत जैसे शीर्षस्थ साहित्यकार तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे राजनेता भारतीय समाज में घुसने, फैलने तथा सम्मानीय स्थान बनाने के आधार बने, लेकिन यदि आप पूरे प्रगतिशील आंदोलन का इतिहास देखें तो आप पाएँगे कि इसमें पैदा होने वाला एक भी सहित्यकार या नेता इनकी ऊँचाई तक नहीं पहुँच सका। कोई भी छल, कपट तथा स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी बड़े वृक्ष, किसी बड़े व्यक्ति का सहारा तो ले सकता है, परंतु स्वयं वैसा नहीं बन सकता। प्रेमचंद के बाद डॉ. रामविलास शर्मा, अमृतराय, डॉ. नामवर सिंह आदि में, 'प्रगतिशील लेखक संघ' के उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा क्रियाकलापों को लेकर इतना मतभेद हुआ कि सबने अपनी-अपनी दिशा बनाई और अब राजेन्द्र यादव के जनवादी मोर्चे तक आते-आते, रूस की सत्ता के समान ही यह 'प्रगतिशील लेखकसंघ' तथा कम्युनिस्ट विचारधारा भी छिन्न-भिन्न हो गई।


___मंगल सूत्र' पर अपनी बात रखने से पूर्व मुझे इस पृष्ठभूमि की जानकारी पाठकों को देना जरूरी लगा, क्योंकि 'मंगलसूत्र' पर जो तथ्य तथा विवेचन आपके सम्मुख रखूगा, उसके लिए हिंदी साहित्य में मार्क्सवादी हस्तक्षेप के राजनीतिक चरित्र और उसके छलपूर्ण इतिहास को समझना जरूरी है। सबसे पहले प्रेमचंद उनके राजनीतिक स्वार्थों के शिकार बने । इसमें उन्हें जो सफलता मिली, वह विशेष रूप से पंडित जवाहरलाल नेहरू की रूस-चीन भक्ति तथा उनके प्रभाव में समाजवाद के दिवा-स्वप्न एवं कम्युनिस्टों को राज्याश्राय प्रदान करने की नीति प्रमुख थी। पंडित नेहरू निश्चय ही इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि ये वही कम्युनिस्ट थे, जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम के महानायक महात्मा गांधी तथा सुभाषचंद्र बोस के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया था तथा जो देशद्रोहिता का परिचय देते हुए अंग्रेजों का साथ दे रहे लेकिन भारतीय कम्युनिष्टों के प्रति उनके मन में कुछ न कुछ कमजोरी थी, और इन कम्युनिस्टों ने भी इस दुर्बलता का भरपूर लाभ उठाया। आपातकाल के दौरान जब मेरे जैसे लेखक एवं अध्यापक जेल में थे, तब भी इन कम्युनिस्टों ने इंदिरा गांधी की प्रशंसा के गीत गाए। मेरा अभिप्राय यह है कि भारतीय कम्युनिस्टों का यही प्रगतिशील चरित्र रहा है कि वे राज-सत्ता तथा साहित्य के शीर्षस्थ व्यक्ति को अपना संरक्षक बनाकर उसके माध्यम से समाज में पैठ करके अपने राजनीतिक दर्शन का विस्तार करते रहे हैं। राज, सत्ता, शिक्षा, इतिहास, साहित्य आदि सभी क्षेत्र उनके क्रियाकलापों के रंगमंच रहे हैं और सर्वत्र चालाकी से भरा राजनीतिक खेल खेलते रहे हैं।


प्रेमचंद के साथ भी यही राजनीतिक खेल खेला गया और इसका आंदोलन भी स्वतन्त्रता के बाद व्यवस्थित रूप से शुरू हुआ। सन् 1947 से पूर्व, प्रेमचंद के जीवन-काल तथा उनकी मृत्यु के 10-11 वर्ष तक आपको प्रेमचंद के समीक्षासाहित्य में प्रायः इस मार्क्सवादी हस्तक्षेप की पग ध्वनियां नहीं मिलेंगी। डॉ. रामविलास शर्मा ने सन् 1941 में 'प्रेमचंद' शीर्षक से लिखी अपनी समीक्षात्मक पुस्तक में प्रेमचंद को 'मार्क्सवादी' के स्थान पर भारतीयतावादी बताते हुए लिखा था, "प्रेमचंद ने साहित्य की किसी हद तक वही व्याख्या की है जिसे हम भारतीय कहने के आदी हैं।"...प्रेमचंद के साहित्य की इस प्रकार की व्याख्या करना उन पर इस युग के, और उसकी भारतीयता के प्रभाव को बताता है। साहित्य में रस को सृष्टि, उसका ध्येय आनंद मात्र होना, प्रेमचंद की 'भारतीयता' का प्रमाण है। डॉ. रामविलास शर्मा ने इस पुस्तक के अंत में प्रगतिशील लेखक-संघ' के भाषण में 'प्रगतिशील' शब्द को तथ्यहीन बताने के प्रेमचंद के दृष्टिकोण तक का समर्थन किया और लिखा कि केवल नाम का बिल्ला लगाने से कोई प्रगतिशील या अन्य रूप से महान साहित्यिक नहीं हो जाता, प्रेमचंद के लिए साहित्य का ही अर्थ प्रगति था। लेकिन स्वतंत्रता के बाद मार्क्सवादी समीक्षकों ने प्रेमचंद को मार्क्सवादी लेखक सिद्ध करने का संगठित प्रयास किया और उनके कुछ लेखों 'पुराना जमाना', 'नया जमाना' तथा 'महाजनी सभ्यता', कुछ कहानियों 'पूस की रात', 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति', 'कफन' आदि कुछ उपन्यासों- 'प्रेमाश्रम' में बलराज का कथन कि रूस-बलगारी देश में 'कास्तकारों का राज' है। 'गोदान' में किसान का संघर्ष (जो उपन्यास में है ही नहीं) तथा 'मंगल-सूत्र' उपन्यास में देव कुमार का अपने 'चिर संस्कारों' (धर्म, नीत, न्यास आदि) से स्खलित होकर इस निष्कर्ष पर पहुँचना कि 'दरिंदों के बीच में, उनसे लड़ने के लिए हथियार बाँधना पड़ेगा', आदि के उल्लेख से इसे प्रमाणित करने की चेष्टा भी की, लेकिन आश्चर्य है कि किसी अन्य समीक्षक या विद्वान ने इन मार्क्सवादी समीक्षकों से यह प्रश्न नहीं किया कि इन दो-तीन प्रतिशत रचनाओं के आधार पर उन्हें कैसे इन रचनाओं में व्यक्त विचारधाराओं के आधार पर उन्हें मार्क्सवादी रचनाकार घोषित कर दिया? एक आश्चर्य और भी है कि इन मार्क्सवादियों ने प्रेमचंद द्वारा साम्यवादियों पर किए गए व्यंग्य पर भी ध्यान नहीं दिया। 'गोदान' में ही प्रेमचंद ने इन साम्यवादियों के बारे में प्रो. मेहता से कहलवाया है "मैं केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं । हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं हैं,तो बकना छोड़ दें।.... धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं, लेकिन बुद्धि को, चरित्र और रूप को, प्रतिभा और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है।.... आप रूस की मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राजकर्मचारी का रूप ले लिया है। यहाँ यह ध्यान रखने वाला तथ्य है कि मार्क्सवादी समीक्षक डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार प्रो. मेहता एवं होरी मिलकर प्रेमचंद बनते हैं। यदि प्रो. मेहता के ये विचार प्रेमचंद के ही हैं तो ये मार्क्सवादी सोचें कि वे प्रेमचंद को मार्क्सवादी सिद्ध करके कितना बड़ा साहित्यिक अपराध कर रहें हैं।


'मंगल-सूत्र' उपन्यास में भी इसी प्रकार इन समीक्षकों ने 'मार्क्सवादी मंगलसूत्र' को आरोपित करके यह लिख दिया कि प्रेमचंद का अपने अंतिम समय में गांधीवाद से मोह-भंग हो गया था और वे मार्क्स की हिंसक क्रांति के समर्थक हो गए थे, परंतु इस निष्कर्ष की सत्यता-असत्यता को सिद्ध करने से पहले यह आवश्यक है कि हम 'मंगल-सूत्र' के उपलब्ध पाठ की कथा-संरचना तथा पात्रों व्यक्तित्व, विचारों एवं संघर्षों के साथ लेखक के दृष्टिकोण को भी समझें। इस अधूरे उपन्यास के केवल चार परिच्छेद ही उपलब्ध हैं। इसका पहला प्रकाशन 'हंस' के फरवरी, 1948 के अंक में हुआ तथा इसके साथ ही बाद में हिंदुस्तानी पब्लिशिंग हाउस, इलाहाबाद ने इसे पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया। उस समय यह खबर भी थी कि प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय इसे पूरा करके प्रकाशित कराएँगे, परंतु ऐसा नहीं हो पाया और अंत में प्रेमचंद की हस्तलिपि में उपलब्ध पाठ ही प्रकाशित हुआ'मंगल-सूत्र' के उपलब्ध चार परिच्छेदों में वर्णित कथा एवं पात्र-संरचना का अवलोकन यहाँ आवश्यक है।


(1) पहले परिच्छेद में प्रेमचंद ने साहित्यकार देव कुमार, उनकी पत्नी शैव्यादो पुत्रों संत कुमार एवं साधु कुमार, पुत्री पंकजा का परिचय दिया है तथा उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को उद्घाटित किया है। देव कुमार एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं, उनकी 'आत्मा' विशाल है, उनमें 'आत्म-सम्मान' एवं आत्म संतोष है कि उन्होंने 'कंचन' के स्थान पर 'सौंदर्य भावना' की उपासना की है क्योंकि उनका विश्वास है कि 'जिस राष्ट्र में तीन-चौथाई प्राणी भूखों मरते हों,' वहां किसी को बहुत धन कमाने का नैतिक अधिकार नहीं हैं। उन्हें साहित्य से खूब यश मिला है और इससे उनमें आत्म-गौरव का भाव है, परंतु इधर उन्हें अपनी दो पुस्तकों से पहले जैसा आदर न मिला तो उन्होंने लेखन से संन्यास ले लिया। वे गृहस्थ के बंधन मुक्त होना चाहते थे, परंतु बड़े बेटे संत कुमार ने उन्हें दुखी किया हुआ है। वह पिता द्वारा पचास वर्ष पूर्व बेची गई सम्पत्ति को वापिस लेना चाहता है और अपनी शैव्या के समझाने पर भी कहता है कि इसकी परीक्षा हो जाएगी कि पिता को अपनी 'संतान' प्यारी है या अपना 'महात्मापन'। संत कुमार ठाट से जीना चाहता है और साफ कहता है कि पिता को 'बाप-दादों की जायदाद' को लुटाने का अधिकार नहीं है। प्रेमचंद ने आरंभ में ही इसकी चर्चा की है कि देव कुमार ने अपनी जवानी में यह जायदाद 'भोग-विलास' और 'साहित्य के अनुष्ठान' में बरबाद कर दी थी।


इस प्रकार पहले परिच्छेद में ही प्रेमचंद ने उपन्यास की मूल समस्या का बीजारोपण कर दिया है। एक ओर साहित्यकार देव कुमार हैं, जिन्होंने चाहे युवावस्था में खूब भोग-विलास किया हो, लेकिन वे अब नैतिकता से परिपूर्ण जीवन जी रहे हैं। उनका बेटा संत कुमार उनके इस कंचनविहीन, संवेदनशील, स्वाभिमानी, यशपूर्ण जीवन को 'महात्मापन' कहकर उसी प्रकार आलोचना करता है, जैसे'गोदान' में होरी का बेटा गोबर बाप के 'धर्मात्मापन” को उसकी दुर्गति का कारण मानता है, लेकिन यहाँ अंतर यह है कि जहाँ होरी में परंपरागत हिंदू किसान की विवशता है, वहाँ संत कुमार अपने विलासमय जीवन के लिए शहरी शिक्षित युवक के छल और चालाकी से भरे व्यक्तित्व का परिचय देता है। प्रेमचंद इस परिच्छेद में दो विरोधी शक्तियों को परस्पर संघर्ष के लिए तैयार कर देते हैं। एक शक्ति है संतोष की, नैतिकता की, धर्म की, वचन की और दूसरी है असंतोष की, अनैतिकता की, अधर्म की, वचन-भंग की। प्रेमचंद पहली शक्ति के साथ हैं और वे जानते हैं कि दूसरी शक्ति से द्वंद्व होना ही है, चाहे वह धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, नैतिकअनैतिकता में हो और चाहे बाप-बेटे की दो विचारधाराओं तथा जीवन दृष्टि मेंसंतकुमार ठीक कहता है कि उसके पिता देव कुमार को अपने 'महात्मापन' और 'संतान' में से एक को चुनना होगा। यहाँ देव कुमार का 'महात्मापन' वही है, जिसके लिए प्रेमचंद आरंभ से ही अपने साहित्य में लड़ते रहे हैं। यह उनके अनुसार 'सुऔर 'कु' की लड़ाई है और 'सत्य और असत्य का संघर्ष' भी। प्रेमचंद ने मार्च 1932 को 'हंस' में अपने 'परितोष' लेख में लिखा भी था कि 'सत्य और असत्य का संघर्ष' साहित्य का मुख्य आधार है और यह तब तक रहेगा जब तक 'साहित्य की सृष्टि' होती रहेगी। यही कारण है कि 'रामायण' और 'महाभारत' काल से लेकर बीसवीं सदी तक बराबर यह संघर्ष चलता रहा है।


(2) दूसरे परिच्छेद में प्रेमचंद संत कुमार और उसकी पत्नी पुष्पा की कथा आरंभ करते हैं। यहाँ भी संत कुमार का अहंकार कपट एवं छलपूर्ण व्यवहार, मौरूसी जायदाद को वापिस लेने का 'धर्म' तथा पत्नी को अनुकूल बनाने के लिए, 'नीति' और 'धर्म' तक के समर्थन से उसका पूर्व चरित्र ही विकसित होता है। वह चाहता है कि पत्नी अपने पिता से दस हजार रूपए ले आए, जिससे वह, 'महात्माओं' से मुकदमा लड़कर जायदाद वापिस ले सके। वह इसके लिए धर्म एवं नीति तक का समर्थन करते हुए कहता है, "इस गए-गुज़रे जमाने में भी समाज पर धर्म और नीति का ही शासन है। जिस दिन संसार से धर्म और नीति का नाश हो जाएगा, उसी दिन समाज का अंत हो जाएगा।" इसी परिच्छेद में साधु कुमार तथा पुष्पा की लंबी बातचीत है। वह 'आदर्शवादी, सरल प्रकृति, सुशील और सौम्य यमक है' तथा पिता का समर्थक एवं भाई की धन-लिप्सा का आलोचक है। उसे बंबई टीम के साथ खेलने जाना है, उसमें सैकड़ों का खर्च' है लेकिन वह पिता का 'गला दबाना' नहीं चाहता। वह कहता है, “जिस मुल्क में दस में नौ आदमी रोटियों को तरसते हों, वहाँ दस-बीस आदमियों का क्रिकेट के व्यसन में पड़े रहना मूर्खता है।"10 वह इस कारण 'धनी' होने को 'स्वार्थधता' मानते हुए आगे कहता है, “मैं जब कभी धनी होने की कल्पना करता हूँ तो मुझे शंका होने लगती है कि न जाने मेरे मन का क्या हो जाए। इतने गरीबों में धनी होना मुझे तो स्वार्थांधता सी लगती है।''वह पुष्पा से कहता है कि वह 'सेवक' बनना चाहता है और यदि शादी की तो ऐसी लड़की से जो 'गरीबी की जिंदगी' बसर करने पर राजी होगी। इस परिच्छेद के अंत में पष्पा भी इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि यदि वह 'विलास का मोह' त्याग दे और 'त्याग' सीख ले तो फिर वह किसी से क्यों दबेगी? पुष्पा की इस मनोवृत्ति को स्थाई बनाने के लिए प्रेमचंद ने 20-25 मजदूरनियों के दल को शाम के समय, मजदूरी करने के बाद गीत गाते हुए घर लौटते दिखाया है। प्रेमचंद इनकी दर्दनाक गरीबी, शोषण, कठोर श्रम के बावजूद यह टिप्पणी करते हैं, "फिर भी कितनी प्रसन्न थीं। कितनी स्वतंत्र । इनकी इस प्रसन्नता का, इस स्तवंत्रता का क्या रहस्य है।"12


इस प्रकार इस परिच्छेद में भी प्रेमचंद धर्म, नीति, आदर्श, सरल, प्रकृतिसुशीलता, निर्धनता में संतोष प्रसन्नता स्वतंत्रता के मानवीय गुणों को ही महत्व देते हैं और संत कुमार, साधु कुमार तथा पुष्पा सभी को इसका समर्थक दिखाते हैं।


(3) इस परिच्छेद में संत कुमार तथा उसका सहपाठी वकील मि. सिन्हा के सहयोग से जायदाद को हथियाने के लिए मुकदमा दायर करने का निश्चय होता है। वकील साहब घाघों के भी घाघ थे और कानून की उपासना से अधिकांश भौतिक सुविधाएँ प्राप्त कर ली थीं। वकील साहब मानते हैं कि सभी लेखक 'सनकी' और 'पूरे पागल' होते हैं, अत: वे सिद्ध कर देंगे कि जायदाद बेचते समय देव कुमार के दिमाग में खलल थी। वकील साहब संत कुमार को, जज साहब की 'अप्सरा' 'चंचल' बेटी तिब्बी (त्रिवेणी)को काबू करने के लिए प्रेरित करता है। वह तिब्बी से राह-रस्म पैदा करता है, पत्नी पुष्पा के फूहड़पन बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत करके उसकी हमदर्दी लेना चाहता है, परंतु तिब्बी विवाह को 'धर्म बंधन या रिवाज बंधन' नहीं 'प्रेम बंधन' के रूप में देखती है। यदि प्रेम नहीं है तो बंधन को तोड़ देना चाहिए। तिब्बी ऐसे व्यक्ति की तलाश में है जो उसके हृदय में सोये प्रेम को जगा सके। उसके जीवन का उज्ज्वल पक्ष-सुख, सुविधा, अधिकार आदि, खूब देखा है, वह अब जीवन का 'अंधेरे पहलू-त्याग, रुदन, उत्सर्ग' देखना चाहती है। वह संत कुमार से कहती है कि 'इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है और मिजाज को अमीरी'। वह कहती है, “श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पड़ता है। आज तो समाज और देश की दूषित अवस्था है, उससे असहयोग करना मेरे लिए जूनून से कम नहीं है। मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूँ। बाबूजी का एक हजार रुपए अपने छोटे से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है?"13 । लेखक कहता है कि इन कथनों में तिब्बी की 'आत्मा' बोल रही लेकिन वह संत कुमार के छलपूर्ण व्यवहार से इतनी प्रभावित हो जाती है कि पुष्पा को दोषी तथा संत कुमार को 'सत्य पुरुष' तथा 'देवत्व' से परिपूर्ण मानने लगती है। प्रेमचंद ने तिब्बी की विचार-दृष्टि में जो यह परिवर्तन किया है, वह भावी कथा के विकास के लिए है, क्योंकि संत कुमार जायदाद के लिए मुकदमा दायर करेगा और जज की बेटी तिब्बी उसकी किसी न किसी रूप में मदद करेगी।


इस परिच्छेद में भी प्रेमचंद ने त्याग, उत्सर्ग, श्रम, अमीरी की अमानवीयता तथा गरीबी की कर्मशीलता एवं मनवीयता की ही स्थापना की है। तिब्बी में अमीरी से घृणा तथा गरीबी को अपनाने का विचार उत्पन्न करके प्रेमचंद अपने मूल उद्देश्य 'धन से दुश्मनी' को ही स्थापित कर रहे हैं


(4) इस परिच्छेद में देव कुमार की चिंतन-धारा के परिवर्तन से कथा विकास होता है। संत कुमार और उसका वकील मित्र, देव कुमार के सामने जायदाद वापिस लेने की 'कुटिल चाल' रखते हैं,परंतु वे अपनी आत्मा को कलुषित' नहीं करना चाहते थे। वे अपनी मर्यादा', 'सिद्धांत', 'धर्म बंधन' तथा 'सत्य' के मार्ग छोड़ना नहीं चाहते। वे कहते भी हैं, “मैं सत्य की हत्या होते नहीं देख सकता। मैं थोड़े रुपये के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता।"14 वह कहते हैं कि उन्होंने सोच-समझकर जायदाद बेची थी उनका बेटा संत कुमार जब उन्हें 'पागल' घोषित करने तथा 'हिरासत' में भेज देने की धमकी देता है तो वह बेटे को गोली मार' देने की धमकी देता है। उनका निश्चय था कि वे असत्य का, धांधली का, सिद्धांत को तोड़कर व्यावहारिकता का सहारा नहीं लेंगे। वह संत कुमार की 'दगाबाजी तथा उसके 'कलंकएवं समाज में उसकी 'चितकबरी आलोचना' से इतने दुःखी हुए कि घर में ही, 'मुँह छिपाए' बैठे रहते हैं। छोटे बेटे साधु ने जब गंगा में डूबते आदमी को बचाया तो उन्हें अपने ‘प्राप्त यश' की खुशी के समान ही खुशी हुई, अर्थात् छल, कपट, झूठ स्थान पर सेवा, बलिदान आदि से उनकी आत्मा आनंद का अनुभव करती थी।


प्रेमचंद अपने चरित्रों को सजीव तथा मनुष्य बनाने के लिए उनमें मानवीय दुर्बलताओं की उद्भावना करते हैं इससे वे कथा तथा चरित्र का विकास करते हैं। साहित्य का उद्देश्य' पुस्तक में संकलित लेख 'उपन्यास'15 में उन्होंने इसी महत्वपूर्ण लक्ष्य के बारे में लिखा है, "चरित्र को उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह निर्दोष हो-महान से महान पुरुषों में भी कुछ न कुछ कमजोरियां होती हैं । चरित्र को सजीव बनाने के लिए उसकी कमजोरियों का दिग्दर्शन कराने से कोई हानि नहीं होती, बल्कि यही कमजोरियां उस चरित्र को मनुष्य बनाती हैं। निर्दोष चरित्र तो देवता हो जाएगा और हम उसे समझ ही न सकेंगे।"16 प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों के असंख्य पात्रों में, इसी कारण, दुर्बलताओं से युक्त देवता-मनुष्यों के दर्शन होते हैं। प्रेमचंद अपने नायकों, नायिकाओं में मानवीय दुर्बलताओं का दिग्दर्शन कराते हैं, परंतु वे उन्हें कालिमा से 'उज्ज्वलता' की ओर भी उन्मुख करते हैं। मंगल-सत्र' में, अपने इसी सजन सिद्धांत के अनुसार, वे देव कुमार जैसे सत्य, न्याय, धर्म पर चलने वाले साहित्यकार में भी मानवीय कमजोरियों का उद्भव करते हैं। देव कुमार पहली बार ऐसे 'आत्म-मंथन' से गुजरता है कि इस 'अनीतिपूर्ण संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, 'देवता बनना मूर्खता है। धनी कुछ भी कर सकता है, निर्धन को सभी दबाते हैं। वह 'पितरों को पिंड-दान' देने, रात में मित्रों के साथ 'मुजरा' सुनने तथा नाटक-मंडली में हजारों रुपयों को डुबाने को ‘पागलपन' मानते हुए सोचता है कि मनुष्य' में मनुष्य बनना पड़ेगा।' दरिंदों के बीच में, उनसे लड़ने के लिए हथियार बांधना पड़ेगा। उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जड़ता है।"17 इस निष्कर्ष पर पहुंचकर देव कुमार के, लेखक के अनुसार, 'चिरसंस्कारों' को आघात लगा, परंतु वे प्रसन्न थे जैसे- उन्हें, कोई नया मंत्र मिल गया हो। इसके बाद वे सेठ गिरधरदास के पास पहुंचकर पुरानी जायदाद को वापिस लेने के बेटे के प्रयास पर बातचीत करते हुए झगड़ पड़ते हैं। गिरधरदास समझाने का प्रयत्न करता है कि जो चीज बिक जाती है, बिक जाती है, वह कानूनन किसी दाम पर भी वापस नहीं हो सकती। प्रेमचंद यहां गिरधर के साथ देव कुमार को भी 'लड़ने वाले कुत्तों' के रूप में देखते हैं। घर लौटकर देव कुमार बेटे संत और वकील सिन्हा को मुकदमा दायर करने की सहर्ष अनुमति दे देता है लेकिन इसके लिए धन की आवश्यकता थी। देव कुमार ने जीवन-पर्यन्त धन की उपासन नहीं की थी लेकिन अब अपने प्रेमियों और भक्तों से खुले शब्दों में आर्थिक सहायता की याचना कर रहे थे। प्रेमचंद पुनः इस पतन पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि वह 'आत्म-गौरव' जैसे कब्र' मे सो गया हो। इस पर उनके भक्तों ने साठवीं सालगिरह पर एक थैली भेंट करने का निर्णय किया । यहां प्रेमचंद ने फिर उनकी पतितावस्था तथा द्वंद्व का चित्रण किया है। कार्यक्रम में जाने से पूर्व देव कुमार के मन में उल्लास नहीं 'अवसाद' है, धन का दान लेते समय 'लज्जा' का भाव है, 'आत्म-सम्मान' विद्रोही है। लेखक लिखता है “नैकनामी की लालसा एक ओर खींचती थी, लोभ दूसरी ओर। 18 उनकी लोभ-वृत्ति अपने नीति-कौशल से इस दान को 'प्राविडेंट फंड' तथा 'पेंशन' मानकर उन्हें समझा लेती है और उनके 'पोले मुख' पर हल्की-सी सुर्सी दौड़ जाती है। प्रेमचंद देव कुमार के इस गर्व, हर्ष तथा विजय में पतन की विजय का ही संकेत देते हैं।


___ 'मंगल-सूत्र' के नायक और प्रख्यात साहित्यकार देव कुमार का यह पतन, दृष्टि में परिवर्तन, क्या मार्क्सवादियों का मंगल-सूत्र' है अथवा प्रेमचंद जिस 'मंगलसूत्र' की तलाश में हैं, उस तक पहुंचने के लिए, 'देवता' को मनुष्य बनाया गया है? अधूरे उपन्यास के अंत में देव कुमार की यह 'विजय' क्या उसे वास्तव में बड़ा बनाती है, अथवा कथा और चरित्र के विकास के लिए एक मोड़ के रूप में चित्रित की गई है? प्रेमचंद की दृष्टि बिल्कुल साफ है। उन्होंने अपने लेख 'उपन्यास' में लिखा है कि भावी उपन्यास जीवन-चरित्र होगा, चाहे किसी बड़े आदमी का या छोटे आदमी का। उसकी छटाई-बडाई का फैसला उन कठिनाइयों से किया जाएगा कि जिन पर उसने विजय पाई है।19 'मंगल-सूत्र' के 'प्रेमचंदीय मंगल-सूत्र' को समझने के लिए उनका यह कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस कथन के कारण तथा कथानायक के साहित्यकार होने के कारण इस उपन्यास को समीक्षकों ने 'आत्मकथा मूलक' माना है। प्रेमचंद की 'जीवन-चरित्र' की धारणा भी इसी मत को पुष्ट करती है। यह पहला उपन्यास है जिसमें उन्होंने साहित्यकार के रूप में स्वयं को केंद्र में रखा है, लेकिन यहां प्रश्न यह है कि देव कुमार की यह 'विजय' है या कुछ और। प्रेमचंद के अनुसार यह विजय नहीं है, मनुष्य का कमजोरियों में गिरना है। यह देव कुमार की पराजय है, क्योंकि वह मनुष्य की दुर्बलताओं के सम्मुख नतमस्तक होता है। यह उसका वैचारिक एवं चारित्रिक पतन है, साठ वर्ष की सत्य, न्याय सेवा, धर्म आदि की उपलब्धियां धन के लालच और चाटुकारिता में बदल जाती है। लोभप्रवृत्ति उनके आत्म-गौरव, आत्म-सम्मान, नीति एवं सत्य-पोषण के गुणों को नष्ट करके उन्हें सभी मानवीय मूल्यों से शून्य बना देती है। देव कुमार का यह पतन कथा के विकास के लिए जरूरी है, लेकिन यदि उपन्यास पूरा हो सका होता तो प्रेमचंद निश्चय ही, अपनी सृजन-प्रवृत्ति की परंपरा के अनुसार उन्हें इस कीचड़ से निकालकर उनका परिष्कार करते और वास्तविक 'मंगल-सूत्र' को पाठकों को समर्पित करते ।


प्रेमचंद के इस अभिप्रेत 'मंगल-सूत्र' के प्रमाण के लिए एक अत्यंत प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध है। प्रेमचंद के बड़े पुत्र श्रीपतराय ने मन्मथनाथ गुप्त को 18 मई, 1950 को लिखे पत्र में इसी सूत्र का उद्घाटन करते हुए लिखा था, "उन्होंने अपने अंतिम दिनों में अपने अंतिम और असमाप्त उपन्यास की आलोचना मेरे साथ की थी" वे 'गोदान' की तरह इसे बहुत-कुछ आत्मकथामूलक बनाना चाहते थे, पर गोदान' में जहाँ वातावरण दूसरा है, इसमें वह शहरात होता। इसमें वे अपने मानदंडों के अनुसार यह दिखाना चाहते थे कि सफलता के लिए चालाकी (Craft) अनिवार्य रूप से आवश्यक नहीं हैं। वे इस उपन्यास में यह दिखाना चाहते थे कि एक ईमानदार, परिश्रमी और सीधा-सादा आदमी ऐसी सफलता प्राप्त कर सकता है, जिसे देखकर लोग ईर्ष्या करें और यह जगह सुरुचिपूर्ण मान्यताओं के संपूर्ण विरुद्ध नहीं है। मेरा ऐसा विश्वास है कि ये ऐसा समझते थे कि उन्हें अपने जीवन में सफलता प्राप्त हुई है, और ऐसा वे उचित कारणों से समझते थे, ऐसा मेरा अनुमान है। उनका जीवन ईमानदारी का एक मूर्त रूप था, जिसे युगों तक लोग याद करेंगे। इसे सभी मानते हैं और एक जीवन के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया, यह भी नि:संदेह है


प्रेमचंद-समीक्षा का इतिहास बताता है कि मार्क्सवादी समीक्षक मन्मथनाथ गुप्त तथा प्रेमचंद के बड़े पुत्र श्रीपतराय के इस साक्ष्य और प्रमाण को भी 'प्रगतिशील' समीक्षकों ने बिल्कुल महत्व नहीं दिया और इन वस्तुवादियों ने इस प्रमाण की उपेक्षा कर दी। इसकी उपेक्षा उनके हित में थी। आश्चर्य तब होता है, जब इन प्रगतिशील समीक्षकों, शोधकर्ताओं ने 'प्रगतिशील लेखक संघ' में दिए भाषण तक की उपेक्षा कर दी। ये बस इसमें प्रसन्न रहे कि प्रेमचंद ने 'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना की (कुछ को तो यह भी ज्ञात नहीं है कि वे इसके संस्थापक नहीं थे) तथा इसकी अध्यक्षता की। इस भाषण को यदि इन प्रगतिशील विद्वानों ने पूरा पढ लिया होता तो वे कुछ तो उनकी भारतीयता को समझते। इस भाषण में वे कहते हैं कि 'नीति-शास्त्र ' और 'साहित्य-शास्त्र' एक हैं। उसका लक्ष्य है- सुरुचि जगाना, आध्यात्मिक-मानसिक तृप्ति देना, शक्ति और गति उत्पन्न करना, कठिनाइयों पर विजय पाने के लिए सच्चा संकल्प एवं दृढ़ता तथा सच्चाई, सहानुभूति, न्यायप्रियता, आध्यात्मिक सामंजस्य आदि भावों को पुष्ट करना, मन का संस्कार करना धन-वैभव से मुक्ति एवं सेवा-उपासना की सार्थकता, सादा जीवन तथा ऊंची निगाह एवं स्वार्थमयता से मुक्ति यह संपूर्ण शब्दावली तथा विचार-सूत्र 'प्रगतिशील लेखक संघ' के अधिवेशन में दिए व्याख्यान के ही हैं। कोई भी मार्क्सवादी लेखकसमीक्षक बताए कि क्या वे इसमें 'मार्क्सवादी मंगल-सूत्र' देखते हैं या 'भारतीय मंगल-सूत्र' और क्या वे इस भाषण के गुणों से युक्त देवकुमार को मार्क्सवादी मानते हैं या पतनशील देव कुमार को? प्रेमचंद अपने भाषण में शुद्ध भारतीय हैं, भारतीयता के तत्वों को लेते हैं और कहीं भी मार्क्स की शब्दावली का उपयोग नहीं करते । देव कुमार एक साहित्यकार है, अतः प्रेमचंद के विचार में उसे आदर्शवादी ही होना है। प्रेमचंद ने अप्रैल, 1932 में 'हंस' में लिखा था, "साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए। भावों का परिमार्जन भी उतना ही वांछनीय है। जब तक हमारे साहित्य-सेवी इस आदर्श तक न पहुंचेंगे तब तक हमारे साहित्य में मंगल की आशा नहीं की जा सकती।' 22 प्रेमचंद इसी 'मंगल' के लिए मंगल-सूत्र की तलाश करते हैं।' 'मंगलसूत्र' पूरा होता तो देव कुमार अपनी दुर्बलता को जीत कर इसी मंगल-सूत्र का पर्याय होता। जहां तक देव कुमार के दरिदों से लड़ने का प्रश्न है, क्यों इसे मार्क्स की खूनी क्रांति से जोड़ा जाए? मेरे विचार से इसे अधर्म से युद्ध करने की भारतीय परंपरा में देखा जाए? भगवान कृष्ण अधर्म से लड़ने के लिए अर्जुन को पलायन से मुक्तकर युद्ध के लिए तत्पर करते हैं। चाणक्य अपने शत्रुओं का समूल नाश करता है। गोस्वामी तुलसीदास आसुरी प्रवृत्तियों से युद्ध करने के लिए राम के हाथ में धनुष-वाण देते हैं। अतः देव कुमार यदि दरिंदों (मानवता के शत्रुओं) से लड़ने के लिए हथियार बांधने के लिए कहता है तो वह इसी जातीय परंपरा का अनुसरण करता है। अंतर केवल यह है कि देव कुमार सत्य, नीति, त्याग, धर्म के स्थान पर अपने स्वार्थ के लिए हथियार उठाना चाहता है। प्रेमचंद इसे भली-भांति जानते हैं, इसलिए वे इसे केवल एक उक्ति के रूप में ही इस्तेमाल करते हैं।


भारतीय चिंतन तथा जीवन-दृष्टि 'अनीति' 'अधर्म' एवं 'असत्य' के विरुद्ध धर्म-युद्ध का आह्वान करती है, लेकिन देव कुमार का युद्ध स्वयं उसकी अनीति और दुर्बलताओं की उपज है। वह वेश्याओं के मुजरे में धन कमाता है, पितरों के पिंड-दान में पंडितों का घर भरता है और साहित्यिक संतुष्टि तथा यश के लिए नाटक-मंडलियों पर धन लटाता है और इसी आर्थिक दबाव में अपनी जायदाद बेचता है। इस बेची जायदाद तो वापस लेने की कानूनी लड़ाई का कोई नीतिगत आधार नहीं है। भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा जयशंकर प्रसाद ने अपनी धन-संपत्ति का बहुत बड़ा हिस्सा इसी प्रकार लुटा दिया था, इसे सारा हिंदी संसार जानता है, परंतु वे इतने मूर्ख नहीं थे कि भोग-विलास-यश के लिए बेची गई संपत्ति को वापस लेने के लिए कानूनी लड़ाई शुरू करें और यह कहें कि संपत्ति को वापस लेने के लिए हथियार उठाने होंगे। इस युद्ध की नैतिकता तब थी जब क्रेता ने देव कुमार से छल, कपट और आंखों में धूल झोंककर या बेचने के समय के दामों से, अपनी चालाकी या धूर्तता से बहुत कम कीमत दी हो। यह भी ध्यातव्य है कि संपत्ति पचास पूर्व बेची गई थी, अर्थात,सन 1886 में ('मंगल-सूत्र' की रचना के 50 वर्ष पूर्व) वह जायदाद लेखक के अनुसार दस हजार में तथा संत कुमार के अनुसार 'बीस हजार' में बेची गई । मैं संत कुमार के उल्लेख को सच मानता हूँ, क्योंकि वहीं व्यक्ति जिसने जायदाद को वापस लेने का युद्ध शुरू किया है। उस समय यह जायदाद बीस हजार' की थी, 'मंगल-सूत्र' के रचना-काल में वह 'दो लाख' की हो गई और यदि वह सन् 2010 में बेची जाती तो वह 10-20 करोड़ की होती । इस प्रकार यदि संत कुमार तथा देव कुमार के तर्कों को माना जाए तो 30-40 वर्ष पूर्व बेची गई संपत्तियां भी आज के वारिसों को वापस ले लेनी चाहिए और यदि यह संभव हो सके तो इन वारिसों के पूर्वजों ने जिन लोगों से जायदाद और जमीन खरीदी थी, उनके वारिस भी उनसे ऐसी सभी जायदाद को वापस लेने का कानूनी अधिकार क्यों छोड़ना चाहेंगे? 'अर्थ यह है कि संत कुमार की कानूनी लड़ाई हास्यास्पद है, देश के कानूनों के विरुद्ध है, क्रेताविक्रेता के सिद्धांतों के विरुद्ध है, अतः जब देव कुमार जैसा साहित्यकार जो नीति, सत्य और धर्म पर चलता रहा है, अपने बेटे संत कुमार की मूर्खतापूर्ण कानूनदावपेंच का समर्थन करता है तो क्या ये मार्क्सवादी समीक्षक ये समझते हैं कि प्रेमचंद इन मूर्खताओं के समर्थक बन जाते हैं? प्रेमचंद का कितना ही गांधीवाद से मोहभंग हुआ होता, (जो कि वास्तव में हुआ नहीं था) तब भी वे इस अनीति, असत्य तथा धूर्तता का साथ नहीं दे सकते थे। मार्क्सवादी लेखक प्रेमचंद को 'गांधीवाद' से मोह-भंग के नाम पर, उन्हें मार्क्सवादी बनाने तथा प्रमाणित करने के राजनीतिक षड्यंत्र के लिए उन्हें इतना नीचे गिरा सकते हैं, यह कोई सोच भी नहीं सकता थाप्रेमचंद का स्वयं का जीवन देव कुमार जैसा ही था। उन्हें नीति, सत्य, धर्म, प्यारा था। उन्हें कई व्यक्तियों ने आर्थिक दृष्टि से लूटा भी, लेकिन उन्होंने देव कुमार के समान न तो अपने पुत्र की 'कुटिल चालों' का समर्थन किया और न स्वयं ही ऐसी चालों से धन कमाया। हमारे मार्क्सवादी देव कुमार की एक उक्ति को ले उड़े हैं। वे उसके पूर्व के व्यक्तित्व को नहीं देखते और न बाद के परिवर्तित रूप को और न उन कारणों को ही देखा जिसके कारण देव कुमार अपने बेटे संत कुमार से कानूनी लड़ाई शुरू करने के लिए कहता है। मार्क्सवादियों को पूरे प्रेमचंद साहित्य में ऐसी ही पांच-छ: उक्तियां मिलती हैं, लेकिन इनसे वे 8-10 हजार पृष्ठों को लिखने वाले प्रेमचंद को परिभाषित कर हिंदी-संसार को दिग्भ्रमित करते रहे हैं। ये मार्क्सवादी यही लिखते रहे हैं कि इन 6-7 रचनाओं में ही वास्तविक, विकसित और स्थाई प्रेमचंद हैं, शेष साहित्य कल्पना, आदर्श और गांधीवाद पर आधारित है जो उनकी अविकसित तथा मोह-भंग का प्रतीक है। ये समीक्षक इन रचनाओं को यथार्थवाद से भी जोड़ कर उनकी कलात्मक श्रेष्ठता की भी स्थापना करते हैं, जैसे मार्क्स. के आने से पूर्व साहित्य में यथार्थवाद' था ही नहीं। प्रेमचंद ने जो यथार्थवाद तथा आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की चर्चा की है, उसे भी ये मार्क्सवादी स्वीकार नहीं करते, क्योंकि प्रेमचंद का आदर्शवाद तथा ऐसा यथार्थवाद जो आदर्श की ओर उन्मुख हो, उनके मार्क्सवादी चिंतन में नहीं आता। ये समीक्षक प्रेमचंद को भी उनके साहित्यिक सिद्धांतों तथा साहित्य-चिंतन से साथ ग्रहण नहीं करते, क्योंकि उनके सिद्धांत भी मोहग्रस्ता के परिणाम हैं, ऐसा ये मानते हैं।


अंत में, प्रेमचंद के अधूरे उपन्यास 'मंगल-सूत्र' के पाठ से तथा प्रेमचंद की पूर्व मान्यताओं के आधार पर इसके अधूरेपन को पढ़कर इसके पूवर्णरूप प्रतिपाद्य को सरलता से समझा जा सकता है। प्रेमचंद का अपना जीवन साहित्यकार के लिए उनके आदर्श तथा श्रीपतराय का साक्ष्य, 'मंगल-सूत्र' के 'प्रेमचंदीय मंगल-सूत्र' को स्पष्टता से समझा जा सकता है। यह 'मंगल-सूत्र' भारतीय आदर्शों पर टिका है, भारतीयता पर टिका है। देव कुमार अपने जीवन के गुणों तथा उपलब्धियों से 'मंगल-सूत्र' प्रस्तुत करेगा। उसकी पतनशील विचारधारा उसकी परीक्षा के लिए है और उसे 'मनुष्य' बनाने क लिए है। प्रेमचंद अपने नायक को परीक्षा में डालते हैं, पतनशील मनोवृत्ति उत्पन्न करते हैं और धीरे-धीरे उसे कीचड़ में कमल की तरह खिलाकर उसका परिष्कार करते हैं। देव कुमार एक बार कीचड़ में फंसता है, दलदल में गिर जाता है, परंतु उसे कमल की तरह खिलकर मनुष्य जीवन के लिए ‘मंगल-सूत्र' का मंत्र देना है। मंगल-सूत्र' नीति का होगा, सत्य का होगाधर्म का होगा और यह देव कुमार का ही नहीं, प्रेमचंद का भी होगा, पूरे समाज का होगा। मेरा और आप सबका होगा, संपूर्ण भारतीयता का होगा।