कथाकार गोविन्द मिश्र एवं श्रीकांत वर्मा की कहानियों का तुलनात्मक अध्ययन

आलेख


डॉ बृजेश कुमार बैन


उक्त दोनों कथाकारों की कहानियों में भावनात्मक उबाल है जो किसी भी लेखक की सर्जनात्मक लेखन की श्रेणी में आता है। हिंदी कहानी की अब तक की यात्रा ने तो एक बात की तो पुष्टि की ही है कि कहानी वह घटना नहीं जो घटित होती है बल्कि उस घटित के पीछे जो है वही असली कहानी है।


गोविन्द मिश्र की कहानी "पगला बाबा" एवं श्रीकांत वर्मा की कहानी शवयात्रा" लगभग एक ही धरातल पर मिलती जुलती विषय वस्तु पर लिखी गई है।


वर्मा जी की कहानी "शवयात्रा" में इमरती बाई नाम की वेश्या की शवयात्रा का बड़ा सजीव वर्णन है। वह मरी तो उसका शव उठाने वाला कोई नहीं था एक पुलिस के हवलदार की पहल पर म्यूनिसिपोलिटी की मैला ढोने वाली भैंसागाड़ी का गाडीवान वंसीलाल उस शव को ले जाता है


शव चारपाई पर रखा हुआ था। किसी ने उस पर चादर भी नहीं उड़ाई थीवंशी इस कोठरी में पहली बार आया था और अंदर घुसते हुए उसे हल्की सी कचोट भी हुई। इमरती को उसने पहली बार देखा था और उसने मंसूबा बना रखा था कि एक न एक दिन वह वहां जाएगा। गोरी गुलाबी देह और बदन जो इतना चल चुकने के बाद भी कसा हुआ लगता था मगर वह जा कभी नहीं सका, इतने पैसे नहीं आए। 171 इमरती बाई का रेट ऊंचा था इमरती का मुंह बिल्कुल विकृत हो गया था और होंट कुछ खुले हुए थे। उसका यह रूप देखकर उसे कुछ दुःख हुआ वह मुर्दे छोड़ने में अभ्यस्त था लेकिन आज उसने अपनी गंदी गाड़ी को धोया। लाश के पास दस-बीस आदमी इकट्ठे हो गये थे। उसने दो लोगों की सहायता से शव को गाड़ी में आधा लिटा दिया। कंधे पर ली गमछी को शव के सिरहाने तकिया सा बनाकर रख दियाउसके जेब में सात रुपये थे, जो उसकी अपनी तनखाह से बचाकर रखे थे। उन रुपयों की रोजगारी रखकर वह वापिस आया और गाड़ी पर बैठकर सिक्के फेंकता जाता और राम-नाम सत्य है कहता जाता। आगे चलकर उसने फूल-माला खरीदी बाजे वाले को बुलाया, बाजा बजता जाता और इमरती बाई की शवयात्रा चलती जाती।


___ गंतव्य पर पहुंचकर भीड़ घट गई थी, बिल्कुल अकेला और कहीं कोई नहीं था। केवल उसकी गाड़ी का पहिया बोल रहा था।


मरघट में घुसते हुए उसे भांय-भांय सा लगा वंशीलाल ने गाड़ी मरघट के चौकीदार के घर के सामने रोक दी। चौकीदार ने रजिस्टर खोलते हुए पूछा कौन आया है? जलाना है? दफनाना है?


नाम


इमरती बाई


उम्र


बत्तीस साल


पति का नाम? चौकीदार ने अपनी निगाह उठाते हुए सवाल किया वह कुछ रुका, इधर-उधर देखा जैसे कोई सुन तो नहीं रहा फिर कहा, वंशीलाल बाल्मिकीऔर उसने हाथ बढ़ाकर दस्तखत कर दिया। बाहर आकर संभालकर उसने शव उतारा। धोती उस पर पूर्ण तरह ढक दी फावड़ा उठाकर गड्ढा खोदने लगा।


श्रीकांत वर्मा की कहानी शवयात्रा के कथानक से मिलती जुलती कहानी 'पगला बाबा' गोविन्द मिश्र द्वारा लिखी गई है। गोविंद मिश्र की इस बहुचर्चित कहानी की वस्तु निम्न प्रकार से है,-पगला बाबा बनारस में मणिकर्णिका घाट पर रहते हैं मणिकर्णिका के विषय में लोगों का ऐसा विश्वास है कि बाबा विश्वनाथ की नगरी में प्रणांत हो, मणिकर्णिका घाट में दाह मिल जाये तो सीधी मुक्ति। "पगला बाबा" भी मृतक को मुक्तिधाम पहुंचाने का एवं लावारिस शव की अंत्येष्टि का काम करते हैं। कहते हैं यह बड़े पुण्य का काम है। पगला बाबा की दिनचर्या ही यह है उन्होंने शेष जीवन को इसी काम में लगाने का संकल्प किया है लेकिन पगला बाबा की बात और है। वे कहीं खड़े हुए और घंटी टनटनायी नहीं कि कोई कुछ कर रहा हो, कह सुन रहा हो, यहां तक कि अगढ़ ही क्यों न रहा हो, थम जाता है। लोगों के सामने उनका एक ही रूप घड़ी सा शरीर गेंदे के मोटे-मोटे फूलों से लदा, कमर से नीचे झूलता लाल रंग का गमछा नीचे लंगोट... चेहरे पर बिखरी खिचड़ी दाढ़ी, माथे पर भभूत और सिर पर दूल्हेवाला मौर। एक हाथ में घंटी और दूसरे में भिक्षापात्र पगला बाबा... फुसफुसकर इधर से उधर दौड़ जाती है गाड़ी लोग रुपये पैसे पात्र में डाल प्रणाम करते हैं। पगला तेज कदमों से आगे बढ़ जाता है।.... एक दुकान के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, रुपये पूरे हुए कि पलटे और फड़फड़ कपड़े वाले की दुकान।


घंटी और फिर उंगलियां उठा दी एक या दो कफन का कपड़ा हाथ आते ही पगला बाबा दोगुनी रफ्तार से भागते हैं।.... सड़क पार गलियों-नालियों को लांघतेफांदते वहां जहां उनकी ठिलियां पड़ी होती हैं।.... पास में कोई शव ठिलिया पर शव को लिटाया, कफन ओढ़ाया अपना एक गजरा तोड़कर फूल बिखेर दिये और ठिलिया ढिनगाते चले मणिकर्णिका घाट। बीच में सिर्फ एक ही पड़ाव थाने में कागज बनवाने के लिए। वहां की घंटी बजी कि सिपाही दौड़ा चला आया है, खुद ही जाकर डॉक्टर से पर्ची कटा लेता है। तब तक पगला बाबा दीगर सामान खरीद लेते हैं। मणिकर्णिका घाट पहुंचकर शव को गंगा स्नान कराते हैं और पूरे सम्मान और विधि विधान से दाह पश्चात ठिलिया ढिन गाते... हुए वापस बस्ती में आंखें खोजती हुई कहां मौन मृत उपेक्षित पड़ा है।


___ चक्कर-चक्कर बस्ती से घाट, घाट से बस्ती.... सहसा पगला बाबा को ध्यान आया कि साल के ऊपर हो गया वे मंदिर नहीं गये थे। लोग कितनी दूर-दूर से दर्शन को आते हैं और वे हैं कि.... जी कलप उठा!... मौन अपराध हुआ, प्रभु को विसार दिया कल उठकर पहले मंदिर ही जायेंगे। सबेरे से ही चकरी चिकिर-चिकर करने लगती है....भाग...भाग... उजियारे-उजियारे जितने पार लगा जाये। जाने किस-किस कोने से पुकार उठाती है- एक के बाद दूसरी के बाद तीसरी.... कि सब कुछ बिखर जाता है, रात-रात उतरते-उतरते दम ही नहीं बचता। कैसा काम दिया प्रभु...।


विश्वनाथ की शरण में रहकर उन्हें लगने लगा कि -क्या पेट भर लेना ही अब और इति था? ये तो कोई काम नहीं। बाबा की देहरी पर पड़े रहना तो ठीक लेकिन परजीवी होना? ऐसे ही एक दिन मणिकर्णिका घाट पर बैठे थे। हर दिशा से शवयात्राएं आ रही थीं... एक के बाद एक... जैसे चारों ओर से छोटी-छोटी जल धाराएं बड़ी धारा से मिलने बढ़ी चली आ रही हों। अंतिम यात्रा सभी... फिर भी कितनी अलग-अलग किसी के पीछे गाना बजाना, उत्सव हो, किसी के पीछे भयंकर चीख चिल्लाहट जैसे प्राण उनमें खिंचे जा रहे हों जो पीछे छूट गये। कोई यात्रा अकेली उदास और वीराना, मात्र चार कंधे देने वाले... उनके चेहरे पर भी कुछ नहीं, शायद उनकी तरह का ही कोई फालतू था... जैसे आया, वैसे ही गया। भाई लोगों ने जल्दी-जल्दी दाह निपटाया और फिर मजे से किनारे बैठे बीड़ी धोंकने लगे उनके लिए वह.... हो गया वे उठे घाट के ऊपर दफ्तर में जाकर कागज बनवाया और हाल के सामने जा खड़े हुए। धेला पास में नहीं था। इसलिए केवल खड़े हो गये और उस शव की तरह इशारा कर दिया। लकड़ियां मिल गयीं। स्वयं बटोर कर लाये और चिता सजायी। अकेले ही शव स्नान करा चिता पर रखा... अग्नि देते समय उनकी आंखें छलछला आयी, आंसुओं के अवरुद्ध दृष्टि लपटों के पास आसमान के चौखटे पर.... अंधेरे का वह हिस्सा कैसा चमक-चमक उठता था। दाह जिस पर पगला बाबा का सिर टिका था, वह कुछ गीली-गीली लगी और इतने वर्षों बाद भी... भागते-भागते चूल ढीले पड़ गये, कब तक चलते रहना होगा....? उस शाम जैसे उन्हें अपना धर्म मिल गया थाजिसका कोई नहीं, उसका शव कोई संसारयात्रा का एक छोटा सा भाग जहां व्यक्ति अशक्त हो जाता है... मात्र निस्पंद देह... वहां उसे आगे की तरफ ठेल देना, पंचभूत पंचतत्वों को सौंप देना। वे पगला बाबा हो गये। कहां के थे, क्या नाम था, कौन जाति.... धर्म सब 'पगला' में डूब गया।


उक्त दोनों कहानियों के पास वंशीलाल एवं पगला बाबा का चरित्र मिलताजुलता है । वंशी ने एक वेश्या के शव को नि:स्वार्थ अंतिम यात्रा कराई पूरे संस्कारों सहित और पगला बाबा भी लावारिसों का दाह संस्कार किया करते थे। इस तरह से दोनों कहानियों में साम्य है। दोनों लेखकों ने अपने-अपने पात्रों को उनके कथानक के अनुरूप गढ़ा है। लेकिन उद्देश्य दोनों का अंतिम यात्रा में साथ देने का है।