कविता बनाम गजल

आलेख


सुशील कुमार


कविता गजलों की दुनिया जितनी निराली है, उतनी ही प्रेरक और मोहक, लेकिन जिसने गजलों को अपना पेशा बनाया, वे खूब बिके। अगर वे साहित्यालोचना में यह उम्मीद रखते हैं कि उनको भी इस दायरे में लाया जाना चाहिए और उनको मुकम्मल जगह दी जानी चाहिए तो यह उनकी भूल है। उनसे केवल यह गुजारिश करूंगा कि पहले अपने कमाए पैसे और शोहरत गरीबों में बांट आएं, फिर हम उनकी गरीबनवाजी करेंगे। कहने का मतलब है कि वे गजलें जनसरोकार से जुड़ी हुई मानी जाती हैं, जो निस्वार्थ भाव से जन-समर्थन में समर्पित हों, उनकी कीमियागरी को बेचा न गया हो। मेरे विचार में बाकी सब कूड़ा है।


कम ही सुधीजन यह जानते हैं कि आधुनिक हिंदी गजलों की नींव निरालाशमशेर जैसे कवियों के द्वारा रखी गई। लेकिन उसका पल्लवन हिंदी के प्रखर कवि और गजलगो दुष्यंत कुमार ने किया। दुष्यंत ने उर्दू रवायतों और बिम्बों से उसे बाहर निकाल कर जनचेतना से जोड़ने का जो साहित्यिक और ऐतिहासिक काम कियावह इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि उनके इस कर्म से गजलों के अबाध विकासक्रम का मार्ग प्रशस्त हो गया। उसे सही दिशा मिली और उनमें प्रगतिशीलता के तत्व का अवगाहन हुआ।


अनेक आंदोलनों से गुजरती हुई जिस प्रकार हिन्दी कविता ने एक लंबी यात्रा तय की है, उसने कई पड़ावों के आत्मसंघर्षों को झेलते हुए अपनी सही जमीन बनाई है, भंगिमा और स्वरूप बदले हैं, उसी प्रकार गजलों के क्षेत्र में भी ये बदलाव गोचर हुए। भले ही इन पर अब तक कम लिखा गया हो! गजल को कविता से अलग मानने का हो-हल्ला कतई नोटिस लेने लायक नहीं। क्यों न नियम-संस्कार यहाँ मुक्त-छंद की कविता से अधिक कड़े हों, पर इनके विकास, इनकी कला, प्रभावान्विति और संप्रेषणीयता से हम कतई मुंह नहीं मोड़ सकते। अगर गजलगो प्रवीण हो तो गजल कहीं-कहीं कविता से भी गहरी अर्थच्छवियां रचती हैं।


यह भी कि, कवितान्दोलनों का गजल पर भी खासा प्रभाव पड़ा है। यह भी अपनी रूढ़ि, रीति और पुराने संस्कारों से आज ज्यादा जो इतना मुक्त दिखती है, उसका कारण आंदोलनों के उन प्रभावों को आत्मसात करना है। समकालीन बेहतरीन गजलें अपने प्रगतिशील तत्वों और कला की उदात्तपन के कारण हिंदी कविता में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। ऐसे में अगर कोई यह समझता है कि समय के साथ गजलें बहरों और काफियों के अनुशासन और नियमबद्धता के कारण समाप्तप्राय होती चली गई तो उसकी भयंकर भल होगी। आज भी गजलों में 'साये में धूप' कितनी पढ़ी जाती है, आप जानते हैं! किस कविता संग्रह के दर्जनों संस्करण और आवृत्तियां 'साये में धूप' जैसी छपी या छपती हैं?


_इसलिए जब तक धरती पर मानव बचा है, उसके उर में गजल एक इच्छाबीज की तरह जन्म लेती रहेगी, फले-फूलेगी, क्योंकि यह मनुष्य की आदिम छटपटाहट और उसके राग को व्यक्त करने की बहुत माकूल और सशक्त विधा व माध्यम है।


लेकिन हिंदी गजल को हिंदी कविता विधा से दूर रखने की संप्रति जो चालें चली जा रहीं, लोकचेतना से जिस तरह अलग कर उसे देखा जा रहा, उसे एक अलग परम्परा और घराने की बात कहकर संकुचित घेरे में बंद रखा जा रहा, उन्हीं कुप्रवृत्तियों का यह परिणाम है कि कविता भी दिनानुदिन पाठकों से अलग-थलग होती जा रही। खूब आत्मबद्ध कूड़ा-कविताएं रोज पत्रिकाओं, अखबारों और सोशल मीडिया पर लिखी जा रही। आत्ममुग्ध कवि ही उन्हें आपस में पढ़ रहे, पढ़वा रहे, एक दूसरे की वाहवाही कर रहे। लेकिन जनमानस को इन वैयक्तिक कूड़ा कविताओं से क्या मतलब?


अपनी जनधर्मिता में हिंदी कविताओं के साथ हिन्दी गजलें जितनी मजबूती से आज खड़ी है, उतनी ही समसामयिक प्रवृतियों की वाहक भी बन पड़ी है। फिर गजल और कविता को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी बनाकर कवियों-आलोचकों और उर्दू के खालिस गजलगो द्वारा गजल विधा को कविता-विधा में समाहित करने से इतना ऐतराज क्यों?


गजल विधा की दृष्टि से हिंदी साहित्येतिहास का काल विभाजन बड़ा ही विभ्रमपूर्ण है। इसके मनीषियों और आचार्यों ने आधुनिक हिंदी काल-विभाजन की जो रूपरेखा प्रस्तुत की, उसमें हिंदी गजलों को कोई स्थान नहीं दिया। हद तो यह है कि अभी तक साहित्येतिहास का कोई ऐसा प्रामाणिक ग्रंथ नहीं, जिसे देखकर यह कहा जा सके कि इसमें कहानी, उपन्यासों, कवितादि की तर्ज पर गजलों की भी कालक्रमानुसार अलग से चर्चा की गई है! अधिक से अधिक आपको इस पर कहीं-कहीं फुटकर निबन्ध ही मिलेंगे। एक तरफ तो उर्दू को मुसलमानों की भाषा के सियासतदानों ने, तो दूसरी ओर उर्दू के कुछ स्वार्थी गजलकारों ने उसे हिंदी के करीब आने से रोका।


जिनको उर्दू गजल में अपनी अस्मिता की पहचान अलग से बनानी थी, उन्हें हमेशा यह डर सालता रहा कि उर्द गजल का हिंदी गजल में 'एसिमिलेशन' होने से गजल की दुनिया में उनकी प्रभुसत्ता 'डायल्यूट' हो सकती है। कुछ ने तो देवनागरी लिपि को केवल नाममात्र के लिए यानि, गजलों का बाजार खड़ा करने के लिए अपनाया। उसकी आत्मा उर्दू-फारसी प्रसूत ही रही। इसलिए यह विश्वास करने का पर्याप्त कारण है कि इनका हिंदी से कोई अपनापन नहीं। केवल उसका उपभोग किया गया है।


प्रसंगात, यह भी महसूस करने वाली बात है कि हिंदी के आचार्य अकादमिक लेखन के पंडित थे, इसलिए जान-बूझकर हिंदी गजलों के प्रति उनकी जो अन्यमनस्कता रही, वह यही दर्शाती है कि अपनी वर्गीय अवस्थिति के कारण वे हिंदी साहित्य में दूसरी भाषाओं की विधा को, जो अब हिंदी के बहुत करीब आ चुकी थी, के प्रति कितने अनुदार और ब्राह्मणवादी बने रहे! सरकार और दलगत स्तर पर भी भाषा को लेकर खूब राजनीति हुई । हालाकि एक समय सरकार की इन विभेदपूर्ण नीतियों का फिराक गोरखपुरी जी के द्वारा पुरजोर विरोध किया गया था। पर सरकार पर इसका कोई असर न हुआ।


यह व्यक्त करना कितना दुखद है कि साहित्येतिहास लिखते वक्त देश की आजादी की लड़ाई में भी गजलों के योगदान पर कहीं कोई चर्चा न हुई। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक आदि की गजलें भी कभी साहित्य का इतिहास लिखते वक्त उनको याद तक न आयी! फिर भी हिंदी के अनेक रचनाकारों ने इस विधा को अपनाया जिनमें निराला, शमशेर, बलबीर सिंह रंग, भवानी शंकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन, कुंअर बेचैन आदि प्रमुख हैं। लेकिन इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रसिद्धि दुष्यंत कुमार को मिली। देखिए, निराला की गजलों की कुछ पंक्तियां-गजल/निराला?


'निराला अजब नक-चढ़ा आदमी हूँ


जो तुक की कहो बे-तुका आदमी हूँ


बड़े आदमी तो बड़े चैन से हैं


मुसीबत मिरी मैं खरा आदमी हूं


सभी माशा-अल्लाह सुब्हान-अल्लाह


हो ला-हौल मुझ पर मैं क्या आदमी हूं


ये बचना बिदकना छटकना मुझी से


मिरी जान मैं तो तिरा आदमी हूं


अगर सच है सच्चाई होती है 


मैं उर्यां बरहना खुला आदमी हूं


टटोलो परख लो चलो आजमा लो


खुदा की कसम बा-खुदा आदमी हूं


भरम का भरम लाज की लाज रख लो


था सब को यही वसवसा आदमी हं।'


यह बड़ी बात है कि छायावाद की प्रेत-छाया और छंदों से मुक्त करने वाले छायावादी स्तम्भ स्वयं निराला ने हिंदी गजल लिखकर हिंदी काव्य में इसका बीजसंकेत डाल दिया था कि यह कोई साहित्येतर विधा नहीं। पर इस किसी का ध्यान नहीं गया।


हम यह भी जानते हैं कि हिंदी खड़ी बोली के विकास से आधुनिक हिंदी काव्य साहित्य की कड़ियां जिस तरह जुड़ती हैं और उसके पहले की जो पूर्व पीठिकाएं बनती हैं, उसमें इस भाषा का दुर्भाग्य रहा है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी 'वैदिक', कभी 'संस्कृत', कभी 'प्राकृत', कभी 'अपभ्रंश' और अब-हिन्दी। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उसी प्रकार हिंदी गजलों का 'ओरिजिन' अरबी- फारसी से उर्दू के जरिए हिंदी तक हुई है। कहने को हिंदी का इतिहास एक हजार वर्ष तक का गिनाया गया है पर इसकी आधुनिक' विकासयात्रा 1850 से अब तक यानी लगभग 150-170 सालों की है। यही हाल हिंदी गजलों का है। हिंदी गजलों का भी आविर्भाव लगभग इसी वक्त हआ। उसके पहले के 750 वर्षों तक वह अरबी-फारसी से ही संपृक्त रही।


यहां मूल प्रश्न यह है कि साहित्य की अन्य विधाओं यथा; कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, यात्रा-संस्मरण आदि को जब विदेशी भाषा साहित्य कहकर नहीं नकारा गया और उसके स्वतंत्र इतिहास लेखन की जिम्मेदारी परी सहृदयता से स्वीकार की गई तो फिर यह भेदभाव हिंदी गजलों की सुदीर्घ परम्परा के साथ क्योंकर हुआ? क्यों हिंदी गजल साहित्यिक राजनीति का शिकार होती रही? हिंदी जैसा प्राणवंत भाषा-साहित्य जो बिना किसी राजनयिक एवं सत्ता सहयोग के निरंतर संघर्ष करता हुआ आज विश्व-साहित्य के समकक्ष अपने दम पर खड़ा है, जिसमें अन्य भाषाओं के सत्व-गुण और शक्ति को अर्जित कर उनको स्वयं में समाहित करने की 'नदियों के समुद्र में गिरकर मिलने जैसी' अपार क्षमता निहित है, में हिंदी गजलों को स्वीकार न किया जाना सत्ता पोषित उर्दू मंचीय गजलकारों के और हिंदी आचार्यो द्वारा रचा गया वितंडा ही लगता है, जो इसे संभ्रांत वर्ग तक सीमित रखकर अपनी-अपनी वर्गीय अवस्थिति को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं। यह उनके रीति, रति और भोगवाद की चरम दशा है जो उनकी स्वार्थपरता के कारण हिंदी गजलों को जनकृत करने से रोक रही और उर्दू के संभ्रांत नजरिये से उसे अपने खाने-कमाने का जरिया बनाए रख रही। पर यह भी देखना उतना ही रुचिकर है कि कुछ आधुनिक हिंदी गजलगो ने उस बूर्जुआ जमीन को निरंतर तोड़ा और उसे जनोन्मुख बनाकर उर्दू गजलों के एकाधिपत्य को समाप्त करने की दिशा में सराहनीय प्रयत्न किया है। गजलों के बाजारवाद और उसकी प्रकृति पर गौर करते हुए यहां मुझे कवि शमशेर की ये पंक्तियां याद आ रही हैं जिसे यहां देना लाजिमी होगा-


'इल्मों-हिकमत, दीनो-इमां,हुस्नो-इश्क


जो चाहिए कहिए,


अभी बाजार से ले आता हं।'


जितना संघर्ष हिंदी कविता ने रीतिकाल से अब तक किया है, उससे कम संघर्ष हिंदी गजलों ने नहीं किया। लेकिन विषाद की बात यह है कि साहित्य में जहां एक ओर उर्द कलावादी गजलों (की देवनागरी लिपि) को सिर पर उठाया गया, वहीं हिंदी जनवादी गजलों को झोलाछाप बनाने कत्सित प्रयत्न हआ।


इतना होते हुए भी आज हिंदी गजलों ने हिंदी साहित्य में जो मुकाम हासिल किया है, भाषा, शिल्प, बनक, प्रतिमान और अभिव्यक्ति शैली के स्तर पर इनके जितने विविध और समृद्ध रूप दृष्टिगत हो रहे कि इसने कलावाद की अलंघ्य सीमा को भी बखूबी लांघकर उसे ठोस जनवादी आधार प्रदान किया है।


सर्वश्री रामकुमार कृषक, श्री राम शलभ, डी एम मिश्र, महेंद्र नेह, कमल किशोर श्रमिक, बल्ली सिंह चीमा, महेश कटारे सुगम, नूर मोहम्मद नूर, देवेंद्र आर्यध्रुवगुप्त, अनिरुद्ध सिन्हा, राजेश रेडी, मालिनी गौतम, डॉ. भावना आदि ऐसे ही कई नाम हैं जो हिंदी जनवादी गजलों की जमीन को उर्वर कर रहे। पर इन्हें मुश्किल से मंच मिलते हैं और हिंदी कवियों की तरह केवल जनवाद का झोला ढ़ोते हैं, सच की जमीन तलाशते हैं। कृति और जीवन दोनों इनके संघर्षों से अटा पड़ा है। पर इनमें अधिकतर ऐसे हैं जो लोकधर्मिता की धार अपनी गजलों में कम नहीं होने देतेइनमें स्व. अदम गोंडवी तो अव्वल हैं!


पर उर्दू से आए हिंदी की देवनागरी लिपि पर कब्जा किए मुनव्वर राणा, राहत इंदौरी, वशीर बद्र, निदा फाजली, गुलजार, आदि ऐसे कलावादी गजलगो की भी श्रेणियां यहीं हैं जो जनवादिता का हिपोक्रिटिक मुखौटा पहनकर हिंदी में छा गईं, खूब लोगों की तालियां बटोरी और खूब खाया-कमाया। इनसे हिंदी जनवादी गजलों का भला नहीं हुआ क्योंकि इनकी कथनी और करनी अलग-अलग हैं। इनके जीवनव्यवहार और जीवनानुभाव इनके शब्दों से मेल नहीं खाते। ये गजलों को जीते नहींउनसे खेलते और उसे खाते हैं, जिनके लिए लोकचेतना नुमाईश और शौक की चीज है। गजल चरित्र चमकाने का एक जरिया है। इनकी गजलें इनकी पेशवर बुद्धि से नि:सृत होती है, जहां सुधी पाठकों को काफी सचेत होने की आवश्यकता है।