दुष्यंत कुमार और उनकी गजलें

आलेख


होराम समीप


किसी ने कहा है कि 'कोई कलाकृति तभी मूल्यवान होती है, जब उसमें भविष्य की आहटें मौजूद होती हैं।' इस कथन के बरक्स जब हम हिन्दी गजलकार दुष्यन्त कुमार की गजलों का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि इनमें हमें अपने समय की टकराहटों की प्रतिध्वनियां साफ-साफ सुनाई देती हैं चाहे सामान्य जन की बेबसी हो, पीड़ा हो या उसकी व्यथा हो अनैतिक व्यवस्था की कारगुजारियां हों या जनता के आक्रोश की ललकार हो, दुष्यंत की गजलों के एक एक शेर से उठते स्वर में व्यवस्था परिवर्तन के स्वप्नों और उनके लिए किए जाने वाले संघर्षों के लिए उम्मीद की आहटें मौजूद हैं। वही आहटें, वही दस्तकें जिनका भारत की जनता बरसों से इन्तजार कर रही है। ये आहटें सन् 1975 के आपातकाल और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति' आन्दोलन के दौरान जनता का गान बनीं और हाल ही में दिल्ली विधानसभा के 2014 के चुनाव में इन गजलों को सभी विपक्षी दलों द्वारा जन जागरण का माध्यम बनाकर ऐतिहासिक परिवर्तन किया। इस तरह दुष्यंत कुमार इतिहास की एक परिघटना के रूप में पूरे साहित्य जगत में स्थापित हो गए हैं। प्रस्तुत आलेख में हम इसी परिघटना का विश्लेषण करना चाहते हैं।


दुष्यन्त कुमार को समकालीन हिन्दी गजल का अगुआ माना जाता है। इतिहास में अंकित अनेकानेक ऐसे अग्रगामी साहित्यकारों की तरह दुष्यंत कुमार का व्यक्तित्व भी विलक्षण और अनुपम था। उनका जन्म 1 सितम्बर 1933 को राजपुर नवादा ,जिला-बिजनौर, उत्तरप्रदेश में एक जमींदार परिवार में हुआ तथा सिर्फ 42 साल की उम्र में किसी दुर्घटना में 30 दिसंबर 1975 को भोपाल में देहान्त हो गया। आकाशवाणी' भोपाल तथा मध्यप्रदेश शासन के भाषा विभाग में उन्होंने कार्य किया लेकिन युवाकाल से कविता, कहानी, नाटक लेखन और अन्य साहित्यिक गतिविधियों से उनका लगाव बढ़ता ही गया। प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर, धर्मवीर भारती और मार्कंडेय से उनकी गहरी मित्रता रही। गजल लेखन में आने के पहले तक वे हिन्दी कविता की नई धारा के प्रतिनिधि कवियों में शुमार हो गए थे और ख्याति प्राप्त कर रहे थे।


तत्कालीन भारतीय समाज में बढ़ती अराजकता और मूल्यहीनता के कारण बिगड़ती जा रही परिस्थितियों की चिन्ता में डूबे कविसमाज के बीच वे भी बेचैन थे। तब दुष्यंत ने 'एक कंठ विषपायी' लिख कर परिवर्तन की नई रोशनी का स्वागत किया। यह कविता में प्रतिवाद का संकेत था, संघर्ष का आह्वान था। उनकी यह कृति समय की सबसे श्रेष्ठ उपज के रूप में देखी जानी चाहिए लेकिन वे उस कृति से मुग्ध होकर बैठ नहीं गए। कंठ में रखे उस विष से उतप्त होकर वे आम आदमी की बढ़ती पीड़ा को अपने भीतर पल-पल महसूस करने लगे थे 'मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं' की बेचैनी ने उनको गजल लेखन की राह सुझाई और दुष्यंत ने सामान्यजन की पीड़ा को सीधे जनता को संबोधित करना प्रारम्भ कर दिया और वे जनता के लाड़ले कवि हो गये। वे कविसम्मेलनों और मुशायरों के जरूरी कवि के रूप में लोकप्रिय हुए। उनकी कुल 11 पुस्तकें प्रकाशित हुई। प्रमुख पुस्तकें हैं-सूर्य का स्वागत 1957, आवाजों के घेरे 1963, जलते हुए वन का वसंत 1970, साए में धूप 1975, एक कण्ठ विषपायी 1984, छोटे छोटे सवाल 1984 और आँगन में एक वृक्ष। उन्होंने केवल 42 साल की कुल आय में हिन्दी साहित्य को कविता, कहानी, नाटक, एकांकी, उपन्यास, गजल और आलोचना के अनेक रूपों में उत्कृष्ट कृतियाँ प्रदान की। गजल संग्रह उनके जीवन के अंतिम दिनों में ही आया था।


गजलें कहने की प्रेरणा उन्हें हिन्दी के श्रेष्ठ कवि व गजलकार शमशेर बहादुर सिंह से मिली और उन्हें सबसे अधिक ख्याति भी उनके गजल संग्रह 'साए में धूप' से ही मिली। इस गजल संग्रह में 52 गजलें संकलित हैं। हिन्दी गजल साहित्य में यह संग्रह पिछले चालीस बरसों से गजल की एक मशाल बनकर एक हाथ से दूसरे हाथ की मशाल को रोशन कर रहा है और हिन्दी गजल मुखरित से और मुखरित होती चली जा रही है। देश विदेश में इस संग्रह की अब तक लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं। आजादी के बाद प्रकाशित सबसे अधिक बिकने वाली कविता पुस्तक संभवत: साए में धूप' ही है। वे आज की हिन्दी गजल के अग्रदूत के रूप में साहित्य में उपस्थित हुए। उन्होंने हिन्दी गजल को नई चेतना से उर्जस्वित किया है और उसे एक नया फलक प्रदान किया है। इस गजल संग्रह ने हिन्दी गजल के नए युग का सूत्रपात किया है और सम्पूर्ण भारतीय गजल धारा को एक नया मुहावरा, नए संस्कार और नई दिशा देकर उसे समकालीन भारतीय कविता के बीच प्रतिष्ठित किया है। इसीलिए दुष्यंत को एक क्रान्तिकारी कवि भी माना गया है।


दुष्यंत कुमार के रूप में हिन्दी गजल को जैसे एक मसीहा मिल गया था। चूंकि वे अनेक कृतियों की रचना के बाद हिन्दी गजल लेखन में उतरे थे अतः स्वाभाविक रूप से भाषा पर उनकी पकड़ मजबूत थी। उनकी गजलों की लोकप्रियता ने हिन्दी गजल को नया मोड़ दिया। दुष्यंत का प्रभाव यूं हुआ कि उनके देहान्त के चालीस साल बाद भी उनका लहजा आज के अन्य हिंदी गजलकारों के स्वर में स्पष्ट झलकता है। दुष्यंत के सामाजिक सरोकार के परचम को लेकर आई यह नई पीढ़ी दुष्यंत की परम्परा को बखूबी आगे बढ़ा रही है।


इस तरह हिन्दी गजल में दुष्यंत की एक परम्परा निर्मित हो गई है। गजल की अनेकानेक पुस्तकें दुष्यंत के नाम से प्रकाशित हो रही हैं। गजलकार दीक्षित दनकौरी के संपादन में 'गजलः दुष्यंत के बाद' तीन खंडों में लगभग आठ सौ गजलकारों की गजलों के साथ वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। इसी तरह वरिष्ठ गजलकार, कथाकार और गजल समीक्षक ज्ञानप्रकाश विवेक द्वारा गजल समीक्षा की महत्वपूर्ण पुस्तक 'हिन्दी गजल दुष्यंत के बाद' अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है। और भी पुस्तकें दुष्यंत को संदर्भित होकर आ रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि अभी दुष्यंत की गजलों का सम्यक मूल्यांकन नहीं हुआ है।


_ 'साए में धूप' गजल संग्रह के प्रकाशन को साहित्य जगत ने एक अप्रत्याशित घटना की तरह लिया था। उस वक्त जो तात्कालिक प्रश्न उभरा था कि 'नयी कविता के स्थापित और चर्चित कवि होते हुए तथा नयी कविता को लम्बा रचना एक पुरानी और कड़े छन्दानुशासन की विधा की ओर आखिर क्यों लौटे हैं?'


तत्कालीन नई कविता लेखन से हटकर गजल लेखन की ओर आकृष्ट होने की वजह बताते हुए स्वयं दुष्यंत के कथन से बात प्रारम्भ की जाए वे कहते हैं, 'आज की कविता के वाग्जाल और सपाटबयानी से उकताकर मैंने उर्दू के इस पुराने और आजमूदा माध्यम की शरण ली है।. मैंने अपनी तकलीफ को सच्चाई और समग्रता के साथ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए गजल कही है।'


बेचैनी सृजन की पहली शर्त होती है। जिन्होंने दुष्यंतकुमार की अन्य पुस्तकें पढ़ी हैं, वे समझते हैं कि बेचैनी का आलम तो उनकी लगभग हर रचना में एक-सा है लेकिन यहां इन गजलों में उस बेचैनी का रचनात्मक विस्फोट है। एक और प्रसंग यह है कि नई कविता के अपने मोहभंग पर अपने एक मित्र से उन्होंने कहा भी था'मित्र, मैं आज की कविता से ऊब चुका हूं, कितनी कट चुकी है यह जिन्दगी और पाठकों से... सब लोग जैसे एक छोटे से दायरे में घूम रहे हैं। यह कविता कितनीबासी उबाऊ और अपठनीय है। ऐसे में मैं नई जमीन तोड़ने की कोशिश कर रहा हूं।'


उनका कहना था कि आज की कविता में शब्दों ने अनुभूतियों को ढंक लिया है और शब्दों के सही अर्थों की संभावनाएं खोती जा रही हैं। शब्दों की सार्थक पहचान के लिए एक तरफ-नयी कविता की दुरुहता ने उन्हें निराश किया और दूसरी तरफ उर्दू गजल के सामाजिक सरोकारों से बेखबर इश्किया गजलों की निरर्थकता से बेचैन होकर वे नयी जमीन तोड़ने के मकसद से हिन्दी गजल के समीप यह कहते हुए आए कि-


लफ्ज अहसास पर छाने लगे यह तो हद है


लफ्ज माने भी छुपाने लगे यह तो हद है


इसी तरह उर्दू गजल के परम्परागत कथ्य, रागात्मकता अर्थात् 'इश्क' पर दुष्यंत कहते हैं कि-


वे कर रहे हैं इश्क पर संजीदा गुफ्तगू


मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है


नयी कविता से अलग होने के कारणों की चर्चा उन्होंने अन्य अनेक जगह की है। एक स्थान पर वे कहते हैं कि 'कविता में आधुनिकता का छद्म कविता को बराबर पाठकों से दूर करता गया है। आगे कहते हैं कि 'नई कविता की शब्दावली और शैली इतनी घिस-पिट चुकी है कि ऐसा लगता है गोया दो दर्जन कवि एक ही शैली और शब्दावली में एक ही कविता लिख रहे हों।'


जब उनसे पछा गया कि आखिर आप गजल ही क्यों लिखते हो? तो दुष्यंत कुमार ने उत्तर दिया था 'मैं महसूस करता हूं कि किसी भी कवि में एक शैली से दूसरी शैली की ओर जाना कोई अनहोनी बात नहीं बल्कि एक सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया है।'


दुष्यंत ने स्वयं स्वीकार किया है कि अपने अन्दर की छटपटाहट को व्यक्त करने के लिए उन्होंने गजल विधा का चयन किया। एक स्थान पर दुष्यंत कहते हैं कि 'गजल लिखने या कहने के पीछे एक जिज्ञासा अक्सर मुझे तंग करती रही है और वह यह कि भारतीय कवियों में सबसे प्रखर अनुभूति के कवि गालिब ने अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए गजल के माध्यम को ही क्यों चुना और अगर गजल के माध्यम से गालिब अपनी निजी तकलीफ जो व्यक्तिगत भी है और सार्वजनिक भी इस माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठकवर्ग तक क्यों नहीं पहुंच सकती।'यह पाठक वर्ग तक पहुंचने की लालसा ही थी कि वे कवि सम्मेलनों व मुशायरों में शिरकत करने लगे थे और अपने अंदाजे-बयां के कारण जनता को मोहित कर रहे थे अर्थात गजल के प्रभाव से दुष्यंत अच्छी तरह वाकिफ हो गए थे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक साहित्यकारों ने विस्तार से लिखा है। उसके कुछ संदर्भित अंश यहां प्रस्तुत हैं-


उनके अंतरंग मित्र और महान कथाकार कमलेश्वर के शब्दों में 'हम सब तो जीवित हैं, आदमी के सपने को लेकर चले थे और अपने सपनों को लेकर जीने लगे। दुष्यंत अपने सपने लेकर आया था और आदमी का सपना देकर चला गया। उस आदमी का सपना जो विराट समय को पहचानते हुए उसी में जीता और मरता है।'


हिन्दी के वरिष्ठ कवि डॉ. केदारनाथ सिंह का कहना है कि 'गजलें हिन्दी में भारतेन्दु से लेकर शमशेर तक अनेक कवियों ने लिखीं हैं लेकिन यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि जिसे हम हिन्दी गजल कहते हैं, उसका पहला मुकम्मल ढांचा दुष्यंत ने ही तैयार किया था। मुझे यह भी लगता है कि गजल में दो चीजें और दुष्यंत ने जोड़ी जो गौरतलब हैं, पहला यह कि उन्होंने गजल के स्वरूप को आपातकाल के आसपास की राजनीतिक पृष्ठभूमि का लगभग आइना बना दिया और इस तरह उसे एक स्पष्ट राजनीतिक आयाम दिया। दूसरी बात यह है कि उन्होंने परम्परागत बहरों को छोड़कर हिन्दी के ठीक मात्रिक छन्दों में भी कुछ गजलें लिखीं जैसे-


'मत कहो आकाश में कुहरा घना है।


यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।।'


मशहूर कवि निदा फाजली ने लिखा है कि 'दुष्यंत की नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से सजी-बनी है। यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के ककर्मों के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमाइंदगी करती है।'


_ 'दुष्यंत कुमार रचनावली' के संपादक और प्रसिद्ध लेखक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने उनके जीवन और लेखन की गहरी पड़ताल की है और उनके व्यक्तित्व की महत्वपूर्ण जानकारियां दी हैं। साए में धूप' गजल संग्रह की पृष्ठभूमि पर नजर डालते हुए वे कहते हैं कि 'अपने इन्हीं सवालों के बीच किसी ज्वालामुखी की तरह धधकते और फूट पड़ते कवि दुष्यंत ने अंततः जो राह चुनी उसकी शुरूआत उनके चौथे काव्य संग्रह 'जलते वन का वसंत' से हो गई थी।'... 'समकालीन कविता की जानी पहचानी राहों को अलविदा कर यदि वे गजलों की ओर चले आए तो यह एक बाकायदा सोचा समझा और तयशुदा मामला था


"यहाँ कौन देखता है यहाँ कौन सोचता है।


कि ये बात क्या हुई जो मैं शेर कह रहा हूँ"


डॉ. विजय बहादुर सिंह आगे बताते हैं- 'वे (दुष्यंत) गुस्से को गुस्से की तरह बयान करना चाहते थे।वे चाहते थे कि यथार्थ का तीखा और कड़वा रूप उनकी अभिव्यक्तियों में बाकायदा बरकरार रहे।'... 'दुष्यंत ने आधुनिक हिन्दी गजल की परम्परा को जो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की 'भारत दुर्दशा' और 'अँधेर नगरी' काव्य संग्रहों की गजलों से शुरू होकर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की 'भारत भारती' की गजल-'इस देश को हे दीन बन्धो! आप फिर अपनाइए' रामप्रसाद बिस्मिल की 'सरफरोशी की तमन्ना' निराला की 'भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है' तथा शमशेर की 'अपने दिल का हाल यारो हम किसी से क्या कहें' जैसी अनेक अमर ग़ज़लों से आगे विकसित किया है।'


दुष्यंत के सीने में कितनी आग थी इसका थोड़ा अंदाजा 'साए में धूप' की गजलों को पढ़कर लगाया जा सकता है। इन गजलों को लिखकर समकालीन हिन्दी कविता में दुष्यंत ने एक ऐसी जनोन्मुख जनसमर्पित जनपक्षधर रचनात्मकता का प्रमाण दिया है जिसे न तो साहित्य का जटिलवाद और अतिबौद्विकतावाद घेर सकता है न ही वह सांप्रदायिक और कठमुल्ला होता जाता विचारधारावाद।... 'ये गजलें पाठकों के अहसास को अनेक स्तरों पर चीरती हुई उनके व्यक्तित्व के भीतर दूर तक उतर जाती हैं। बकौल दुष्यंत यही तो कविता होती है।'


'हिन्दी गजल: संवेदना और शिल्प-विशेष संदर्भ दुष्यंतकुमार' शीर्षक शोधग्रन्थ में डॉ. सादिका असलम नवाब 'सहर' का कहना है कि 'दुष्यंत कुमार हिन्दी गजल के सशक्त हस्ताक्षर और पुरानी-नई पीढ़ी के बीच मील के पत्थर का दर्जा रखते हैंउन्होंने गजल को किन्ही कवियों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना दिया। 'साए में धूप' गजल संग्रह का महत्व इसीलिए बहुत अधिक है कि वह मील के पत्थर की हैसियत रखती है।... हिन्दी गजल में राजनीति बोध की खुली अभिव्यक्ति के आरम्भ का श्रेय दुष्यंत को जाता है।'


चर्चित आलोचक डॉ. अमिताभ ने अपने लेख 'हिन्दी गजल-संदर्भ और सार्थकता' में कहा है कि 'साए में धूप' की ये गजलें व्यक्तिगत पीड़ा और सामाजिक वैषम्य की देन हैं। सत्ता का सलूक शोषित, पराजित इन्सान की विवशता, संघर्ष और घुटन राजनीतिक साजिश परिवर्तन और क्रान्ति की जरूरत आदि अनेक मुद्दों को दुष्यंत ने इन गजलों में सफलता पूर्वक बांधा है। उसमें महज भावुकता नहीं बौद्विक नजरिया भी है।'


प्रसिद्ध लेखक डॉ. रोहिताश्व ने अपनी पुस्तक 'काव्य सृजन और शिल्प विधान' में लिखा है कि 'दुष्यंत की गजलों में सत्ता, व्यवस्था की शोषण-नीति के कारण विक्षोभ है, गुस्सा है, तड़प है और आम आदमी की काहिली और कम अक्ल होने पर रंज है। वे प्रायः तंज की टोन अपनाते हैं।'


इसी तरह डॉ. मधु खराटे ने दुष्यंत कुमार की गजलों पर गंभीर शोधकार्य किया है। उनका कहना है कि 'दुष्यंतकुमार हिन्दी के ऐसे गजलकार हैं, जिन्होंने आम आदमी की पीड़ा एवं सामाजिक राजनीतिक विसंगतियों एवं विरुपताओं को सशक्त वाणी प्रदान की है। उनकी गजलें अपनी सरलता, सहजता एवं सुबोधता के कारण जनमानस को न केवल आकर्षित करती हैं अपितु उन्हें उद्वेलित भी करती हैं और उनमें सामाजिक परिवर्तन की चाह भी जगाती हैं।'


लोकप्रिय गीतकार कवि यश मालवीय का कहना है कि दुष्यंत की कविताजिंदगी का बयान है। जिंदगी के सुख-दुःख में उनकी कविता अनायास याद आ जाती है। विडंबनाएं उनकी कविता में इस तरह व्यक्त होती हैं कि आम आदमी को वे अपनी आवाज लगने लगती हैं। समय को समझने और उससे लड़ने की ताकत देती ये कविताएं हमारे समाज में हर संघर्ष में सर्वाधिक उद्धरणीय कविताएं हैं-


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं।


मेरी कोशिश है किये सूरत बदलनी चाहिए।


यह मात्र एक शेर नहीं जिन्दगी का दर्शन है, फलसफा है। 'चूंकि दुष्यंत की गजलें कठिन समय को समझने के लिए शास्त्र और उनसे जूझने के लिए शस्त्र की तरह हैं।'


समीक्षक दर्गाप्रसाद अग्रवाल का कहना है कि 'दष्यंत ने अपनी चारों ओर बुनी जा रही कविता की एकरसता को तोड़ने के लिए गजल कहना शुरू किया।' हर जागरूक कवि की तरह दुष्यंत कुमार ने भी समाज और राजनीति के सम्बंध में अपने विचारों को अश्आर की सूरत में पेश किए हैं। उन्हें समझने के लिए कुछेक अश्आर पर हम यहां चर्चा करेंगे-


समाज की उन्नति के लिए सरकारें जो योजनाएं बनाती हैं और जब लागू होती हैं. तब व्यवस्था में बैठी भ्रष्टता दीमक की तरह उसे चाट जाती है। इसी भ्रष्टाचार के चंगुल में फंसे हमारे लोकतंत्र में जनता के कल्याण के लिए जो रुपया समाज के विकास कार्यो जैसे बांधों, पुलों, सड़कों, अस्पतालों, स्कूलों आदि पर खर्च होना चाहिए वह मंत्रियों, ठेकेदारों और नौकरशाहों के बीच बँट जाता है, जिससे जनता के कल्याणकारी कार्य नहीं हो पाते हैं और गरीब मुंह ताकते रह जाते हैं। भ्रष्टता का यह सजीव कटाक्ष दुष्यंत के इन शेरों में मुखर हुआ है-


यहां तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियां


मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा


इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है


हर किसी का पांव कीचड़ से सना है


इस भ्रष्ट व्यवस्था के अनेक रंग हैं... राजनीति, समाज, नौकरशाही, व्यापारी और शिक्षा तथा संस्कृति तक भ्रष्टता का जहर बह रहा है जिसे दुष्यंत देख रहे थे। सत्ता जब कमजोर होती है तब वह दमन और अत्याचार से अपने विरोध और प्रतिवाद को दबाने का इन्तजाम भी करती है। तब आप इशारे से भी सत्ता का विरोध नहीं कर सकते। आपातकाल में दुष्यंत का यह शेर तत्कालीन शासन को सम्बोधित नहीं था जैसा कि समझा गया था बल्कि उस तानाशाही प्रवृति की ओर था जो जनता पर लाद दी गई थी और विरोध को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा था। आपातकाल की विषम स्थितियों में भय और संत्रासजन्य मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाते हुए वे यह शेर कह उठे थे तब प्रतिवाद का इससे सशक्त दूसरा शेर मिलना मुश्किल थाः


मत कहो आकाश में कुहरा घना है


यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समाप्त हो जाए तो मानव और पश में क्या भेद रह जाएगा। मानव अधिकारों के लिए यह शेर भी उनका खूब है-


यह जुबां हमसे सी नहीं जाती


जिंदगी है कि जी नहीं जाती


तानाशाही की जंजीरों के बीच मानवीय मूल्यों पर या कोई समन्वय या नैतिकता की बात करने पर भी लोगों को संदेह और शंका के बिना पर मार दिया जाता था दुष्यंत की नजर से यह दुर्दशा का मंजर बच नहीं पाया


एक कबूतर चिट्ठी लेकर पहली पहली बार उड़ा


मौसम एक गुलेल लिए था पट्ट से नीचे आन गिरा


शासन की निरंकशता वास्तव में जनता की तटस्थता और उदासीनता का ही दुष्परिणाम होती है। सत्ताधारी जानते हैं कि यह गरीब और दबी हुई अनपढ़ जनता प्रतिवाद और प्रतिरोध करना नहीं जानती, बेबस और मौन रहती है और समझौता किये जा रही है। सत्ता मानती है कि ऐसी भीरु जनता शासन के लिए कितनी अनुकूल और सुविधाजनक है। इस विसंगति पर कटाक्ष करते हुए दुष्यंत कहते हैं


न हो कमीज तो पावों से पेट ढंक लेंगे


ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए


हमारे देश में भुखमरी का सिलसिला आजादी से आज तक चला ही आ रहा है। पिछले दस सालों में एक लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं लेकिन सरकार किसी समाधान की बात करने की बजाय इस समस्या पर परदा डालने में लगी रहती है। राजनेताओं की इस संवेदनहीनता पर दुष्यंत चोट करते हुए कहते हैं:


कई फाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में


वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं वैसा हुआ होगा।


जीवनमूल्यों में जो गिरावट आ रही है उसके भयावह दृश्य हमारे समक्ष हैं। तब दुष्यंत कहते हैं कि मैं सच को झूठ कैसे कहूं क्या मैं कोई अन्धा तमाशबीन हूं:


मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं


मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं


हालाते जिस्म सूरते जां और भी खराब


चारों तरफ-खराब यहां और भी खराब


आजादी से जनता का मोहभंग होने लगा था ।जो सोचा था वह कुछ भी इस देश में नहीं हो रहा थाः


कैसी मशाल ले के चले तीरगी में आप


जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही


आजादी के बाद के चुनावों में बार बार यह घोषणा होती रही कि प्रत्येक व्यक्ति को काम के अवसर मिलेंगे सुख शान्ति और आजादी भरा जीवन का उजाला मिलेगा लेकिन आज लगभग सत्तर साल बाद भी पुरे शहर के लिए एक चिराग भी उपलब्ध नहीं है। तब घर-घर रोशनी की क्या बात हो। अपने वादों से मुकर जाना इन नेताओं की आदत बन गई इसीलिए इन पर से भरोसा खत्म हो गया। राजनीतिक वादों पर टिकी नेताओं की यह शासन प्रणाली की स्थिति यह है कि आजादी से जनता का मोहभंग हो चुका है-


कहां तो तय था चिरांगां हरेक घर के लिए


कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए


वे देश के नेताओं से स्पष्ट कह देना चाहते हैं कि राजनीति आज इतने निचले स्तर तक गिर गई है कि वह एक गाली से कम नहीं लगती-


तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह


तू एक जलील सी गाली से बेहतरीन नहीं


दुष्यंत को देश की आजादी के पुनः खो जाने की आशंका और चिन्ता है। इस तरह जनतंत्र का गला घुट गया है कि वे इसका प्रतिकार करते हुए कहते हैं कि-


हमको पता नहीं था हमें अब पता चला


इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही


इस शेर में देश की बदहाली का जो भयावह बिम्ब दुष्यंत ने पेश किया वो चुटीला और कटु यथार्थ से भरा है। दुष्यंत का यह शेर आज भी देश की संसद से सड़क तक एक प्रश्न बन कर गूंज रहा है कि -


कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए


मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है


देश की विकराल होती समस्याओं के बारे में गम्भीरता से सोचने का समय किसी को नहीं है।विकास के नाम पर केवल लीपापोती और खानापूर्ति हो रही है-


अब किसी को भी नजर आती नहीं कोई दरार


घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार


जो जनता की हिफाजत न कर सके पेट न भर सके उस लोकतंत्र की महानता की आखिर कब तक कोई जय बोले । कबीर की तरह मजहबी प्रतीक रमजान' का देश की भुखमरी के लिए इस्तेमाल करते हुए वे कहीं संकीर्ण या साम्प्रदायिक नहीं हुए हैं जरा ये शेर देखिए-


इस कदर पाबन्दी ए मजहब कि सदके आपके


जब से आजादी मिली है मुल्क में रमजान है


ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा


मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हआ होगा


शहरी और उच्च तथा मध्यम वर्ग के लोग इतने आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी हो गये हैं कि उन्हें किसी के दुख तकलीफ की कोई चिन्ता नहीं रह गई है-


इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात


अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां


बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं


और नदियों के किनारे घर बने हैं


भ्रष्टता का जहर व्यवस्था के नस नस में बह रहा है। ऐसी स्थिति में आम आदमी कैसे सुरक्षित महसूस कर सकता है। ऐसा लगता है सरकारी लोगों को छोड़कर बाकी सभी लोगों को अपराधी घोषित कर दिया गया है:


इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं


आदमी अब तो जमानत पे रिहा है या फरार


दुष्यंत कुमार जनता की इसी बेबसी और निरुपायता की अत्यधिक मार्मिक अभिव्यक्ति करते हैं। आपातकाल में हमारी अभिव्यक्ति की आजादी को छीना जा रहा था तब दुष्यंत ने ऊंचे स्वर में आवाज देकर कहा था कि:


मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं


बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार


भीड़तंत्र की संज्ञा देते हुए वे कहते हैं कि जलसा तो स्वतंत्र विचार विमर्श के लिए आयोजित होता है ।यह जनता तो गूंगी है जैसे एक भीड़ तब कैसा जलसा-:


यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं


खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा


इस छद्म जनतंत्र पर सवाल उठाते हुए वे कहते हैं कि जो साधारण आदमी है आम आदमी है वह कदम कदम पर चोट खा रहा है और विशिष्ट लोग वातानुकूलित कमरों में बैठे उसके लिए नीतियां बना रहे हैं यह कैसा लोकतंत्र है:


वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है


माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है।।


जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में


हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।


यह एक तिलमिला देने वाला व्यंग्य है जो हमें हमारे सच को उघाड़कर रख देता है। तंज के बाद यही कवि दुख के समय में एक दुखिया के साथ खड़ा भी है और उससे संवाद भी करता है। दुष्यंत की जन प्रतिबद्वता का प्रमाण पेश करता निम्नांकित शेर उनदिनों जनता के दिलों में जगह बनाने के लिए काफी था-


माथे पे रख के हाथ बहुत सोचते हो तुम।


गंगा कसम बताओ हमें क्या है माजरा।।


हमारे देश में चुनाव के दिनों में सब्ज बाग दिखलाए जाते हैं राजनीतिक वायदों के द्वारा ऐसा बरगलाया जाता है कि भोली जनता उन्हें फिर वोट देकर सत्ता सौंप आती है। दुष्यंत का यह शेर इतना ताकतवर है कि उसने जनता को उसकी मासूमियत से झिंझोड़कर जगाने का काम किया है। चुनाव में जनता केवल एक वोट बनकर रह गई है जैसे भीगी हुई ईंटों को पता नहीं होता कि वे इमारत बनाने में किस काम आएंगी:-


धीरे धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में।


उनको क्या मालूम कि आगे चलकर उनका क्या होगा।।


विकास के कामों का श्रेय लेने के लिए पक्ष और विपक्ष बरसों से लड़ते हैं इसे किस तीखे व्यंग्य से पेश किया है यह द्रष्टव्य है-


पक्ष और प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं।


बात इतनी सी है कोई पुल बना है।।


आज ये तथाकथित जन नेता परदे के पीछे से सारे दांव लगाते हैं और शातिर चालें चलकर चुनाव जीतने के तिकड़म में लगे रहते हैं:-


दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं है


आजकल नेपथ्य में संभावना है।।


भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ।


आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ।।


विकास के नारे सुन-सुन कर जनता के मन में जो निराशा घर कर गई है उसका यह बिम्ब देखिए:


रोज अखबार में पढ़कर ये खयाल आया हमें


इस तरफ आती तो हम भी देखते फस्ले बहार


आजादी के बाद राजनीतिक मूल्यों में आई गिरावट को लेकर दुष्यंत का यह शेर लासानी है। हमारे नेताओं में जो जनसेवा की भावना थी वह लगभग लुप्त हो गयी है और उसकी जगह स्वार्थी और धन लोलुप राजनीति ने ले ली है। इसकी ओर आगाह करते हुए दुष्यंत इस संवेदनहीन राजनीतिक व्यवस्था से सावधान रहने को कहते हैं।


दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो


तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।।


रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया


इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो।


यहां वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को हटा कर किसी और व्यवस्था को अपनाने का आहवान है लेकिन दुष्यंत इस विकल्प को स्पष्ट नहीं करना चाहते भविष्य पर छोड़ देते हैं:-


यहां दरखतों के साए में धूप लगती है।


चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए।।


यहां दरख्त उन नेताओं अर्थात नीति निधारकों को कहा गया है जिनसे कल्याण या सुकून भरी छांव की उम्मीद रहती है लेकिन अब उनके साए में धूप' लगती है। दरअस्ल इस व्यवस्था में बदलाव की पहल कर रहे हैं दुष्यंत । उपरोक्त मतला से प्रारम्भ संग्रह की यह प्रतिनिधि गजल है जो समय के खिलाफ दुष्यंत कुमार के विद्रोही स्वर का नेतृत्व करती है:


हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए।


इस हिमालय से नई गंगा निकलनी चाहिए।।


उपर्युक्त शेर में भी बदलाव का स्पष्ट आग्रह है लेकिन यहां भी परिवर्तन का कोई विकल्प वे नहीं सुझाते हैं। उन्होंने नई गंगा निकलने की बात तो की है परन्तु राजनीतिक विकल्प के प्रति दुष्यंत यहां भी मौन रह जाते हैं। लेकिन सार्थक बदलाव के उद्देश्य से यहां नई गंगा कहा गया है किसी तमाशे या हंगामे के लिए नहीं है। वे अपने अगले शेरों में यह स्पष्ट भी कर देते हैं। साथ ही साथ इस बदलाव के लिए सामूहिक प्रयत्न के लिए भी वे प्रत्येक व्यक्ति को इसमें आगे आने के लिए आह्वान करते हैं। वास्तव में यह मुक्ति के लिए सतत संघर्ष का आह्वान है:


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं।


मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही।


हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।।


साहस का परिचय देते हुए उनका मानना है कि अकेले व्यक्ति से अधिक संगठित स्वर ही कुशासन को पराजित कर पाने में सक्षम होता है। अभिव्यक्ति की तलाश में निकले इस एक शेर में विद्रोह का यह अभिनव दृश्य देखते ही बनता है:


गूंगे निकल पड़े हैं जुबां की तलाश में।


सरकार के खिलाफ ये साजिश तो देखिए।।


नक्सल विद्रोह पर वे सरकार के काल्पनिक दृष्टिकोण के बारे में तंज कसने से नहीं चूकते हैं:


रक्त बरसों से नसों में खौलता है।


आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।।


पक गई हैं आदतें बातों से सर होगी नहीं।


कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं।।


'हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए' की तर्ज पर यह शेर बदलाव की उनकी मुहिम की तस्दीक करता है। यहां व्यवस्था विरोध' एक अंतर्धारा की तरह तरंगित है प्रवाहमान है:-


अब तो इस तालाब का पानी बदल दो।


ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं।।


मुश्किलों में घिरे आम आदमी के प्रति दुष्यंत की संवेदना कितनी सच्ची और यकीनन गहरी है यह इन अश्आर से खुलकर सामने आता है। मसलन अपने समय और यथार्थ के प्रति बेखबर लोगों की जमात के उस वर्ग से दुष्यंत हैरानी से पूछते हैं कि तुम्हारा अस्तित्व तक तुम्हारी पहचान तक खतरे में है मगर तआज्जुब है कि तुम्हें यकीन ही नहीं:


तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं।


कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।।


कबीराना अंदाज में दुष्यंतकुमार अंधविश्वासों पर व्यंग्य कसते हुए बार बार जनता की बौद्विक चेतना को जगाने का प्रयास करते हैं। एक गजल में वे भाग्यवाद की धज्जियां उड़ाते हुए कहते हैं कि-:


मजारों से दुआएं मांगते हो।


अकीदे किस तरह पोले हुए हैं।।


यह सच है कि दुष्यंत की गजलें समय की उपज हैं। गजल के माध्यम जनजागरण का यह कदम दुष्यंत ने तब उठाया जब समय ने उन्हें पुकारा था:


जरा सा तौर तरीकों में हेर फेर करो


तुम्हारे हाथ में कालर हो आस्तीन नहीं।।


एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों।


इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।।


रह-रह कर आंखों में चुभती है पथ की यह दोपहरी।


आगे और बढ़े तो शायद दृश्य सुहाने आएंगे।।


यह अमर शेर जो लोकमानस में जैसे रच बस गया है और उत्साहवर्धन लिए वार्तालाप में एक मुहावरे की तरह जब तब उद्धृत किया जाता है कि-:


कौन कहता है कि आकाश में सुराख नहीं हो सकता।


एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।।


मानवीय दुःख की अनुभूति और जीवन में उसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को स्पष्ट करता उनका यह शेर भी देखिए :


दुःख को बहुत सहेज कर रखना पड़ा हमें।


सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया।।


जड़ कलावाद में उलझे लोगों के लिए केवल छन्द या बहर में होने भर को कविता माना जाता है। दुष्यंत ने कविता के सरोकारों को स्पष्ट किया और शिल्प से अधिक कथ्य को महत्व दिया। अपनी रचनाधर्मिता का परिचय देते हुए दुष्यंत कहते हैं:


वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता।


मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए।


उनका संपूर्ण आत्मकथ्य जैसे इस शेर में सिमट कर आ गया है जो उनकी पूरी गजलधर्मिता का परिचय देता है:


मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं।


वो गजल आपको सुनाता हं।।


दुष्यंत उन आलोचकों का भी प्रतिवाद करते हैं जो कहते हैं कि अब गजल का जमाना खत्म हो गया है छन्द की कविता समाप्त हो गई है। ऐसे लोग वास्तव समय की धड़कन की आहट नहीं पहचानते और कहने लगते हैं कि गलजकार कोई है नहीं तब दुष्यंत हर तरफ से गजलों का स्वर सुनते हैं जो सीधे जनता से मुखातिब है:


वे कह रहे हैं गजलगों नहीं रहे शायर।


मैं सुन रहा हूं हरेक सिम्त से गजल लोगों।।


___ दरअसल एक शेर की बुनियादी भूमिका पाठक के हृदय में संवेदना जागृत करना होता है। इस अमर शेर में दुष्यंत अपनी पीड़ा में संसार की पीड़ा को संबद्ध करते हैं। चूंकि वे जनता के कवि हैं इसीलिए उनका हर शेर जनता की आवाज बन गया है। मसलन यह शेर एक बेजोड़ शेर बनकर दुष्यंत की जहनी बेचैनी को रूपायित करता है। लोग जिन शेरों को बहुत उद्धृत करते हैं उनमें से एक यह भी है:


मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं।


हर गजल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।।


या


मेरी जुबान से निकली तो सिर्फ नज्म बनी।


तुम्हारे हाथ में आई तो इक मशाल बनी।


इतनी ही मार्मिकता के साथ गजलकार स्वयं अपनी बेकली और बेचैनी इस शेर में भी व्यक्त करता है जो भीतर तक हमें सोचने पर मजबर करता है:


रोज जब रात के बारह का गजर होता है।


यातनाओं के अंधेरे में सफर होता है।।


संग्रह की गजलों में प्रेमपरक गजलों के संदर्भ में यह बात ध्यान रखने वाली कि दुष्यंत ने उर्दू परम्परा से पूरे तौर पर विद्रोह कभी नहीं किया था। वे प्रेमपरक गजलें भी लिखते रहे हैं। ऐसे अनेक शेर उनकी नयी गजलों के साथ आये हैं। लेकिन ये कम मात्रा में ही हैं:


तू किसी रेल सी गुजरती है। मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।।


एक जंगल है तेरी आंखों में । मैं जहां राह भूल जाता हूं।।


आशा या उम्मीद जीवन की उर्जा है। उनका निम्नलिखित शेर हमें विषम परिस्थितियों में धैर्य और साहस प्रदान करता है उम्मीद जगाता है। यह सचमुच अपनीआवाज में असर पैदा करने का प्रयत्न करता है:


इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है।


नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है।।


संपूर्ण हिन्दी गजल को एक अलाव की संज्ञा देते हुए दुष्यंत का यह मशहूर शेर हमें आगे बढ़ने में उत्साहित करता रहता है:


थोड़ी आंच बची रहने दो थोडा धुआं निकलने दो।


कल देखोगे कई मुसाफिर इसी बहाने आएंगे।


दुष्यंत के पास भाषा का चमत्कार देखने लायक है। व्यंग्यात्मक भाषा और विचारों की नवीनता ने गजल को गजब की शक्ति प्रदान की है। व्यवस्था के विरोधाभासों का खुलासा यहां उतना ही तीक्ष्ण और मारक है जितना राजनीतिक विषय पर कहे गये उनके शेर । लोकभाषा से आए अनेक शब्द एक ऐसा वातावरण का निर्माण करते हैं कि जैसे पूरी भारतीयता उतर आती हो। अक्सर पता ही नहीं चलता कि यह उर्दू का शब्द है या हिन्दी का। दुष्यंत पर उर्दू गजल का प्रभाव साफ है। उनके पास उर्दू शब्दों की भरमार है। वे भी इस प्रभाव से खुद को मुक्त नहीं कर पाएमसलन अपनी सरकारी नौकरी पर अपनी चेतना की जागरूकता को लेकर उनके इस शेर को जरा देखें:


तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है।


तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं।।


दुष्यंत की गजलों में राजनीतिक चेतना पूरी सजगता के साथ प्रस्तुत हुई है। एक जागरूक कवि के रूप में उन्होंने गजलों में समाज और राजनीति पर अपने विचारों को खुलकर उतारा है वे इन गजलों को चेतना संपन्न बनाने की तैयारी भी करते हैं। इसीलिए उनकी गजलों के अधिकांश शेर राजनीति के रंग में सराबोर हैं। नेता लोग जनता को आपस में लड़ाने के तरीके निकालते रहते हैं लेकिन दुष्यंत उनकी चालाकियों को समझते हुए जनता को सजग रहकर संघर्ष हेतु संगठित करते हैं। जनता को जागरूक करते हुए यूं कहते हैं:


गूंगे निकल पड़े हैं जुबां की तलाश में।


सरकार के खिलाफये साजिश तो देखिए।।


वास्तव में आज दुष्यंत की गजल संप्रेषणीयता और प्रासंगिकता के नए क्षितिज लेकर उतरी है। इन गजलों ने आमजन के अंत:करण में अपनी स्थायी जगह बना ली है। गजल की पहुंच संवेदनाओं को नए संदर्भ में और पारदर्शी भाषा में अभिव्यक्त करने के कारण ही विस्तृत हुई है। और चूंकि दुष्यंत की गजलें केवल आमजन की ही बात कर रही हैं, इसलिए इन गजलों की संभावनाएं हमें इसी संदर्भ में तलाशनी होंगी।