मुस्कान की चाभी

कविता


मंजू मिश्रा


एक नन्हीं सी


मुस्कान की चाभी


खोल देती है


अपरिचय के ताले


बन जाते हैं


कुछ दोस्त


बस यूं ही बैठे ठाले


मौन बोले


यूं भी हो कभी


कुछ तुम कहो न हम


बस मौन बोले


और मन


बरसों के जंग लगे


ताले खोले


बेटियां


बेटियां


एक नन्हा सा


धूप का टुकड़ा


जो सीलन भरे घर में


आए और


दीवारों के आंसू


पोंछ जाये!


दांव पर द्रौपदी


चौपड़ जब सजती है तो


दुर्योधन हों या युधिष्ठिर


खेल ही तो खेलेंगे


कोई हारे कोई जीते


क्या फर्क पड़ता है


दांव पर तो


द्रौपदी ही है न!!!


कच्ची दीवारें


देखो...तुम रोना मत


मेरे घर की दीवारें जरा कच्ची हैं


तुम्हारे आंसुओं का बोझ ये सह नहीं पाएंगी


वो तो महलों की दीवारें होती हैं


जो न जाने कैसे अपने अंदर


इतनी सिसकियां और दर्द समेटे रहती हैं


फिर भी सर ऊंचा करके खड़ी रहती हैं।