प्रेमचंद : डॉ.रामविलास शर्मा और मैं

आलेख


कमल किशोर गोयनका


प्रेमचंद के साथ मार्क्सवादी आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा का सम्बन्ध कई दशकों तक रहा है। डॉ. शर्मा की प्रेमचंद पर पहली पुस्तक 'प्रेमचंद' के नाम से सन् 1941 में छपी थी। इससे पूर्व पं. जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' की प्रेमचंद पर लिखी पुस्तक लगभग छह-सात वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुकी थी, लेकिन सन् 1952 में प्रकाशित दूसरी पुस्तक डॉ. शर्मा की 'प्रेमचंद और उनका युग' ने जो ख्याति उन्हें दी वह पहली पुस्तक से नहीं मिली। इस दूसरी पुस्तक ने उन्हें प्रेमचंद के आलोचक के रूप में स्थापित कर दिया और वे प्रेमचंद के मार्क्सवादी आलोचकों में शीर्ष स्थान प्रतिष्ठित हुएडॉ. 'नामवर सिंह जैसे मार्क्सवादी आलोचक भी यद्यपि मैदान में थे, लेकिन उन्होंने प्रेमचंद पर कोई पुस्तक नहीं लिखी और वे जो छिटपुट भाषण देते रहे, उससे वे डॉ. रामविलास शर्मा की कोटि तक पहुँच नहीं सकते थे। डॉ.रामविलास शर्मा की पस्तक 'प्रेमचन्द और उनका यग' के अभी तक चार संस्करण हए हैं। इसका चौथा संस्करण 8 अगस्त 1987 को हुआ और इसमें सौ से अधिक पृष्ठों की नयी सामग्री जोड़ी गयी। इस प्रकार इसका संशोधन एवं परिवर्द्धन हुआ और कुछ नये रूप में यह पुस्तक प्रकाशित हुई।


डॉ. रामविलास शर्मा का आलोचनात्मक व्यक्तित्व दसरे मार्क्सवादियों की तुलना में भिन्न रहा है। 'प्रेमचंद और उनका युग' पुस्तक के चौथे संस्करण को जब वे तैयार करने लगे तो उन्होंने अपने पड़ोसी डॉ. रणजीत साहा को मेरे पास भेजा किवे मुझसे मेरी प्रेमचंद पर लिखी कुछ प्रमुख पुस्तकें ले सकें और उन पर विचार कर सकें। मेरे लिए यह नया अनुभव था। यद्यपि डॉ. रामविलास शर्मा से मेरा यदाकदा पत्र-व्यवहार होता रहता था, लेकिन उन जैसा कोई मार्क्सवादी आलोचक मेरी प्रेमचंद सम्बन्धी पुस्तकें पढ़ना चाहता है और वह भी डॉ. रामविलास शर्मा जैसा प्रतिष्ठित आलोचक तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआडॉ. नामवर सिंह ने 'प्रेमचंद विश्वकोष' पढ़ा था और 'आलोचना' (अंक : 62-63, जुलाई-दिसंबर, 1982) में उस पर डॉ. गोपाल राय की समीक्षा प्रकाशित भी की थी, परन्तु उस पर कभी कुछ न कहा, न लिखा। डॉ. शिवकुमार मिश्र जैसे मार्क्सवादी ने अमृतसर की गोष्ठी में यह तो कहा कि जो काम गोयनका ने प्रेमचंद पर किया, वह हम प्रगतिशीलों ने क्यों नहीं किया, लेकिन अपनी पुस्तक में वे मेरी आलोचना ही करते रहे। ऐसी स्थिति में डॉ. रामविलास शर्मा का आलोचक व्यवहार प्रशंसा के योग्य था और मैंने डॉ. रणजीत साहा को अपनी तीन पुस्तकें-'प्रेमचंद विश्वकोष', 'प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्पविधान' तथा 'प्रेमचंद : अध्ययन की नयी दिशाएं दीं और वे कुछ मास के उपरान्त उन्हीं के द्वारा वापस आ गयीं।


____ मैं इस प्रसंग को भूल गया था कि सन् 1988 में मेरे एक मित्र ने बताया कि 'प्रेमचंद और उनका युग' में डॉ. रामविलास शर्मा ने लगभग सौ पृष्ठों में मेरे मतों को उद्धृत करते हुए अपना विवेचन किया है और मेरी कुछ मान्यताओं का खंडन किया है। मुझे यह आश्चर्यजनक लगा कि डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद पर मेरी खोजों और स्थापनाओं को इतनी गम्भीरता से लिया कि उन पर विस्तार से लिखने की विवशता उन्हें अनुभव हुई । मैंने इस चौथे संस्करण को खरीदा और उनकी आलोचना एवं व्याख्याओं को देखा और मुझे लगा कि मुझे इन पर अपना अभिमत प्रस्तुत करना चाहिए, क्योंकि वे प्रेमचंद को लेकर अपने मार्क्सवादी पूर्वाग्रहों, तर्कहीन आक्षेपों तथा तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने एवं उनकी उपेक्षा की प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हो पाये हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद की आलोचना में दो विचार-समूहों की कल्पना की है-एक, मार्क्सवादी जिसके वे स्वयं प्रवक्ता हैं और जिसे वे रूसी क्रांति का प्रेरक समर्थक, गांधी-विरोध तथा साम्राज्य एवं सामंत-विरोधी मानते हैं, दूसरा, भारतीय संस्कृति (भारतीयतावादी) जिसकी स्थापना का श्रेय वे कमल किशोर गोयनका को देते हैं। डॉ. शर्मा ने अपने विवेचन में डॉ. शैलेश जैदी की भी चर्चा की थी। परन्तु वे ज़ैदी को भारतीय संस्कृति से नहीं जोड़ते और उन्हें वे प्रेमचंद के चरित्र-हनन में उल्लेखनीय योगदान पर विचार करते हैं। डॉ. शर्मा ने लिखा है कि साठोत्तरी पीढ़ी जिस समय हिन्दी में नयी कविता का विकास कर रही थी, उस समय आलोचनाक्षेत्र में कुछ लेखक विशुद्ध भारतीय संस्कृति के आधार पर प्रेमचंद के उपन्यासों की नयी व्याख्या प्रस्तुत कर रहे थे। कमल किशोर गोयनका ने अपना शोध-कार्य 1963 में आरम्भ किया था, उनका शोध प्रबन्ध 'प्रेमचंद के उपन्यासों का 'शिल्प-विधान' 1973 में प्रकाशित हुआ। 'डॉ. रामविलास शर्मा नये चौथे संस्करण में प्रेमचंद के जीवन, उनकी विचार-धारा एवं उनकी दो प्रमुख औपन्यासिक कृतियों के आधार पर इस भारतीय संस्कृतिवादी आलोचना की परीक्षा करते हैं ओर अनेक बिन्दुओं से अपनी असहमति प्रकट करते हुए यह मानते हैं कि कमल किशोर गोयनका ने जो विचार-धारात्मक संघर्ष शुरू किया है, वह प्रेमचंद को लेकर इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश करते समय भी जारी रहेगा, क्योंकि प्रेमचंद साहित्य का ऐसा ही ऐतिहासिक महत्व है।


___ हमें यहां डॉ.रामविलास शर्मा की नयी व्याख्याओं को देखना होगा कि वे कैसे भारतीय संस्कृति अर्थात् भारतीयता वाले आलोचनात्मक सिद्धान्त का खंडन करके मार्क्सवादी दृष्टिकोण की स्थापना करते हैं। इससे मार्क्सवादी आलोचना का चरित्र तो उजागर होगा ही, प्रेमचंद के दृष्टिकोण की उपेक्षा एवं उनकी कृतियों को भारतीयता के परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने के आलोचना के स्वदेशी-सिद्धांत को अस्वीकार करके मार्क्स की विदेशी विचारधारा को ही आलोचना का मानदंड मानने की दुर्नीति भी स्पष्ट होगी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी आलोचना में मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव रहा है और उसे एकमात्र वैज्ञानिक सिद्धांत बताया जाता रहा है बिना इसे स्पष्ट किये कि यह वैज्ञानिक सिद्धांत कैसे रूस-चीन में लाखों लोगों की हत्या के बाद सत्ता में आया, क्यों वह सारे विश्व में नहीं फैल पाया और क्यों वह अपने जन्म-स्थान में ही समाप्त हो गया? इसके साथ भारत के साहित्यकार एवं उसकी कृतियों को भारतीयदृष्टि से देखने-समझने की आलोचनात्मक दृष्टि की आलोचना भी तर्कसंगत नहीं हैहम अपने साहित्यकार को अपनी दृष्टि से न देखें, अपनी भारतीयता से उसका मूल्यांकन न करें, यह कौनसा तर्क है? डॉ. रामविलास शर्मा अपनी पहली पुस्तक 'प्रेमचंद' (1941) में भारतीयता के विरोधी नहीं थे। उन्होंने लिखा था कि प्रेमचंद ने साहित्य की जो व्याख्या की है, वह उनकी 'भारतीयता' का प्रमाण है। अपनी इसी भारतीयता के कारण डॉ. शर्मा कहानी को पश्चिम की देन नहीं मानते। वे इसे 'यूरोप -भक्ति कहते हैं और कहानी को भारत के कथा-साहित्य की जातीय परम्परा से जोडते हैं। डॉ. शर्मा यह स्पष्ट शब्दों में अपनी दसरी पस्तक में भी मानते हैं कि प्रेमचंद, वाल्मीकि, व्यास, तुलसी, सूर और कबीर की परम्परा के उत्तराधिकारी हैं तथा उन्होंने इनसे साहित्य साधना तथा अपने देश की संस्कृति की उन्नति के लिए कष्ट सहना सीखा है। डॉ. शर्मा लिखते हैं कि 'प्रेमाश्रम' से 'गोदान' तक 'विलायती मशीन' तथा 'विलायती शोषण' से देश को मुक्त करना चाहते थे, इसी कारण 'प्रेमाश्राम', 'कर्मभूमि' वगैरह में दो संस्कृतियों (पश्चिमी एवं भारतीय) का भेद बहुत साफ-साफ जाहिर किया थाडॉ. शर्मा तो यहां तक लिखते हैं कि प्रेमचंद पर 'प्राचीन अध्यात्मवाद' का प्रभाव भी है, लेकिन क्रमश: वह क्षीण होता गया है। डॉरामविलास शर्मा का यह निष्कर्ष है कि प्रेमचंद अपने देश की संस्कृति के उपासक थे और वे 'बीसवीं सदी में भारतीय संस्कृति' के एक नये आगे बढ़े हुए चरण थे। 'भारतीय संस्कृति' के साथ प्रेमचंद और गांधी दोनों को जोड़ते हैं तथा लिखते हैं कि गांधी और प्रेमचंद ने भारतीय संस्कृति से जो सबसे मूल्यवान वस्तु पायी थी, वह कर्मयोगी की स्थितप्रज्ञता थी ।


डॉ. रामविलास शर्मा, स्पष्ट हैं, प्रेमचंद को भारतीय संस्कृति और भारतीय मूल्यों से देख रहे हैं और मानते हैं कि वे वाल्मीकि, व्यास, तुलसी, कबीर आदि के समान भारतीय संस्कृति उपासक और संवाहक थे, परंतु जब कमल किशोर गोयनका उनके उपन्यासों की व्याख्या भारतीय संस्कृति के आधार पर करते हैं तो डॉ. शर्मा एकदम हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट की तरह इस भारतीय दृष्टि को पूंजीवाद, साम्प्रदायिकता एवं मार्क्सवाद की संघर्षशील विचारधारा परआक्रमण के रूप में देखते हैं। वे 'प्रेमचंद और उनका युग' में लिखते हैं कि पूंजीवादी वर्ग के लेखक पहले कहते थे कि प्रेमचन्द तात्कालिक समस्याओं पर लिखते हैं और उनके साहित्य का शाश्वत मूल्य नहीं है और अब वे कहते हैं कि प्रेमचंद ने भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता दिखाने के लिए उपन्यास लिखे हैं और इस संस्कृति का सार तत्व है अध्यात्मवाद और अध्यात्मवाद से अधिक शाश्वत संसार में और क्या होगा? इस वक्तव्य में डॉ. शर्मा हिन्दी के लेखक जैनेन्द्र, नगेन्द्र, नन्ददुलारे वाजपेयी आदि के साथ कमल किशोर गोयनका पर कम्युनिस्ट नेता की तरह चोट करते हैं और इसके लिए वे कम्युनिस्ट शब्दावली का प्रयोग करते हैं। डॉ. शर्मा ऐसा वक्तव्य देते समय तथ्यों को नहीं देखते, न प्रमाण देते हैं और न मार्क्सवादी दुराग्रहों एवं अपने प्रतिकूल स्थापनाओं पर साधारण तथा चलताऊ टिप्पणियों से स्वयं को रोक पाते हैं। डॉ. शर्मा का यह मार्क्सवादी भ्रम है कि कमल किशोर गोयनका आदि पूंजीवादी वर्ग के हैं तथा यह भी आधारहीन धारणा है कि गोयनका ने यह स्थापित किया है कि प्रेमचंद ने भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए उपन्यास लिखे हैं। 'प्रेमाश्रम' में विद्यमान भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता के प्रेमचंदीय विचार को डॉ. शर्मा ने गोयनका का विचार बनाकर उसे परी उपन्यास-सष्टि तक फैला दिया है और 'अध्यात्मवाद' को शाश्वत तत्व बताकर भारतीय संस्कृति पर गहरा व्यंग्य किया है। डॉ. शर्मा यहां भूल गये कि उन्होंने स्वयं लिखा था कि प्रेमचंद पर 'प्राचीन अध्यात्मवाद' का प्रभाव था, जबकि इसके विपरीत गोयनका ने कहीं यह नहीं लिखा कि प्रेमचंद आध्यात्मिकता के लेखक थे। डॉ. रामविलास शर्मा की एक तकलीफ यह भी है कि वे भारतीय संस्कृति तथा भारतीयता के आधार पर प्रेमचंद की व्याख्या में मार्क्सवादी एवं संघर्ष वाले साहित्य को बाहर करने की साजिश देखते हैं। यह डॉ. शर्मा का वही मार्क्सवादी पूर्वाग्रह है जो अपने प्रतिकूलों में पूंजीवादी साजिश एवं मार्क्सवाद डॉ. रामविलास शर्मा ने 'प्रेमाश्रम', 'रंगभूमि', 'गोदान' उपन्यासों, रूसी क्रांति के प्रभाव तथा प्रेमचंद के जीवन को लेकर कमल किशोर गोयनका की मान्यताओं का खंडन करते हुए उन्हें 'साम्राज्यवादी पशुओं को हथियारों से खत्म करने की नीति का समर्थक स्थापित किया है। इन सभी में डॉ. रामविलास शर्मा ने 'प्रेमाश्रम' के विवेचन पर बहुत स्थान दिया है, क्योंकि गोयनका की स्थापनाओं से उनकी मान्यताएं ही खंडित नहीं होतीं, बल्कि 'प्रेमाश्रम' को खूनी क्रांति के समर्थन का उपन्यास बताने की साजिश का भी पर्दाफाश होता है। डॉ. शर्मा की 'प्रेमाश्रम' उपन्यास पर कई आपत्तियां हैं। वे नहीं मानते कि 'प्रेमाश्रम' भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृतियों के द्वंद्व का उपन्यास है, जैसा कि गोयनका ने सिद्ध किया है। इसका कारण यह है कि डॉ. शर्मा 'प्रेमाश्रम' की कथा की चार दिशाओं में से लखनपुर गांव की एक दिशा को ही उपन्यास की मुख्य कथा मान लेते हैं और उसी के आधार पर सारे उपन्यास के प्रतिपाद्य का निर्णय कर लेते हैं और लिखते हैं कि ऐसा न मानने वाले आलोचक उपन्यास की वास्तविक विषयवस्तु का अवमूल्यन करते हैं। यह डॉ. शर्मा का वामपंथी दुराग्रह है जो तथ्यों की उपेक्षा करके अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए अपने निर्णय को ही वैज्ञानिक मानता है, आन्यथा सात परिच्छदों की कथा को वे उपन्यास की वास्तविक कथा नहीं बताते । डॉ. रामविलास शर्मा 'प्रेमाश्रम' में गांधीवाद के प्रभाव को लेकर भी भ्रम में हैं और परस्पर विरोधी वक्तव्य देते हैं। वे कहते हैं कि 'प्रेमाश्रम' में गांधीवाद की विजय अस्थायी है।4 तथा 'प्रेमाश्रम' की स्थापना में गांधीवाद का असर है लेकिन वह यह भी कहते हैं कि यह उपन्यास गाँधीवाद की विफलता' का उपन्यास है और ट्रस्टीशिप कोई भारतीय सिद्धांत नहीं है तथा जनता में सत्याग्रह के समय लाठी-गोली खाने की ताकत भी गांधीवाद की देन नहीं है। डॉ. शर्मा एक और विचित्र तर्क देते हैं। वे लिखते हैं कि 'प्रेमाश्रम' के ध्वंस की प्रतिबद्धता देखता है और सारे तथ्यों-तर्कों को पीछे धकेल कर चरित्रहनन तक से नहीं चूकता। डॉ. रामविलास शर्मा का मत है कि 'गोदान' का होरी 'मृत्यु-पर्यन्त संघर्ष' करता है। परन्तु वे सिद्ध नहीं कर पाते कि वह कैसे संघर्ष करता है। वे कमल किशोर गोयनका के इस मत से आहत हैं कि होरी में संघर्ष नहीं हैं, लेकिन 'रंगभूमि', के सूरदास में बड़ी-बड़ी शक्तियों से संघर्ष की अद्भुत शक्ति है। डॉ. शर्मा भी मानते हैं कि सूरदास संघर्षशील पात्र है, परन्तु वे होरी को संघर्ष में शीर्ष पर रखना चाहते हैं, और वे जब गोयनका की व्याख्या में इसके विपरीत धारणा पाते हैं, तो वे गोयनका पर प्रेमचंद के संघर्षशील साहित्य को ही बाहर निकालने का आरोप लगा देते हैं । वे प्रेमचंद की रचना के विपरीत होरी को मार्क्सवादी पात्र बनाना चाहते हैं जो किसी भी मार्क्सवादी के लिए सम्भव नहीं है।


में जो ट्रस्टीशिप हैं, प्रेमाश्रम की स्थापना है, हृदय-परिवर्तन और रामराज्य का समर्थन है वह पूंजीपतियों के दबाव के कारण है, क्योंकि वे नहीं चाहते कि जनता का शोषण के प्रति आक्रोश साहित्य में आये, इसलिए 'ट्रस्टीशिप' आदि का प्रभाव दिखाया गया है। यह तो सीधे प्रेमचंद पर ही आरोप है कि 'प्रेमाश्रम' में पूंजीपतियों के दबाव में है और इसीलिए वे 'आक्रोश' अर्थात् रक्तिम संघर्ष का साथ न देकर गांधी के अहिंसात्मक साधनों का समर्थन करते हैं। डॉ. शर्मा 'प्रेमाश्रम' की विवेचना में यहां तक कहते हैं कि जो शक्तियां (गांधी और प्रेमचंद भी) वोल्शेविक क्रांति (खूनी क्रांति) का विरोध करती हैं वे अत्याचार-शोषण का प्रतिरोध करने की मजदूरों-किसानों की शक्ति को कम करती हैं तथा वे जमींदारों-सरकारी हाकिमों के अत्याचार और शोषण को कायम रखना चाहते हैं । सारा विश्व जानता है कि गाँधी ने बोल्शेविकों की खूनी क्रांति एवं वर्ग-संघर्ष का बार-बार विरोध किया और रूसी एवं हिन्दुस्तानी कम्युनिष्ट गांधी को 'पूंजीपतियों का दलाल', 'प्रतिक्रियावादी', 'वर्ग-शत्रु' आदि घोषित करते रहे। प्रेमचंद ने भी 'प्रेमाश्रम' में बलराम के बोल्शेविज्म का साथ नहीं दिया और उसे गांधीवादी प्रेमशंकर का अनुयायी बना दिया। इसके बाद वे बार-बार साम्यवाद के खूनी सिद्धान्तों तथा उसके पूंजीवाद' से भी अधिक बुरे होने की घोषणा करते रहे। इस प्रकार डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि में गाँधी और प्रेमचंद दोनों ही वोल्शेविक-विरोधी हैं, इसलिए वे मजदूरों-किसानों के शत्रु और साम्राज्यवादियों के सहयोगी हैं। डॉ. शर्मा के ये निष्कर्ष राष्ट्र-विरोधी, प्रेमचंदविरोधी, इतिहास -विरोधी होने के साथ एक हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट के नासमझी भरे पूर्वाग्रहों को उजागर करते हैं। डॉ. शर्मा के पास इसका कोई उत्तर नहीं है कि गांधीवाद का विरोधी जैसे देशद्रोही नहीं हैं, वैसे ही वोल्शेविक-विद्रोही कैसे शोषण एवं गुलामी कासमर्थक हो गया? ऐसे कुतर्क वामपंथी ही दे सकते हैं।


- डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचक हैं और प्रेमचंद पर लिखी उनकी यह पुस्तक प्रेमचंद को पक्के तौर पर मार्क्सवादी बनाने के लिए लिखी गई है इसलिए वे वोल्शेविक क्रांति का समर्थन और गांधीवाद के विरोध में इतिहास विरुद्ध टिप्पणियां करने में भी संकोच नहीं करते। डॉ. शर्मा अपने मार्क्सवादी विवेक से जानते हैं कि प्रेमचंद को यदि मार्क्सवादी बनाना हैतो उन पर गांधी के प्रभाव को शून्य में बदलना होगा और गांधी को भी मंच से हटाना होगा। डॉ. शर्मा लिखते हैं कि 'प्रेमाश्रम' के रचनाकाल में रूसी क्रांति की खबरें भारत के किसानों ने भी सनी और उसके कारण गलामी का जुआ उतार फेंकने की कोशिश करने लगे अर्थात सन 1920-21 तक देश में स्वाधीनता की लहर उत्पन्न करने में गांधी का कोई योगदान नहीं था। डॉ. शर्मा यहां गांधी-चेतना से भी प्रबल रूसी क्रांति की चेतना को बताकर इतिहास को बदल रहे हैं लेकिन वे इतने पर ही नहीं रुकते हैं। डॉ. शर्मा आगे लिखते हैं कि सन 192030 के समय 'राष्ट्रीय आन्दोलन का शन्य काल है और इस प्रकार वे इस कालखंड में किये गये आंदोलनों तथा राष्ट्रीय जागृति की चेतना को इतिहास से ही मिटा देते हैं। संभवतः उनकी वामपंथी प्रतिबद्धता ही गांधी को इतिहास से हटा देना चाहती हैं। इसी कारण वे 'रंगभूमि' और 'कर्मभूमि' उपन्यासों की विवेचना में गांधी के नाम तक का उल्लेख नहीं करते जबकि गांधी के स्वाधीनता आन्दोलन को सामने रखे बिना इन उपन्यासों के वास्तविक प्रतिपाद्य को समझा नहीं जा सकता। रंगभूमि' का सूरदास तो गांधी का ही प्रतिरूप है जो सत्य, धर्म एवं न्याय की लड़ाई लड़ता है। वह कृषि जीवन का समर्थक है और औद्योगीकरण का विरोधी, जैसा गांधी का विचार था पर डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि इस समय हिन्दुस्तान की जनता बिना किसी पार्टी और राजनीति नेता के सलाह के लड़ रही थी और बड़े-बड़े नेता भी राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर थे।4 डॉ. शर्मा इतने अज्ञानी नहीं हैं कि उन्हें असहयोग आन्दोलन, नेताओं की गिरफ्तारी और गांधी-इर्विन पेक्ट तथा अन्य अनेक राजनीतिक गतिविधियों की जानकारी न हो परन्तु वे यहां आम हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट की तरह ही इतिहास को उलट-पुलट कर अपने अनुसार बदल रहे हैं। डॉ.शर्मा सूरदास को 'सामंत-विरोधी' एवं 'साम्राज्य विरोधी',25 बताकर उसे कम्युनिस्ट नायक बनाते हैं जबकि उसकी लड़ाई सत्य, न्याय और धर्म के लिए है। वह अंग्रेजी शासन-तंत्र से लड़ता है, पर अपने ही गांव के लोगों के अन्याय से भी लड़ता है। उसकी प्रमुख लड़ाई अपनी जमीन के लिए है जिसे एक ईसाई व्यापारी सिगरेट के कारखाने के लिए हथिया लेता है। डॉ. शर्मा इन तथ्यों से परिचित हैं, इसी कारण वे सूरदास के 'सामन्त-साम्राज्य विरोधी' संघर्ष को स्पष्ट नहीं करते परन्तु वे इस पर बार-बार जोर देते हैं कि प्रेमचंद 'रंगभूमि' में उद्योगीकरण के विरोधी नहीं हैं। यह निष्कर्ष तो 'रंगभूमि' उपन्यास के संघर्ष एवं प्रतिपाद्य को एकदम उलट देता है जो न उपन्यास का सत्य है, न प्रेमचंद और गांधी का। डॉ. शर्मा पर मार्क्सवादी दुराग्रह इतना हावी है कि वह कृति, कृतिकार और उसके प्रेरणा-स्त्रोत का सत्य देखना ही नहीं चाहते। वे 'प्रगतिशील लेखक संघ' के संबंध में भी ऐसा ही भ्रम उत्पन्न करते हैं। वे लिखते हैं, "प्रगतिशील लेखक संघ की नींव डालने में प्रेमचंद का सक्रिय सहयोग था " डॉ. शर्मा स्वयं इसके विरोधी वक्तव्य अपनी पहली पुस्तक 'प्रेमचंद' (1941) के सन् 1994 में छपे दूसरे संस्करण की भूमिका में देते हैं। वे लिखते हैं कि मुल्कराज आनन्द एवं सज्जाद जहीर ने सन् 1935 में लंदन में 'प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन' का बीजारोपण किया था जिससे प्रेमचंद का कोई संबंध नहीं था तथा ये दोनों लेखक प्रेमचंद के हिन्दी लेखन तथा 'हंस' के योगदान से पूर्णतः अपरिचित थे। यहाँ तक कि मुल्कराज आनन्द ने 'न्यू इंडियन लिटरेचर' (1939) में एक लेख 'आँन दि प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट' शीर्षक से लिखा और उसमें प्रेमचंद एवं उनके लखनऊ वाले अध्यक्षीय भाषण का उल्लेख तक नहीं है। अत: डॉ. शर्मा अपने पहले वक्तव्य पर पर्दा इसलिए डाल रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि सत्य कुछ और है। यह भी इतिहास के साथ एक प्रकार का मार्क्सवादी खिलवाड़ ही है।


डॉ. रामविलास शर्मा की 'गोदान' एवं 'मंगलसूत्र' की समीक्षा भी मार्क्सवादी दृष्टिकोण तथा उसके विजय के उद्घोष से ही की गयी है। यद्यपि वे कमल किशोर गोयनका के कुछ विचारों से सहमत हैं तथा उन्हें 'वामपंथी लेखन-दृष्टि 29 के अनुरूप बताते हैं और वहां मुक्तिबोध की 'व्यक्तित्व के रूपान्तरण वाली बात'30 को याद भी करते हैं, परन्तु वे अपने कुछ दुराग्रहों तथा मतों पर टिके हैं कि 'गोदान' की मूल समस्या 'ऋण की समस्या है तथा होरी 'मृत्यु-पर्यन्त संघर्ष' करता है। यह दोनों ही उनके निष्कर्ष तथ्यों पर आधारित नहीं हैं जिसके कारण वे पहले मत का स्वयं ही खंडन करते हुए लिखते हैं कि लोग यह समझ बैठे हैं कि 'गोदान' में ऋण समस्या के अलावा यदि और कोई समस्या नहीं है, लेकिन वे इसका उत्तर नहीं देते कि होरी को यदि ऋण मिल जाता और आवश्यकतानुसार उसे पैसा मिलता रहता तो वह क्या पंचों, जमींदार, पुलिस और अपने भाई-बन्धों के अन्यायअत्याचार से बच सकता था? होरी के पारिवारिक संबंधों में धर्मात्मापन, रूढ़िगत संस्कारों के कारण शोषण तथा 'महतो' बनने की आकांक्षा में ऋण की समस्या का कोई योगदान नहीं है। डॉ. शर्मा 'होरी के मृत्यु-पर्यन्त संघर्ष' की अपनी धारणा को भी सतर्क-सिद्ध नहीं कर पाते और वे उसकी 'निष्क्रियता', 'गतिहीनता' और भीतर-ही-भीतर निरन्तर मरने में भी संघर्ष का आवेग देखते हैं। असल में वे 'रंगभूमि', के सूरदास के संघर्ष और उसकी 'हीरोइक मौत' की तुलना में होरी के संघर्ष और मृत्यु को मार्क्सवाद के अधिक निकट पाते हैं, इस कारण वे होरी की त्रासदी में उसकी संघर्षशीलता को प्रमुखता देते हैं, जिसे वे सिद्ध नहीं कर पाते। कमल किशोर गोयनका ने लिखा था कि होरी अपने कृषक जीवन और कृषि


संस्कृति के अस्तित्व की रक्षा के लिए तिल-तिल कर मरता रहता है लेकिन वह अपनी किसानी जिन्दगी को बचा नहीं पाता और मजदूर होकर मर जाता है। डॉ. शर्मा इसे 'अस्तित्ववाद' से जोड़कर अपनी असहमति अंकित करते हैं, लेकिन वे यत्र-तत्र होरी की निष्क्रिय तथा रिस-रिस कर होने वाली मृत्यु को स्वीकार करते हैं। 'मंगलसूत्र' के संबंध में भी वे उसके अधूरे होने पर भी अपना मार्क्सवादी निष्कर्ष थोप देते हैं और उसके नायक देव कुमार (सहित्यकार) को मार्क्सवादी खूनी क्रांति से जोड़ देते हैं। वे लिखते हैं कि 'मंगलसूत्र' का नायक लगभग अकेला है, परन्तु प्रेमचंद उसके द्वारा विदेशी हुकूमत के खूनी आतंक को खत्म करने के लिए नये निर्दयी खूनी हथियारों का इस्तेमाल कराना चाहते हैं। डॉ. शर्मा के ये निष्कर्ष 'मंगलसूत्र' उपन्यास पर नहीं, मार्क्सवादी कपोल-कल्पना पर आधारित हैं क्योंकि देव कुमार में मार्क्सवाद की कोई भी प्रवृत्ति नहीं हैं। वह ऐसा साहित्यकार है जिसे 'आत्म संतोष' है, 'सौन्दर्य-भावना' का उपासक है और 'आत्म-गौरव' से परिपूर्ण है। वह अपने बड़े पुत्र संत कुमार के अनुचित दबाव से पच्चीस वर्ष पूर्व बेची सम्पत्ति को मुकदमा करके वापिस लेने को तैयार हो जाता है और एक स्थिति में सोचता है कि मनुष्य में मनुष्य बनना पड़ेगा। दरिन्दों के बीच में, उनसे लड़ने के लिए हथियार बांधना पड़ेगा। उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नही, जड़ता है।” देवकुमार का यह निष्कर्ष उसे खलनायक बना देता है और वह स्वयं को हास्यास्पद भी बनाता है क्योंकि वह पच्चीस वर्ष बेची जायदाद को वापिस लेने के लिए हथियार उठाने की सोचता है। देव कुमार ने अपनी इच्छा से जायदाद बेची थी और इस धन से ऐयाशी की थी-वेश्याओं के मुजरे, पितरों के पिंडदान और यश के लिए नाटक-मंडलियों में धन बहाता है और पुत्र के 'पागल' घोषित करने की धमकी पर अपने सिद्धांतों के विपरीत मुकदमा करने को तैयार हो जाता है। ऐसा पात्र हथियार उठाने की कहे और मार्क्सवादी उसे अपने प्रचार के लिए खूनी क्रांति का नायक घोषित करें तो उनकी बुद्धि पर तथा उनके मार्क्सवाद पर हंसने के अलावा और क्या किया जा सकता है? आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसी कारण लेनिन द्वारा ईर्ष्या, द्वेष तथा अहंकार की दुष्प्रवृत्तियों से लाभ उठाकर 'महात्मा' बनने को घोर अमंगल की सूचक कहा है37क । इस पर भी डॉ. रामविलास शर्मा यह मानते हैं कि प्रेमचंद का 'समाजवाद की विजय' पर 'अटूट आस्था' थी। अफसोस है कि डॉशर्मा प्रेमचंद की टूटती आस्था का इतिहास नहीं देखते। प्रेमचंद सन् 1920 से अन्तिम समय तक अनेक बार साम्यवाद, खूनी क्रांति, रूस के विचार-साम्राज्य तथा समाजवाद में आई पूंजीवाद की बुराइयों की खुली आलोचना कर चुके थे। यहां तक कि 'गोदान' में प्रो. मेहता कई बार साम्यवादियों की कटु आलोचना करते हैं। अतः रूसी समाजवाद के बारे में उनके भ्रम टूट गये थे और उसके प्रति आस्था छिन्न-छिन्न हो गयी थी। डॉ. शर्मा भी अप्रत्यक्ष रूप से इस सत्यता को स्वीकार करते प्रतीत होते हैं, जब वे लिखते हैं कि मेहता और होरी के जुड़ने पर जो व्यक्ति बनेगा वह प्रेमचंद जैसा होगा। इसका अर्थ है कि मेहता में जो कम्युनिज्म और कम्युनिष्टों की आलोचना की प्रवृत्ति है, वह डॉ. शर्मा के अनुसार प्रेमचंद की भी प्रवृत्ति है। अतः साम्यवाद के प्रति प्रेमचंद की अटूट आस्था का उनका दावा भी मार्क्सवादियों की चालाकी का ही नमूना है। यहां यह कहना भी उचित होगा कि प्रेमचंद का रूपनिर्माण होरी, मेहता के साथ सूरदास को जोड़े बिना नहीं बन सकता। डॉ. शर्मा जानबूझ कर सूरदास को शामिल नहीं करते, क्योंकि उसे जोड़ते ही गांधी और गांधीवाद को जोड़ना पड़ेगा और कोई भी मार्क्सवादी अपनी खूनी क्रांति की धारणा में उसके विरोधी को कैसे सम्बद्ध कर सकता है?


डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद के जीवन तथा उनकी प्रामाणिक जीवनी की समस्या के कुछ पक्षों पर कमल किशोर गोयनका तथा शैलेश जैदी द्वारा प्रस्तुत विभिन्न तथ्यों का उल्लेख करके उनकी खोज की सराहना न करके उन पर व्यंग्यात्मक टिप्पणियां की हैं तथा उनका सीधा उत्तर देने से बचने का प्रयत्न किया है। डॉ. शर्मा ने गोयनका के साथ जैदी की पुस्तक को भी देखा है और कई स्थानों पर दोनों में समान तथ्य होने की चर्चा की है, लेकिन डॉ. शर्मा यह जानते है कि जैदी ने गोयनका के शोध-प्रबंध को पढ़ा था, क्योंकि जैदी ने शोध-प्रबंध के अन्त में इसका उल्लेख किया है और उसकी प्रशंसा की है परन्तु उन्हें यह नहीं मालूम कि गोयनका ने सारे तथ्य स्वयं खोजे हैं और जैदी की पुस्तक से कुछ भी नहीं लिया है। यही कारण है कि प्रेमचंद के जीवन के कुछ प्रसंग ऐसे हैं जो गोयनका की पुस्तक में ही मिलते हैं। डॉ. शर्मा इसे स्वीकार करते हैं और गोयनका द्वारा प्रेमचंद के बैलेंस के उद्घाटन को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत भी करते हैं जबकि उनकी टिप्पणी में व्यंग्य छिपा हुआ हैवे गोयनका द्वारा सरस्वती प्रेस की हड़ताल एवं उसके मैनेजर प्रवासी लाल वर्मा को प्रेमचंद द्वारा गबन के आरोप में निकालने के उद्घाटन से तो वे इतने विचलित हो जाते हैं कि कमल किशोर गोयनका पर सीधा आरोप लगाते हुए प्रेमचंद और उनका युग' पुस्तक में लिखते हैं, "गोयनका की इस स्थापना से महताबराय, प्रवासीलाल वर्मा, प्रेस के मजदूरों की हड़ताल आदि से सम्बन्धित उनके उल्लेखों को मिलाकर पढ़ें तो प्रेमचंद की प्रामाणिक जीवनी के लिए उनकी तड़प का उद्देश्य स्पष्ट हो जायेगा। उद्देश्य है प्रेमचंद-साहित्य की प्रगतिशीलता का सफाया करना अर्थात भारतीय साहित्य की साम्राज्य विरोधी, सामंत विरोधी धारा में प्रेमचंद के योगदान को अस्वीकार करना।


डॉ. रामविलास शर्मा का यह तर्क बड़ा विचित्र है परन्तु है हिन्दुस्तानी कम्युनिस्टों की सोच के ही अनुरूप। यही कम्युनिस्टों की वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ विचारधारा है कि प्रेमचंद के जीवन के जो प्रसंग छिपे रहे तथा जिन्हें उनके वामपंथी जीवनीकार अमृतराय ने गुप्त रखा तथा जिनसे कम्युनिस्टों की विचारधारा को आघात लग सकता है, उनका उद्घाटन ही न किया जाये। यह मार्क्सवाद की अद्भुत वैज्ञानिकता है जो प्रतिकूल तथ्यों एवं दस्तावेजों को नष्ट कर देना चाहती है। हिन्दी के सभी मार्क्सवादियों ने ऐसे शब्दों में गोयनका द्वारा प्रस्तुत नवीन तथ्यों एवं दस्तावेजों पर टिप्पणी की है लेकिन उनमें से एक भी यह कहने का साहस नहीं कर पाया कि वे तथ्य और दस्तावेज झूठे हैं। मैंने अपने कई लेखों में यह लिखा कि इनमें से कई मूल दस्तावेज मुझे अमृतराय ने दिये थे, अत: डॉ. रामविलास शर्मा, नामवर सिंह जैसे मार्क्सवादियों को अमृतराय से पूछना चाहिए था कि उन्होंने प्रेमचंद की जीवनी लिखते समय इन तथ्यों एवं दस्तावेजों का इस्तेमाल क्यों नहीं किया? डॉ. रामविलास शर्मा ने इसी प्रसंग में प्रेमचंद की दरिद्रता के प्रश्न को उठाया है और पूछा है कि यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण कैसे हो गया?1 असल में प्रेमचंद के बैंक के बैलेंस के उद्घाटन से उनकी आर्थिक स्थिति का पूरा विवरण गोयनका ने प्रस्तुत किया तो मार्क्सवादियों द्वारा उनकी गरीबी का बनाया गया महल एकदम ढह गया और ऐसा लगा कि प्रगतिशीलों को सांप सूंघ गया है। मार्क्सवादी पिछले तीन-चार दशकों से समाज को यही समझा रहे थे कि प्रेमचंद गरीबी में पैदा हुए, गरीबी में जिंदा रहे और गरीबी में ही मर गये। उनका यह बहुप्रचारित मत जब खंडित हुआ तो डॉ. शर्मा दरिद्रता के प्रश्न को ही निरर्थक मानने लगे लेकिन वे जो निष्कर्ष देते हैं उनसे वे गोयनका पर मार्क्सवादी शब्दावली में आरोप लगाते हैं। वे लिखते हैं कि प्रेमचंद दरिद्र नहीं थे तो पैसा कमा रहे थे। पैसा कमाऊ लेखक देश के लिए, वह भी देश के निर्धन किसानों के लिए, साहित्य क्या लिखेगा?42 इसी प्रकार का निष्कर्ष डॉ. शर्मा सरस्वती प्रेस में हुई हड़ताल एवं प्रवासीलाल वर्मा 'मालवीय' को गबन के आरोप में निकालने वाले प्रसंगों के उद्घाटन पर देते हुए लिखते हैं'.....अभी तो गोयनका ने कह दिया है, उनसे क्या यह सिद्ध नहीं होता कि प्रेमचंद एक साधारण पूंजीपति व्यवसायी थे और अपने सहयोगियों और मजदूरों से वैसे ही पेश आते थे जैसे इस तरह के व्यवसायी पेश आते हैं। 43


ये दोनों ही निष्कर्ष डॉ. रामविलास शर्मा के हैं, गोयनका के नहीं। कमल किशोर गोयनका ने अपने लेखों में इन अज्ञात प्रसंगों का बस उद्घाटन किया है, परन्तु निष्कर्ष डॉ. शर्मा निकाल रहे हैं और अपने निष्कर्षों को गोयनका पर आरोपित कर रहे हैं। गोयनका ने प्रेमचंद की दरिद्रता की कपोल-कल्पना को दस्तावेजों से खंडित किया है, न कि उन्हें 'कमाऊ लेखक' बताया है तथा प्रेस की हड़ताल आदि प्रसंगों को लिखकर प्रेमचंद के जीवन के कुछ अज्ञात अध्यायों का उद्घाटन किया है तथा कहीं भी उन्हें घटिया एवं मजदूरों के शोषण करने वाले व्यापारी के रूप में चित्रित नहीं किया है। डॉ. रामविलास शर्मा की इस बौखलाहट और व्यंग्यपूर्ण प्रत्यारोप का कारण यह है कि वे इन प्रसंगों से प्रेमचंद की बनायी गयी मार्क्सवादी छवि को ध्वस्त होता हुआ पाते हैं अत: वे गोयनका पर आरोप लगाते हैं कि देखो, यह गोयनका प्रेमचंद को कितना घटिया इंसान बता रहा है। डॉ. शर्मा गोयनका के उस लेख पर टिप्पणी करते हैं जिसमें उन्होंने डॉ. रघुवीर सिंह को लिखे प्रेमचंद के उस पत्र की चर्चा की है जिसमें उन्होंने हिन्दू विधवा के विवाह के विचार को वापिस ले लिया था। डॉ. शर्मा पहले टिप्पणी करते हैं कि प्रेमचंद ऐसा लिखकर रघुवीर सिंह को 'चकमा' दे रहे थे और बाद में लिखते हैं कि गोयनका को तो 'अद्भुत रस' से विशेष प्रेम है। स्थिति स्पष्ट है कि डॉ. शर्मा गोयनका के नये तथ्यों का उल्लेख करते हैं, उन्हें सत्य भी मानते हैं, परन्तु वे उन पर प्रेमचंद और उनके साहित्य की 'प्रगतिशीलता' को ध्वस्त करने का आरोप लगाते हैं। डॉ. शर्मा ने यह आरोप पूरी पुस्तक में कई बार लगाया है। इसके लिए वे प्रेमचंद पर भी छींटाकसी करते हैं कि उन्होंने रघुवीर सिंह को चकमा दिया और 'प्रेमाश्रम' में ट्रस्टीशिप में चित्रण में पूंजीपतियों का दबाव था, क्योंकि वे जनता का शोषण के प्रति आक्रोश देखना नहीं चाहते थे। ऐसा आरोप अभी तक किसी मार्क्सवादी ने प्रेमचंद पर नहीं लगाया, परंतु डॉ. शर्मा अपने चरित्र-नायक को भी क्षमा नहीं करते।


डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद को लेकर आलोचना के दो विचार-क्षेत्र बना दिये हैं। उनके विचार में आलोचना की एक ही कसौटी थी और वह थी मार्क्सवादी दृष्टि और इसे आरम्भ करने का श्रेय डॉ. शर्मा ने स्वयं ले लिया है। डॉ. शर्मा इसका श्रोय डॉ. शिवदान सिंह चौहान को नहीं देते जिन्होंने अपने लेख 'भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता' ('विशाल भारत,मार्च, 1937) में पहली बार प्रेमचंद की प्रगतिशीलता की चर्चा की थी क्योंकि डॉ. शर्मा के अनुसार चौहान ने प्रेमचंद के उपन्यासों तक को पढ़ा नहीं था और वे प्रेमचंद के हिन्दी-लेखन से अपरिचित मुल्कराज आनन्द और सज्जाद जहीर जैसे कामरेडों के निर्देशन में काम कर रहे थे जो मार्क्सवाद न होकर 'वामपंथी अवसरवाद' एवं 'मार्क्सवाद का मलम्मा' था। अतः डॉ. शर्मा ने मार्क्सवादी नेताओं को यह प्रस्ताव किया कि परम्परागत आलोचना का मार्ग छोड़कर' यदि मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रेमचंद का विश्लेषण किया जाय तो भारतीय समाज का एक भरा-पूरा चित्र उनके साहित्य में उभर कर सामने आता है। स्पष्ट है कि प्रेमचंद की मार्क्सवादी व्याख्या पार्टी नेताओं से सलाह परामर्श के बाद शुरू की गयी और डॉ. शर्मा ने उसका नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया । प्रेमचंद की दूसरी समीक्षा-पद्धति 'भारतीयतावादी' है जिसका नामकरण भी डॉ. शर्मा ने किया है, परन्तु इसे आरम्भ करने का श्रेय वे कमल किशोर गोयनका को देते हैं, जबकि गोयनका ने न तो किसी पार्टी नेताओं से बातचीत की थी और न अपनी आलोचना -पद्धति को कोई नाम ही दिया था। डॉ. शर्मा को ही इसका भी श्रेय है कि वे मार्क्सवादी पद्धति को एकमात्र वैज्ञानिक पद्धति मानते हुए 'भारतीयतावादी'पद्धति को उसका शत्रु घोषित करते हैं और प्रेमचंद के संबंध में उसकी स्थापनाओं से मार्क्सवादी विवेचन एवं स्थापनाओं के ध्वस्त होने का संकट देखते हैं। जिस विचार, दर्शन या धर्म की बुनियाद अपने देश में नहीं होगी, वह हमेशा हिलने, डुलने, गिरने तथा नष्ट होने के संकट से जूझता रहेगा। डॉ. शर्मा में 'प्रेमचंद' वाली पहली पुस्तक में भारतीयता' और 'भारतीय संस्कृति' में गहरा विश्वास है और वे उन्हें भारतीयतावादी ही मानते हैं और दूसरी किताब में वे प्रेमचंद को 'भारतीय संस्कृति' का उपासक मानते हैं परन्तु उन पर कम्युनिस्ट पार्टी के कामरेडों तथा प्रेमचंद को मार्क्सवादी बनाने के संकल्प का इतना दबाव है कि वे उसके लिए हर प्रकार के हथियारों को इस्तेमाल करते हैं। इस पर भी वे इन मार्क्सवादी हथियारों का प्रयोग भारतीयतावादी आलोचना को आहत करने में जितना करते हैं, उतना वे प्रेमचंद को मार्क्सवादी बनाने में नहीं कर पाते क्योंकि वे कभी मार्क्सवादी नहीं रहे। आखिर उन पर बनावटी लेप कितना-चढ़ाया जा सकता था?


डॉ. रामविलास शर्मा ने इन दोनों आलोचना पद्धतियों की प्रवृत्तियों को रेखांकित किया है। वे मार्क्सवादी प्रवृति के साथ हैं इस कारण उसमें उन्हें गुण ही दिखायी देते हैं। उनके अनुसार ये गुण हैं-यह एक मात्र वैज्ञानिक पद्धति है। आलोचना की, साम्राज्य-सामंत विरोधी है, वर्ग-संघर्ष की प्रेरक, मजदूरों की भूमिका की प्रमुखता, यथार्थवाद और प्रगतिशीलता की जनक, अहिंसा एवं राष्ट्रीयता की विरोधी आदि। डॉ. शर्मा के अनुसार भारतीयतावादी आलोचना साम्राज्य-सामंतवादियों तथा पूंजीपतियों की सहयोगी है, हिंसक क्रांति, वर्ग-संघर्ष एवं प्रगतिशीलता की शत्रु है और इसका मूल उद्देश्य प्रेमचंद की मार्क्सवादी छवि अर्थात उनकी प्रगतिशीलता को नष्ट करना है। डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद पर आलोचनात्मक पुस्तकें लिखकर वास्तव में मार्क्सवादी आलोचना का चरित्र स्पष्ट कर दिया है। इस आलोचना का आधार एवं वैज्ञानिकता कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धांत तथा पार्टी नेताओं के आदेश हैं। यह आलोचनापद्धति अपने उद्देश्यों के लिए इतिहास को तोड़ती है, कुछ अंश को छोड़ती है और अपने निष्कर्ष आरोपित करती है। इसकी वैज्ञानिकता इतनी ही है कि यह नयी खोजों में से उन्हें ही स्वीकार करती है जो मार्क्सवाद के हित में होती है, शेष को ये पूंजीपतियों की साजिश बताकर उन्हें अपमानित और तिरस्कृत करती हैं तथा उन्हें 'प्रगतिशीलता' पर आक्रमण बताकर शत्रु-चिन्तन का अंग बना देती हैं। डॉ. शर्मा के विवेचनानुसार 'प्रगतिशीलता', 'संघर्षशीलता' और यथार्थवाद जैसे शब्द मार्क्सवादी आलोचना के शब्द हैं और इनके द्वारा व्यक्त धारणाएं एवं विवेचन मार्क्सवादी हैं । वे इन तीन शब्दों का प्रयोग प्रेमचंद को मार्क्सवादी बनाने के लिए खूब करते हैं। वे इसकी चिन्ता नहीं करते कि प्रेमचंद इनके संबंध में क्या कहते हैं। प्रेमचंद 'प्रगतिशील', शब्द को निरर्थक मानते हैं, 'संघर्ष' को पशुता कहते हैं और स्वयं को कभी यथार्थवादी नहीं कहते बल्कि वे अपने को 'आदर्शवादी' कहते हैं। डॉ. शर्मा तथा उनके साथी कामरेडों ने यह प्रचारित किया कि ये शब्द मार्क्सवादी आलोचना के शब्द हैं. परन्त यह भी मार्क्सवादी चालाकी का हिस्सा था। भारत में मार्क्सवाद के आगमन से पूर्व क्या साहित्य-आलोचक इन शब्दों से अपरिचित थे? 'प्रगतिशीलता', 'संघर्षशीलता' तथा 'यथार्थवाद' मार्क्सवाद के पर्याय नहीं हैं। प्रेमचंद साहित्य की आलोचना में गांधी का निष्कासन भी इसी चालाकी का हिस्सा है। गांधी के बिना प्रेमचंद को समझना असंभव है, परन्तु मार्क्सवादी डॉ. रामविलास शर्मा ने गांधी और प्रेमचंद के मिलन की ऐतिहासिक सत्यता को बहिष्कृत करके इसे संभव बना दिया है, परन्तु यह वैज्ञानिक आलोचना का नहीं, इतिहास का अंग-भंग करने वाली कम्युनिस्टी आलोचना का ही नमूना है। देश की स्वाधीनता-संगाम में गांधी को हाशिये में डालकर रूसी क्रांति के प्रभाव को देशव्यापी बताकर तो डॉ. शर्मा ने इतिहास के साथ मजाक किया है यह तो इतिहास और गांधी के साथ घोखा है। डॉ. शर्मा ने प्रेमचंद को मार्क्सवादी बनाने में इसका बिल्कुल ध्यान नहीं रखा है कि वे मार्क्सवाद, रूसीक्रांति, वर्ग-संघर्ष आदि को किस दृष्टि से देखते थे। प्रेमचंद एक तो गांधी की अहिंसा, सत्याग्रह, हृदय-परिवर्तन आदि के अनुयायी थे परन्तु मार्क्सवादी हिंसक क्रांति, वर्ग-संघर्ष, मशीनी सभ्यता, भूमि पर राज्य के अधिकार आदि के विरोधी थे। उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा व्यक्तिशः परिष्कार की नीति प्रिय थी। अतः स्वयं को मार्क्सवादी कहना एवं भारत को मार्क्सवाद का अनुयायी बनाना दोनों ही उनकी कल्पना में भी नहीं था। प्रेमचंद ने एक बार स्वयं को 'कम्युनिस्ट कहा था परन्तु तभी यह भी कहा था कि उनका कम्युन्जिम रूसी नहीं है। गांधी भी स्वयं को 'कम्युनिस्ट' कहते थे, लेकिन वे रूसी कम्युनिज्म के कटु आलोचक थे अतः डॉ. रामविलास शर्मा की प्रेमचंद को मार्क्सवादी बनाने की चेष्टा स्वयं प्रेमचंद की दृष्टि में अनुचित है और इतिहास विरुद्ध भी है। प्रेमचंद बार-बार 'भारतीय आत्मा'48 की रक्षा और 'भारतीयता की छाप49 का संकल्प दुहराते हैं और डॉ. रामविलास शर्मा भी स्वच्छ मन से कभी-कभी इस सत्य को स्वीकार करते हैं इसलिए प्रेमचंद साहित्य की आलोचना-पद्धति भारतीयतावादी ही हो सकती है और इसी स्वदेशी पद्धति से तत्कालीन भारतीय समाज की भारतीयता का स्वरूप, उसकी चेतना एवं संघर्ष तथा उसके यथार्थ एवं स्वप्नों को समझा जा सकता है। प्रेमचंद को समग्रता में समझनेजानने का यही एकमात्र भारतीयतावादी रास्ता है। डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रगतिशील नेताओं को समझाया था कि प्रेमचंद की मार्क्सवादी व्याख्या से भारतीय समाज का 'एक भरा-पूरा चित्र' उभरकर सामने आयेगा। उन्होंने स्वयं इस कार्य को किया, परन्तु समाज का समग्र रूप सामने नहीं आया और जो आया तथा बताया गया वह मार्क्सवादी छवि का संसार था जो मात्र दस-पन्द्रह रचनाओं के आधार पर निर्मित किया गया था। प्रेमचंद के भारतीय समाज को उसकी समग्रता में केवल भारतीयतावादी मूल्यांकन पद्धति से ही समझा जा सकता है जो उनके सम्पूर्ण साहित्य को आधार बनाता है तथा जो अमृत और विष, स्वर्ग एवं नर्क, धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य तथा आदर्श एवं यथार्थ को जीवन का अंग मानता है। डॉ. शर्मा की मार्क्सवादी पद्धति प्रेमचंद को मार्क्सवाद में 'कन्वर्ट' करती है, उनका धर्म-परिवर्तन करके मार्क्सवादी बनाती है, जबकि भारतीयता पद्धति प्रेमचंद जो हैं, जैसे हैं, वैसा ही प्रस्तुत करती है। प्रेमचंद भारतीय लेखक हैं तथा भारतीयता उनकी प्राण-शक्ति है। इस भारतीयता की बुनियाद अटूट देश-प्रेम है, जिसकी दिशाएं हैं-


स्वतंत्रता, स्वराज्य, समानता-बंधुत्व-एकता, स्व-संस्कृति, स्व-भाषा और भारतीय स्वत्व की रक्षा। इसमें अंग्रेजी साम्राज्यवादियों का विरोध है और सामंतों का भी, अन्याय-दमन-शोषण से संघर्ष है, समाज को जड़ता अंधविश्वास-कुप्रथाओं से मुक्त करना एवं उसे आधुनिक तथा प्रगतिशील बनाने का संकल्प है। ये सारी प्रवृत्तियां उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी के नवजागरण एवं राष्ट्र-नायकों, समाज-सुधारकों, धार्मिक गुरूओं तथा साहित्यकारों में विद्यमान हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 'कविवचन सुधा' के सिद्धान्त-वाक्य में 'स्वत्व निज भारत गहै' जैसे मन्तव्य को स्थान दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'स्वरूप की स्वतन्त्र सत्ता' और 'देशबद्ध मनुष्य' की अनिवार्यता के साथ स्पष्ट शब्दों में इसे मान्यता दी कि भारत वर्ष की उन्नति का मंदिर जब निर्माता होगा तब उसकी प्राचीन नींव पर ही होगा। यह वह भूमि नहीं है, जहां कोई सर्वथा विदेश का वृक्ष लाकर लगा दें और वह भली-भांति पनपे। इस भारतीयता में यदि नहीं है तो डॉ. राम विलास शर्मा की रूस की खूनी क्रांति, हिंसक वर्ग-संघर्ष, राज्य का चल-अचल सम्पत्ति पर अधिकार, विचार की तानाशाही और विरोधियों की हत्या की योजनाएँ। डॉ. रामविलास शर्मा की भविष्यवाणी है कि प्रेमचंद को लेकर मार्क्सवाद और भारतीयता का यह विचारधारात्मक संघर्ष इक्कीसवीं सदी में भी चलता रहेगा। बीसवीं सदी के अन्त में ही मार्क्सवाद की मृत्यु हो गयी, इसे डॉ. शर्मा ने अपने जीवन-काल में देख लिया था। यदि इक्कीसवी सदी में वह फिर पैदा हुआ और उसने इन्हीं घातक हथियारों का इस्तेमाल किया तो वह भस्मासुर के समान स्वयं को सदैव के लिए नष्ट कर लेगा। जब तक भारत है और प्रेमचंद हैं, यह भारतीयता ही हमारी जीवन-दृष्टि, आलोचना-दृष्टि तथा विकास-दृष्टि बनी रहेगी।