हिंदी गजल अपनी पहचान बनाने के लिए निरंतर रचनारत है

आलेख


साहित्य में कुछ लोगों को कोई न कोई बहस जारी रखने का शौक ही होता है। स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श तो स्थायी मुद्दे हैं ही। कभी समकालीन कविता की एकरसता को लेकर टिप्पणी बहुत तल्ख हो जाती है। कभी गीत की मोनोटोनी को लेकर जी जलाऊ बयान आ जाता है। बहस चल पड़ती है। खूब ले दे मचती है और धीरे-धीरे बहस बंद हो जाती है।


हिंदी गजल को लेकर जब तब फिकरेबाजी की जाती है। कोई असहनीय फतवा दे दिया जाता है। तीखी बहस चल पड़ती है। व्यक्तिगत आक्षेपों तक बात पहुंच जाती है। व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो यह हिंदी गजल के हित में ही होता हैहिंदी गजल से संबंधित कुछ मुद्दों के दर्पणों की धुंध तो साफ हो जाती है। कुल मिलाकर यह शुभ ही होता है।


एक तबके से यह बयान आया था कि उर्दू गजल की सभी संभावनाओं को निचोड़ा जा चुका है। गजल का फार्म तो कबसे खर्च हो चुका है और उसमें कुछ नवीन की आशा शेष नहीं रह गई है। बोलने वाले बोलने को बोल जाते हैं बिना गजल लेखन की अद्यतन पड़ताल किये। सच्चाई यह है कि हर काल में शायर नई प्रतिभा के साथ उपस्थित रहा है और उसने उर्दू गजल की विधा में नया जोड़ा है। यह सिलसिला अभी भी जारी है, वरना प्रतिभा संपन्न शायर अन्य किसी विधा पर जोर 22 • प्रेरणा समकालीन लेखन के लिएआजमाइश शुरू कर देते। उन्हें तो समय का रस उड़ेलने के लिए सुपात्र चाहिए। वह उपलब्ध है इसलिए गजल सबसे अधिक लिखी जा रही है। अभी भी उर्दू कविता में गजल ही सर्वाधिक लोकप्रिय विधा बनी हुई है।


पिछले पांच सौ से अधिक वर्षों की अवधि में सुघड़, सुदर्शन तराशी हुई मूर्ति से आज की हिंदी गजल जो अभी निर्माणाधीन ही है, तुलना करना ही सिरे से गलत है। एक आधार पर स्थित वस्तुओं के कद की तुलना करना ही उपयुक्त होता है। उर्दू गजल और हिंदी गजल में एक ही आधार न होने के कारण तुलना करना ही सर्वथा असंगत है और अनुपयुक्त भी है।


_ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं को एक ही भाषा कहने की अनुपयुक्त उदारता दर्शाने वाले अथवा उर्दू को हिंदी की ही एक शैली कहने का बड़प्पन ओढ़ने वाले, हिंदी वाले ही हैं। उर्दू वाले न तो ऐसा मानते हैं और न ऐसा गलत सलत कुछ कहते हैं। उर्दू एक स्वतंत्र, हिंदी से पूरक भिन्न भाषा है। उसका व्याकरण है, लिपि है जातीय भाषायी संस्कृति है और उसके साहित्य का इतिहास है। उर्दू भाषा को लेकर शायर साहिर लुधियानवी के चिंता भरे बयान इस संबंध में याद किये जा सकते हैं।


ऐसी स्थिति मराठी गजल, गुजराती गजल एवं अन्य भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही गजलों को लेकर नहीं है। यह असंगति सिर्फ हिंदी गजल पर ही क्यों थोपी जाती है? दोनों भाषाओं की गजलों को एक मानने का ढोंग, एक बताने का पाखंड जाहिर हो जाता हैइसी आधार पर 'गजल को गजल ही रहने दो' वाला तर्क भी बेमानी सिद्ध होता है। तब तो हिंदी गजल लेखक को उर्दू के सबसे छोटे उर्दू गजल के शायर के पीछे खड़ा होना पड़ेगा। उर्दू शायर उसे वहां भी खड़ा होने का पात्र मानने को राजी नहीं होगा।


 अपनी स्वयं की भाषा का गुमान न रखने वाले जो हिंदी गजल के कवि हैं वे लिखते तो उर्दू की गजल है किंतु हिंदी गजल के कवि कहलाना चाहते हैं। वे हिंदी गजल के उन कवियों में जो हिंदी के प्रति जातीय आग्रह रखते हुए हिंदी की ही गजल लिखते हैं, भाषायी संप्रदायवाद ढूंढ़ निकालते हैं। हिंदी गजल को 'शुद्ध हिंदी गजल' बनाने की कसरत करना कहते हैं। हिंदी गजल में कम से कम हिंदी तो बची हुई है। बकौल उर्दू शायरों के हिंदी वालों की उर्दू गजलों में न तो उर्दू है और न हिंदी। ऐसी वर्णसंकर गजल और उसका मिजाज उन्हें ही मुबारक हो।


__ याद किया जा सकता है कि दुष्यंत कुमार को (कुछ अशआर छोड़कर) भोपाल के उनके समकालीन शायरों द्वारा दाद नहीं दी जाती थी। उनके हिंदी के शेर तो खैर क्या दाद पाते, उर्दू के शेर भी, 'नामुकम्मल' कहकर नजर अंदाज कर दिये गये थे। उनके द्वारा कह दिया जाता था कि जो गजल कहने की विशिष्ठ 'तमीज होना चाहिए वह नहीं है।


ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि कोई हिंदी कवि ठेठ उर्दू की गजल लिखे और चाहे कि वह हिंदी गजल मानी जाय तो यह विडंबना ही कही जाएगीअगर यह स्वीकार्य होता तो रघुपति सहाय फिराक की उर्दू की गजलें हिंदी की गजलों में शुमार होतीं। इसी तर्क के प्रकाश में साहस के साथ यह कहा जाना चाहिए कि दुष्यंत कुमार की भी सब गजलें हिंदी की गजलें नहीं हैं।


साहित्य की केंद्रीय विधा कविता रही है और शायद इसीलिए साहित्य का प्रतिनिधित्व वह हर काल में करती आयी है। हिंदी काव्य में छायावाद के समय से यह काम गीत करता आ रहा है। इस जिम्मेदारी को वहन करते हुए सबसे अधिक प्रयोगाधीन गीत की ही विधा रही है।


गजल भी गीत रचना है। गजल भी गीत परिवार की ही सदस्य है। गीत के वंशवृक्ष की ही एक शाखा है वह सर्वथा गीतधर्मा विधा है। गीत की प्रयोगाधीन केंद्रीय विधा में गजल को स्थान मिलना कोई अजूबा नहीं है। इस संक्रमणकाल में गीतकाव्य के तत्व साहित्य और जनरुचि के बीच गीत और गजल के माध्यम से सेतु निर्माण का कार्य करते हैं। गजल के युगबोध की काव्यात्मक अभिव्यक्ति एवं अभिव्यक्ति का सामान्यीकरण अधिक सशक्त हो सकने की संभावना के कारण उसका प्रचलन बढ़ा है।


___ परंपरा गजल की कहन एवं बंधे बंधाये कथ्य से हटकर नये नये क्षितिजों पर बिखरी काव्यात्मक अनुभूतियों को अपनी विशिष्ट भंगिमा के साथ प्रस्तुत करती हुई हिंदी गजल आज मयखाने से बाहर आकर खड़ी है और आज के विद्रूप समय से रूबरू हो रही है। आज हिंदी गजल अपने मूल स्वाद सांस्कृतिक पीठिका और निजी अस्मिता के लिए संघर्षरत है। यह उसका संघर्ष शब्द, शैली, कथ्य और लाक्षणिकता के स्तर पर निरंतर जारी है।


मुद्रण प्रकाशन की बहुलता, अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा आदि ने हिंदी गजल की विधा को अकूत हानि भी पहुंचाई है। अत्यधिक सरल समझ ली गई इस अत्यधिक कठिन विधा के अत्यधिक लेखन एवं कमजोर रचनाओं के प्रकाशन ने भी इसे नकारात्मक आलोचना का पात्र बनाया है।


___ इस बाढ़ में कूड़ा, कचरा, शैवाल सब बहकर आ रहा है। बाढ़ जब उतरेगी तो मुख्य धारा में स्वच्छ निर्मल जल ही बहता मिलेगा। सब अवांछनीय तत्व किनारों पर ही छूट जायेंगे।


हिंदी की देवनागरी लिपि में यह अनिवार्यता है कि वह जैसी लिखी जाए, वैसी ही पढ़ी जाए। इसी अनिवार्यता के अनुकूल 'मात्रिक छंद' खड़ी बोली हिंदी की प्रकृति के सहज एवं त्रुटिहीन उच्चाहरण की दृष्टि से अधिक ग्राह्य है। उर्दू में ऐसा नहीं है। बोल चाल में व्यवहृत और संभाषण में प्रयुक्त उच्चारण उर्दू की काव्य भाषा में मान्य हैं। इसी कारण उसमें मात्रा गिराकर उच्चारण करने का प्रावधान है। हिंदी और उर्दू में पद्य की लय निर्धारण हेतु उक्त प्रावधानों सहित अलग-अगल पद्धतियां हैं। दोनों की अपनी विशेषताएं हैं तथापि उनके गुण दोषों पर चर्चा करना केंद्रीय विषय से विचलन होगा। उर्दू पद्धति से लय निर्धारित करते हुए लिखना यानी 'बहर' में लिखना कदापि आपत्तिजनक नहीं है। इसी तरह मात्रिक छंदों में लिखना भी वर्जित नहीं हो सकता। मैंने ही लिखा है 'बहरों में भी लिखो मुक्तिका (मेरे द्वारा प्रस्ताविक हिंदी गजल का नाम) छंद मात्रिक हो तो अच्छा।'


हिंदी गजलकारों पर बहरों की अशुद्धता का दोष सबसे अधिक लगाया जाता रहा है। कोई कवि उससे बच जाए तो 'गजलियत का अभाव' अथवा 'तगज्जुल नहीं है' के रामबाण से नहीं बच सकता।


छन्दानुशासन कोई भी प्रयुक्त हो, हिंदी गजल की श्रेष्ठता उसकी विषयवस्तुशब्द शक्ति, कथन की कलात्मक वक्रता, अद्वितीय अनूठापन, हिंदी का मूल प्राकृतिक स्वाद, विशिष्ट भंगिमा, तीक्ष्ण अनुभूति की कौशलयुक्त चमत्कारिक अभिव्यक्ति ही निर्धारित करेगी। यह सब आते-आते ही आता है। प्रसन्नता है कि हिंदी गजल में यह आया है और आता जा रहा है।


___ पाँच सौ सालों से अधिक की अवधि के उर्दू के 'मास्टर पोयट्स' के काम के मुकाबले में हिंदी के दो ढाई दशक के कार्य को रखते हुए उसे उर्दू गजल के बाटो से तौलना और एकतरफा निर्णय देने की जिद करने की जरूरत क्या है? बिना पूरी सुनवाई किये जल्दबाजी में फैसला देना न विधा के साथ न्याय होगा और न साहित्य के साथ।


वस्तुतः गजल (अरुज अथवा पिंगल शास्त्र के अनुसार) एक विशिष्ट छंद प्रकार है। उसका गीतितत्व सांगीतिकता, वक्रोक्तिपूर्ण अनूठी कहन और प्रत्येक शेर में मुक्तता (विषय वस्तु के संबंध में) उसका वैशिष्टय है। छंदगत रूपांकन की रक्षा करते हुए उस सुंदर सुघड़ प्याले में हिंदी का रस ढाला जाए, यह हिंदी गजल का लक्ष्य होना चाहिए। यह पूरी क्षमता के साथ हो रहा है तथापि प्राथमिक तौर पर उसे अक्षम और असिद्ध बताकर कोसना तथा हीनभाव से ग्रसित रहना आवश्यक नहीं है। यहीं उसे बढ़-चढ़कर बताना और उपलब्धियों को गिनना भी आवश्यक नहीं है।


__हिंदी गजलों को समकालीन कविता का कथ्य संजोने वाली विधा बताकर नई कविता की सहानुभूति बटोरने की चालाकी सब काव्य रसिकों की समझ में आती है। नई कविता द्वारा आयातित उत्तर आधुनिकता वाली चिंता हिंदी गजल भी ढोये तो यह उसका नई कविता का पिछलग्गूपन नहीं होगा क्या? भारत में भर्ती अभी ठीक से आधुनिकता ही रची बसी नहीं है तो उत्तर आधुनिकता की नकली चिंता जताना कौन काव्यप्रेमी पसंद करेगा?


मैं यह नहीं कहता कि हिंदी गजल ने बड़ा तीर मार लिया है इसलिए उसकी आरती उतारना चाहिए। दूसरी ओर हिंदी में गजल अनैसर्गिक है, 'हिंदी भाषा गजल की भाषा हो ही नहीं सकती', इसलिए 'उर्दू गजलों से ही संतुष्ट रहना चाहिए।' वाले जुमले उछालने वालों को दोबारा सोचना चाहिए कि उनका यह आत्मघाती विचार उन्हें ही ले डूबेगा।


उनके ऐसे हानिकारक असाहित्यिक कथनों से आतंकित होकर यह हिंदी गजल अपनी प्रयोगधर्मिता ही छोड़ बैठे तो यह आत्मघाती कदम होगा। उनके ऐसे कथनों को सच मान ले हिंदी गजल तो उसके लिए करणीय कुछ भी शेष नहीं रह जाएगा। ऐसे ऊटपटांग बयान देने वाले स्वयं ही हीनभावना से ग्रसित होकर उर्दू गजल से आतंकित रहते हैं। उनके चरण चिन्हों पर ही चलते हैं, नई राह खोजने की हिम्मत ही नहीं करते हैं और जो हिंदी की नई लेखनियां ऐसा करती भी हैं तो उन्हें निरुत्साहित करने का अक्षम्य अपराध करते हैं। गजल की छंदयोजना, शिल्प संरचना एवं कलागत रूपांकन को तकनीकी दृष्टि से पूरी तरह समझ बूझकर आत्मसात करके उसे हिंदी की पीठिका पर भाषागत मूल प्राकृतिक हिंदीपन के साथ शिल्पगत, भाषागत एवं अर्थगत सावधान प्रयोगों के आयामों को स्पर्श करने की ललक एवं सही रचनात्मक छटपटाहट के साथ स्थापित करने के यत्न लगातार जारी रहना चाहिए।


मेरी आकांक्षा है कि हिंदी गजल वह गीति रचना हो जो उर्दू की छंद योजना रूपाकार से परहेज न करते हुए अपनी विशिष्ट हिंदी काव्य परंपरा से उद्भूत, आधुनिक मनुष्य की सभी संवेदनाओं को समेटती हुई अपनी मूल हिंदी प्रकृतिस्वभाव, लाक्षणिकता, ठेठ स्वाद एवं पूर्व पीठिका से संबद्ध वह मौलिक संस्कारजन्य रचनाधर्मिता युक्त काव्य का प्रभावी प्रयोग हो जिसकी अपनी स्वयं की निजी पहचान हो।


साहित्य में समानान्तर चल रही उर्दू गजल की पदचाप हिंदी गजल के कानों में भी पड़ती है। यह स्वाभाविक है, उसमें कोई अजूबा नहीं। किंतु हिंदी कविता के मूल स्वाद की चिंता हिंदी गजल करे यह अपेक्षा उससे हमेशा की जाती रहेगी। उर्दू गजल से विलगता. विचलन, सार्थक वैभिन्य और टटका अलगाव उसकी पहचान बनाने में मदद करेगा।


रचना के कई स्तरों यथा शब्द, शिल्प, कथ्य, प्रतीक, बिंब-योजना और अर्थ संयोजन के माध्यम से वह अपनी अस्मिता रेखांकित करने में लगी हैं। आज हिंदी गजल अपनी पहचान बनाने के लिए निरंतर रचनारत रहकर प्रयत्नशील है।