मैं रविवार को लिरवूगी एक कविता

कविता


ऋतु त्यागी


और सप्ताह के सात दिन उसमें रहूँगी


मेरी कविता में होगा एक कछुआ


जिसकी पीठ पर बैठकर


मैं पढूंगी सबसे लजीज चुटकुला


अपनी उड़ती हंसी को


मैं फंसा लूंगी मंगलवार की सुबह


मेरी कविता टूटती रूह में लगा देगी एक गांठ


गांठ में होगा फेविकोल का जोड़


रूह समेटकर अपनी बची साँसें


स्याह रात के माथे पर


लगा देगी काला टीका


और


यह सब तब घटेगा


जब मैं पी रही होंगी एक कप चाय


अपने घर की बाल्कनी में


मेरे कानों में बज रहा होगा सूफी संगीत


और वह दिन


सप्ताह का आखिरी दिन होगा


नैतिकता की गाँठ


उसने कहा


तुम्हारे भीतर रहती है


एक नैतिकता की गांठ


निकाल कर रख दो


उसे मेरी हथेली पर


मैं दिखाऊंगा तुम्हें


गांठों से इतर का जहान


बहुत अजीब थे


उसकी निगाहों के मापदंड


जिसमें चस्पाँ थी एक औरत


जो देह के गणित में उलझकर


बना लेती थी किसी से भी समीकरण


पर वह कहाँ जानता था?


देह से इतर भी होती है एक औरत


जो अपने आत्म के कपाटों को खोलकर


ठुकराती है समाज के पाखंड


और मिटाती है अपने जेहन से


बाजार के उस दर्शन को


जिसमें औरत


अर्थशास्त्र के मायावी जाल में


उत्पाद की तरह मुस्कुराती है।