सब है फिर भी...

कविता


प्रगति गुप्ता


कहने को बहुत खुश


बहुत इत्मिनान से हूं मैं..


रुपया पैसा और अच्छी


सन्तान पाकर


कभी जमीन तो कभी


आसमान पर हूं मैं..


एक लंबी उम्र


गुजर चुकी है अब मेरी,


बस जीवन से जुड़े,


अनगिनत आकलन


घूम रहे दिन-रात


अब मेरे आसपास यहां..


इनसे ही जुड़ी दुविधाओं की


परछाइयों तले,


स्वयं को खोज रहा हूं मैं...


घर मेरा


सभी बच्चों के कहकहों से दूर


बहुत शान्त है पर


इस उम्र में


अति शान्ति की


तलाश किसको हुआ करती है..


मेरे इसी दर्द को,


आंखों में छिपी कुछ बूंदें,


रह-रह कर बयां करती हैं...


अकेले ही भोजन करते में


हर मुंह तक गया निवाला


मेरी उस पीड़ा से जुड़ा है,


जिसे महसूस करते हैं


अक्सर ही मेरे बच्चे भी, पर


जीवन यापन से


जुड़ी उनकी जद्दोजहद ने


उनके भी हाथों को बांध रखा है....


रुपया है पर


अस्पतालों की कतारों में


अकेले ही खड़े होकर


खुद ही खुद को


मैं, संभाल रहा हूं,


इस अन्दर छिपी पीड़ा को


बगैर दिखाये


स्वयं ही स्वयं को,


सान्त्वना दे रहा हूं...


कहने को


सन्तान बहुत अच्छी है


पर इस उम्र में उनकी दूरी


कभी-कभी बहुत अखरती है...


बहुत प्रफुल्लित हूं, बहुत से लोगों से


मैं, संपर्क साध कर रखता हूं,


अपना ही नहीं, मेरे जैसे


कई साथियों का उत्साह बनकर


अनगिनत खुशियों को


हर रोज बांटता हूं...


पर हूं इन्सान मैं भी


तभी तो


उम्र के इस पड़ाव पर


मन से बहुत मजबूत होकर भी


एक अनकही पीड़ा झेलता हूं..


मैं भी इन्सान हूं


सब कुछ होने पर भी, कभी-कभी


एकाकीपन महसूस कर, टूटता हूँ..


फिर


जीवन के इस बचे सफर को


उस परम का लेखा-जोखा मान


खुश रहा करता हूँ....


रवाली दीवारें


खाली दीवारें


साफ स्लेट-सी


हुआ करती हैं...


जब निहारो


तब ही


कुछ नई रेखाएं


मन ही मन उकेर


मन ही मन उकेर


नई कहानी गढ़ती हैं,


तो कभी कुछ पुराना


उधेड़ती हैं..


सिर्फ बुनने के


हुनरों से


जुड़े नजरिये हैं,


अपने-अपने....


जो कुछ नई, कुछ पुरानी


कहानियां बुनते हैं....


जिया हो


जिसने हर पल


वही जाने क्या-क्या


उस खाली दीवार पर


अनकहा-सा गढ़ता है


और गढ़कर


अनकहे-सा पढ़कर


सहेज-सहेज कर रखता है....


ऐसे इंसान के लिए तो


खाली दीवार का


हर हिस्सा


बहुत कुछ कहकर


बहुत कुछ संजोता है...।


कैसे बांटू


कैसे बांटू तुमसे मेरी


उन अनकही बातों से


जुड़ी हुई उस पीड़ा को..


जबकि खो जाते हो तुम


जाने अनजाने ही


बगैर पूरी बात सुने ही मेरी


अपने ताने बाने में..


तुम्हारा पलट कर


कभी भी मुझसे


छूटी बातों के सिरों को


कभी ना पूछना ना खोजना


मुझे तुमसे बहुत दूर करता है....


सिर्फ तुम्हारी ही तुम्हारी बातों को


लगातार सुनते और करते रहना


मुझे अक्सर ही कचोटता है....


नहीं जानती, कैसे एक तरफा


सुनकर और कहकर


स्वयं को खुश रखा जाता है...


मेरा तो मन और हृदय


पल-पल तुम्हें


मुझसे दूर करता जाता है....


मेरा तो मन और हृदय


पल-पल तुम्हें


मुझसे दूर करता जाता है...


टूटती जरूर हूँ


उन निर्मम पलों में


तिनका-तिनका मैं...


पर अनायास ही जोड़ लेती हूं


उस अनंत से,


सुख से स्वयं को मैं...


माना कि एक कड़ा अभ्यास


इन सबसे जुड़ा है


पर बगैर बहुत जतन किये


तुमसे या तुमसे


जुड़े हर रिश्ते से


क्षणैः क्षणैः विरक्त होकर


अंततः तक पहुंचने में


मुझे अब कष्ट न होगा


यही मुझे अब लगता है..