उत्तर आधुनिकता का दबाव और हिन्दी गजल

आलेख


अनिरुद्ध सिन्हा


साहित्य का मूल लक्ष्य अपने समय की विडंबनाएं, मनुष्य के सपने का सम्यक मूल्यांकन होता है। हाल के वर्षों में जिस तेजी के साथ परिस्थितियां बदली हैं वह चौंकाती ही नहीं, परेशान भी करती हैं। इन परिस्थितियों के पीछे पूंजीवाद की पतनशील संस्कृति एक नए लोक की स्थापना कर रही है जिसमें हमारी मौलिक दृष्टि कहीं न कहीं आहत हो रही है। यह हमारी भाव-विह्वलता है या शिकारी आएगा जाल बिछाएगा की तर्ज पर कीर्तन कर रहे हैं । हम सोचते बहुत हैं मगर कर वही रहे हैं जो हमें बदली परिस्थितियों के हवाले से निर्देश मिल रहा है। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। इस मामले में साहित्य की भूमिका क्या है। क्या साहित्य अपने लोकधर्म का पालन कर रहा है। ऐसे तो यह आम तौर पर कहा जाता है कि समय की चुनौतियों से मुठभेड़ करना साहित्य के स्वभाव का एक मजबूत हिस्सा है।


साहित्य और विज्ञान का एक ही उद्देश्य होता है अपने लक्ष्य को बेधना। विज्ञान अगर चमत्कार करता है तो साहित्य यथार्थ का अत्यंत परीक्षण। दोनों अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। एक सजग लेखक में समय के नए तकाजों को समझने और स्वीकार करने की अद्भुत क्षमता होती है। जहां तक भारत में उत्तर आधुनिकता के दबाव का प्रश्न है तो नि:संकोच कहा जा सकता है कि यह दबाव पूरी तरह आंशिक है। हां इसे विस्तार देने की पहल अवश्य की जा रही है। उत्तर आधुनिकता धन की वेदिका पर नाचनेवाली वह नर्तकी है जिसे हम बाजार कहते हैं। बाजार नए-नए ब्राण्डों और फैशन को प्रायोजित करता है। साहित्य-संस्कृति का केंद्र-च्युत होना इस वातावरण में स्वाभाविक है,वे अपने आदिकालीन प्रचारक रूप को त्याग देते हैं। इसलिए कि नयी प्रवृतियों और चरित्रों को करने की आतुरता बढ़ जाती है। या तो नए प्रचार तंत्र बनकर रहते हैं या यथास्थितिवाद से आरोपित हो जाते हैं। नए साहित्यकारों के पास अनुभव नहीं होता और पुराने को खारिज कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थिति में जो साहित्य रचा जाता है वह पाठक से अलग थलग पड़ जाता है। ज्ञान की यह अवस्था भ्रम की स्थिति में चली जाती है। सीधे-सीधे हम कह सकते हैं उत्तर आधुनिकता के साहित्य में विरासत का अवसान है। विरासत के अवसान का मतलब मानक संस्कृतियों की अवहेलना भी मान सकते हैं। भारत में पूर्ण साक्षारता नहीं है। अनपढ़ लोग अपनी विरासत के साथ छेड़छाड़ पसंद नहीं करते।


किसी भी समाज और उसकी सभ्यता की व्याख्या पूर्णता की कसौटी पर लाकर ही की जा सकती है। भारत में अभी भी चार समाज काम कर रहे हैं- प्रथम महानगरीय समाज, दूसरा-शहरी समाज, तीसरा-अद्ध शहरी समाज और चौथाग्रामीण समाज । महानगर में आधुनिकता तो आई है लेकिन उसकी विसंगतियाँ भी उसके साथ है। आधुनिक साहित्यकारों ने सामाजिक पक्ष को और उसके व्यापक दार्शनिक परिवेश को गंभीरता से देखने की कोशिश नहीं की जिस कारण पठनीयता का संकट उत्पन्न हुआ और साहित्य का स्वाभाविक परिवेश प्रभावित हुआ। ऐसा इसलिए भी हुआ कि हमारा देश अभी पूरी तरह से आधुनिक नहीं हुआ है। बाजार की आधुनिक बातें पाठक को पसंद नहीं आईं।


साधारण जनता ही भाषा और भाव का सृजन करती है लेखक तो सिर्फ शिल्पियों का काम करता है। लेखक का कर्तव्य हो जाता है कि जितना कुछ जान सकता हो जाने, अतीत को वह जितना भलीभांति जानेगा, वर्तमान को उतना ही अच्छी तरह समझेगा और उतनी ही गहराई और सूक्ष्मता से वह समय को सर्वव्यापी और बोधगम्य कर सकेगा। यहां प्रश्न उठता है क्या उत्तर आधुनिकता अतीत को स्वीकार करती है। अगर नहीं करती है तो लेखन का औचित्य क्या रह जाता है।भारत की सांस्कृतिक विरासत का अधिकांश भाग शब्दमय है। अगर इसे बचाने का प्रयास नहीं किया तो हवा की तरह ही साहित्य में प्रदूषण का खतरा है।


दुष्यंत कुमार के बाद हिन्दी के कुछ गजलकारों ने हिन्दी में लिखी जाने वाली गजलों को हिन्दी गजल कहना शुरू कर दिया। उल्लेखनीय है कि दुष्यंत कुमार ने शब्दों के बोलचाल के उच्चारण में प्रयोग को तो जायज ठहराया मगर अपनी गजल को हिन्दी गजल कभी नहीं कहा। इसके पीछे उनकी मानसिकता जो रही हो ये अलग बात है। गजल के उपरोक्त सफर से हिन्दी गजल की पहचान ये बनी की हिन्दी गजल गजल की प्राचीनकालीन प्रचलित परिभाषाओं से अलग अपना कैनवास चुनती है और उसमें अपने रंग भरती है जिसमें आम बोलचाल की भाषा में हिन्दी के प्रतीक, उपमा, मिथक और मुहावरों आदि के उपयोग हैं साथ ही भाषा और विषय-वस्तु की उन तमाम बंदिशों से खुद को आजाद करती है जो तथाकथित उर्दू गजल के नए हिमायतियों ने तय कर रखी है। इन सब विशेषताओं से मिलकर जो लहजा बनता है वो हिन्दी गजल का लहजा है। यहां यह भी स्पष्ट कर दिया जाए कि कुछ नए शायर सिर्फ हिन्दी भाषा में लिखी गजल को ही हिन्दी गजल मानते हैं, यह उनका अपना मत हो सकता है, मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि गजल आज कई भाषाओं और बोलियों में लिखी जा रही है। लेकिन सार्वजनिक गजल वही है जो किसी भाषा विशेष की मोहताज नहीं है। गजल सौंदर्य, संगीत, नृत्य और चित्रकला यानी समस्त ललित कलाओं में आविर्भूत होकर ही संपूर्ण आकर्षण प्राप्त करती है। इसका ख्याल तो करना ही होगा।


यह सही है संवेदनात्मक और तर्क बुद्धि परक-ये साहित्य संज्ञान की प्रक्रिया को दो आवश्यक चरण हैं और उन्हें एक दूसरे से अलग रखना अनुचित है। लेकिन नव बाजार संस्कृति के द्वारा संवेदना की अवहेलना की गई और तर्क बुद्धि के साथ सहसंबंध कर साहित्य को चिंतन की भूमिका के साथ जोड़ दिया। इस विषय पर आलोचकों ने भी चुप्पी साध ली।


___ उत्तर आधुनिकता मानव-जीवन का आधुनिक संस्करण है या आचरण में आए परिवर्तन की अलौकिक परिभाषा है। ज्ञान ही जहां उपभोग-केंद्र में आकर जीवन को परिभाषित करने लगे, वहां से उत्तर-आधुनिकता का वाद आरंभ होता हैहम इस वाद को नए ज्ञान का उदय भी मान सकते हैं,जहां नर तर्कवाद के चंगुल में परंपरा, मिथक, इतिहास छटपटाते नजर आते हैं। जिसमें आदमी का महत्व धन से भी कम हो जाता है। उत्तर-आधुनिकता को अगर हम पश्चिमी सभ्यता की उतरन मान लें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। शुद्ध रूप से यह एक साम्राज्यवादी योजना है। बड़े सहज ढंग से,यह पारिवारिक रिश्तों संवाद के बीच भी विभाजन की एक मोटी लकीर खींच देती है। इसी विसंगति को जहीर कुरेशी ने अपने एक मार्मिक शेर में यूं उकेरा है-


हमारे बच्चे अगर पूछते नहीं हमको


हम, इस तरह भी निःसंतान होते जाते हैं


अधिक गहराई से विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि भूमंडलीकरण की आड़ में भारत में एक ऐसा नव-धनाढ्य-सशक्त वर्ग उभर रहा है,जो हर तरह की सुविधाओं से लैस होता जा रहा है। मगर, और आगे जाकर देखने पर हम पाते हैं कि पूंजीवाद ने दमन के नए-नए तरीकों से अनाम प्रलोभनों की आड़ में व्यक्तियों की गहरी संवेदना के साथ भी छल किया है जो समाज और उसकी संस्कृति की गहराई के प्रभाव में है। बहुप्रचारित वैश्वीकरण किसी भी अर्थ में वैचारिक स्वतन्त्रता, सृजनात्मकता तथा व्यापक जनभागीदारी पर आधारित लोकतन्त्र-पोषक व्यवस्था नहीं है।


इस व्यवस्था का विरोध कृष्ण कुमार प्रजापति दूसरे ढंग से करते हैं-


हर चीज यहां हस्बे-जरूरत नहीं मिलती


सूरत से तुम्हारी कोई सूरत नहीं मिलती


बिन प्यार किये प्यार की उम्मीद न रखो


उल्फत के बिना आज भी उल्फत नहीं मिलती


हमारे देश की समाजवादी संकल्पना उत्तर आधुनिकता की संकल्पनाओं का विरोध करती है। व्यक्ति और समाजवादी वास्तविकता के सामंजस्य के विचार को ही सर्वोपरि महत्व देती है। कृष्ण कुमार प्रजापति के शेरों का मूल आशय यही है। समाजवादी प्रेम का यह लौकिक पक्ष वर्णित शेरों में अभिव्यक्त भावों को यथार्थता तथा गहराई प्रदान करता है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि उत्तर आधुनिकता भारतीय समाज के आंतरिक क्षरण कर बाहरी दुनिया की अजीबोगरीब हरकतों की ओर ले जाती है। यह अपने विचार से अपना काम चलाती है। संस्कार और प्रेम को उतना महत्व नहीं देती। इन भौतिक और सामाजिक कारणों को कई उपवर्गों में रखकर समझा जा सकता है। कारण है, बाजार उपभोग को प्रोत्साहित कर रहा है और उपभोग श्रम को। हमारा समाज संयुक्त परिवार को महत्व देता है जबकि आज की आधुनिक व्यवस्था इसकी अवहेलना करती है। बाजार प्रतिदिन लालच के सिक्के फेंक रहा है। उदारीकरण के रास्ते आए भूमंडलीकरण के दौर में नारी मुक्ति के नाम पर स्त्री-विमर्श हंगामे की शक्ल अख्तियार कर गया है। भारतीय नारी बिंबों, स्पाइस गर्ल्स, आइटम गर्ल्स, ग्लैमर गर्ल्स की शक्लों में देखी जाने लगी है।


लुभाने की कला में तो नहीं इसका कोई सानी


बदलते वक्त में बाजार आंखें भी दिखाता है


है डूबी सोच में कोयल मिलेगी नौकरी कैसे


सिवा गाने के इसको और कुछ भी तो न आता है -कुमार विनोद


निकली है आज छूने लो आसमान चिड़िया


भर लेगी मुट्ठियों में सारा जहान चिड़िया


बाजार डालता है दाने तरह-तरह के


रहना कदम-कदम पे सावधान चिड़िया - अशोक अंजुम


चिमनी रोज जवां होती है


बूढ़ा होता रोज खलासी -विज्ञान व्रत


एक मुश्त में दिल दे आया


टुकड़ा-टुकड़ा प्यार खरीदा -ध्रुव गुप्त


आधुनिक बाजार में स्त्री सौंदर्य वाह्य आकर्षण अथवा विभ्रम की सृष्टि करता है। खासकर स्त्री मुख प्रभा बाजार के चारों ओर इस कदर छिटकती रहती है कि वहाँ देह के सिवा कुछ भी नहीं। विज्ञापन के जाल में फंसी स्त्री-देह,सौंदर्य से हटकर विकृति की ओर उन्मुख होती जा रही है। बाजार की चपेट में आई खंडित मानसिकता के कारण,आज की स्त्री अपनी ही शारीरिक-मानसिक आवश्यकताओं के लिए अपने ही शरीर का इस्तेमाल किस प्रकार करती है,उस मानसिकता की झलक आज की गजलों में साफ-साफ दिखाई देती है।


निश्छल प्रेम, त्याग और बलिदान से युक्त नारी आधुनिक कुरीतियों का एक कल्पना-चित्र बनकर रह गई है। विकसित देशों में इसकी परिणति देह-व्यापार में हुई और अमेरिका,जापान आदि देशों में इसे बकायदा उद्योग के रूप में मान्यता मिल गई है। स्त्री देह मुक्त बाजार व्यवस्था में हर उस आदमी के लिए वस्तु के रूप में सुलभ हो गई है जो खरीद पाने की क्षमता रखता है। पारिवारिक-सामाजिक संबंध टूट रहे हैं, स्त्री मुक्ति का आंदोलन केंद्रीयताएं टूटने की लहर में बह गया है। तमाम केंद्रीयताएं टूटकर एक शक्तिशाली केन्द्रीयता के अधीन आ गई हैं जिसे हम बाजार कहते हैं।


बदन दिखला के औरत का बिका करता है मंजन भी


हुए कपड़े बहुत छोटे जमाना है तरक्की का


न्यूज चैनल पर भी अब तो होती हैं खबरें नहीं


ऐंकरिंग के नाम पर दिखलाते कमसिन सूरतें - ममता लड़ीवाल


अशोक मिजाज के इस तंज पर गौर किया जा सकता है-


पढ़े लिखे हुए भारत के लोग हैं हम तो


हमारा कुत्ता भी इंग्लिश में बात करता है


किसी भी गजलकार को अनुशासनों और वर्जनाओं के बीच साम्य स्थापित कर अपनी बात कहनी पड़ती है। गजल अनुशासन की बात करती है। इसकी संरचना का सीधा संबंध विचार और अभिव्यक्ति से है जहां भाषा का परिमार्जन और छंद निर्वहन की सामर्थ्य, गजलकार की परिपक्वता को परिभाषित करती हैऐसी परिस्थिति में कुछ कटु कहने का खतरा तो उठाना ही पड़ता है साथ ही अबोध कथ्य के वात्सल्य से भी बचना होता है। आज हम जिस उत्तर आधुनिकता के परिवेश में जी रहे हैं वह उसी खतरे की ओर ले जाता है। लेकिन यह कहना अनुचित नहीं होगा आज का गजल-समाज अपने अहम और आत्ममुग्धता से पीड़ित नहीं हैइसके पास कहने के लिए पूरा स्पेस है। अपना प्रजातन्त्र है। अपने जीवन-दर्शन के साथ चलते हुए अपनी सभ्यता को अपने ढंग से गतिशील बनाए रखने की छटपटाहट है। उपरोक्त सारे वर्णित शेर इसी ओर इशारा करते हैं। संस्कृतिविहीन और समाजविहीन लेखन विखंडित, अहंकारग्रस्त और सतही भटकावों की अपठनीय अभिव्यक्ति होता है।


आज के समय में परंपराओं और संस्कृति संबंधी विमर्शों में अनेक किस्म के भ्रम और आशंकाएं दिखलाई पड़ रहीं हैं। एक ओर संस्कृति और भारतीयता को लेकर अत्यंत रूढ दृष्टिकोण दिखलाई पड़ता है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक विचलन और विखंडन भी दिखलाई पड़ रहा है। ऊपर से पाश्चात्य संस्कृति का अनर्गल हस्तक्षेप भी हो रहा है। इन सब के कारण भारतीय सांस्कृतिक-चिंतन काफी उलझन की स्थिति में आ गया है। आज यह आवश्यक हो गया है कि भारतीयता और संस्कृति के प्रति एक संतुलित और सुस्पष्ट दृष्टिकोण अपनाया जाय।


हथकड़ियों के सांचों में क्यूं ढल बैठी


चूड़ी जैसी रोज खनकने वाली वह - डॉ. भावना


उठा लाए हो क्या दरकार है क्या


समझते क्यों नहीं बाजार है क्या -महेश अश्क


आज का गजल-संसार सजगता,सारवत्ता और काव्य-कौशल का उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसमें बिम्ब, प्रतीक और मिथकों तथा उन लोक-विश्वासों की गणना होती है जो हमारे जीवन से अंतरंग रूप से जुड़े होते हैं तथा सीधे हमारे अतीत की सांस्कृतिक चिंतन और परंपरा में निहित होते हैंआज का एक पक्ष उत्तर आधुनिकता का भी है। मार्क्स का कहना है कि मनुष्य की विशेषता यह है कि प्रजातीय समानताओं के साथ-साथ,उसी में यह क्षमता है कि वह अपने-आपमें कुछ विलक्षण गुण विकसित करे, यही उसकी अद्वितीयता,दूसरे शब्दों में व्यक्तिमत्ता का कारण है। मनुष्य व्यक्ति बनकर ही अपनी समस्त संभावनाओं का उदघाटन कर पाता है, लेकिन ऐसा अपने-आप नहीं होता। उसके पास जो एन्द्रिय क्षमताएं हैं, जिनके द्वारा वह अपने विश्व के समाज को आभ्यंतरीकृत करता है, उन्हें हमेशा विकास के सम्पूर्ण अवसर नहीं मिल पाते। उसकी वजह उसके अंदर नहीं, वह जिस समाज में है, उसके नियमों में है।


आज का हमारा समाज उत्तर आधुनिकता और बाजारवाद का है जिसमें एक स्वप्नदर्शी और प्रत्यक्षदर्शी की संवेदना का विलक्षण मिश्रण है। हम इसमें रोज फंसते चले जा रहे हैं।


इस दौरे-तरक्की में बचानी है अना भी


रफ्तार संभालूं कि मैं दस्तार संभालूं


बाजारे नुमाइश में मैं किरदार संभालूं


घर-बार संभालूं कि तेरा प्यार संभालू -दीक्षित दनकौरी


उपभोक्तावादी संस्कृति बहुत कुछ जल्दवाजी में प्राप्त कर लेने के लिए बेचैन करती है। बेचैन करती है-हमारी आवश्यकताओं को बाजार तक आने के लिए। यह आकस्मिक नहीं है कि व्यापक जीवन में भूमंडलीकरण का जो रूप घुला मिला है और जिसका सरोकार सर्वाधिक घनिष्ठ है, वह स्त्री है। इच्छाओं के छिछोरेपन का जो मायाजाल बुना गया है, उसमें ज्यादातर स्त्रियां ही फंसी मिलती हैं। स्त्रियों की यौनिकता को नियंत्रित करने के नाम पर अश्लीलता को प्रोत्साहन मिल रहा है। आवश्यकता है कि स्त्री तथाकथित समृद्धि, संपन्नता और वैभव के प्रलोभन से स्वयं को कैसे बचाए। वहीं दूसरी ओर,नारीवादी चिंतन की प्रमुख लेखिका सिमोन द वोउवार लिखती हैं 'नारी स्वाधीनता का अर्थ निःसन्देह यही है कि स्त्री पुरुष से जिस पारंपरिक संबंध को निभा रही है, उससे मुक्त हो।'


मगर,यह कहते हुए वोउवार भूल जाती हैं कि जब तक स्त्रियों को व्यक्ति होने का तथा आत्म-सम्मान का संस्कार नहीं दिया जाता,तब तक वह स्त्री ही रहेगी। दीक्षित दनकौरी ने उपरोक्त शेरों में इसी विकृति की ओर इशारा किया है। क्या हम इस बात से इंकार कर सकते हैं कि नवपूंजीवाद की बाजार-केन्द्रित नई अर्थव्यवस्था ने स्त्री को एक वस्तु बनाकर बेचना शुरू नहीं कर दिया है। इस बाजार में अधिकतर महानगर की पढ़ी लिखी महिलाएं बिकने के लिए बेचैन हैं। अभी गांव बचा हुआ हैहमारे देश के गांव अभी आधुनिक भी नहीं हैं। उत्तर आधुनिकता तो दूर की कौड़ी है।आज ऐसा कोई गांव नहीं पाया जा सकता जो यह दावा कर सके कि उसने अपनी विरासत की परंपरा को नकार कर पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण किया है।


मैं चीजों के लिए खुद बिक न जाऊं


नए बाजार से डर लग रहा है


पैसे नहीं हैं जेब में झोला उदास है


बाजार हर तरह का मगर आस-पास है -नूर मुहम्मद नूर


वक्त की मार कहे या कि मुकद्दर अपना


खुश्क पत्तों की तरह में बिखरा चेहरा


किरन को जिंदगी की जुस्तजू थी


मिली है शहर की आवारगी अब -प्रेमकिरण


हमने सारे रिश्ते-नाते भाव-ताव को बेच दिये


बाजारों से ले आए फिर आधी-पौनी खामोशी


अब समझ में आ रहा क्यों हारता हूं खेल में


चाल वो चलता है अक्सर मेरे पत्ते देखकर -हरेराम समीप


'उत्तर आधुनिकता नव उपनिवेशवाद के दौर की एक स्थिति है जो प्रत्यक्ष रूप में विचार की केन्द्रीयता को तोड़कर मानव-मस्तिष्क के अंत:स्फुरण को महत्व देकर उसे मुक्त करने का दावा करती है जबकि वास्तविक रूप में यह आधुनिकता के दौरान मुक्ति के लिए घटित आन्दोलनों, विचारधाराओं और सैद्धांतिकियों को खारिज करती है। आज ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो यह कहते हैं कि विश्व में मार्क्सवाद की कोई जरूरत नहीं रह गई और उसके विकल्प के रूप में उत्तर आधुनिकता सामने आ गई है। पूर्वी और पश्चिमी यूरोप में जब साम्यवाद का विलोपन हो रहा था, उसी समय उत्तर आधुनिकता और अमेरिकी उपनिवेशवाद के प्रबल प्रवक्ता फुकुयामा ने इतिहास के अंत की घोषणा की। अब बहुत लोगों का कहना है कि माक्सवाद ने मनुष्य चिंतन की जो केन्द्रीयताएं रच दी थीं उत्तर आधुनिक दृष्टि ने उन्हें तोड़ दिया है, मनुष्य मुक्त हो गया है। सबसे पहले हम इसी मुक्ति पर विचार करेंगे। उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण को अब साहित्य की आलोचना के लिए उपकरण के रूप में प्रयोग किया जा रहा है और हर पाठ का नया पाठ दर पाठ तैयार करने को आलोचना का मानदंड बनाया जा रहा है जिसे विमर्श का नाम दिया गया है, इसलिए यह देखना अनिवार्य हो जाता है कि उत्तर आधुनिकता ने विचारधारा की कैद से रचना को किस रूप में मुक्त किया है।


'उत्तर आधुनिकता नव उपनिवेशवाद के दौर की एक स्थिति है जो प्रत्यक्ष रूप में विचार की केन्द्रीयता को तोड़कर मानव-मस्तिष्क के अंत:स्फुरण को महत्व देकर उसे मुक्त करने का दावा करती है जबकि वास्तविक रूप में यह आधुनिकता के दौरान मुक्ति के लिए घटित आन्दोलनों, विचारधाराओं और सैद्धांतिकियों को खारिज करती है। आज ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो यह कहते हैं कि विश्व में मार्क्सवाद की कोई जरूरत नहीं रह गई और उसके विकल्प के रूप में उत्तर आधुनिकता सामने आ गई है। पूर्वी और पश्चिमी यूरोप में जब साम्यवाद का विलोपन हो रहा था, उसी समय उत्तर आधुनिकता और अमेरिकी उपनिवेशवाद के प्रबल प्रवक्ता फुकुयामा ने इतिहास के अंत की घोषणा की। अब बहुत लोगों का कहना है कि माक्सवाद ने मनुष्य चिंतन की जो केन्द्रीयताएं रच दी थीं उत्तर आधुनिक दृष्टि ने उन्हें तोड़ दिया है, मनुष्य मुक्त हो गया है। सबसे पहले हम इसी मुक्ति पर विचार करेंगे। उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण को अब साहित्य की आलोचना के लिए उपकरण के रूप में प्रयोग किया जा रहा है और हर पाठ का नया पाठ दर पाठ तैयार करने को आलोचना का मानदंड बनाया जा रहा है जिसे विमर्श का नाम दिया गया है, इसलिए यह देखना अनिवार्य हो जाता है कि उत्तर आधुनिकता ने विचारधारा की कैद से रचना को किस रूप में मुक्त किया है।


उत्तर आधुनिकता जब केंद्रीयताओं को तोड़कर मनुष्य को मुक्त करने का दावा करता है तो उसका असली मकसद होता है कि मनुष्य ने ज्ञानोदय के दौरान जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सैद्धांतिकियां तैयार की थीं उन्हें विफल प्रमाणित करना और ऐसा वे इसलिए कहते हैं कि साम्यवाद के प्रसार के कुंठित होने के बाद, खासतौर से सोवियत संघ के विलोपन के बाद अलगअलग दुनिया का भेद मिट मिट गया है और सभी केंद्रीयताएं टूट गई हैं,मनुष्य भूमंडलीकरण के इस दौर में ग्लोबल हो गया है। यह सही है कि दुनिया का भेद मिट गया है पर यह मनुष्य की मुक्ति नहीं है बल्कि केंद्रीयताओं को तोड़कर नव साम्राज्य ने सबको अपने अधीन कर लिया है। (नव उपनिवेशवाद और उत्तर आधुनिकताडॉ नृपेन्द्र प्रसाद वर्मा)


बहुत आगे थे हम सौ साल पहले


थी आंखों में शरम सौ साल पहले


भारत में जब-जब गरीबी ने अपनी सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण किया है, तब तब सांप्रदायिकता की जड़ें मजबूत हुई हैं। धर्म-निरपेक्षता दांव पर लगी है और धन का वर्चस्व बढ़ा है। धन की आड़ में फासीवादी ताकतें सुदृढ़ हुई है और सांप्रदायिकता के मजबूत होने की आधार-भूमि तैयार हुई है। इसी आधार पर वोटबैंक की राजनीति फलने लगती है।


पहले तो हमारी दुनिया को वीरान बनाया जाएगा


फिर धीरे-धीरे चारो तरफ हथियार उगाया जाएगा


व्यक्ति-स्वातंत्र्य के इस युग में आज निम्न मध्यम वर्गीय लोगों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। इस नव फासीवाद और सभ्यताओं के संकट के परिदृश्य में धर्मनिरपेक्षता का अलग चेहरा है जो अलग-अलग पक्ष में दिखाई देता है। धर्म का दबाव बढ़ा है और वह आतंकवाद के रास्ते पर चल पड़ा है। हालांकि धार्मिकता का यह रूद्धमूलक संस्कार पुराना है। लेकिन आज के धार्मिक मूल्यों में कट्टरता के संक्रमण का स्वर मिलता है। आस्था और अनास्था से मुक्ति की आकांक्षा दिखाई नहीं पड़तीअगर कहा जाए तो आतंकवाद का प्रतिरोध राज्य की सभी सत्ता एवं आतंकवादियों की बर्बर ताकत के बीच का मकाबला है। यदि हम इस बात को समझने में असमर्थ रहते हैं तो आतंकवाद के विरुद्ध आधी लडाई तो हम शरू करने के पहले ही हार चुके होते हैं। भारत जैसे देश की राजनीति जहां तुष्टीकरण की नीति अपनी जड़ें जमा चुकी हैं,ऐसी परिस्थिति में साहित्यकारों से ही थोड़ी बहुत अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। साहित्यकार ही इस नए माहौल में जन-आंदोलन को स्वर दे सकता है।


यह हुकूमत बांटती रहती है यूं इनआम भी


हमको यह मालूम है हम हैं सजा ही के लिए


हमारी राजनीतिक सरकारों ने पहले भी धार्मिक दलों को संरक्षण दिया हैविवादस्पद धार्मिक मामलों को लटकाए रखने का एक यह भी कारण है। धर्म के प्रति इधर जो हम कट्टरता देख रहे हैं, वह राजनीति की ही उपज है। अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए सांप्रदायिकता को हवा देकर समाज में एक नए तरह के भय का माहौल पैदा कर लोगों को टुकड़ों में बांटने कोशिशें होती रहती हैं। आज के गजलकारों ने समाज में धर्म की वास्तविक स्थिति का अनुभव किया है। जीवन में धर्म के पलायन से विद्रोह का एक नया रास्ता विकसित होता हुआ महसूस होता हैधर्म का बाजारू कीमतों से आंका जाना प्रतियोगिता और अराजकता को जन्म देता है। धर्म जब ऐसी स्थिति तक पहुंच जाता है तो आम जनता धर्म से स्वतन्त्रता की मांग करने लगती है। धर्म विचारधारा का एक क्षेत्र नहीं है,उसका संबंध इंद्रिय-बोधों और संवेगों के साथ भी है। संवेग और इंद्रिय-बोध अपनी प्रकृति में अधिक प्रावृतिक होने के कारण आर्थिक परिस्थितियों या पूंजीवादी व्यवस्थाओं से अधिक प्रभावित और स्वतंत्र है। यह सही है कि तों से ही व्यक्ति सीख लेता है कि कौन से विचार उचित हैं, कैसा आचरण सही है और कौन सी भावनाएं उपयुक्त हैं।


मंदिर या मस्जिदों की तरफ मन नहीं किया


तों ने आस्था का समर्थन नहीं किया


आज की गजलों में गजलकार के साम्यवादी दृष्टिकोण को देखा जा सकता है। इसमें भी गजलकार की दृष्टि आधुनिक यथार्थ को स्पर्श करती प्रतीत होती हैनवविज्ञान की प्रगति ने दूरी को निकट तो कार दी है, किन्तु सामान्य जनजीवन में इससे विशेष लाभ नहीं देखा जाता है। यंत्रीकरण से मजदूर वर्ग अपने अधिकार के प्रति सजग और संगठित तो हुए हैं, किन्तु पूंजीपतियों और अर्थहीनों के बीच असमानता अब भी शेष है।


प्रत्येक गजलकार को बदले हुए परिवेश और परिवर्तित चेतना के प्रति सतत सजग होना चाहिए। हिन्दी गजल का यह महत्वपूर्ण उद्देश्य माना जाता है। क्योंकि गजल केवल वर्णय-विषय नहीं अपितु अपने युग विशेष का प्रतिनिधित्व करती है, अतएव, इसमें युग-जीवन की पीड़ा, व्यथा आदि का चित्रण होना चाहिए। गजलकार को चाहिए कि पूर्ववर्ती गजल की जड़ता, गतानुगतिका, रूढ़ियों आदि को नजरअंदाज कर वर्तमान युग की विसंगतियों आदि का चित्रण करें। सुरेन्द्र चतुर्वेदी की गजलों में यह स्वर साफ सुनाई पड़ता है।


अभी तो उसने फकत पर्वतों को लांघा है


अभी तो सामने इक आसमान बाकी है


उत्तर आधुनिकता हर महानता को विदाई देती है और एक सामान्यतया न्यूनतम्यता सबको संभव करती है। विचारों की समग्रता की जगह वह आंशिकता संभव करती है,रचना को विज्ञापन बनाती है, समीक्षा को प्रायोजित बनाती है। हाल के दिनों में हिन्दी साहित्य में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि उत्तर आधुनिकता किसी नई समाज-व्यवस्था का सांस्कृतिक वर्चस्व नहीं है बल्कि एक प्रतिबिंब भर है और नए पूंजीवाद का सहवर्ती रूप है। या हम कह सकते हैं वृद्ध पूंजीवाद बहुराष्ट्रीय निगमों का भूमंडलीकरण बाजार है। इसकी विभीषकाओं से बचा जा सकता है। शर्त है यथार्थ के साथ हमारे संबंध अनकल रहे और यह साहित्य से ही संभव है।


समकालीन हिन्दी गजल में स्त्री


औरत के सम्मान से बढ़कर औरत की मजबूरी


मर्द को पूरा करने ही में औरत हुई अधूरी -वसीम बरेलवी


यह काल उत्तर आधुनिकता का है। घटनाओं के साथ चीजें भी बदल रही हैंसाथ ही भारतीय स्वरूप के दर्शन भी प्रभावित हो रहे हैं। कारण है दर्शन के साथ अनापेक्षित छेड़छाड़। संतुलित परिवार पूरी तरह से टूट चुके हैं। लोक जीवन अपने प्रेम दर्शन से कट रहे हैं। शहरी मानसिकता प्रबल हो रही है। स्त्रियों के बारे में कहा जा रहा है कि वक्त से आंखें दबाए नहीं चलती हैं। कुछ अनुभवगत यथार्थ के दुखद रेशों को खोलती हैं जो मन के भीतर उलझ चुके हैं।


आज हमारा समाज धर्म-पूंजी और राजनीति के गठजोड़ में फंसा हुआ हैवैश्विक मानव समाज और उसके अन्तर्गत भारतीय मानव समाज जिस प्रकार के संकट में फंस गया है और अमानवीयकरण की दिशा में दौड़ रहा है, वह भयावह है। मानव अस्तित्व और विश्व की सारी अबोध्यताएं तथा मानव अस्तित्व की दुखद स्थितियों की चित्रण करने वाली आम दृष्टि क्षीण होती जा रही है। इसका प्रमुख कारण है उत्तर आधुनिकता के रास्ते में मोहित और अभिभूत करनेवाले वातावरणयह अस्वाभाविक भी नहीं है। आधुनिकता मूल्यधर्मी नहीं, वर्णनपरक संकल्पना है। ऐसा इसलिए भी है कि हमारी सांस्कृतिक परंपरा पर विदेशी हस्तक्षेप बढ़ गया है। जीवन की अनिश्चितता और विसंगति के तरीकों में इजाफा हुआ है खासकर महानगरीय जीवन में यांत्रिकीकरण, अमानवीयकरण, व्यक्तित्वलोप, व्यक्तित्वखंडन, अकेलापन, टूटन, संवादहीनता, वेदना और बेचैनी परिलक्षित होती है।


भौतिकवादी दृष्टिकोण को आधार बनाकर स्त्री को प्रस्तुत करने का विचार महानगरीय जीवन का फैशन हो गया है परिणामस्वरूप बहुत सी असंगतियों तथा जीवन पध्दतियों जो भारतीय परंपरा का निषेध करती हैं उनका प्रचलन बढ़ता जा रहा है। स्पष्ट है भारतीय सामाजिक व्यवस्था की महती श्रेष्ठताओं की एक ज्वलंत अभिव्यक्ति उसके बुनियादी सामाजिक उसूलों और उसकी संस्कृति तथा विचारधारा के मानवतावादी सिध्दांतों का सरासर उल्लंघन है। हम मानते हैं कि पश्चिम देशों की स्त्रियों में एक अलग ही प्रकार का संश्लेषण पाया जाता है जिसकी व्याख्या पश्चिम और पूर्व की स्त्रियों के फलप्रद परस्पर-संवर्धन के लिए काफी रखती है। पिछले दशकों में सैद्धांतिक बहसों के दौरान इस प्रश्न को लेकर काफी विवाद हुआ है कि क्या स्त्री का स्वच्छंदतावाद और समाजवादी यथार्थवाद ये दो अवधारणाएं स्त्री के हितों को किस रूप में परिभाषित करती हैं। कुछ लोगों का कहना है कि समाजवादी यथार्थवाद स्त्रियों के लिए सौंदर्यात्मक संपन्नता का परिचायक है परन्तु कुछ लोग इसका विरोध करते हुए कहते हैं कि यह स्त्री की मुक्ति नहीं, बंधन है। लेकिन सच है कि समकालीन स्वच्छंदतावाद आधुनिक स्त्री समाज के जीवन की पूर्ण तथा परिष्कृत सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति न होकर आत्मिक तथा भौतिक खोखलापन दिखाने में और समाज पर अपने प्रभाव को उजागर करने में साकारात्मक भूमिका निभा रहा है।


हिन्दी साहित्य में स्त्रीप्रवृतियों की अपनी-अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया है। हर सृजनात्मक प्रक्रिया स्त्री के विकास की आम नियम संगतियों का प्रतिबिंबन तथा सामान्यीकरण करती है किन्तु उसकी विशिष्टता मुख्य रूप से इस बात में है कि वह स्त्री संसार को सृजन के मूलभूत प्रश्नों के साथ कहां तक व्याख्या कर पाती है।


हिन्दी गजल में स्त्रीवर्णन मात्र रूप और सौंदर्य की अभिव्यक्ति नहीं है। जैसा कि यह आरोप अन्य भाषाओं की गजलों पर लगाया जाता रहा है। हिन्दी की गजलों में स्त्री विविधता को बनाने का रचनात्मक सुझाव भी है। एक नया नजरिया विकसित होता दिखाई देता है वैसा नजरिया जो स्वतंत्रता के साथ-साथ सत्य को उद्घाटित करने में सहायक हो।


वास्तव में स्त्री विमर्श के अगल-बगल जो कुछ है वह धुंधलके में है जिसे हम बिल्कुल देख नहीं पाते । वर्णन, कल्पना और अंदाज की परिधि में चक्कर काटता रह जाता है। ऐसे अन्य विधाओं में स्त्री के बारे में जो भी भ्रम की स्थिति हो लेकिन हिन्दी गजल में नजरिया बिल्कुल साफ है। भारतीय स्त्री को समझने और उसके आधुनिक बनने तक के सफर को तार्किकता के साथ अभिव्यक्त करने में सफर हो रही हैं आज की हिन्दी गजलें। नतीजतन स्त्रियों के प्रति मूलभूत दृष्टिकोण स्थापित हो जाता है। ऐसे कहीं-कहीं असमंजस की स्थिति भी आ जाती है जब कोई गजलकार यह कहता है...।


पुरुष वो लिख नहीं सकता कभी भी


लिखा नारी ने जो इतिहास घर में -गुलशन मदान


गुलशन मदान अतियथार्थवादी शैली में स्त्री मानस संसार को साक्षात करने का प्रयास करते हैं जहां पुरुष प्रधानता गौण पड़ जाती है। कुछ हद तक इसे स्वीकार किया जा सकता है। इसमें कोई अस्वाभाविकता प्रक्षेपन दिखाई नहीं पड़ता। फिर भी कुछ बचा रह जाता है जिसकी अनिवार्यता कुछ अधिक ही हमारे सामने प्रकट होती है। आधुनिक आशयसूत्रों को समाहित करने वाली गजलों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह तसल्ली की बात जरूर है कि इस बदलते हुए बेचैन समय और इस बदहवास दौर में पुरुषों की आत्मा की डोर आज भी मां, बहन, प्रेमिका, पत्नी और बेटी के हाथ में है। इसी भीतरी जगत को टटोलने का प्रयास आज के गजलकार कर रहे हैं।


माधव कौशिक स्त्रियों का यथार्थ कुछ इस प्रकार उद्घाटित करते हैं...


जिसे हम हाशिये की चीज कहकर छोड़ते आए


समय बदला तो देखा हाशिया कुछ और ही निकला


वास्तव में इस सदी में स्त्री की दशा वैसी नहीं है जो पूर्व के वर्षों में थी। बहुत कुछ बदल गया है। पुरुष वर्चस्व समाज में स्त्री ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। संपूर्णता की जमीन अभी काफी दूर है। इसी बात को पकड़ने में हिन्दी गजलकार सफल हुए हैं। उनका मानना है कि जब तक स्त्रियों को व्यक्तित्ववान होने का तथा आत्मसंसार का संस्कार नहीं दिया जाता तब तक उन्हें स्त्री तो समझा जाएगा, भोग्या तो रहेगी, जरूरत नहीं। पुराने मूल्यों को तिलांजलि देकर उन मूल्यों को अपनाना होगा, एक नई दृष्टि स्थापित करनी होगी जिसमें स्त्री की प्रगति के साथ-साथ पुरुषों की दासता से भी बाहर आए...


ज्ञानप्रकाश विवेक एक अलग अंदाज में कहते हैं


तितलियां लगती हैं अच्छी जो उड़ें गुलशन में


तू उन्हें मार के एलबम में सजाता क्यूं है


वैचारिक रूप से ज्ञानप्रकाश विवेक का यह शेर कई अन्तर्विरोधों को जन्म देता है साथ ही चिंतन का मार्ग भी खोलता है ।


यूं तो पिछले कुछ समय से कहा जा रहा है कि इस पारिवारिक व्यवस्था के बीच भी समय से संगत करती हुई आज की स्त्री समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो रही है। परंपरा और आधुनिकता की कसौटी पर कसा गया स्त्री का सच कभी-कभी परेशान तो करता है विचलित नहीं करता। हिन्दी गजल की स्त्री अपनी गहरी संवेदनाओं से युक्त स्वयं को तेजी के साथ अन्तरराष्ट्रीय फलक पर पांव जमाने की कोशिश में है। जाहिर है समकालीन हिन्दी गजल अपने यग का भावात्मक तथा रागात्मक चित्र प्रस्तुत कर रही है। इसके दो रूप हैं-एक सामयिक दूसरा शाश्वत । एक ओर जहां विविध समस्याओं की झंकृति मिलती है वहीं दूसरी ओर स्वप्न, अनुभूति, संवेदना और आदर्शों का स्वर। आज हिन्दी गजल इन्हीं परिभाषाओं के बीच रेखांकित हो रही है।


 गजल की कोमल भावना को अभिव्यक्त करने में ध्रुव गुप्त ने कोमल एवं मधुर अभिव्यंजनात्मक शब्दों की बाढ़ ही ला दी है। बावजूद इसके अतिशयोक्ति का सहारा न लेकर स्वाभाविक मानवीय भावनाओं एवं आचरण पर विशेष जोर है। इस सहज मानवीय भावना के प्रकाशनार्थ और अपनी तरल संवेदना के सहारे जो स्त्री के संदर्भ में है इस प्रकार अपने शेर में व्यक्त करते हैं...।


औरतें गूंगी हैं मेरे गांव की


आप चाहें तो जलाकर देखिए


सामाजिक प्रवृतियों को उजागर करते हुए ध्रुव गुप्त का वर्णित शेर न केवल वास्तविकता को प्रतिबिंबित करता है बल्कि सोदेदश्य प्रभाव भी डालता है। आज भी स्त्रियों के समक्ष आत्म सम्मान और आत्मरक्षा का संकट है। ध्रुव गुप्त की चिंता पितृसत्तात्मक सामाजिक दृष्टि को प्रकट करती है। साथ ही कुछ बुनियादी प्रश्नों की सार्थकता भी प्रदान करती है।


समय की सारी असहजताओं के बावजूद आज लिखी जा रहीं गजलों में स्त्री बाल सुलभ कल्पनाओं की स्वप्निल दुनिया भी देखने को मिल जाती है...।


दुआ ये मांगी है बच्ची ने खेलने के लिए


खुदा करे कि समुन्दर जमीन हो जाए -अशोक मिजाज


आज भारत में भ्रण हत्या का संकट गहराता जा रहा है। चिकित्सा विज्ञान और पुरुष मानसिकता के आधुनिक सोच के साझा श्रोत ताकतवर बनने लगे हैं और विभिन्न देशों के अतिरिक्त अपने देश के भीतर भी भ्रूण हत्या की होड़ लग गई हैयह समस्या आधी आबादी को तो प्रभावित कर ही रही है साथ ही साथ परिस्थितिकी तंत्र को भी बिगाड़ रही है। ऐसे तो इस संकट का संबंध दुनिया, समाज और काल से तो है ही साथ ही पुरुष दायित्व से भी है। सचमुच में यह संकेत विचारमंथन की दिशा को संकेतित करते हैं। जहीर कुरेशी अपने उद्गार इस प्रकार व्यक्त करते हैं-


भ्रुण हत्याएं सड़क पे हैं


स्तब्ध मुद्राएं सड़क पे हैं स्त्री के संदर्भ में सभ्य जीवन की कुरूपता सिर चढ़कर बोल रही है। परेशानी और हैरानी तो तब होती है कि ग्लोबल संचार-क्रांतिवाले छोर पर खड़े होकर भी हम अपना वैशिष्ट्य गंवा देने का खतरा मोल ले रहे हैं। नए सिरे से विचारने और पनर्मल्यांकित करने की जरूरत महसूस करने की आवश्यकता है। अपने अद्भुत लयात्मक संवेदन और सूक्ष्म पर्यवेक्षण से पुनः जहीर कुरेशी कहते हैं...।


भ्रूण हत्या के विचारों को हराने निकले


कोख में पल रही बेटी को बचाने निकले


गर्भ परीक्षण और भ्रूण हत्या स्त्री की मातृत्व भावना पर सीधा हमला है। इसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ना स्वाभाविक है। पूरा देश इस भयानक हादसे से गुजर रहा है।


__ आज हमें स्त्री को सही दिशा में प्रगति के लिए मानसिक और शारीरिक स्वतंत्रता का माहौल देना है जिससे वह अपनी क्षमता के अनुसार युग के विकास में अपना योग दे सके। हमारा दूसरा बड़ा दायित्व समय को सही दिशा प्रदान करना है तात्पर्य यह कि स्त्री स्वयं को कमजोर, अप्रभावी और निष्प्राण नहीं समझे। बेहतर तो यही है स्त्री के मूल्य को घर की संज्ञा देने की बजाए मूल्य ही कहते । घर में कई खतरे मौजूद हैं।


गजल के संबंध में एक मत यह भी हैकि इसकी धारा प्रेमी प्रेमिका के संवाद की ओर जाती है लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि संवाद का श्रोत मात्र मांसल और रूप सौंदर्य हो। हिन्दी के गजलकारों ने इस मिथक को आंशिक रूप स्वीकार किया। संवाद की दिशा में तब्दीलियां की। नई-नई छबियों और अभिव्यक्तियों का समावेश किया जिनमें घर मुहल्ला, प्रेम, परिवार और आपसी रिश्तों का सामंजस्य देखने को मिला। प्रेमी प्रेमिका के संवाद को एक नया मोड़ मिला।


संवाद जनसरोकारों का सशक्त माध्यम है। गजल में संवाद का महत्व जितना होगा गजल का रंग और भी चमकेगा। जहां तक हिन्दी गजल का प्रश्न है तो यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है इसमें संवाद के माध्यम से ही स्त्री के सहज स्वाभाविक और संवेद्य भूमिका की पुनर्वापसी इस संकल्प के साथ होती है कि बड़ी-बड़ी बातों मिथकों फंतासियों और स्वप्नों से नाता तोड़कर रम्य संवेदना के छोटेछोटे प्रसंगों को नया अर्थ दिया जा रहा है-


पर्दा ही बेपर्दा करता अब तो रोज-रोज घर में


फैल रही है कूल्हा-कल्चर अब तेजी से मंजर में


इस शेर में रामकुमार कृषक ने स्त्री आधुनिकता के उत्कर्ष की विसंगतियों से साक्षात्कार कराने का प्रयास किया है। महानगरीय जीवन शैली का अतियथार्थवादी शैली में चित्रण किया है मान लिया स्त्रियां घर की जड़ता और भावुकता तथा ऑब्सेशन से मुक्त होना चाहती हैं। ऐसा होना भी चाहिए। स्त्री की भावना का सम्मान होना चाहिए। देह के स्तर से भी मुक्त होना चाहिए लेकिन यह भी ख्याल रखना होगा कि स्त्री मर्यादा का अतिक्रमण न हो। देह की स्वतंत्रता का यह मतलब तो नहीं कि महफिलों में जाकर ठुमके लगाकर अंग प्रदर्शन किया जाए। पाकिस्तान की शायरा सारा शुगुफ्ता ने सही कहा है, 'औरत का बदन ही उसका वतन नहीं होता, वह कुछ और भी होता है।'


समकालीन परिवेश में कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो स्त्री की खुली दृष्टि और उसका आत्मज्ञान तथा समय को अपने भीतर समेट लेने की भावुकता ने काफी जोर पकड़ा है जो हमें रोमांचित करता है तथा यहां की सभ्यता और संस्कृति की गंध मिलती है लेकिन इस गंध के पीछे कहीं न कहीं उत्तर आधुनिकता की दृष्टि भी प्रकट हो जाती है। इस दृष्टि का विरोध भारतीय संस्कृति के संदर्भ में प्रायः किया जाता रहा है। स्त्री स्वभाव से अति कोमल और संवेदनशील होती है। उत्तर आधुनिकता की परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाए रखना या उसकी मुक्ता अवस्था कहीं न कहीं उसके भावात्मक विचार को प्रभावित कर ही देती है। स्त्री की आधुनिकता अपनी अंतर्निहित असंगतियों और कभी-कभी अपनी कष्टदायी आदिमता के कारण एक लाक्षणिक संकेत की भूमिका भी अदा करती है जिसकी व्याख्या अनिवार्य व संभव हो जाती है।


कांच का बस एक घर है बेटियों की जिन्दगी


और कांटों की डगर है बेटियों की जिन्दगी


इस नई तकनीक ने तो है बना दी कोख भी


आह कब्रिस्तान भर है बेटियों की जिन्दगी -डॉ श्याम सखा श्याम


परंपरावादी गजलें जो स्त्री के संदर्भ में लिखी गईं हैं, विवादास्पद हैं। उनमें स्त्रीहित की अनदेखी की गई है। उनमें सौंदर्य, लोकरहित तथा मांसल सौंदर्य की ही अभिव्यक्ति मिलती है। सामान्यवर्गीय स्त्री की व्यक्तिगत चेतना का आभास मिलता है। समकालीन हिन्दी गजलों में समसामयिक सत्य की अभिव्यक्ति एवं स्त्री के नवस्वच्छंदतावादी धरातल पर विचारधारात्मक सांस्कृतिक समाजवाद की उम्मीद मिलती है। ऐसा इसलिए है स्त्री जीवन समष्टिमूलक न होकर व्यष्टिमूलक है जो नवस्वच्छंदतावाद से अनुप्राणित है। एक ओर जहां उसकी सांस्कृतिक और सामाजिक झांकियां मिलती हैं,उसके परिवेश के नीति-नियम, आदर्श, आस्था, अनास्था, परंपरा और प्रवृतियों का परिचय मिलता है वहीं दूसरी ओर यांत्रिक विकास में आजादी के पश्चात सामान्य वर्ग में उत्पन्न मधुर आशा-आकांक्षाओं को पूरी करने की उत्साहपूर्ण लालसा भी मिलती है। जाहिर है स्त्री में घर से निकलने की छटपटाहट बढ़ी है। इस छटपटाहट को वर्तमान समाज में समझने के लिए स्त्री के भीतर प्रवेश करना होगा।


__ हिन्दी गजल का प्रचलन भारतेन्दु से आरंभ होता है। नए-नए अंदाज में उन्होंने अपनी बात कही। बावजूद इसके हिन्दी गजल का मुकम्मल नक्शा तैयार करने वाले भारतेन्दु स्त्रीहित में अपनी बातें कहने में असफल रहे। अपनी तन्हाइयों और वीरानियों तथा स्त्री की जुल्फों के पेचोखम में ही उलझकर रह गए। उर्दू-फारसी प्रभाव से अपनी गजलों को मुक्त नहीं कर सके। हो सकता है स्त्री के उद्भव और परवर्ती विकास को निश्चित इतिहास बनानेवाली सामाजिक उथलों-पुथलों से जोड़ने का प्रयास उन्होंने नहीं किया हो...।


उठा के नाज से दामन भला किधर को चले


इधर तो देखिए बहरे खुदा किधर को चले


गया जो मैं कहीं भूले से उनके कूचे में


तो हंसके कहने लगे हैं रसा किधर को चले


इसी बीच जिन्दगी और समाज के मायने तलाश करने वाले गजलकार दुष्यंत कुमार का हिन्दी गजल में प्रवेश हुआ। उन्होंने हिन्दी गजल को एक नया मोड़ दिया। उन्हें अपनी भाषा, सभ्यता और इतिहास से काफी लगाव था। उनकी सारी गजलें अनुभव की गतिमयता से संबंधित हैं जो एक अनिवार्यतः अपरिसीमित, अमूर्तरेगिस्तानी सा अनुभव जो अपने, अन्य तथा घटना की प्रतीक्षा के लिए विश्वस्त खुला और समर्पित होता है। उनका दौर मूलतः राजनीतिक संकट से गुजर रहा थाराजनीतिक संकट के बीच भी अन्य समस्याओं का जो विचार और भावना के बीच मस्तिष्क और हृदय के बीच, सत्य और आवेग मूर्त था, विवेकपूर्ण ढंग से उल्लेख किया।


_हिन्दी गजल में स्त्री कई-कई रूपों में आई है। एक ओर जहां घर की चौखट लांघने पर प्रतिबंध है वहीं दूसरी ओर रैंप पर अंगप्रदर्शन करती महानगर की स्त्री है। समकालीन स्त्री एक व्यास की तरह है और अनेक व्यास की तरह भी। हर पल इसमें कुछ न कुछ जुड़ता चला जा रहा है। यह जुड़ाव कई अन्तरविरोधों को जनम भी देता है जिसमें परुष चिंतनपरंपरा वर्तमान बनकर प्रकट होती है। इन अन्तरविरोधों पर पर्दा डालने या उन्हें डाइल्यूट करके दिखाने का काम पुरुष समाज करता आ रहा है। स्त्री संबंधी अधिकांश समस्याएं, जो आज अत्यधिक जटिल रूप में हमारे सामने है, वह सब परंपरा की देन है


लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे


आज सैय्याद को महफिल में बुला लो यारो -दुष्यंत कुमार


जीवन की वर्जनाओं, धर्म की प्रतिबद्धताओं और कामी पुरुष की एक प्रतिमा है जो घुलनशील भी है और प्रताड़नाओं की पहली कड़ी भी है। पुरुष समाज में स्त्री को अपनी इच्छा, अपनी भावना, अपनी भूमि, अपने अधिकार और स्वावलंबन पर कोई अधिकार नहीं है। वह सिर्फ पुरुष की दासी और कामइच्छाओं के लिए बनी हैउसका यह बनना ही क्रूरता और दासता का संकेत देता है। हिन्दी गजलकारों ने स्त्री के इन रूपों को गंभीरता के साथ लिया है। प्रेम जो सिर्फ मांसलता और रससौंदर्य पर आधारित है उसे वर्जित मानते हुए हद तक प्रतिवाद किया है। ऐसे यह स्पष्ट है कि समकालीन समाज को स्त्री सब्जेक्ट की किसी न किसी क्षेत्र में जरूरत होती है। जहां पर उसका अपना विवेक निर्णायक होता है और उसकी क्षमताएं नए यथार्थ को जन्म देती हैं। बौद्रीआ लिखते हैं। इस विराट प्रक्रिया में जब औरत फैशन का केन्द्र बनती है तब समूची दुनिया ही औरत को मुक्त सेक्स और फैशन को भोगने लगती है, जिस तरह एक मजदूर बाजार में अपना श्रम बेचने की प्रक्रिया में अपने आपसे बेगाना होने लगता है। मार्क्स के अजनबीपन की अवधारणा 1844 को आर्थिक दार्शनिक पांडुलिपि उसी तरह औरत फैशन में आकर अपने आपसे अलग अजनबी हो जाती है फिर अपनी देह से अजनबी हो जाती है। वह सौंदर्य से आनंद सिद्धांत की तरह अपनी देह से बेगानी हो जाती है। वह उसकी देह नहीं होती जो दिखती है। देह शोषण देह की दुकानदारी बन जाता है।


दरअसल यह एक नई भावनात्मक अथवा संवेदनात्मक संजाल की अवस्था है जिसमें स्त्रियां आसानी से फंस जाती है।


आज किसे फुरसत है जाकर पूछे दुनियावालों से


घर की जीनत बेघर होकर क्यों आयी बाजारों तक -माधव कौशिक


आधुनिक समाज बाजारवाद और नई तकनीक के चंगुल में फंसा हुआ है। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में उभरता मनुष्य का बेसहारापन, अकेलापन, जीवन की असंगता, निरर्थकता, विज्ञान और बाजार के सहारे व्यक्तित्व का निर्माण। बाजार और आदर्श के बीच परस्पर द्वन्द्व है। आज बाजार भारी पड़ रहा है। शरीरजन्य और शुचिता के परंपरागत सामाजिक-नैतिक आदर्श वर्तमान परिदृश्य में गौण होते जा रहे हैं-बाजार समाज के परस्पर द्वन्द्व को चन्द्रसेन विराट इस प्रकार व्यक्त करते हैं-


रावण हूं राम द्वारा उध्दार ही न होता


सीता को विवशता में हरना पड़ा मुझे


बाजार एक विलक्षण मायालोक है जिसमें प्रायः स्त्रियां ही फंसती हैं। स्त्री समकालीन गजलकारों की काव्य संवेदना है जो उनकी गजलों में आती रहती है। यह स्त्री चित्रण नि:संदेह अंतर्वस्तु और शैली दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण है-


यहां शोलों से सीता को परखने की रवायत है


कहां पाकीजगी का रास्ता ले जाएगा हमको -बी आर विप्लवी


नेकी और खिदमत में जिसका है नहीं कोई जवाब


क्यों उसी औरत की खातिर बन गई दुनिया अजाब -दरवेश भारती


हिन्दी गजलकार हुस्न और इश्क की बारीकियां तो समझते हैं लेकिन प्राथमिकताएं रचना और विचार का एक नया गवाक्ष खोलती हैं। स्त्री की बुनियादी प्रकृति और उसका यथार्थ अपने चेतनमानस और भौतिक जगत से अलग करके देखने की लालसा का निषेध मिलता है। यह सच है आज महानगर की स्त्रियां अपनी शक्तियों और गुणों के विकास की प्रक्रिया के पथ पर आगे बढ़ रही हैं। समय में जीवन की गति अधिकाधिक तीव्र होती जा रही है। दूसरी ओर ग्राम्य संवेदना और अशिक्षित स्त्रियां हैं जो पुरुषों के द्वारा खींची गईं सीमा रेखा के अन्दर अपनी विशाल दुनिया को देखती है। उनका पूरा समर्पण अपने पति और घर की चौखट तक आकर समाप्त हो जाता है। प्रताडना की गंध भी बाहर नहीं निकलती है। उसी छोटी सी दुनिया में दम तोड़ने के लिए विवश हो जाती है।


सिवाए मां के दुनिया में कोई हो ही नहीं सकती


जो अपने हिस्से का लुकमा भी बच्चे को खिलाती है -सुशील साहिल


धड़कनें फिर से कहीं ठंडी हुई


चांद का चूंघट उठाकर देखिए


नाम बहुत हो आया उनका जिनको अपना नाम दिया


अपने कठिन बुढ़ापे में फिर क्यों रहती गुमनाम है मां - अंजनी कुमार सुमन


आपा धापी के इस दौर में हिन्दी गजल की संवेदना स्त्रियों के पक्ष में विचारधारात्मक तथा सांस्कृतिक वातावरण निर्माण करती है। एक ऐसा वातावरण जिसमें स्त्री पुरुष एक दूसरे पर समान अधिकार के साथ निर्भर होते हैंऐसा कदापि नहीं-


काट रही है सब्जी वो या काट रही है अपने दिन


सच्चाई तो चाकू जाने या जाने बेचारी मां -प्रेमकिरण


(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार है)