गजलका प्रभाव और वातावरण

आलेख


डॉ किशन तिवारी


संसार के प्रत्येक भू-भाग और वहां रह रहे प्रत्येक समाज की एक संस्कृति होती है, जिसमें भाषा, धर्म, परंपराएं, साहित्य और संस्कारों से उस समाज की एक पहचान बनती है। शताब्दियों से चली आ रही मानव समाज की यह संस्कृति आदि मानव से लेकर आज तक परिवर्तनशील रही है हर युग के लोगों ने विकास के पथ पर चलते हुए, वर्षों से चली आ रही संस्कृति, जिसमें भाषा, धर्म, संस्कार, रूढ़ियां, परंपराएं सभी को विस्तार दिया है और उन्हें नये आयाम दिये हैं मूक और इशारों की भाषा ने अलग-अलग स्थानों पर भाषा का स्वरूप गढ़ा है और फिर धीरे-धीरे भाषा में साहित्य के सृजन ने मानव को प्रगति के पथ पर लाकर खड़ा कर दिया। भाषा, संस्कृति और परंपराएं बहती हुई नदी के समान विकास के पथ पर अग्रसित हो रहे हैं। समाज भाषा अथवा संस्कृति जो भी स्थिर हो जाते हैं अथवा आगे बढ़ना बंद कर देते हैं वहां पानी रुक जाता है और फिर उसमें दुर्गंध आना स्वाभाविक है।


गजल हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विधा है। गजल का लंबा लगभग पांच सौ वर्ष पुराना इतिहास है जब यह फारसी, अरबी से होते हुए उर्दू तथा हिन्दी में आई। गजल की इस लंबी यात्रा में अनेक परिवर्तन हुए, इसलिए गजल आज के बदलते हुए समय की न सिर्फ हिन्दी और उर्दू की बल्कि सिंधी, पंजाबी, गुजराती आदि तमाम भाषाओं बल्कि यहां तक कि लोक भाषाओं में भी इसका पदार्पण हो चुका है और आज गजल हिन्दी साहित्य में एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में अपना स्थान रखती है।


दुष्यंत कुमार की हिन्दी गजल की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है। दुष्यंत कुमार के पश्चात एक लंबा कारवां गजल का परचम उठाये आगे जा रहा है और उसमें सभी की अपनी-अपनी भूमिकाएं हैं। हर भाषा का अपना एक चरित्र होता है, उसका अपना एक मिजाज होता है। प्रत्येक भाषा के अपने व्याकरण, विशिष्ठताएं और कमियां होती हैं जो उनको एक-दूसरे से अलग करती है। हिन्दी और उर्दू साहित्य में लिखी जा रही गजलों की अपनी अलग खुशबू और अलग पहचान चिहिन्त होती है। हिन्दी में लिखी जा रही गजलों पर उर्दू की पारंपरिक गजलों का प्रभाव यत्र-तत्र दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार सूफी परंपराओं का प्रभाव भी हिन्दी साहित्य में कही जा रही गजलों पर दुष्टिगोचर होता है। दुनिया में प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और समाज तथा वातावरण में हर प्रक्रिया अपने आसपास हो रही गतिविधियों पर अपना प्रभाव डालती हैं, ऐसे में अगर कोई कहे कि हिन्दी साहित्य में लिखी जा रही गजलों का उर्दू साहित्य में लिखी जा रही गजलों पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा है, तो यह कहना न सिर्फ सरासर गलत होगा बल्कि पूर्वाग्रहित होगा।


दुष्यंत कुमार द्वारा गजल के क्षेत्र में आये तूफान के बाद हिदी गजल की धारा में संपूर्ण वातावरण ही परिवर्तित हुआ है। इसके साथ ही इसके प्रभाव स्वरूप को देखते हुए उर्दू साहित्य के क्षेत्र में कही जा रही गजलों में हुस्न, इश्क, शराब, शबाब के अतिरिक्त सामाजिक संदर्भो तथा आज की जिंदगी की समस्याओं को सहज भाव से अभिव्यक्ति मिली है। आज के दौर में लिखी जा रही गजलें वर्तमान समस्याओं पर तवज्जो देते हुए गजलों के प्रकाशन एवं मुशायरों के माध्यम से अभिव्यक्ति दी जाने लगी है। फिर वे समस्याएं चाहे गरीबी की हों, बेकारी से जूझती युवा पीढ़ी की हों, सभी समस्याओं को शायरों ने बखूबी अपने कलाम में व्यक्त किया है। इस दौर में गजल हिंदी और उर्दू साहित्य में अभिव्यक्ति कर सशक्त विधा के रूप में सुस्थापित हो चुकी है। गजल चाहे हिन्दी में लिखी जाए अथवा उर्दू में हिन्दुस्तान की मिट्टी की समस्याएं सभी जगह एक जैसी है और उन समस्याओं पर हिन्दी और उर्दू के गजलकार अपने-अपने तरीके से अभिव्यक्ति देते रहे हैं।


यह मैं जरूर कहना चाहूंगा कि उर्दू गजल की परंपरा बहुत लंबी और पुरानी हैउर्दू गजल की इमारत एक पुख्ता नींव पर खड़ी है। हिंदी के गजलकारों को हिन्दी गजल को एक मजबूती प्रदान करनी होगी क्योंकि कथ्य चाहे कितना भी वजनदार हो लेकिन लहजा और व्याकरण की कमजोरी के चलते कोई भी गजल साहित्य में सम्मान जनक स्थान नहीं प्राप्त कर सकती है। ऐसा नहीं है कि कमजोरी सिर्फ हिन्दी में कही जा रही गजलों में ही हों, उर्दू में भी इसके उदाहरण मिल जाते हैं। गजल की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए हिन्दी और उर्दू साहित्य में लिखी जा रही गजलों को एक दूसरे से सीखकर आगे बढ़ाना होगा और समाज और साहित्य में अपने दायित्व के प्रति सजगता अनिवार्य है।


गजल हिन्दी और उर्दू साहित्य के बीच एक महत्वपूर्ण पुल का कार्य कर रही है जो वर्षों से चली आ रही भारतीय सभ्यता की गंगा-जमनी परंपरा को आगे बढ़ाने में एक मजबूत कड़ी का काम करती है। इस विधा को बचाये रखना भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, परंपराओं को बचाये रखने का महत्वपूर्ण दायित्व हिन्दी के विद्वानों और आलोचकों पर निर्भर करता है। उन्हें अपनी हठ धर्मिता छोड़ हिंदी गजलों के प्रति अपनी नकारात्मक सोच से बाहर निकलकर सोचना होगा। गजल हिंदी और उर्दू की साझी परंपरा है। इसकी अपनी-अपनी अलग खुशबू और अलग रंग है। हमें इस साझी परंपरा को और गंगा-जमनी तहजीब को बचाये रखना ही होगा।