हिन्दी गजल में गजलकाराओं का योगदान

आलेख


भानुमित्र


जब से भारत में गजल का पदार्पण हुआ तब से प्रत्येक दशक में प्रगतिशील परिवर्तन होता रहा। फारसी में इसका आरंभ रौदकी से माना जाता है। और यह विस्मय है कि उसी युग में राबिया नामक शायरा भी हुई, जिसने रोचक गजलें कह कर प्रसिद्धि पाई। अतः यह कहा जा सकता है कि गजल सृजन में महिलाओं का योग गजल युग के आरंभ से ही रहा है, भले ही प्रचुर मात्रा में हो। तत्कालीन हिन्दुस्तान में मीर के समय में भी उन्हीं की पुत्री निकातुश ने तजकिरों का सृजन किया, किन्तु उनका नाम दर्ज नहीं किया गया। इसी सिलसिले में औरंगजेब की शाहजादी जेब्बुनिसा मुखफी (1638-1701) ने उर्दू शायराओं में खूब नाम कमाया थाबीसवीं सदी तक शायर तो होते रहे किन्तु शायरा का अभाव रहा। हाँ, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अदा जाफरी ने बड़ा नाम कमाया, उसके समान्तर ही कई शायराओं ने उर्दू शायरी में योगदान किया। इनमें फहमीदा रियाज रियाज की शायरी में काम तथा किश्वर नाहीद की शायरी में स्त्री-पुरुष की समानता की गूंज सुनाई देती है, किन्तु इनके लेखन को महत्व नहीं दिया गया और चार शताब्दियों तक महिला लेखन को विश्वसनीय नहीं समझा गया। कमोवेश आज भी वही स्थिति है। यद्यपि कवि-सम्मेलनों, मुशायरों तथा टीवी पर आज महिला शायरी की उपस्थिति देखी जा सकती है, पर गिनती में। इसका एक कारण सामाजिक बन्धन लोक लज्जा का होना भी है। इसलिए वे खुल कर शायरी करने में संकोच करती हैं।


स्वतंत्र भारत में भी उर्दू शायरी का प्रभुत्व रहा, जिसमें कई शायराओं का योगदान है। बाद में जब हिन्दी गजल ने अपने पांव फैलाने शुरू किए तब कवियों की भांति कवयित्रियों ने भी हिन्दी गजल के क्षेत्र में कदम रखा। हिन्दी में पुरुष गजल सृजनकर्ता को गजलकार तथा स्त्रियों को गजलकारा नाम दिया गया। इनमें कइयों ने समर्पित होकर गजलें कहने का काम किया तो कई घर-गृहस्थी में होते हुए भी योगदान करती रही हैं। कइयों ने हिन्दी गजल पर शोध कार्य भी किए हैं तथा कई गजलकाराओं की गजलों पर भी शोध कार्य किए गए हैं।


यहां गजलकाराओं द्वारा प्रयुक्त हिन्दी भाषा की गजलों के शेरों को विषेष महत्व दिया गया है। बहुत कम गजलकाराएँ ही होंगी जो हिन्दी गजल कहती होंगीअधिकांश गजलें तो उर्दूनुमा होती हैं। किन्तु वे अपनी गजलों में हिन्दीपन के शेर भी कहती हैं, उन्हीं शेरों के आधार पर हिन्दी गजलकाराओं की दृष्टियाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। गजल शब्द को कई लोगों ने कई परिभाषाएँ दी हैं, विशेषतः उर्दू भाषा में। किन्तु जब हिन्दी भाषा में गजल कही जाने लगी, तब गजल की नई परिभाषाएँ भी सामने आई। यहां सभी का उल्लेख करना वांछित नहीं। किन्तु गजल को सब से अलग दृष्टि से देखने वाली गजलकाराओं में बरेली की डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी का नाम सर्वोपरि है। उन्होंने गजल को औरत से बातचीत करने की कला से मुक्त कर हिन्दी भाषा की संस्कृति में पूजा की दृष्टि से देखा है-


अब साकियो शराब का छेड़ो जिक्र तुम


'श्वेता' गजल के हाथ में पूजा का थाल है


इसीलिए वे नारी जीवन को एक नदी के समान मानती हैं, जो बहते हुए किनारों से सौ सौ थपेड़े खाती हैं, फिर भी किनारों की प्यास बुझाती, उन्हें हरा-भरा रखती आगे बढ़ती रहती हैं। नारी नदी रूप है तभी तो सब से मोह रखते हुए दिखती हैं परन्तु निरपेक्ष भाव से अन्यों के साथ वैसा ही व्यवहार करती है जैसा अपनों के साथ। अपनत्व का भाव तो सर्वोपरि रहता ही है। यह अपनत्व कभी कम नहीं पड़ताइसलिए वे कहती हैं कि इस अपनत्व के हस्तान्तरण में यदि वय कम पड़ जाए तो फिर से जन्म लेने के लिए तैयार रहेगी, यदि पुनर्जन्म होता है-


उम्र है केवल काया की मेरी कोई उम्र नहीं


मृत्यु अगर विश्राम है तो आऊंगी दोबारा मैं


विहंगम दृष्टि डालें तो गजलकाराओं ने समाज के सभी विषयों पर शेरों के माध्यम से बेबाक प्रस्तुति की है। ग्रामीण बाला वन्दना, राजस्थान की गजलकारा गाँवों से निकलते पुरुषों को देखती हैं, तब बरबस ही ग्रामीण भाव गजल के माध्यम से प्रकट हो जाते हैं। दो शेर-


चाँद रोटी सा लगे तो लौट आना गाँव में


गन्ध सौंधी सी उठे तो लौट आना गाँव में


घड़कनें कहने लगी हैं माँ के जीवन की कथा


आशिषे झर झर झरें तो लौट आना गाँव में


ग्रामीण वातावरण में औरतें गहस्थी को पहले महत्व देती हैं. वे अपने बच्चों के साथ ही सारा संसार देखती हैं, उसी में खुश रहती हैं। दिल्ली की गजलकारा ममता किरण अपनी ममता प्रतीक के माध्यम से शेर में प्रस्तुत करती हैं


जब से चिड़िया ने बनाया घौंसला


घर मेरा तब से बहुत गुंजान है


प्रतीक्षा करने का धैर्य जितना नारी में होता है, वह किसी पुरुष में नहीं। नारी तो पुरुष के पूर्व संसर्ग की स्मृति संजो कर ही सन्तुष्ट हो जाती है, अपने आप वार्तालाप कर नई प्रतीक्षा में जुट जाती है। दोहा गजलों की सम्राज्ञी आभा पूर्वे ने अपनी दोहा गजल के निम्न शेर में इसी भाव को किस खूबसूरती से प्रस्तुत किया है


आँखें तकती ही रहीं अक्सर खाली वक्त


यादों को करती रही मैं तेरी सम्वाद


प्रतीक्षा की भी सीमा होती है उस के बाद सीमा का बाँध टूटने लग जाता हैहृदय में नहीं समाता तो पुतलियों तक पहुँच जाता है तब पलकों से नीर छलकने लगता है, जिसे कोई और देख भी नहीं सकता, क्यों कि देखने वाला तो दृष्टि से परे होता है, जयपुर की अलका सिंह इस भाव को कुछ यों प्रकट करती हैं-


दिल में मरुथल ही मरुथल


आँखों में लेकिन बरसात


इतना होने पर भी अपने दुख, अपनी चिन्ता की शिकायत किसी से नहीं करती, परन्तु वह धैर्य को छोडती नहीं, दिखाने की कोशिश भी नहीं करती, अपित प्रतीक्षा पथ कितना दीर्घ है, उस को नाप लेना चाहती है, मृदुला अरुण इसे कसौटी के स्तर पर लेती हैं, घर के भीतर चारदीवारी में रह कर ही आश्वासन पा लेना चाहती हैं, जिस पर वह चलना जारी रख सकती हैं-


दिल में मरुथल ही मरुथल


आँखों में लेकिन बरसात


इतना होने पर भी अपने दुख, अपनी चिन्ता की शिकायत किसी से नहीं करती, परन्तु वह धैर्य को छोडती नहीं, दिखाने की कोशिश भी नहीं करती, अपित प्रतीक्षा पथ कितना दीर्घ है, उस को नाप लेना चाहती है, मृदुला अरुण इसे कसौटी के स्तर पर लेती हैं, घर के भीतर चारदीवारी में रह कर ही आश्वासन पा लेना चाहती हैं, जिस पर वह चलना जारी रख सकती हैं-


हम ने कब पाँव के छालों की शिकायत की


ख्वाब कोई तो दिखाओ कि सफर बाकी है


परन्तु जोधपुर की रजनी अग्रवाल आँखों के इसी पानी में आशाभरी दृष्टि रखती है, दूसरों की हिम्मत बढ़ाने के गर्ज से खुद का दर्द भी छिपाने का यत्न करती हैं, इस प्रतीक्षा में वे सृजन की कामना रखती है-


रेत पे अब तो पानी लिख


उस की चुनरी धानी लिख


यह भी कितनी विचित्र बात है कि जब कोई पास होता है तब उस के बारे में नहीं सोचते, निकट जाने का यत्न करते हैं। किन्तु जब दूर हो जाते हैं तभी वह खालीपन उस के विरह की महत्ता को सोचने पर विवश कर देता है। समय के अतीत होते रहने के साथ इस खालीपन को भरने की तीव्र इच्छा जागृत हो जाती है। इसी तीव्रता का प्रस्तुतिकरण गजलकारा उषा भदोरिया यों प्रस्तुत करना चाहती हैं


नहीं होते हो जब तुम पास तुम पर प्यार आता है


सुलग उठती है जब भी प्यास तुम पर प्यार आता है


नारी में केवल प्रतीक्षा करने की शक्ति ही नहीं, अपितु पुरुष को सुरक्षा का प्रतिमान मानती है, उसे विश्वास रहता है कि अन्तिम पल में भी पुरुष उस को हिम्मत का हथियार दे देगा ताकि वो उस आपदा से मक्त हो सके। धारीवाल, पंजाब की गजलकारा कुसुम खुशबू इसी लिए निश्चित रहती हैं


अँधेरों के भँवर में डूबने वाली ही थी मैं तो


सुलग उठती है जब भी प्यास तुम पर प्यार आता है


नारी में केवल प्रतीक्षा करने की शक्ति ही नहीं, अपितु पुरुष को सुरक्षा का प्रतिमान मानती है, उसे विश्वास रहता है कि अन्तिम पल में भी पुरुष उस को हिम्मत का हथियार दे देगा ताकि वो उस आपदा से मक्त हो सके। धारीवाल, पंजाब की गजलकारा कुसुम खुशबू इसी लिए निश्चित रहती हैं


अँधेरों के भँवर में डूबने वाली ही थी मैं तो


कि तिनका चाँदनी का ऐसे में पकड़ा गया कोई


ये कोई अनजान व्यक्ति नहीं, अपितु अपना ही कोई होता है, जो मुसीबत में खड़ा रहता है। इसीलिए तो नारी पुरुष को जीवन में सुगन्ध भरने वाला फूल मानती है, यही कारण है कि वह अपना हृदय भी उसी पर न्यौछावर कर देती है, क्योंकि उसकी चाह की पूर्ति पुरुष ही करता है, जिस के कारण सारा घर महक उठता है। राजहरा की गजलकारा सरिता गौतम भी इसी भाव के सहारे सुगन्धित हैं-


आप हो गुलमुहर सा जीवन में


प्यार महका है इस लिए मन में


जीवन में संन्यास भाव का बहुत महत्व होता है। पुरुष का भाव कुछ तीव्र होता है जब कि नारी का भाव सृष्टि रचना एवं संचालन में अधिक होता है। पुरुष की भांति वह सोचती है कि जीने के लिए इस छोटे से पेट के लिए क्या क्या नहीं करना पड़ता। यदि मोह हो तो इतना झंझट नहीं पालना पड़ता। कोई केवल अपने पेट के लिए नहीं जीता बल्कि अन्य का सान्निध नए नए परपंच रचने को प्रोत्साहित करता है। सही है, जानवर कुछ परपंच नहीं रचता और पक्षी भी, जब तक वह स्वतंत्र है। गाजियाबाद की वयोवृद्ध गजलकारा डॉ. रमा सिंह इसी लाचार भाव को कुछ यों प्रकट करती हैं-


छोटे से इस पेट की खातिर कितनी मारामारी है


यह जीना भी क्या जीना है जीने की लाचारी है


लाचारी का यह बोझ भी पुरुष के कारण है, वह उसे संरक्षण में रख बन्धन में बांध देता है। अलवर की कीर्तिशेष गजलकारा मंजु अरुण इसी विवशता का प्रकटीकरण यों करती हैं-


हमें खिताब दिया है जहां ने सीता का


तभी तो शोलों पे हम नंगे पांव चलते हैं


और इसी विवशता की भोग्या डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी साहस के साथ संघर्ष करते हुए मुकाबला करते रहती हैं-


मैं नदी हूँ इस लिए बहती रहूंगी


चोट हर पाषाण का सहती रहूंगी


लेकिन दीप्ति मिश्र समझौते के जीवन को जीना सही नहीं मानती। वह जो है उसी को मानती है, जो घट जाता है उसे छिपाती नहीं, खुले तौर पर कहती ही नहीं उस पर अडिग रहती हैं, भले ही कितनी ही मुसीबतें आएं-


सच को मैं ने कह दिया सच जब कह दिया तो कह दिया


अब जमाने की नजर में ये हिमाकत है तो है


दीप्ति मिश्र की यह बगावत खाली नहीं जाती। यही बगावत विकराल रूप से सागर की गजलकारा डॉ. वर्षा सिंह की लेखनी से प्रस्फटित होती है


बदलेंगी उस दिवस से जमाने की सूरतें


जिस दिन ढलेंगी सुर्ख मशालों में औरतें


नारी जब तक अपनी मर्यादा में है तब तक शान्ति है, घर में भी और बाहर भीइस की बगावत को रोकने के लिए पुरुष वर्ग परोक्ष-अपरोक्ष रूप से बाधाएं उत्पन्न करता रहता है, जिसे नारी समझती है, इस लिए ऐसे समय में पुरुष भी नारी की आँख में खटकने लगते हैं, कब तक पुरुष समाज अत्याचार करता रहेगा। सूरत शहर डॉक्टर सुषमा अय्यर इस तथ्य को अच्छी तरह जानती हैं


बीच आँगन यों अड़े हैं अपने ही


कील बन हर दम चुभा करती हैं कुछ


कोयलानगर की गजलकारा कविता विकास भी घर गृहस्थी की इस पीड़ा का भयावह रूप देख सहमी हई है, जो बाहरी भय से कम नहीं है-


रास्तों के भेड़ियों से जितना है


उतना ही घर में भी है डर क्या करूं


यों तो नारी सहनशीलता की देवी कही जाती है, इस लिए वह बाहरी कष्टोंदुखों को सहन कर लेती है किन्तु घर गृहस्थी में परोक्ष और अपरोक्ष प्रताड़नाएं जाती हैं उसे उस के लिए सहना करना कठिन हो जाता है फिर भी वह जहां तक सके प्रकट नहीं करती। पर ज्यों ही वह अकेली होती है, पीर की पराकाष्ठा आंखों निकलने लगती है, कुछ वैसी ही जैसी दुष्यन्त सार्वजनिक पीर की पराकाष्ठा समाप्ति के लिए संकेत करते हैं। इसी पीर का प्रकटन वाराणसी की गजलकारा मंजरी पांडेय शब्दों के माध्यम से करती हैं-


बढ़ गई है जिन्दगी में इस कदर ये पीर


भर गई आँखें हमारी और छलके नीर


जोधपुर की गजलकार सुषमा चैहान पुरुष की लम्पटता जानती ही नहीं, पहचानती भी है। फिर भी वह अपने भीतर की घुटन को चुपचाप सह लेती है, यह बहाना करते कि घर में खराबा नहीं है बल्कि बाहर ज्यादा खराबा है, जिसे वह व्यंग्यात्मक शब्दावली में कहना चाहती हैं


भीतर दिल के घुटन घुटन से


कहते बाहर पवन बहुत है


जब हम सिक्के के एक पहलू के शिखर तक पहुँच जाते हैं तब वहाँ अधिक समय तक नहीं टिके रह सकते और सिक्के के दूसरे पहले के शिखर पर अपने आप को पाते हैं। नारी पर अत्याचार की पराकाष्ठा भी अन्ततः उसे सिक्के के दूसरे पहलू के शिखर पर खड़ा कर देती है और वह अत्याचारी को चुनौती दे डालती है। भीलवाड़ा राजस्थान की गजलकारा रेखा लोढ़ा 'स्मित' बेबाक हो कर कहती हैं


रोक लो अब उजाड़ना धरती


फिर कहीं जलजला हो जाए


यह धरती नारी ही है। वस्तुतः वह खुद की घुटन ही नहीं, पुरुष की घुटन को भी बाहर की आंधियों का उदाहरण देते कम करना जानती है। कोटा की गजलकारा डॉ. लीला मोदी तो यहां तक जानती हैं कि जो पुरुष घर में उजालों की बात करता हैजब कि वह अंधेरों से अधिक डरता है। मनोविज्ञान भी यही कहता है कि जो जिस से जितना प्यार करता है वह उसी से उतनी घृणा भी करता है। इसी मनोवैज्ञानिक वृत्ति को डॉ. लीला मोदी व्यंग्यात्मक भाषा में खोल रही है


रोशनी उस को क्या मिली होगी


जो अंधेरों से डर गया होगा


पुरुष के इसी दोगलेपन को उजागर करते हुए गजलकारा कंचनलता कंचन उस के स्वार्थ के मुखौटे को उतार फेंक देना चाहती हैं-


जिस का हर लफ्ज खुदगर्जी से था भरा


मंच पर बैठा वह पढ़ता गीता मिला


दिल्ली की प्रतिभा शुक्ल पुरुष के इसी भाव को बेबाक हो कर टुकड़े टुकड़े कर देना चाहती हैं-


है समन्दर हमारे भी अन्दर मगर


पार जाना मना डूब जाना मना


तभी तो कानपुर की मधुरिमा सिंह अपनी व्यथा, पीर, दुख, दर्द आदि को अकेली वहन करना नहीं चाहती। इस में पुरुष भी बराबर का हिस्सेदार है, वैसे ही जैसे सुख-शान्ति में। इस के लिए वह किसी परमात्मा का सहारा नहीं लेती, बल्कि अपने आत्मा से वार्तालाप कर निदान चाहती है--


दिल के फकीर ने कहा जो माँगना है माँग


मैं ने भी पीर माँग ली साझे हिसाब की


नई दिल्ली की गजलकारा सुषमा भंडारी अपने जीवन की भाषा की मर्यादा नहीं तोड़ती, इस लिए वे 'वह' को 'स्वयं' के संकेत से सूचित करती हैं। जब वह बगावत पर उतर जाती है तब संघर्ष के लिए निकल पड़ती है, फिर चाहे ठोकरें लगेलहूलुहान पाँवों में भी आगे बढ़ती जाएगी, उसे कोई सीमा नहीं दिखाई देती, वह समझौता नहीं करती--


क्या पता ऊँचा उठा नीचे गिरा


हद वो सारी तोड़ कर आगे बढ़ा


नई दिल्ली की गजलकारा सुषमा भंडारी अपने जीवन की भाषा की मर्यादा नहीं तोड़ती, इस लिए वे 'वह' को 'स्वयं' के संकेत से सूचित करती हैं। जब वह बगावत पर उतर जाती है तब संघर्ष के लिए निकल पड़ती है, फिर चाहे ठोकरें लगे, लहूलुहान पाँवों में भी आगे बढ़ती जाएगी, उसे कोई सीमा नहीं दिखाई देती, वह समझौता नहीं करती--


क्या पता ऊँचा उठा नीचे गिरा


हद वो सारी तोड़ कर आगे बढ़ा


जब नारी घर से विद्रोह कर सड़क पर उतर जाती है तब वह सत्य उजागर करने में कभी हिचकिचाती नहीं। कोई व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा हो, उस की लम्पटता खोले बिना नहीं रहती। राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्य को जानती-पहचानती है। समानता का भाव उसे पुरुष ही से मिला है इसलिए शासक और आमजन में भेदभाव नहीं करती। उरई की डॉक्टर माया सिंह 'माया' शासकों के विरुद्ध खला ऐलान करती हैं-


नेता हो अथवा जनता हैं भ्रष्ट तो सजा दो


सब लोग हैं बराबर कानून की नजर में


ऐसा कैसे हो सकता है कि शासक समस्त सुविधाओं को भोगता रहे, वह भी जनता की गाड़ी कमाई के पैसे से। ऐसे नेता को मत चुनो जो केवल वादा करता हो, चुने जाने पर वादे भूल जाता हो, और आमजन उसी स्थिति को भोगता रहे जिसे मिटाने के लिए उसे चुना गया था। डॉ. अनु जसरोटिया शासन प्रबन्धन की खोखली व्यवस्था के पत्ते खोलने में कितने कम शब्दों में सार्थकता पैदा कर देती हैं-


वादा सस्ते गेहूँ का


पानी को भी तरसे लोग


शासन के परोक्ष अत्याचार की विभीषिका से फालना, राजस्थान की गजलकारा डॉ. कविता किरण अपने सांकेतिक शे'र के माध्यम से यों प्रकट करती है-


बारिश जब बोने आई हो अंगारे


हरियाली का बीज भला कैसे फलता


जयपुर की गजलकारा जया गोस्वामी सचिवालय की गलियारों में रमण करती रही हैं, इसलिए वे नेता जो पूर्व में न तो सदाचारी और न व्यवहारिक थे, जिन से सुशासन की आशा नहीं की जा सकती थी, वे ही सरकार में आते ही गिरगिट की भाँति रंग बदल देते हैं और जनमानस देखते रह जाता है कि काले दिल के ये लोग कैसे सदाचारी से लगते हैं, भ्रष्टाचार के रंग में रंग कर और बलिष्ठ हो गए हैं, जनता विस्म्ति रह जाती है कि ये नेता कैसे वोट पा कर जीत गए-


पुष्ट दृष्ट भ्रष्टचर दुगन्ध से भरे


श्वेत वस्त्र धर सुवास इत्र हो गए


वस्तुतः शासक जिन पर जन-सेवा का बोझ रहता है, वे बोझ उठाना भूल जाते हैं, इस लिए उन की कमर तन कर चलती है। पेड़ भी तब तक झुका रहता है जब तक वह फूल-फलों से लदा रहता है। सागर शहर की निरंजना जैन ऐसे ढूँठ नेता के लिए व्यंग्यात्मक बाण छोड़ती है-


भार नहीं हो जिन पर कोई खूब अकड़ कर चलते हैं


बोझ लदा हो जिन के ऊपर वे ही नीचे नवते हैं


विवशों पर अत्याचार करने वाले सबलों के प्रति बैंगलूर की गजलकारा डॉ. उर्मिला श्रीवास्तव 'उर्मि' की दृष्टि तरस खाती है, क्यों कि सबल तो अत्याचार कर के सो जाते हैं परन्तु निर्बल के पास श्राप, दुराशीश के बोल के अतिरिक्त कुछ नहीं है, जो उन के अत्याचार से भी अधिक घातक होते हैं। वे अत्याचारियों को चेताते हुए कहती हैं-


आह पड़ जाती है सबलों पर भी भारी


निर्बलों का जी दखा कर क्या मिलेगा


इतने पर भी जब जुल्म ढाए जाते हैं तब बगावत के स्वर उठना स्वाभाविक लगता है, सच्चाई भी यही है, इसी लिए हुँकार भरती आवाज में दिल्ली की डॉ. सोम्या जैन 'अम्बर' दहाड़ती हैं-


कौन रोकेगा रास्ता मेरा


है मेरा बहना नदी की तरह


इसी बगावत की आवाज को दिल्ली की ही डॉ. संयोगिता गोसाई 'दर्पण' और बुलन्दी के साथ उठाती हैं-


समझ पाए नहीं हैं पथ प्रदर्षक


बगावत ले रही आकार क्यों है


इस बात को दिल्ली की गजलकारा अच्छी तरह जानती है कि शासक भिन्न भिन्न तरीकों से जनता पर अत्याचार करने के रास्ते ढूँढ़ता है। परोक्ष रूप से आर्थिक अत्याचार के द्वारा जनता को दबाने के लिए ऐसी योजनाएँ बनाता है जिस से निर्धनों पर अधिक बोझ पड़े, और उन योजनाओं का अधिकांश लाभ उद्योगपतियों की थेलियों में जाए। अपने इस रोष को निम्न शेर के माध्यम से प्रस्तुत करती कहती हैं-


शासकों से परेशान आम आदमी


इनकी हर योजना है धनी के लिए


विदुषी नारियाँ सदैव अपनी सीमा में रहती हैं। वे घर-गृहस्थी सुचारू रूप से चलाती हैं, फिर भी पुरुष वर्ग उन पर सदैव तीक्ष्ण दृष्टि ही रखता है। इसी लिए डॉ. कीर्ति काले तो नारी (लड़कियाँ) के जीवन को तपती दोपहर की धूप से पीड़ित और व्यथित समझती है और इसी भाव को निम्न शब्दों के माध्यम से प्रकट करती हैं-


गर्म तपती दोपहर है लड़कियों की जिन्दगी


एक पथरीली डगर है लड़कियों की जिन्दगी


लड़कियाँ चाहे अविवाहित हों या विवाहित, वे पुरुष की अपेक्षा अधिक कार्य करती हैं। यों कहें कि वे चौबीसों घंटों की सेविकाएँ होती हैं। शायद नींद में भी उन्हें घर ही दिखाई देता रहता है। वे नाम की भूखी नहीं होतीं, उनमें कर्म की तृषा रहती हैनारी जानती है कि नारी ज्यों ही नामवर कार्य करने को घर से बाहर निकलती है उसे किसी न किसी रूप में प्रताड़ित करना आरंभ कर दिया जाता हैं। इसीलिए गजलकारा आशा शैली नाम के प्रति उपेक्षित भाव ही रखती है


क्या करना है नाम कमा कर अच्छे हैं गुमनाम मियाँ


नाम कमाने के चक्कर में हुए बहुत बदनाम मियाँ


तभी तो विनीता गुप्ता किसी भी प्रकार के लोभ लालच से दूर रहना चाहती हैछोटी सी सहूलियत का तिरस्कार करते हुए कठिन कार्य करना स्वीकार करती है, भले ही उसे कितने ही कष्ट आएँ। घर गृहस्थी का विलक्षण बोझ अपने सिर, काँधे और कमर पर उठाए जीवन यापन सहजता से कर लेती हैं-


ओ पगडंडी पदचापों का गीत सुनाना ना मुझ को


बीहड़ जंगल को मैं अपने काँधे पर ही ढो लूँगी


गजलकारा इन्दिरा अग्रवाल तो अपने आप को पुरुष से स्वतंत्र होते हुए भी कैद में ही मानती है। ऐसे ही जैसे जेलर कैदी को याद नहीं रखता किन्तु कैदी की दृष्टि में जेलर हर वक्त घूमता रहता है। अपनी इस व्यथा को इस तरह प्रकट करती हैं


वह किसी की कैद में थी


तू जिसे अब तक न भूला


इसी कष्ट को जोधपुर की गजलकारा रजनी अग्रवाल नारी की बेबसी का जिम्मदार केवल घर के लोगों को ही नहीं मानती, बल्कि उन के द्वारा ही पैदा किए गए उस समाज की कठोर व्यवस्था को मानती हैं जिस ने बाद में रूढ़ियों का जन्म दिया। आज भी नारी जब घर से बाहर कदम रख नये रास्ते खोजती है तो घर के लोग ही आगे बढ़ने से रोक देते हैं, ऐसे पुरुषों पर दया ही की जा सकती है-


आवाजों पर पहरे हैं


बेबस कितने घर के लोग


ऐसी सामाजिक व्यवस्था का जब नारी द्वारा विरोध किया जाता है तो उसे दबाने की चेष्टा की जाती है। किन्तु अब नारी दबती नहीं, किन्तु पोरुषीय कायरता को उजागर करती जब समाज के सामने सत्य खोलती हैं तो पुरुष और भयभीत हो उठता हैवह नहीं चाहता कि उस के द्वारा बनाई गई व्यवस्था का विरोध कोई भी नारी करे। इतने पर भी जब नारी पुरुष की व्यवस्था के विरोध में विद्रोह कर देती है, तब वह पुरुष समाज नारी को कलंकित करने के आदेश निकाल देते हैं यह आदेश या फतवा पुरुष की कमजोरी के अतिरिक्त कुछ नहीं, जो अपने व्यक्तिगत कारणों से रूढ़ियों को तोड़ना या बदलना नहीं चाहते। वस्तुतः यह आदेश या फतवा नारी या पुरुष के प्रति नहीं अपितु हर उस व्यक्ति के प्रति है जो सच की आवाज उठाता है। उसकी यह आवाज रूढ़ियों को तोड़ने के लिए एक बालक के सत्य उवाच सा आन्दोलन होता है, जो कह सकता है कि बादशाह नंगा है। ऐसी विकट स्थिति को दो पंक्तियों के इस छोटे से शेर के माध्यम से छतरपुर की गजलकारा डॉ. सरिता सलिल प्रस्तुत करती हैं


सच कहा तो चिढ़ गए सब


मुझ को फतवा तक सुनाया


लखनऊ की गजलकारा रचना शुक्ला इस व्यक्तिगत पीड़ा को जब समग्र दृष्टि से देश की वर्तमान स्थिति को समझने का यत्न करती हैं तो उन्हें लगता है सैकड़ों सालों से चली आ रही नारी की स्थिति में कछ भी बदलाव नहीं आया. भले ही देश की शासकीय व्यवस्थाएं बार बार बदलती रही हों। भारत स्वतंत्र हो गया, फिर भी आज भी परतंत्रीय भारतीय नारी की भांति कष्ट भोग रही है, तब वह पौरूषीय व्यवस्था को उलाहना देती है


देश आजाद आप भी आजाद


और अब तक गुलाम है औरत


औरत की ऐसी स्थिति के लिए केवल पुरुष को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इस का मूल कारण कुशासन का होना है जिस में धनी धनी होता जाता है और निर्धन और निर्धन । पुरुष को श्रम का उतना मोल नहीं दिया जाता, जितना उस से शारीरिक और मानसिक श्रम लिया जाता है। न्यून श्रम से माता, पिता, पत्नी व बच्चों का पालन अभावों से लड़ते हुए करता है। इसी लिए वह और और धन कमाने के लिए रास्ते ढूंढ़ता है, बुरा भी क्यों न हो। धन के बिना जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करना कठिन होता है, घर में अभावों से क्लेष उत्पन्न होता है और यही स्थिति पुरुष को पागल सा बना देती है और धन कमाने के लिए कोई भी रास्ता अपनाने में नहीं झिझकता, जिस से समाज में अराजकता फैलती है। ऐसी विभीषिका को एक शेर के माध्यम से भोपाल की गजलकारा मंजू मनीषा कितनी सफाई से प्रस्तुत कर देती हैं


आज पैसे का मारा है हर आदमी


सारी विपदा है बस एक धन के लिए


इसी धन के अभाव के कारण ही तो भुखमरी बढ़ती है। यह अभाव वस्तुतः येन केन प्रकारेण धन कमाने के लालच में शासन का कुप्रबन्ध दोषी है। इस भुखमरी की व्याख्या संतरामपुर की डॉ. मालिनी गौतम बिना किसी सांकेतिक भाषा का प्रयोग करते हुए कहती हैं


कितने घरों में आज फिर चूल्हा नहीं जला


सरकार के गोदाम में गेहूँ जो सड़ रहा


आत्मशक्ति एवं सहनशीलता जितनी नारी हृदय में होती है, उतनी पुरुष में नहींवह घर में भी संघर्ष करना जानती है और घर के बाहर भी। कितनी ही चुनौतियां आ जायं (शारीरिक शक्ति के अलावा) उनका वे डट कर सामना ही नहीं करतीं, बल्कि जूझती भी हैं और लड़ती भी हैं। अगर वे ठान लें तो कभी हारती नहींअपने उद्देश्य में सफल होना भी जानती हैं। नारी जब संगठित रूप से सड़क पर किसी का भी विरोध करने हेतु आन्दोलन कर देती हैं तो अन्त तक संघर्ष करती रहती हैं, जो उन की आत्मशक्ति का प्रतीक है। कोयलानगर धनबाद की गजलकारा गरिमा सक्सेना इस शेर के माध्यम से ललकारती हैं


नहीं हम हार मानेंगे भले हों मुश्किलें कितनी


चिरागों ने हवाओं से हमें लडना सिखाया है


गजलकारा पहले नारी है, वह कोमल हृदय रखती है, जिसमें दया, करुणा, ममता तो होती ही है, पुरुष के संन्यास रूपी जीवन को भी समझती है। वे जानती हैं कि इच्छाएं जितनी कम होंगी, कष्ट भी उतने ही कम होंगे। वस्तुओं का फैलाव ही असुरक्षा पैदा करता है। एकत्रीकरण की भावना ही खोने का भय पैदा करता है। यह भय न दिन में चैन लेने देता है न रात को सोने देता है। आवश्यकता से अधिक रखना स्थान की विकटता को पैदा करता है और इन सब के हल के लिए फिर सुरक्षा के साधन पैदा करता है। यही क्रम तो कष्ट के साथ दुख पैदा करता है। यह समस्या मानव जनित होती है, जिस का हल नहीं होता। जरूरत से अधिक न रखने की व्यवस्था जैन धर्म में उपदेशित है। किन्तु सुखमय जीवन की दृष्टि को कौन अंगीकार करता है। इस बात को शायद कोटा को गजलकारा कृष्णा कुमारी कमसिन' ने अधिक निकट से समझा है जिसे समस्त मानव समाज के सुखमय जीवन के लिए बहुत ही कम शब्दों की दो पंक्तियों में प्रस्तुत कर दिया है, ऐसे ही शेर विश्वव्यापी कहे जा सकते हैं-


कम से कम सामान रखना


जिन्दगी आसान रखना