गजल लेवन की बुनियाद

आलेख


डॉ. श्याम सरवा श्याम


छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना'। यह आह्लाद वर्ण या मात्रा की नियमित संख्या के विन्यास से उत्पन्न होता हैइस प्रकार, छंद की परिभाषा होगी 'वों या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'। छंद का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। जिस प्रकार गद्य का नियामक व्याकरण है, उसी प्रकार पद्य का छंद शास्त्र है। यह मात्रा गणना या तक्तीअ जहां छंद की नींव है वहीं गजल सीखने वालों को यह एक बवाल या कठिन असाध्य लगती है लेकिन थोड़े धैर्य से यह आसान लगने लगेगी।


छन्द या उरूज भार या वजन या मात्रा से पहचाने जाते हैं। मात्रा, मिकदार, वजन, वेल्यु, क्वांटिटी, मापनी, तोलन या तकतीअ सब एक ही चीज हैं।


भारतीय वांग्मय में पल को भी शब्द उच्चारण से मापा गया है यथा 10 दीर्घ मात्रिक स्वर या वर्ण बोलने में जितना समय लगता है उसे एक पल कहा जाता है। स्पष्ट किया गया है की दीर्घ मात्रिक वर्ण यानी लघु व दीर्घ मात्रिक वर्ण के उच्चारण में समय का अंतर है। बस यही अन्तर समझ आया और आप को छंद या गजल उरूज बाएं हाथ का खेल नजर आने लगेगा। और आप खेल खेल में गजल लिखने लगेंगेआइये देखते हैं इस खेल को। तो यह मात्रा है समय। किसी स्वर वर्ण को बोलने में जो समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं। कम समय लगता है तो लघु यानी एक मात्रा (1/1), अधिक समय लगता है तो गुरु यानी दो मात्रा (2/5)। एक मात्रा के लिए। चिह्न और दो मात्रा के लिए ऽ चिह्न भी प्रयुक्त किया जाता है।


1-एक मात्रा- जिन वर्गों में अ, इ, उ स्वर या इन स्वरों की मात्राएँ होंगी, वे एक मात्रा वाले होंगे, जैसे -


अ= कमल (111), अब (11)


इ = इधर (111), किधर (111)


उ = उधर (111), पुल (11)


2-दो मात्राएं- जिन वर्गों में आ, ई, ऊ, ए ऐ, ओ, औ स्वर या इन स्वरों की मात्राएं होंगी, वे दो मात्रा वाले होंगे, जैसे


आ = 2=आना, गाना=-22=4, नाता=22 आया =22


इ = इधर (111), किधर (111)


ऊ = ऊपर-2 11, फूल =2 1


ए = 2= एक = 21 एकता-212, वेश -21, जैसे (ज+ए+श्+ए)-22


ऐ = 2= ऐनक-211, नैन (न+ऐ++अ)21


ओ = ओझल-211, मोहन (म+ओ+ ह+अ+न्+अ)-211


औ = औरत-211, कौन (क्+औ+न्+अ)-21


3-अं और अः स्वर नहीं हैं; ये अयोगवाह हैं। इनके पहले भाग के उच्चारण में स्वर तथा बाद के भाग के उच्चारण में व्यंजन आता है।


 अंका उच्चारण है-अ+ (अनुस्वार), तथा अ: का उच्चारण है-अ+(:-विसर्गजिसका उच्चारण ह की ध्वनि के रूप में है।) इनकी मात्राओं में भ्रम बना रहता है । इसे सही रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है।


अ+ अनुस्वार=11=2, अंक =21, रंग (संज्ञा रूप)=21


ध्यान दीजिए कि 'कपड़ा रंग दिया' वाक्य में रंगना क्रिया का रूप है। अनुनासिक होने के कारण रंग में 11=2 मात्राएं होंगी।


हंस (पक्षी)=21, हंस (हंसना क्रिया का रूप)11=2, हंसी (संज्ञा) 12=3


धंसी, फंसी, कुंअर, कुंवर, गंठजोड़ में अनुनासिक वाले वर्षों की एक-एक मात्रा होगी।


4-व्यंजन की अपनी कोई मात्रा नहीं होती। यदि व्यंजन के आरम्भ में एक मात्रा वाला वर्ण हो तो उच्चारण के समय के कारण उसकी दो मात्राएं गिनी जाएंगी, जैसे-


कन्त= 21 (न् व्यंजन के कारण क की क्+अ+न्=2 मात्राएं)


यदि व्यंजन से पहले दो मात्रा का वर्ण है तो उसकी दो ही मात्रा रहेंगी


शान्त=21 (श्+आ+न्+त्+अ=2+1=3)


5-यदि किसी शब्द के आरम्भ में व्यंजन आया है, तो उसकी गणना मात्रा के रूप में नहीं होगी, जैसे -ध्यान, म्यान, म्लान, त्याग (इन शब्दों में 2+1=3 मात्राएं होंगी।) इनमें ध्, म् त् की कोई मात्रा नहीं होगी।


6 -क्ष ( क्+ष् +अ), त्र( त्+र+अ), ज्ञ (ज्+ ञ् +अ) व्यंजन न होकर संयुक्त व्यंजन हैं । इनसे पहले यदि एक मात्रा वाला वर्ण आता है तो एक मात्रा बढ़कर दो मात्रा वाला माना जाएगा।


कक्ष-=2+1 (क्+अ+क् +ष+अ)> (क्+अ+क् =2,ष्+अ=1)


कक्षा-=2+2 (क्+अ++ष+आ)> (क्+अ+क् =2,ष्+आ=2)


यज्ञ=21(य्+अ+++अ)>(य्+अ+ज्=2,ञ्+अ-1)


7-कुछ अपवाद-हिन्दी भाषा के बारे में बार-बार कहा जाता है कि हिन्दी में जैसा बोला जाता है, वैसा लिखा जाता है। इस बात से कोई असहमति न होने पर भी कहना चाहूंगा कि सब शब्दों के साथ ऐसा नहीं है। मात्रा का अर्थ बोलने में लगा समय बताया गया है। कुछ व्यंजन (न्,म् और ल्) ऐसे हैं कि वे 'ह' के साथ आने पर उच्चारण में कम समय लेते हैं। यही कारण है कि वे अपने से पहले वाले वर्ण को प्रभावित नहीं करते। निम्नलिखित शब्दों का मन ही मन उच्चारण करके आप सुनिश्चित कर सकते हैं-उन्हें, किन्हें, जिन्हें, तुम्हें = 1+2=3


तुम्हारा=122=5


कन्हैया 122-5


मल्हार= 1214


यो या यौ से पहले न् ह्, आने पर बन्यो कह्यो, पयों आदि में 12=3 मात्राएँ होंगी।


8 (क) 'य' से पहले 'न्' आने पर एक और 'न्' का आगम हो जाता है।


(ख) महाप्राण (ख्,घ्,ध्, भ्) आने पर इनके पूर्व के अल्प प्राण (क्,ग, द्, ब्) का आगम हो जाता है।


(क)-'य' से पहले 'न्'-उपन्यास (उच्चारण होता है उपन्यास) अन्याय (अ न्याय> उच्चारण अन्न्याय)


(ख)-य से पहले ख् > सख्य, घ्> अर्घ्य, ध्> अध्यापक (2211=6) , वैविध्य (221), मध्य । भ> सभ्य (21=3), अभ्यास (221=5), अलभ्य (121=4)


(इन शब्दों को ध्यान से उच्चरित करेंगे तो संक्ख्य, अग्र्घ्य, अध्यापक, वैविध्य, मध्य, सब्भ्य, अब्भ्यास, अलब्भ्य, यह उच्चरित रूप होगा। उच्चारण भिन्न होने पर भी मात्रा का वर्णन लिखित मात्रा से ही होगा)


9 -ऋ की एक मात्रा होती है, लेकिन सब स्थान पर ऐसा नहीं होता। हमें इसका व्यावहारिक रूप समझना चाहिए। कुछ व्यंजन के साथ जुड़ने पर इसकी मात्रा बढ़ जाती है।


कृपा में 12=3 और सुहृद में 111=3 मात्राएं


मार्मिक, धार्मिक-211(उच्चारण-मारमिक, धारमिक है, लेकिन वार्णिक छंदों में मात्रा की गणना में बदलाव नहीं है। पर वहीं इसे उर्दू उरूज में 212 गिना जाता है।


__ जो लोग खुद को हिन्दी गजलकार घोषित कर अज्ञानवश यह फतवा देते हैं कि हिन्दी गजल में मात्रा गिराना गलत है वे इस उदाहरण को ध्यान से पढ़ लें।


ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर छाछ पै नाच नचावें


यहां पै दीर्घ होते हुए भी गाते समय कम समय लगने से लघु या प की तरह गिना जाता है|इसी तरह एक और नियम है कि किसी लघु वर्ण के बाद संयुक्त व्यंजन आ जाने पर लघु की मात्रा बढ़ जाती है यथा सज्जा को ss दो गुरु माना जाएगा चित्र को SI को गुरु लघु पढ़ा माना जाता है।


स्व/दीर्घ/प्लुत उच्चार


संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएं पद्यमय हैं अर्थात् छंदबद्ध और गेय हैं। इस लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि इन रचनाओं को पढ़ते या बोलते वक्त किन अक्षरों या वर्णों पर जादा भार देना और किन पर कम। उच्चारण की इस न्यूनाधिकता को 'मात्रा' द्वारा दर्शाया जाता है।


• जिन वर्णों पर कम भार दिया जाता है, वे हृस्व कहलाते हैं, और उनकी मात्रा 1 होती है। अ, इ, उ, लु, और ऋ ये ह्रस्व स्वर हैं।


• जिन वर्णों पर अधिक जोर दिया जाता है, वे दीर्घ कहलाते हैं, और उनकी मात्रा 2 होती है। आ, ई, ऊ, लु, ऋ ये दीर्घ स्वर हैं।


• प्लुत वर्णों का उच्चार अतिदीर्घ होता है, और उनकी मात्रा 3 होती है जैसे कि, 'नाऽस्ति' इस शब्द में 'नाऽस्' की 3 मात्रा होगी। वैसे हि 'वाक्पटु' इस शब्द में 'वाक्य' की 3 मात्रा होती है। वेदों में जहां 3 (तीन) संख्या दी हुई रहती है, उसके पूर्व का स्वर प्लुत बोला जाता है।


• संयुक्त वर्णों का उच्चार उसके पूर्व आये हुए स्वर के साथ करना चाहिएपूर्व आया हुआ स्वर यदि ह्रस्व हो, तो आगे संयुक्त वर्ण होने से उसकी 2 मात्रा हो जाती है; और पूर्व अगर दीर्घ वर्ण हो, तो उसकी 3 मात्रा हो जाती है और वह प्लुत कहलाता है।


• अनुस्वार और विसर्ग-ये स्वसमझने के लिए कहा जाय तो, जितना समय ह्रस्व के लिए लगता है, उससे दुगुना दीर्घ के लिए तथा तीन गुना प्लुत के लिए लगता है ।


2 मात्रा होती है। परंतु, ये अगर दीर्घ स्वरों से जुड़े, तो उनकी मात्रा में कोई फर्क नहीं पड़ता (वह 2 ही रहती है)।


• हलन्त वर्णों (स्वरहीन व्यंजन) की पृथक् कोई मात्रा नहीं होती


• ह्रस्व मात्रा का चिह्न ।' है, और दीर्घ मात्रा का 'ऽ'।


• पद्य रचनाओं में, छंदों के पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पड़ने पर गुरु मान लिया जाता है।


समझने के लिए कहा जाय तो, जितना समय ह्रस्व के लिए लगता है, उससे दुगुना दीर्घ के लिए तथा तीन गुना प्लुत के लिए लगता है ।


नीचे दिये गये उदाहरण देखिए :


राम = रा (2) + म (1) = 3 याने 'राम' शब्द की मात्रा 3 हुई।


वनम् = व (1)+ न (1) + म् (0) = 2


मीमांसा = मी (2) + मां (2) + सा (2) = 6


मीमांसा = मी (2) + मां (2) + सा (2) = 6


पूर्ववत् = पूर्(2) + व (1) + व (1) + त् (0) = 4


ग्रीष्मः = ग्रीष् (3) + मः (2) = 5


शिशिरः = शि (1) + शि (1) + र: (2) = 4


कार्तिकः = कार् (2) + ति (1) + कः (2) = 5


कृष्णः = कृष् (2) + णः (2) = 4


हृदयं = ह (1) + द (1) + यं (2) = 4


माला = मा (2) + ला (2) = 4


त्रयोदशः = त्र (1) + यो (2) + द (1) + शः (2) = 6


आप देख रहे हैं कि वनम् एवम् पूर्ववत् शब्दों में अंतिम व्यंजन हलन्त् होने के कारण उसकी मात्रा गिनी नहीं जाती।


__ कुछ इसी तरह उर्दू के शेर में अंत में लघु आजाने पर व मात्रा गिनी नहीं जाती वर्णिक छन्द-में वर्ण की व्यवस्था प्रमुख होती है। कुछ छन्द ऐसे हैं जिनमें केवल वर्ण की संख्या ही महत्वपूर्ण होती है, कुछ में वर्ण का क्रम (लघु/गुरु मात्रा)विशेष स्थान रखता है। इनका संयोजन गण के नाम से होता है। प्रत्येक गण तीन निश्चित मात्राओं का समह होता है। आठ गणों को जानने के लिए यह सत्र है-यमाताराजभानसलगा। इस सूत्र में अन्तिम दो वर्ण> ल(लघु-एक मात्रा) गा (गुरु=2) के प्रतीक हैं। अन्य गणों के नाम जानने के लिए प्रत्येक वर्ण के साथ गण शब्द जोड़ दीजिए, जैसे-


यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण, सगण। इन आठ गणों का मात्रा-समूह जानने के लिए उस गण की मात्रा तथा सूत्र में बाद में आने वाले दो वर्णों की मात्रा सम्मिलित कर ली जाती है-


गण का नाम मात्रा का क्रम उदाहरण


यगण/फऊलुन/सिरी रा 122 किनारे/ सिरी रा/म चन्दर


मगण 222 जाएगा


तगण आजाद


212 रगण फायलुन/आमजन |आगरा/जिन्दगी/जिन .


जगण/फऊल/समान 121 समीर/ समान


भगण/ फेलुन/मातुल 211 पालक/ राहुल


नगण 111 कमल


112 सगण पलकें


यगण केलिए यमाता> 122 तथा इसी तरह तगण केलिए ताराज >221 मात्राएं हो जाएंगी।


इसके बाद कुछ मात्रिक और वर्णिक छन्दों की जानकारी दी जा रही है। उपर्युक्त नियमों के आधार पर छन्दों के विषय में अपनी जानकारी बढ़ाई जा सकती है


• मन रे तन कागद का पुतला। लागै बूंद विनसि जाय छिन में गरब करै क्यों इतना ॥ में रस है - शांत रस


• अंखिया हरि दरसन की भूखी। कैसे रहे रूप रस रांची ए बतियां सुनि रूखी। में रस है - वियोग शृंगार ।


• रिपु आंतन की कुंडली करि जोगिनी चबात, पीबहि में पागी मनो, जुबति जलेबी खात ॥ में निहित रस है-जुगुप्सा, वीभत्स ।


• मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई में रस निहित है- ईश्वर रति, भक्ति


• यह लहि अपनी लकुट कमरिया, बहुतहि नाच नचायौ। में रस निहित है - वत्सल, वात्सल्य


• समस्त सो संग श्याम यौ ही कढे, कलिंद की नंदिनि के सु अंक से। खड़े किनारे जितने मनुष्य थे, सभी महाशंकित भीत हो उठे॥ में निहित रस है-भय, भयानक


• देखि सुदामा की दीन दसा, करुणा करि के करुणानिधि रोये। में रस है- शोक, करुण


• मैं सत्य कहता हूं सखे! सुकुमार मत जानो मुझे। यमराज से भी युद्ध में, प्रस्तुत सदा जानो मुझे ॥ में रस है-उत्साह, वीर


• 'एक और अजगरहि लखि, एक ओर मृगराज। विकल बटोहीं बीच ही, परयो मूरछा खाय' में रस है-भयानक


• पुनि-पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू, पुलक गात उर अधिक उछाहू। में कौनसा अनुभव है-कायिक, सात्विक, मानसिक।