कहानी
छाया सिंह
'आ गई तन्वी के घर से? इतना परेशान क्यों हैं? अन्दर आती हुई उसकी माँ ने मीनल से पूछा। उसकी मां ने पूंछा।
"आई, तुझे पता है, तन्वी का घर बहुत अच्छा है। तन्वी के पास अपना कमरा है। हम लोग वहीं बैठे थे। “आई, हम लोगों का घर इतना छोटा क्यों हैं?"
'अरे बेटी, तन्वी के बाबा की अच्छी नौकरी है और तन्वी इकलौती लडकी है। तेरे बाबा की नौकरी कम पैसे की है और सात लोगों की जिम्मेदारी उनके ऊपर है। जा, जाकर कपड़े बदल ले'। माँ ने कहा।
मीनल कपड़े बदल कर लेट गई। छोटे-छोटे दो कमरों का घर है उसका। एक में आई-बाबा और आने-जाने वाले। दूसरे कमरे में पांच भाई बहन रहते थे। बचपन से मीनल सफाई, सलीका पसन्द थी जबकि बाकी भाई बहन बिल्कुल लापरवाह एवं फूहड़ थे।
मीनल के जेहन में तन्वी का कमरा घूम रहा था। छोटा पर सुन्दर। गुलाबी रंग का पेंट, सुन्दर पेन्टिंग्स, सुन्दर सा सिंगल बेड पर उसके मन को सबसे ज्यादा जो भाया वो भी मेजकी जो कि खिडकी से लगी थी। उस पर करीने से किताबें और कलमदान सजे थे। जब हवा चलती तो सामने के बागीचे से फूलों की सुगन्ध आती। 'काश ऐसा कमरा मेरा भी होता।
'काश ऐसा कमरा मेरा भी होता। अपनी मेज कुर्सी पर बैठ कर मैं सुन्दर चित्र बनाती, उनमें रंग भरती, सुन्दर कविताएं लिखती। पूरा कमरा न सही कम से कम एक कोना तो मेरा होता जिसमें किसी का दखल न होता। उसने सोचा। उस कमरे 92 • प्रेरणा समकालीन लेखन के लिए को उसने गौर से देखा। पुराना सीलन भरा कमरा, जिसमें बरसों से पुताई नहीं हुई थी। ऊपर टांड में घर का कबाड़ भरा था, जहां चूहे, छिपकली दौड़ लगाते रहते थे। कमरे के एक कोने में गेहूँ, चावल की टंकियां, दूसरे कोने में बिस्तर, तीसरे कोने में टूटे पल्लों वाली आलमारी जिसमें सबके कपड़े बेतरतीब ढंग से लूंसे रहते थे, चौथे कोने में ईटों के सहारे टिकी टूटी मेज, जिस पर सबके बस्ते और किताबें लदी रहती थीं। कमरे में चार ही तो कोने होते हैं इसमें मेरा कोना कौन सा हो सकता है? उसने ठंडी सांस ली और पढ़ने बैठ गयी।
अगले दिन जब वह स्कूल पहुंची तो तन्वी उसे बाहर ही मिल गयी, 'हाय मीनल कैसी हो? कल तो हम लोगों ने बहुत अच्छा समय बिताया। इस बार मैं तुम्हारे घर आऊँगी।' तन्वी ने बड़े उत्साह से कहा।
मीनल के चेहरे से मुस्कान काफूर हो गई। 'तन्वी तुमको अपने घर बुला कर मुझे बड़ी खुशी होती पर....।'
_ 'क्यों, क्या हुआ' तन्वी चौंकी।
फिर मीनल ने अपने घर के हालात, अपने सपनों के बारे में तन्वी से खुलकर बताया और बताती भी क्यों न, तन्वी उसकी सबसे घनिष्ठ मित्र जो थी।
सब बातें सुनकर तन्वी ने गंभीर स्वर में कहा, 'सच में मीनल, तुम्हारी परिस्थितियां तो वाकई कठिन है। मुझसे जो बन पड़ेगा मैं तुम्हारी मदद जरूर करूंगी। रही बात तुम्हारे अपने कमरे की वह तो तुम्हें तुम्हारी शादी के बाद मिल ही जाएगा तब अपने कोने को मनचाहा सजा लेना। चलो अब मुस्करा दो' दोनों सहेलियां गले लग गईं।
घड़ी की सुइयों और कैलेण्डर के पन्नों के साथ समय तेजी से भागता रहा। बी.ए. पूरा करते ही मीनल की शादी तय हो गई। अन्य लड़कियों की तरह मीनल के मन में शादी को लेकर कोई रंगीन सपने नहीं पल रहे थे। वह तो अपने नये घर में जाने को लेकर उत्साहित थी। कैसा होगा नया घर? अपने एक कोने को वह कैसे सजाएगी? यही सब उसके दिमाग में चलता रहता था।
आखिरकार वह बहुप्रतीक्षित दिन आ गया जब वह विदा होकर अपने ससुराल पहुंची। बाहर से ही घर देखकर उसका मन बुझ गया। तंग गली में एक संकरा छोटा सा मकान था, जिसमें धूप और खुली हवा बहुत कम आती थी।
शादी के बाद की सब रस्मों से निपटकर उसकी ननद उसे उसके कमरे में ले गयी। कमरा देखते ही उसकी आशाओं पर तुषारापात हो गया। कमरा क्या था, एक गंदी सी दुछत्ती थी, जिसमें ज्यादातर कबाड़ ही भरा था। पीछे की खिड़की गंदी सी गली में खुलती थी। जहां से लगातार दुर्गन्ध आती रहती थी। यह सब देखकर वह सदमें से बेहोश हो गई। घर में सबने इसे शादी की थकान समझा।
पति के नौकरी पर वापस चले जाने के बाद मीनल के साथ उसकी ननद सोने लगी। नीचे भी छोटे-छोटे दो ही कमरे थे, जिसमें एक में उसके सास-ससुर और दूसरे में जेठ-जेठानी और उनके तीन बच्चों ने कब्जा जमा रखा था। उस छोटी सी दुछत्ती में उसका दम घुटता रहता। ऊपर से खिड़की से आती दुर्गन्ध से वह बीमार पड़ गई। मायके आने पर तन्वी उससे मिलने आई। आते ही उसने चहकते हुए कहा, 'और बताओ मीनल', कैसी हो? मुझे याद किया या नहीं और तुम्हारा कमरा कैसा है? अब तो तुम खुश हो ना?
मीनल के आँसू वह निकले, 'मेरी किस्मत ही खराब हैं तन्वी। ससुराल के हालात यहां से बेहतर नहीं हैं। मेरा कमरा, मेरा कोना एक गंदी सी दुछत्ती है।'
अगली बार पति के घर आने पर उसने बड़े लाड़ से कहा, 'आप वहां अकेले परेशान होते है। खाने पीने की भी दिक्कत होती होगी। इस बार मैं आपके साथ चलूंगी। कोई तो हो....।'
क्या बात कर रही हो मीनल । मेरी छोटी सी तनख्वाह में मैं गृहस्थी कैसे चला पाऊंगा। अभी तो कतर ब्योत करके कुछ पैसा मैं सुषमा की शादी के लिये बचा लेता हूं। तुम साथ रहने लगोगी तो यह नहीं हो पायेगा। देखो बुरा मत मानना। अभी तो मुश्किल है। सुषमा की शादी के बाद देखेंगे। फिर तुम्हें यहां कौन सी तकलीफ है?" उसकी बात को काटता हुआ उसका पति बोला।
एक साल के भीतर ही मीनल जुड़वां बच्चों की मां बन गई। अब उसका पूरा समय घर और बच्चों की देखभाल में ही बीत जाता था। उसे और कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती थीतीन साल बाद ननद की शादी हो जाने के बाद उसकी उम्मीदों ने फिर सिर उठाया। अब तो पति के साथ रहने में कोई बाधा नहीं है। वह कुछ समय अपने लिये भी निकाल पायेगी। उसके मन में आशाओं के फूल खिलने लगे थे।
दीपावली के पहले पति का फोन आया, 'मीनल तैयार रहना। इस बार तुम्हें और बच्चों को मैं अपने साथ ले जाऊँगा।'
मीनल का मन मयूर नाच उठा। देर से ही सही आशाएं पूरी तो होंगी। उसे लग रहा था कि समय पंख लगा कर उड़ जाए और वह जल्दी से अपने घर पहुंच जाए पर नियति को शायद यह मंजूर नहीं था। जिस ट्रेन से उसका पति घर आ रहा था। वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई। उस ट्रेन के 20 मुसाफिर मारे गये जिसमें उसका अभागा पति भी था।
उसका सिंदूर बुझ गया, बच्चे अनाथ हो गये। उसका पूरा संसार ही उजड़ गयाससुर की पेंशन और जेठ की तनख्वाह मिला कर इतनी नहीं थी कि पूरे घर का खर्च चल सके। मीनल ने अपनी शिक्षा का उपयोग किया और आस पड़ोस के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी। पति के फण्ड और बीमा का पैसा मीनल ने बच्चों के नाम जमा कर दिया था।
अब उसकी प्राथमिकता उसके बच्चों का भविष्य निर्माण थाइसमें उसके अपने सपनों के लिये कोई स्थान नहीं था पर यदा कदा उसकी दबी हुई इच्छा जोर मारने लगती थी।
मीनल के दोनों बच्चे जहीन थे। पढ़ाई में सदा अव्वल रहते थे। उन दोनों को वजीफा मिलता गया और वे आगे बढ़ते गये। दसवीं कक्षा में मीनल के बच्चों ने विद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये। स्कूल में दोनों बच्चों के साथ मीनल को भी सम्मानित किया गया। मीनल की छाती जुड़ा गई।
मीनल ने बच्चों की उत्तरोत्तर प्रगति देखकर उसकी जेठानी बहुत जलती थी। हर समय बोल कुबोल बोलती रहती, बच्चों को कोसती रहती। मीनल सुनकर भी अनसुना कर देती भला बिल्ली के सरापे कभी छींका टूटता है।
एम.ए. करते ही मीनल ने बेटी का विवाह कर दिया। अब वह बहुत बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई थी। एम.बी.ए. करके उसके बेटे को बहुत बड़ी कम्पनी में नौकरी मिल गई। अब मीनल संतुष्ट थी। एक दिन वह अपने अतीत के पन्ने पलट रही थी कि बेटा आकर उसके गले में झूल गया, 'आई, तू हर समय क्या सोचती रहती हैं? मुझे बता तेरे मन में क्या है? अपने सपनों के लिये मारने लगती थी।
मीनल के दोनों बच्चे जहीन थे। पढ़ाई में सदा अव्वल रहते थे। उन दोनों को वजीफा मिलता गया और वे आगे बढ़ते गये। दसवीं कक्षा में मीनल के बच्चों ने विद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये। स्कूल में दोनों बच्चों के साथ मीनल को भी सम्मानित किया गया। मीनल की छाती जुड़ा गई।
मीनल ने बच्चों की उत्तरोत्तर प्रगति देखकर उसकी जेठानी बहुत जलती थी। हर समय बोल कुबोल बोलती रहती, बच्चों को कोसती रहती। मीनल सुनकर भी अनसुना कर देती भला बिल्ली के सरापे कभी छींका टूटता है।
एम.ए. करते ही मीनल ने बेटी का विवाह कर दिया। अब वह बहुत बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई थी। एम.बी.ए. करके उसके बेटे को बहुत बड़ी कम्पनी में नौकरी मिल गई। अब मीनल संतुष्ट थी। एक दिन वह अपने अतीत के पन्ने पलट रही थी कि बेटा आकर उसके गले में झूल गया, 'आई, तू हर समय क्या सोचती रहती हैं? मुझे बता तेरे मन में क्या है?
मीनल की आंखों से गंगा जमुना वह निकली। बरसों का गुबार, पीड़ा, कुंठा सब आंसुओं की बाढ़ में बह गये। उसने बेटे के सामने अपना दिल खोल कर रख दिया'आई, मैं वादा करता हूँ तेरे सब सपने में पूरे करूंगा। तू तो मेरे लिये भगवान है। अगले महीने मुझे नया फ्लैट मिलने वाला है। तू मेरे साथ वहीं रहेगी और मैं, तेरी सेवा करूंगा।
आज बेटे के साथ मीनल ने उसके नये घर में प्रवेश किया। उसका बेटा उसे एक सुन्दर कमरे में ले गया। बेहद सुन्दर कमरा । गुलाबी पेंट, दीवार पर लगी सुन्दर पेंटिग्स. नक्काशीदार पलंग और सबसे खास खिडकी से लगी शानदार मेज-की. जिस पर किताबें, कलमदान, लेटर पैड और माँ सरस्वती की छोटी सी मूर्ति रखी थी। बालकनी में सजे गमलों में बेला, चमेली, गुलाब के फूल खिले थे। हवा के साथ सुगन्ध को झोंका कमरे को महका रहा था।
पता नहीं मीनल का जी कैसा होने लगा। वह लड़खड़ाने ही वाली थी कि उसके बेटे ने अपनी मजबूत, बांहों, का सहारा देकर उसे कुर्सी पर बैठा दिया। 'आई, तू बैठ, मैं तेरे लिये पानी लेकर आता हूं।
पानी लेकर जब वह कमरे में लौटा तो उसने देखा कि मां का सिर मेज पर टिका है। उसने बड़े प्यार से मां का कंधा हिलाया. 'आई पानी पी ले। पर मीनल वहां थी कहां। वह तो इस निष्ठुर संसार को छोड़कर जा चुकी थी। मरते समय उसे अपना कोना नसीब हो गया था। बालकनी का पर्दा सरसरा रहा था और फूलों की सुगंध कमरे में बस गयी थी।