उर्दू गजल से चंद शिकायतें

आलेख


सुल्तान अहमद


ये सुनकर भी हम गजल के खिलाफ नहीं जा पाते कि वो शाइरी की एक दरबारी या जागीरदाराना सिंफ है। इस शिकायत में बिल्कुल दम नहीं है, ऐसा हम मानते। इसके बावजूद उसमें अवामी तजुरुबे जगह बना लेते हैं और यही उसको लेकर कशिश की बहुत बड़ी वजह बन जाती है।


इश्क की एक शक्ल तफरीह और फरार से जुड़ी हुई है। ऐसी चीजों को गजल में जगह इसलिए मिल जाती है कि उसकी बुनियाद में ही टेढ़ापन है। और ये चीज़ उसकी इस्तिलाह 'सुखन अज जनान' में ही घर किये हुए है। इस इस्तिलाह का बड़ा दबदबा है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। जब जिंदगी के दूसरे अहम और संजीदा तज्बों की उससे मांग की जाती है, तो वो इत्मीनान से नहीं रह पातीकभी-कभी उसका रवैया ऐसा हो जाता है, जैसे कह रही हो, 'पंचों की बात सिरआँखों पर, मगर नाला तो यहीं से बहेगा।' नतीजा ये हुआ कि हाली के reform और तरक्की पसंद तहरीक के revolution भी इसे बहुत बदल नहीं पाये।


हमें कभी गजल की 'सुखन अज जनान' जैसी इस्तिलाह से खुशी नहीं हुई। हम अवाम की जिंदगी से जुड़े तरह-तरह के तजुरुबे हासिल करने के लिए गजल की दुनिया में जाते हैं। बहुत ज्यादा न सही, मगर उन्हें पाने में बिल्कुल नाकाम ही रह जाते हैं, ऐसा भी नहीं है।


उर्दू गजल की बहुत बड़ी रुकावट बन जाती है उसकी इस्तिलाह, 'सुखन अज जनान'। ऐसे में इस तरह के अश्आर उसकी जरूरत नहीं, बल्कि मजबूरी बन जाते हैं


'कल चौदहवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा,


कुछ ने कहा ये चांद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा।' -इब्न-ए-इंशा


चांदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल,


एक तू ही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल। -कतील शिफाई


इन्हें सुनकर फौरन लगेगा कि ये हैं गजल के शेर! गजल की सबसे पुरानी और सबसे मकबूल इस्तिलाह 'सुखन अज जनान' के ऐन मुताबिक। लेकिन इसके साथ-साथ ये भी लगेगा कि ये शेर बासी और घिसे-पिटे भी हैं। शायद ऐसी ही चीजों की तंकीद करते हए अज्ञेय ने अपनी कविता 'कलगी बाजरे की' में कहा था


देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच


कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।'


एक तो इस तरह की तफरीह और फरार से भरी हुई इश्किया बातों में दम नहीं होता और ऊपर से मिल जाती है बेपनाह मकबूलियत। अगर हम इस तरह की घिसी-पिटी और बासी चीजों की शिकायत करेंगे, तो लोग कहेंगे, कि हम गजल के ही नहीं, इश्क के भी दुश्मन हैं। हम लाख समझाते रहें कि इश्किया अश्आर तो हमें भी पसंद हैं, मगर इस तरह के हों तो


नहीं इश्क जिसको बड़ा कोर है,


कधीं उससे मिल बेसिया जाय ना। -कुली कुतुब शाह


'मीर' के दीन-ओ-मजहब को, अब पूछते क्या हो, उनने तो,


कश्कः खेंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया। -मीर तकी 'मीर'


तरदामनी पे शेख हमारी न जाइयो,


दामन निचोड़ दें, तो फरिश्ते वजू करें। -मीर 'दर्द


रोने से और इश्क में बेबाक हो गये,


धोये गये हम ऐसे कि बस पाक हो गये। -मिर्जा 'गालिब'


इस तरह के शेरों का सिलसिला खत्म नहीं हो गया है। 'नयी गजल' में भी इस तरह के शेर मिलते रहते हैं।


वाइज से दिल बुरा न करो, पारसा है वो,


बस लज्जत-ए-हयात से नाआश्ना है वो(राही मासूम रजा)


यहां एक बात फिर भी कबूल करनी पड़ेगी कि उठते-बैठते, सोते-जागतेअगर इसी तरह के अश्आर हमारे माथों पर मारे जाते रहेंगे, तो उनसे भी ऊब ही पैदा होगी। जी में आयेगा कि इस तरह की चीजें अब और सामने न आयें। कुछ इस तरह की चीजें सामने आयें, तो ज्यादा बेहतर है


निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां,


चली है रस्म कि कोई न सर उठाके चले। -फैजअहमद 'फैज'


हक अच्छा पर उसके लिए कोई और मरे तो और अच्छा,


तुम भी कोई मंसूर हो, जो सूली पे चढ़ो, खामोश रहो।' -इब्न-ए-इंशा


इन्साँ से जो नफरत करे, इन्सान नहीं है,


हर रंग का, हर नस्ल का इन्सान है अपना। -हबीब जालिब


कभी गिरेबाँ चाक हुआ और कभी हुआ दिल खू,


हमें तो यूँ ही मिले सुखन के सिले सड़क के बीच। -हबीबजालिब


जिंदा हैं एक उम्र से दहशत के साये में,


दम घुट रहा है अल-ए-इबादत के साये में। -हबीबजालिब


ये शेर ऐसे नहीं हैं कि इन्हें गजल की इस्तिलाह के बोसीदा बोरे में लूंसकर चैन से रहा जा सके। इन शेरों में आज की तहजीब की तीखी तकीद है, जो इन्हें रिवायती गजल की दकियानूस दुनिया से अलग करके उन हलचलों से भरी दुनिया की याद दिलाती है, जिसकी फिक्र करते हुए दुष्यंत कुमार ने कहा था


वो कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ्तगू,


मैं क्या बताऊँ, मेरा कहीं और ध्यान है।'


ऐसा नहीं कि पुरानी गजल में इस तरह की चीजें नहीं पायी जाती थीं। उनकी भी मिसालें देखी जा सकती हैं -


न मिल 'मीर' अब के अमीरों से तू,


हुए हैं फकीर उनकी दौलत से हम। -मीर तकी 'मीर'


बसकि दुश्वार है हर काम का आसां होना,


आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना। -मिर्जा गालिब


बेजरी, फाकःकशी, मुफ्लिसी, बेअस्बाबी,


हम फकीरों के भी हाँ कुछ नहीं और सब कुछ है। -नजीर अकबराबादी


दिल की कुदूरतें अगर इन्साँ से दूर हों,


सारे निफाक गब्र-ओ-मुसल्माँ से दूर हों। -आतिश लखनवी


मुश्किल ये है कि इस तरह के शेरों को गजल की दुनिया में दूसरे दर्जे का शहरी गिना जाता है। गजल में अगर इस तरह के शेरों की बहुतायत हो जाती है, तो उनके साथ एक-दो इश्किया अश्आर भी जड़ दिये जाते हैं, ताकि ये लगे कि ये गजल ही है। इस तरह के शेरों का इस्तेमाल गजल को ये तमगा दिलाने भर के लिएकिया जाता है कि देखो उसका जर्फ इश्क तक महदूद नहीं है, जिंदगी की तमाम हदों को छूनेवाला है। गजल में जो लोग मुश्किल जिंदगी के मुश्किल तजुबों पर जोर देते हैं, उनकी बोलती बंद करने के लिए इस तरह के शेरों का मुजाहरा भर किया जाता है। उनकी मस्लहत क्या होती है, ये तो आप समझते ही हैं।


इस रुज्हान की ताकत के बावजूद दूसरी तरफ ये भी लगता है कि गजल सिर्फ जनानखानों में पढ़ी जानेवाली चीज, यानी 'सुखन अज जनान' कभी नहीं रही है। इस बोसीदा इस्तिलाह के तंग जर्फ से वो बराबर बाहर छलकती रही है। कमाल तो ये कि वो जितना बाहर छलकती रही है, उतनी ही बेहतर भी लगती रही है। आखिर जन या जनानः को लुभाने की तरकीबें सीखने के लिए कौन भला मीर, गालिबइकबाल, फैज, यगाना, राही मासूम रजा, हबीब जालिब, इब्न-ए-इंशा वगैरह गजलों से माथापच्ची करेगा? इसलिए इस इस्तिलाह को किनारे लगाते हुए आगे बढ़ना ही बेहतर होगा


गजल के तंग जर्फ से मिर्जा गालिब भी तंग आ गये थे। उन्होंने कहा था


बकद-ए-शौक नहीं जर्फ-ए-तंगना-ए-गजल,


कुछ और चाहिए वुस्अत मेरे बयाँ के लिए। -मिर्जा गालिब


मगर उन्होंने किया क्या? इस शेर के ठीक नीचे गजल के भीतर उसके मिजाज से बिल्कुल मेल न खानेवाले कसीदे का शेर घुसा दिया। ये बात अलग है कि वो गजल में घुसकर भी गजल का शेर न बन सका। आप वो शेर सुन लें


दिया है खल्क को भी, ता उसे नजर न लगे,


बना है ऐश तजम्मुल हुसैन खाँ के लिए। -मिर्जा गालिब


कसीदे के इस शेर की कमजोरी ये है कि ये आला तब्के की ओर झुका हुआ है, जबकि गजल की बुनियादी जरूरत ये है कि वो ‘खवास' के बीच भी रहे, तो 'अवाम' की तरफ झुकी रहे, जैसा कि मीर ने कहा था


शेर मेरे हैं सब खवासपसंद,


गुफ्तगू पर मुझे अवाम से है। -मीर तकी 'मीर'


ये भी होता है कि 'अवाम' से गुफ्तगू करने के चक्कर में लोग अपनी बातों को 'अवामी' की जगह 'आमियाना' बना डालने के फेर में पड़ जाते हैं, जिससे बात की 'संजीदगी' घट जाती है और वो इकहरी बनकर रह जाती है। इस तरह की कमजोरी तरक्की पसंद उर्दू गजल में काफी दिखायी दी। नीचे लिखे गये शेरों के जरिये इस कमजोरी को परखा जा सकता है


अम्न का झंडा किसने कहा, अब धरती पर लहराने न पाये,


ये तो कोई हिटलर का है चेला, मार ले साथी! जाने न पाये। -मजरूह सुल्तानपुरी


लाल फरेरा इस दुनिया में सबका सहारा होके रहेगा,


होके रहेगी धरती अपनी, मुल्क हमारा होके रहेगा। -मजरूह


लेनिन के पैगाम की जय हो, स्टालिन के नाम की जय हो,


जय हो इस धरती की जिसपर सबका इजारा होके रहेगा। -मजरूह सुल्तानपुरी


खत्म हो जायेगा ये सरमायःदारी का निज़ाम,


रंग लाने को है मजदूरों का जोश-ए-इंतकाम-मजाज


सोचता हूँ इतना कह दूं मैं राज के ठेकेदारों से


वक़्त का धारा मोड़ न पाया कोई भी तलवारों से-गुलाम रब्बानी ‘ताबाँ'


इस तरह के शेर अपने इकहरेपन की वजह से गजल की बुनियादी जरूरत 'तहदारी' को चोट पहँचाते हैं। तरक्कीपसंद ideology से आप कितना भी इत्तिफाक रखते हों, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता।


सच पूछिए तो गजल अवाम की मद्धम आवाज वाली मौसीकी है और वो भी रेजा-रेजा बिखरी हुई। इसलिए उसमें इस तरह की घन-गरजवाली इकहरी गजलें चल नहीं पातीं। ऊपर से तरक्कीपसंद गजल ने इस तरह के शेरों की सरपरस्ती भी की, जिसमें गजल की रिवायत का इतना जोर था कि उसे रिवायतपरस्ती की जगह दकियानूसियत भी कह दें, तो बहुत फर्क नहीं पड़ेगा


 रंग पैराहन का, खुशबू जुल्फ़ लहराने का नाम,


मौसम-ए-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम। -फैज अहमद फैज'


गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले,


चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले। -फैज अहमद 'फैज'


तुम्हारी याद के जब जखम भरने लगते हैं,


किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं। -फैज अहमद फैज'


ये महकती हुई गजल मख़दूम',


जैसे सहरा में रात फूलों की। -मखदूम मोहियुद्दीन


ये महकती हुई गजल मख़दूम',


जैसे सहरा में रात फूलों की। -मखदूम मोहियुद्दीन


आपकी याद आती रही रात भर,


चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर। -मखदूम मोहियुद्दीन


इसमें कोई शुब्हा नहीं कि तरक्कीपसंद तहरीक ने गजल से वुस्अत की माँग की, लेकिन करवट बदलकर ही रह गयी और रूमानियत के गलबे के चलते जमानियत की शिकार हो गयी और इस तरह के अश्आर सामने आये


जुनूँ में जितनी भी गुजरी ब-कार गुजरी है,


अगरचे दिल पे खराबी हजार गुजरी है। -फैज अहमद 'फैज'


न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मय पी है,


अजीब रंग में अबके बहार गुजरी है। -फैज अहमद फैज'


'मानीआपीनी' की जगह 'जमानियत' के आ जाने के चलते एक ही गजल किसी तरक्कीपसंद के हाथ में जाये, तो बन जाये तरक्कीपसंद और अगर किसी रिवायतपरस्त के हाथ में जाये, तो 'सुखन अज जनान' तो बनी ही रहे। ये तो वही तरीका है कि 'सुखन अज जनान' के दायरे में बुरी तरह से सिमटी हुई गजल में खुदा की तलाश कर ली जाय। इस तरह का 'सवाब-ए-ताअत-ओ-जोहद' आज के सेक्यूलर जमाने को क्या रास आयेगा, जबकि पुराने जमाने के मिर्जा गालिब को ही रास नहीं आया था, जिन्होंने कहा था


जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-जोदद,


पर तबीअत इधर नहीं आती। -मिर्जा गालिब


नज्मवालों की तरफ से, मिसाल के लिए कलीमुद्दीन अहमद साहब की तरफ से जो शिकायत गजल से की जाती है, उसमें हमें शिकायत की कोई बात नजर नहीं आती। उन्होंने कहा था


 "गजल में रब्त, इत्तिफाक और तक्मील की कमी है। यही रब्त, इत्तिफाक और तक्मील तहजीब का संग-ए-बुनियाद हैं और इन्हीं चीजों की कमी की वजह से मैंने कहा था कि गजल नीमवहशी सिफ-ए-शाइरी है। (उर्दू गजल की रिवायत और तरक्कीपसंद गजल-मुम्ताज-उल-हक, पे.-26-27 )


गजल के ढाँचे को नाकिस बनाने की गैरशऊरी कोशिशें तो बहुत सारी की गयी हैं, लेकिन दो बड़ी और शऊरी कोशिशें भी की गयी हैं। एक 'आजाद गजलके नाम पर उसके मित्रों को छोटा-बड़ा करके। मजहर इमाम इसके इमाम कहे जाते हैं। इस 'आजाद गजल' को मारने की कोशिश नहीं की गयी, वो अपनी मौत आप ही मर गयी। आजाद गजल के कुछ शेरों की मिसालें डॉ. जहीर रहमती की किताब 'गजल की तकीदी इस्तिलाहात' से लेते हैं। तक्तीअ भी अपने ढंग से करके देख लेते हैं


SS, SS, SS, S S, S, SS, S


उगाती रहेगी जमीं जो यूं ही संग-ओ-आहन के बेहिस मका,


दरख्तों से महरूम हो जायेंगी बस्तियां। -सलीम शहजाद


SS, SS, SS, SS, S


इस शेर में मुत्कारिब महजफ बह्र का इस्तेमाल जरूर किया गया है, लेकिन इसके पहले मिस्र में सात अर्कान हैं, तो दूसरे मिस्र में पांच


SSS S, S S, SS, SS


शौक-ए-दीदार की मंजिलें, प्यार की मंजिलें,


दिल में पहली लपक इश्क के नूर की, हुस्न-ए-दिलदार की मंजिलें। -फैज


S SS S, S S, SS, S S, SS, SS


इस शेर में मतदारिक सालिम बह्र का इस्तेमाल किया गया है. मगर पहले मिस्रमें पांच अर्कान हैं, तो दूसरे मिस्र में सात।


_SS S, SS, SS


यूँ भी जी लेते हैं जीनेवाले,


कोई तस्वीर सही, आपका पैकर न सही। -मजहर इमाम


SSS, SS, SS, S


इसके शेर में रमल मखबून अब्तर का इस्तेमाल जरूर है, मगर पहला मिस्रा मुसद्दस यानी तीन रुक्नों का है, तो दूसरा मिस्रा मुसम्मन यानी चार अर्कान का।


SSS, SS, SS, S


देर तक जागते रहने की है आदत मुझको,


आजमा ले शब-ए-फुर्कत मुझको। -कतील शिफाई


S S S, SS, SS


इसमें मुआमला उलट गया है यानी बह्र तो रमल मख्खून अब्तर ही है, मगर पहले मिस्र में चार अर्कान, तो दसरे में तीन अर्कान हैं।


गजल को नाकिस बनाने की दूसरी कोशिश हुई 'एंटी गजल' के नाम पर हजल पैदा करके, जिससे गजल की बुनियादी शर्त 'संजीदगी' जखमी हुई। इसका इमाम किसी एक शख्स को नहीं कहा जा सकता है; हाँ, 'जदीदियतपसंदी' को जरूर कहा जा सकता है। ये 'जदीदियतपसंदी' एक तरह से 'तरक्कीपसंदी' के सिक्के का ही एक बाज है, जो उसके commitment से घबराकर अपना अलग चौका बनाये हुए है। ये 'जदीदियतपसंदी' कभी भी ‘तरक्कीपसंदी' से इतना अलग तो नहीं ही हो सकती कि 'रिवायतपरस्त' दिखने लगे। इस मस्ले को छोड़कर 'एंटी गजल' की चंद मिसालें भी डॉ. जहीर रहमती की किताब 'गजल की तंकीदी इस्तिलाहात' से ही देखते हैं


बत्ती जलाके देख ले, सब कुछ यहीं पे है,


बनियान मेरे नीचे है, शल्वार उस तरफ। -जफर इकबाल


रीछनी को शाइरी से क्या गरज,


तंग है तहजीब का अब काफिया-सलीम अहमद


जरा ठह अब्बा इधर आ गये,


अरी साली जल्दी से जंपर गिरा। -आदिल मंसूरी


कलीमहीन अहमद साहब के हिसाब से गजल की सरत भले नाकिस न हो. लेकिन उसे नाकिस बनाया जरूर जा सकता है। कई गजलगो हजरात बड़ी लियाकत से इसकी सरत को नाकिस बनाने में जटे रहते हैं। हिंदीवाले बह काफिया. रदीफ. सबको बिगाडने की अहलियत रखते हैं, उर्दवाले और कुछ नहीं तो काफियों का ही काफिया तंग किये रहते हैं।


अरूज के सिलसिले में सबसे पहले मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली' को याद कर लें, जिन्होंने कहा था, 'वज्न और काफिये की औघट घाटी से सही-सलामत निकल जाना और मुनासिब अल्फाज के तफहुस से ओहदाबरा होना कोई आसान काम नहीं है। अगर एक दिन का काम एक घंटे में किया जायेगा, तो वो काम न होगा, बल्कि बेगार होगी।' (मुकद्दमः-ए-शेर-ओ-शाइरी-मौलाना अल्ताफ हुसैन 'हाली', पे. 48) गजल पर गुस्सा तब भी आता है, जब उसमें इस तरह की बेगार दिखलायी देती है। और ये बेगार सिर्फ हिदी में ही नहीं उर्दू में भी खब टाली जाती है।


यहीं पर ये कह दिया जाना भी जरूरी है कि बहुत से नामनिहाद अरूजी अपनी दकियानूसियत के चलते गजल में गैरजरूरी ढंग से अरूज की गलतियां निकालते रहते हैं। यहां हम कुछ ऐसे अश्आर देंगे, जिसमें काफिये की गलतियां दिखायी सकती हैं, मगर वो हैं नहीं


प्यार की नयी दस्तक दिल पे फिर सुनायी दी,


चांद-सी कोई सूरत ख्वाब में दिखायी दी। -बशीर बद्र


शह-दर-शह घर जलाने गये,


यूं भी जश्न-ए-तरब मनाने गये-नासिर काजिमी


मश्अल-ए-दर्द फिर इक बार जला ली जाये,


जश्न हो जाय जरा, धूम मचा ली जाये। -शहरयार


न जाने दिल कहां रहने लगा है,


कई दिन से बदन सूना पड़ा है। -मुहम्मद अल्वी


ऊपर के शेरों के काफियों 'सुनायी-दिखायी', 'जलाने-मनाने', 'जलामचा', 'लगा-पड़ा' के 'सुना-दिखा', 'जला-मना', 'जला-मचा', 'लगा-पड़ा' को अस्ली अल्फाज न मानकर उनमें से वस्ल और उसके बाद के हर्मों को हटाकर सुन -दिख', 'जल-मन', 'जल-मच', 'लग-पड़' निकाले जाते हैं और उनमें खफी ईता नाम का ऐब दिखाया जाता है। हमारे ख्याल से काफियों में बह्र की तरह ही जांच हों, हरकतों और उनकी जगहों की जानी चाहिए; इस सिलसिले में उनके मतलबों, ऊपर से अस्ली मतलबों की जांच करने बैठ जाना कुछ ज्यादा ही मतलब परस्ती हो जायेगीहमारा मतलब तो आप समझ ही गये होंगे कि इस तरह के काफियों को हम गलत नहीं समझते।


अब हम कुछ ऐसे अश्आर देंगे, जिनकी नामनिहाद गलतियों को गलतियां न गिन पाने की हिम्मत अपनी तमाम दरियादिली के बावजूद हमारे बुजुर्ग अरूजी न कर पाते


दरवाजे पर पिंजरे में तोता होगा,


झूटे बर्तन घर में कोई धोता होगा। -मुहम्मद अल्वी


पहले मिस्र के काफिये 'तोता' के दोहराये जीनेवाले हर्फ 'तोय, अलिफ ' हैं, तो दूसरे काफिये के 'धोता' के दोहराये जानेवाले हर्फ 'ते, अलिफ' हैं। इसे आलिम-फाजिल गलत बताते हैं। इस काफिये को गलत मानने की हमारी हिम्मत इसलिए नहीं पड़ती कि उर्दू में 'तोय' और 'ते' लिखने में चाहे जितने अलग हों, बोलने में एक ही हो गये हैं।


जहां 'अलिफ' और 'हे' बोलने में एक हो गये हैं, वहां भी हम गलती नहीं ढूंढ पाते। मिसाल के लिए इस शेर के काफियों में


ख्वाब में एक मकां देखा


फिर न खिड़की थी, न दरवाजः था। -मुहम्मद अलवी


यहां 'देखा' का रवी 'अलिफ' है, तो 'दरवाजः' का रवी 'हे', फिर भी हम उसे गलत नहीं मान पा रहे हैं। ऐसा ही मुआमला इस शेर में भी देखा जा सकता है


चेहरः न दिखा, सदा सुना दे,


जीने का जरा तो हौसलः दे। -परवीन शाकिर


परवीन शाकिर का एक मत्ला और एक शेर सनें। इनके भी काफियों में कोई गलती ढूंढ़ेगा, तो उसके खिलाफ हम दलीलें देंगे, भले हार ही जायें


उम्र का भरोसा क्या, पल का सात हो जाये,


एक बार अकेले में उससे बात हो जाये।


दिल की गुंग सरशारी उसको जीत ले लेकिन,


अर्ज-ए-हाल करने में एहतियात हो जाये। -परवीन शाकिर


यहां मत्ले के काफियों 'सात' और 'बात' में रवी 'ते' है, तो दूसरे शेर के काफिये 'एहतियात' का रवी 'तोय' है।


परवीन शाकिर के नीचे लिखे शेरों में हम चाहे गलतियां न देखें, लेकिन आला अरूजी ही नहीं, मामूली उर्दूदां भी ताल ठोंककर गलतियां दिखाने खड़ा हो जायेगा


मौजः-ए -गुल को हम आवाज नहीं कर सकते,


दिन तेरे नाम से आगाज नहीं कर सकते।


दुख पहुंचता है बहुत दिल के रवैये से तेरे


और मदावा तेरे अल्फाज नहीं कर सकते


इश्क में ये भी खुला है कि उठाना गम का,


कार-ए-दुश्वार है और बाज नहीं कर सकते। -परवीन शाकिर


इसे कोई कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि यहां 'आवाज' और 'आगाज' के 'जेका काफिया 'अल्फाज' के 'जोय' ही नहीं 'बाज' के ज्वाद' से भी मिला दिया गया है।


___ नीचे के शेरों में 'सीन' का काफिया 'स्वाद' और 'से' मिलाया गया है, जिसमें हम कतई हरज नहीं मानते, मगर लोग तो मानते हैं


जो सुबह ख्वाब हुआ, शब को पास कितना है,


बिछड़के उससे मेरा दिल उदास कितना है


वो जिसको बज्म में मेहमान-ए-आम भी न कहा,


किसे बतायें कि खल्वत में खास कितना


बारे एहसां उठाये जिस-तिस का,


दिल असीर-ए-तलब हुआ किसका


फिर से खेमे जले हैं और सर-ए-शाम


बैन है अपने-अपने वारिस का। -परवीन शाकिर


अब हम काफियों में आ गये सचमुच के ऐबों को देखते हैं, जिनको हमें भी ऐब ही मानना पड़ा। सबसे पहले अक्फा नाम का ऐब देखते हैं-


रात की रानी सह्न-ए-चमन में गेसू खोले सोती है,


रात-बिरात उधर मत जाना, इक नागिन भी रहती है। -बशीर बद्र


'चल मुसाफिर बत्तिया जलने लगीं,


आस्मानी घंटियां बजने लगीं।' -बशीर बद्र


दाम-ए-उल्फत से छूटती ही नहीं,


जिंदगी तुझको भूलती ही नहीं। -शहरयार


जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यों है?


जिंदगी रोज नये रंग बदलती क्यों है? -शहरयार


खुली आंखों में सपना झांकता है,


वो सोया है कि कुछ-कुछ जागता है। -परवीन शाकिर


काफिये के उलझे हए ऐबों के जिक्र को किसी और ही बातचीत के लिए रख छोड़ना ही क्या बेहतर नहीं होगा?


कहा जाता है कि उर्दू में तो रदीफ की भूलें शायद ही मिलें, मगर मिल ही गयी है, तो बताते चलें। अब वो परवीन शाकिर में मिल गयी है तो इसका क्या कर सकते हैं? उनके दो शेर सुनें और उसमें रदीफ की भल देखें


गूंगे लबों पे हर्फ-ए-तमन्ना किया मुझे,


किस कोरचश्म शब में सितारा किया मुझे।


वो अपनी एक जात में कुल कायनात था,


दुनिया के हर फरेब से मिलवा दिया मझे। -परवीन शाकिर


आप देख ही रहे हैं कि इसके मत्ले में काफिये हैं 'तमन्ना' और 'सितारा', तो दूसरे शेर में काफिया है 'मिलवा'। मत्ले में रदीफ है ‘किया मुझे', तो दूसरे शेर में रदीफ है 'दिया मुझे। क्या इसे भी खोलकर बताना होगा कि यहां रदीफ में क्या गलती रह गयी है?


आपने देखा होगा कि हमने मुहम्मद अल्वी के यहां 'तोय' से 'ते', 'अलिफसे 'हे', परवीन शाकिर के यहां इन हफों के ही नहीं, 'जे' से 'जोय' और 'ज्वाद''सीन' से 'स्वाद' और 'से' के काफिया मिलाने को गलत नहीं माना था। मगर खुली बात है कि इस आजादाना रवैये को 'उर्दू गजल' का आम रुज्हान कबूल ही नहीं कर पाता, शह देना तो दूर की बात है। कहा जा सकता है कि इस मुआमले में उर्दू गजल का रवैया रिवायतपरस्त ही नहीं, बल्कि बहुत हद तक दकियानूस भी है


सुना जाता है कि उर्दू में वो चुहल, वो मुहावरा और बोलचाल का वो बहाव बहुत मिलता है, जिसके सहारे गजल कही जाती है। अब मिर्जा गालिब के इन मिस्रों को देखें


हवा-ए-सैर-ए-गुल,आईन:-ए-बेमेह्री-ए-कातिल


दहान-ए-हर बुत-ए-पैगार:जू जजीर-ए-रुस्वाई


बजल्वः रेजी-ए-बाद-ओ-बपरफिशानी-ए-शम्अ


इनमें 'बोलचाल का बहाव' तो नहीं, मगर एक 'चुहल' जरूर मिल जाती है कि इनके लफ्जों का मतलब समझने के लिए अक्सर पढने वालों को बार-बार लुगत देखना पड़ता है।


दाग देहलवी ने कहा था


है इजाफत भी जरूरी मगर ऐसी तो न हो,


एक मिस्त्र में हो जो चार जगह, बल्कि सिवा।


आज के जमाने में जो बोलचाल के बहाव पर जोर देगा, वो शायद ही कह पायेगा कि 'है इजाफत भी जरूरी'। आज की उर्दू गजल में अत्फ और इजाफत जैसी फारसी तरकीबों की जरूरत भले कम हो गयी हो, मगर उनका रौब अभी कायम है। अस्ल मस्ला है 'बोलचाल' की जगह 'लिखे' पर ज्यादा जोर देने काकहा जा सकता है कि उर्दू गजल न हुई सांप का बिल हो गया। सारी दुनिया में सांप टेढ़े-मेढ़े चलते हैं, लेकिन बिल में जाते ही सीधे हो जाते हैं। बोलचाल में आपको लाख अमन', 'असल', 'शहर', 'सुबह', 'बहस', 'वजह', 'तहत', 'वजन' वगैरह अल्फाज मिल जायें, लेकिन गजल में जाते ही मारे शराफत के 'अम्न', 'अस्लशह्र', 'सुबह', 'बहस', 'वज्ह', 'तहत', 'वजन' बनकर बैठ जाते हैं। किसी जिंदगी के जरूरी मस्लों पर 'बहस' शुरू करने की कोशिश की, तो उसे ये समझाया जाने लगेगा कि मियां! अस्ली तलफ्फज 'बहस' नहीं 'बस' होता है।


मिर्जा दाग ने ये भी कहा था


कहते हैं उसे जबान-ए-उर्दू,


जिसमें न हो रंग फारसी का।


मगर उर्दू गजल में आज भी फारसी का इतना रौब गालिब है कि कोई फारसी'शह' को 'शहर' बनाकर उसका काफिया 'घर' से मिला दे, तो उसकी ज़माने भर में थू-थू हो जायेगी, जबकि हिंदी 'ठहर' को 'ठह्र' (आदिल मंसूरी की 'एंटी गजल' के शेर में ये लफ्ज हम सुन ही चुके हैं।) बनाकर उसका 'शह' से काफिया मिला देने में कोई हरज नहीं समझा जायेगा। हमारा कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जैसे 'ठहर' को 'ठह' बनाने में कोई बुराई नहीं है, वैसे ही, 'शह' को 'शहर' बना देने पर भी कोई आस्मान नहीं टूट पड़ता। बोलचाल' को दिल खोलकर कबूल कर लेने से महज काफिये के लिए ज्यादा खुला आस्मान ही नहीं मिलता, बल्कि जबान की रंगारंगी भी बढ़ जाती है। नजीरी ने कहा भी है, 'हजार रंग दरी कारखान: दरकारस्त।' यानी इस कारखाने में हजारों रंगों की दरकार है


(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)