बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी

नान्दीपाठ


प्रमोद त्रिवेदी


वर्षों तक डॉ. धनंजय वर्मा के बारे में इतना ही जानता था कि ये डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य के अभिन्न मित्र हैं। (कौन डॉ. भट्टाचार्य का अभिन्न मित्र ही नहीं रहा? जो भी उनके संपर्क में आया, उसने खुदको उनका अभिन्न मान लिया!)प्रभात कुमार भट्टाचार्य याने ख्यात नाटककार, नाट्य निर्देशक, कवि, आयोजक, संपादक, प्रशासक, पक्के यारबाश, भद्र बंगाली मानुष, आदि-आदि...। इस तरह उनका दायरा बड़ा होना था, वह आज भी है। इसके अलावा उनके प्रिय छात्रों की लंबी सूची। पर इसी वजह से तो धनंजय जी से मेरे रिश्ते प्रगाढ़ नहीं हो सकते थेसच तो यह है कि मेरे मन में एक गांठ भी थी। (यहां मैं केवल अपनी बात कह रहा हं। वर्मा जी के बारे में, मैं नहीं जानता।).... सागर मेरे मन में एक अपरिचित स्थान वाचक संज्ञा से ज्यादा नहीं था। बस इस संज्ञा से खुन्नस । विक्रम विश्वविद्यालय में हर स्तर पर यहां से खेपें आती रहीं। मालवा अलक्ष्यित हो रहा था। यही नहीं, सागर के रास्ते उत्तर प्रदेश मालवा पर छा गया था। मैं तो तब विद्यार्थी ही था, पर था-मालवीकविता में जरूर थोड़ा हाथ-पैर मार रहा था पर जो सुनता था उससे आयातित विद्वानों के प्रति मन में श्रद्धा भाव जरा भी नहीं उपजा! इनकी दंत कथाएं जरूर चकित और विचलित करती थीं। प्रभात जी उनमें जरूर अपवाद रहे हमारे लिए...। डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन', झगरपुर (उत्तर प्रदेश) के होकर भी हमारे सिर मौर थे, रियल हीरो। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी जब उपकुलपति होकर उज्जैन आये तो सागर, उज्जैन पर पूरी तरह छा गया। 'सुमन जी' और वाजपेयी जी के बीच सारा विश्वविद्यालय विभाजित था...। डॉ. धनंजय वर्मा भी सागर के हैं। आलोचक हैं और किसी को 'भाव' नहीं देते। इतना ही जानते थे हम उनके बारे में...


हम मालवीजन का दब्बूपन जग-जाहिर है। मैं भला इससे अछूता कैसे रहता। वैसे मेरे दब्बूपन के कारण निजी भी कम नहीं थे। आज भी इस उम्र में मुझे चुप रहकर गुनना ही ज्यादा अच्छा लगता है। मेरे इस स्वभाव ने भी अपनी सीमा में रहकर चुपचाप काम करने और करते रहने के अवसर भरपूर दिये। 'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।' यह स्वभाव जैसा भी हो, लोगों का ध्यान मेरी ओर लगा रहा। इससे लाभ कम मिले, नुकसान ज्यादा उठाना पड़ा। मैं हमेशा परिधि पर ही रहा। आज भी हूं। केन्द्र में नजर आने की न तो कभी कोशिश की न माद्दा था। ध्यानाकर्षण का मतलब होता है, किसी एक तरफ अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करना और उसके हरावल दस्ते में शरीक हो जाना और अपनी जगह पक्की कर लेना। खींचकर तो आपको कोई लेने से रहा। आप कुछ करोगे नहीं, तो कोई आपको 'कुछ' देगा क्यों? धनंजय जी को जितना जाना, इधर-उधर से ही जाना या प्रभात जी के जरिए जाना। जितना उन्हें जाना, उनसे दुआ-सलाम भी उतनी ही रही।


उज्जैन में भी सब से अलग-थलग पड़ जाने की बड़ी वजह मेरी नौकरी रहीशाम को जब सब फुरसत में होते मैं अपनी कक्षाओं में पढ़ा रहा होता था। सारी गतिविधियों से मैं वंचित हो जाता। और मेरी फुरसत में बहुत होता नहीं था। मैं केदारनाथ सिंह की कविता की पंक्ति सबके सामने दोहरा कर संतोष कर लिया करता था।


"शाम बेंच दी है भाई,


भाई शाम बेंच दी है


मैंने शाम बेंच दी है।"


ज्यादा मित्र कभी बने ही नहीं। जबकि मैंने हमेशा चाहा कि मेरा भरापूरा समाज हो। जो थे उंगलियों पर गिने चुने, वे भी एक हद तक ही मेरे हो सके। लोग मुझे "मौनी बाबा" कहने लगे थे। मैंने भी तो एतराज नहीं किया। याने मैंने खुद इसे अपना "कम्फर्ट जोन" मान लिया। एकलव्य ने भी तो अपने एकाकीपन में ही इतना सीख लिया था कि किसी से सीखने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। (ये सब मैं अपनी तारीफ में नहीं, अपनी सीमाएं बतलाने के लिए लिख रहा हूं।) मैंने जो कुछ भी पाया, इसी तरह पायानहीं होना चाहिए शायद इसी से इसे नाद ब्रह्म कहा गया है। मनुष्य के अस्तित्व में आने के पहले ही कई ध्वनियां व्याप्त थीं मूक था तो बस अपने आदिम रूप में मनुष्य! उन ध्वनियों को सुनकर कितना आश्चर्य होता होगा। उससे भी ज्यादा खुशी या रोमांच यह कि कोशिश करें तो वह भी ऐसी ध्वनि निकाल सकता है।"आ" की ध्वनि के आर्वतन से यदि कोई पशु उसके पास आ गया होगा या कोई और तो उसे पहली बार "आ" का अर्थ मिल गया होगा। पर यदि उसे चोट लगी होगी तो वही 'आ', "आ....ऽऽऽ....ऽऽ....ऽ" का अर्थ अलग हो गया। इस भेद को जानने वाला ही तब आदि महापंडित होगा। कितनी बड़ी क्रांति हो गई। जो ताला पड़ा था अब तक मनुष्य की बुद्धि और उसके विवेक पर वह खुल गया। मनुष्य की इस समझदारी से भाषा को रास्ता मिल गया!!! विश्व के इतर प्राणियों से मनुष्य इतर ही नहीं, श्रेष्ठ भी हो गया। उसी दिन...."वादे-वादे जयते तत्व बोधाः" जिज्ञासा तर्क, मतभेद, सहमति-असहमति, तर्क, कुतर्क, विवाद भी इतने गहरे, महत्वाकांक्षाओं का ओर छोर नहीं और इन्हीं के चलते दुनिया बार-बार रक्तरंजित होती रही। "शान्ति पाठ" हमारे पास जरूर थे पर वे विफल सिद्ध हुए। कृष्ण ने रणक्षेत्र में मोहग्रस्त अर्जुन को कर्त्तव्य का बोध कराया और सिद्ध हुआ कि बातचीत ही एकमात्र विकल्प है और यही होता रहा है। बातचीतें विफल होने के बावजूद। "एकोऽम् बहुस्याम" का आशय भी यही है कि हम मिलें बातचीत करें। जरूरी नहीं कि हम किसी नतीजे पर पहुंचे। हम अपना-अपना दृष्टिकोण साझा करने के लिए भी चर्चा करते हैं, बिना किसी लक्ष्य को तय किये भी हम बातचीत कर सकते हैं। एक-दूसरे को जानने समझने के लिए भी बातें कर सकते हैं और कभी-कभी गप्प गोष्ठी भी हमें ऊर्जा से भर देती है।


केवल यह अनुभव करने के लिए कि जिस मौन का इतना महिमा मंडन किया गया है, मैंने भी एक बार नौ दिन मौन रहने का संकल्प लिया। यह मेरा"हठयोग" ही था। शायद तीन-दिन के बाद ही समझ में आ गया कि यह जिद कितनी भारी है। पर जिद पूरी करनी थी। हुई भी पर दसवें दिन जिह्वा, ओंठ, कण्ठतालु, दंत सब जैसे अपना-अपना कर्म भूल गए थे। उच्चरित कुछ कर करना चाहता था पर उच्चरित कुछ और हो रहा था। स्वर बदल गया। एक दिन ही यह परेशानी रही पर सब कुछ समझ में आ गया। इन नौ दिनों में यह भी जान लिया कि जो अप्रयास से हुआ कर्म लगता है, वही सप्रयास कितना दुरूह हो जाता है।


हम अपना किया-धरा छपाने की कोशिश करते हैं। कई लोग अपने बड़बोलेपन में स्वयं अपनी छवि बनाने-चमकाने में लगे रहते हैं। किसी को छोटा करके खुद को बड़ा सिद्ध करने की 'कला' में कई बुरी तरह एक्सपोज भी हो जाते हैं, पर वह उम्र गुजर जाने के बाद जीवन प्रवाह मंथर हो जाता है, हम अपना सब कुछ खोलने, बताने और सौंपने को उद्यत हो जाते हैं। शायद इस तरह सुख शान्ति ही मिलती जगत गति से सहज तालमेल बैठ नहीं पाता तब अपने हम उम्र और हम ख्याल इसी तरह- "काव्य शास्त्र विनोदेन, कालोगच्छति धीमताम..." में कुछ पाकर कुछ देकर अपना समय काटते हैं।' इस उम्र में जी चुके को पुनः जीना या उसे दोहराना एक अलग ही सुख दे जाता है।


जासूसी करना मुझे कभी रुचा नहीं। इस चौकन्नेपन में आप खुद अपने लिए कई मुश्किलें खड़ी कर लेते हैं। भरोसा तो टूट ही जाता है और अकेले हो जाना नियति हो जाती है। विश्वसनीय होने में जीवन लग जाता है और टूटने में पल नहीं लगता। धनंजय जी लगभग स्थायी रूप से आ गए तो हमारी बैठकें जमने लगीं और मैंने उनका विश्वास भी जल्दी ही अर्जित कर लिया। अब हम हर तरह की बात कर सकते थे। और तमाम बातों के साथ-साथ 'निंदा रस' में भी हमें खूब रसमिला। श्री नरेश मेहता, श्रीमती मन्नू भण्डारी के साथ भी ऐसी लंबी-लंबी बैठकों का सिलसिला खूब चला। मेरी पुस्तक- "नरेश मेहता : एक एकान्त शिखर" भी ऐसी ही बैठकों का सार्थक परिणाम है। फिर शिवमंगल सिंह "सुमन" हमारे बीच आ रहे हैं।


"जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला


उस-उस राही को धन्यवाद


कैसे चल पाता यदि न मिला


होता मुझको आकुल-अंतर


कैसे चल पाता यदि मिलते


चिर तृप्ति अमरतापूर्ण प्रहर


आभारी हूं मैं उन सबका


दे गए व्यथा का जो प्रसाद


जिस-जिससे पथ पर स्नेह मिला


उस-उस राही को धन्यवाद"


साथ होना, साथ चलना, राही का विश्वास अर्जित करना, अपने को सार्थक मानना यही तो जीवन है। जरूरी नहीं कि जिन-जिन के साथ चले या रहे, वह साथ लम्बा हो। तब हम वह साथ छोड़ देते हैं और तब नई तलाश शुरू होती है फिर किसी से नए सिरे सिलसिला जमाते हैं। यही तरीका हैबैठ गए तो सब कुछ खत्म।.... समुद्र मंथन जैसी कोशिश है यह अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों ने मिलकर कोशिश की थी। (कृपया यह सवाल न करें कि कौन देव और कौन दानव?) तब भी पहले तो हलाहल ही मिला पर कोई हताश नहीं हुआ और कोशिश जारी रही और अंततः उनको, उनका वांच्छित मिल ही गया। विरुद्धताएं भी कई बार वांच्छित और अप्रत्याशित परिणाम दिला देती हैं। बस यह भरोसा बना रहना चाहिए कि कम से कम हम तो ईमानदार हैं। "चतुर सुजानों" को उनके चातुर्य से उनका अभिलषित कभी नहीं मिलता। वह भी नहीं जो खोदना-कुरेदना चाहते हैं। कुमार गंधर्व के निधन के उपरान्त मुझे कुमार जी की बेटी से बातचीत करनी थी। इंदौर (म.प्र.) से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र "चौथा संसार" के लिए। मेरे लिए तब सर्वथा नए कुमार प्रकट हुए। शास्त्रीय संगीत की बारीकियां मैं जान ही नहीं पाता यदि वह मौका मुझे नहीं मिलता। मेरे लिए तो ऐसे मौके सम्पन्न करने के होते हैं। पात्रता अपने में होनी चाहिए। इसी तरह मालवा के प्रहलाद सिंह टिपाणिया जी से बातचीत करने का अवसर मिला, मैंने एक विशुद्ध मालवा मन, मालवी जीवन, मालवा के लोक गायन और इसकी व्याप्ति को जाना। यह तभी हो सका जब मैं अपनी नागरिकता उज्जैन में छोड़कर उनके गांव लूनिया खेड़ी पहुंचा। लूनिया खेड़ी मेरी पाठशाला हो गई। यही तरीका है-अर्जुन ने भी रणक्षेत्र में श्री कृष्ण से बातचीत ही तो की थी। और उसे दुविधाओं से निकलने का रास्ता मिला था। यह सब केवल इसलिए लिख रहा हं कि "प्रमोद त्रिवेदी" के निर्माण में कितनों का योगदान रहा है। उनके प्रति आभार व्यक्त करने का यह अवसर मुझे मिल गया है तो मैं चूकना नहीं चाहता। कोई "कबीर" मुझे मिल जाए और "साधो" मानकर मुझे निथार दे'कबीर' अपने ताने-बाने ठीक करने में लगे हों, मेरी तरफ ध्यान ही न हो उनका तो भी कोई बात नहीं। मुझे इस तरह अपने ताने-बाने' ठीक करने का हुनर आ जाएगा। हमें लगे कि बेकार अपना समय नष्ट किया, पर बेकार कुछ भी नहीं होता है।


मालवी बोली में कहा गया है


"नारा की नौलाई ने अवग्या की उज्जैण।"


"नठारा" अर्थात अकर्मण्य । “नौलाई" याने आज का बड़नगर (मेरी जन्म भूमि।) विलुप्त प्राचीन बड़नगर की स्थानवाचक संज्ञा । बड़नगर के निवासी शुरू से ही फालतू और अकर्मण्य मान गये। 'अवगत्या' याने मृत्यु के बाद भी जिनकी गति-मुक्ति नहीं हो। ऐसी प्रेत योनि में पड़े जीवों की मुक्ति का स्थान उज्जैन माना गया। उज्जैन में आज भी सैकड़ों की संख्या में मृतकों के परिजन शिप्रा नदी के घाटों"रामघाट" और "सिद्धवट" पर आ कर अपने पितरों के लिए "पिंडकर्म" करते प्रतिदिन मिल जाएंगें। और एक दिन मैंने 'नठ्ठारों की उस नौलाई को सदा-सदा के लिए नमस्कार किया और घाट-घाट का पानी पीकर अपनी गति-मुक्ति के लिए उज्जैन आ गया/परिणाम क्या रहा, यह तो बेहतर ढंग से मेरे दोस्त और दुश्मन ही बता पाएंगे। आश्चर्य तो यह है कि वामपंथ और वाम विचारधारा से पोषित-परिचालित डॉ. धनंजय वर्मा को भी "नियति" (डॉ. वर्मा से क्षमा याचना सहित) यहीं ले आई। इसे आप क्या कहेंगे? फिर सोचता हूं, ढ़लती उम्र में खुद मुक्तिबोध के मन में भी तो कुछ ऐसा ही द्वन्द्व रहा। -


“क्या करूं, किस से कहूं,


कहां चला जाऊं, दिल्ली या उज्जैन?"


क्या पता, वे उज्जैन ही आना चाहते रहे हों, पर नियति उन्हें अंततः दिल्ली ले गई। अस्तु-मुझे पक्का यकीन है, अपने तई डॉ. वर्मा ने मुझे खूब अच्छी तरह जांचपरख लिया होगा। हो सकता है-"मित्रों" ने मेरी "कुंडली" उनके सामने खोल कर रख दी हो, तब भी उन्होंने मुझसे कभी नहीं पूछा- “पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?" परिणाम यह हुआ कि हमारा (हम दोनों का) रिश्ता पारिवारिक हो गया। उस के बाद तो और सारी बातें यों ही गौण हो जाती हैं। हो गई!


उज्जैन में डॉ. धनंजय वर्मा आये तब तक काफी थक गए थे। दवाओं पर उनका भरोसा था। आप उनके दवा लेने के वक्त से घड़ी मिला सकते हैं। कमजोरी उनके चेहरे पर साफ-साफ पढ़ी जा सकती है, पर पढ़ने-लिखने के प्रति उनका उत्साह जरा भी कम नहीं हआ है। इस हालत में भी उन्होंने खब लिखा। लिखा नहीं खूब मेहनत से लिखा। चाहूं तो मैं उनके उल्लेखनीय लेखन का ब्यौरा भी सकता हूं, पर-"को बड़ छोट कहत अपराधू।" के फेर में मैं कतई नहीं पडूंगाइसके ठीक विपरीत अपने लेखन को लेकर मैं हमेशा संशयग्रस्त ही रहा। अब कुछ नया करने या कर गुजरने का मन में उत्साह भी नहीं रहा। वर्मा जी से मेरे संबंध केवल लेखकीय नहीं रहे। अब हमारा परिवार एक ही था जो अपनी-अपनी सुविधाओं के चलते उज्जैन के अलग-अलग इलाकों में बस गया था, जो बहुत भी नहीं थे। उनका कभी-"प्रमोद भैया" तो कभी "पंडित शिरोमणि" होकर मैंने भी उनसे काफी छूट ले ली थी। बातचीत में हम कब गम्भीर हो जाएंगे और कब मसखरियों पर उतर आएंगे, नहीं जानते। इतना जरूर कह सकता हूं, मुझसे मिलना उन्हें अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा लगता है। मैं किसी को हंसा तो सकता हूं, पर खुल कर हंसने की कला मैंने इस उम्र में डॉ. धनंजय वर्मा से ही सीखी। लोग इस उम्र में हंसनाहंसाना भूल जाते हैं, पर मैंने सीखा याने मैने अपनी उम्र बढ़ा ली इनकी संगत में!!!


डॉ. धनंजय वर्मा का एक पत्र


धनंजय वर्मा


रायपुर प्रवास


04.07.2017


प्यारे प्रमोद भैया,


लो तुम्हारे सर पर एक और बोझ । प्यार के साथ। तुम्हारी दी गई प्रश्नावली में प्रश्नों की संख्या थी 82 । उत्तरों के क्रम में अब रह गई-80... । याने एक प्रश्न-पत्र में दस प्रश्नों के हिसाब से आठ प्रश्न-पत्र । पर्वार्द्ध के चार और उत्तरार्द्ध के चार के हिसाब से एक ही बार में प्रीवियस और फाइनल की परीक्षा दी है और प्रश्र-पत्रों के सारे प्रश्न हल किये हैं-बिना किसी विकल्प के। इस उत्तर पुस्तिका के परीक्षण में लिहाज न हो और बिना किसी छूट के, पूरी वस्तु परकता और अपनी सुविधा से मूल्यांकन करें और परिणाम घोषित करें। मैं एक विनम्र विद्यार्थी की ही तरह उसकी प्रतीक्षा करूंगा।


___मजाक एक किनारे। 10 मार्च 2016 से तुम्हारी प्रश्नावली पर काम शुरू हुआ था। सारी विघ्न-बाधाओं के बावजूद 16.06.2017 को पहला मसौदा और 08.05.2017 को दूसरा मसौदा तैयार हुआ। मैं यहां आया 01.06.2017 को और 27.06.2017 को तीसरा और फायनल मसौदा पूरा हुआ।


याने हमारा संवाद लगभग सवा साल चला। सारे मुमकिन विस्तार और किसी हद तक उबाऊ ब्यौरों के मेरे जीवन और आलोचना यात्रा का यह पुनरावलोकन तो है ही, लेखकों-पाठकों-आलोचकों को इजलास में मुझे अपनी सफाई और अपने बचाव में जिरह और तकरीर करने का जो अवसर तुमने उपलब्ध करवाया, वह मेरे लिए तो अभूतपूर्व और अविस्मरणीय है!


_ 'रिसर्च लिंक से प्रकाशित पुस्तक (2013) और 'समावर्तन' की 2015 वाली बातचीत के क्रम में रखकर ही मैंने इसके 3-4-5 खंड किये हैं। अब पूरी बातचीत का शीर्षक, तुमने सुझाया है- "बात निकलेगी तो...।" मुझे लगता है, इसे पूरा कर दिया जाय "बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी।" वैसे मुझे इसका शीर्षक सूझा था- "जुगलबंदी"। लेकिन इसका शीर्षक तो वही होगा जो तुम तय करोगे। पहला शीर्षक-"पीछे मुड़कर देखता हूं" भी तो तुम्हारा ही मशवरा था। बहरहाल


अपनी ओर से मैंने अपना काम पूरा किया। अब यह आपके हवाले


इस सबके लिए अपनी कृतज्ञता और आभार व्यक्त करूं क्या? उसके लिए शब्द ही कहां हैं? वह तो शब्दातीत है...


सस्नेह, तुम्हारा


धनंजय वर्मा


पुनश्च- सौ. वसुमती के लिए अशेष मंगल कामनाएं और स्नेहाशीष


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हमारी अन्तहीन और असमाप्त बातचीत में से कुछ हिस्से हम अपने पाठकों से साझा कर रहे हैं। जिसे हम मूल्यवान मानते हैं उसे हमें साझा करना चाहिए क्योंकि अपने को दोहराना भी पुनर्जन्म ही है और पाठकों के लिए अपने को संशोधित करने का एक अवसर भी... । धनंजय जी ने यह अवसर मुझे दिया और मैंने पाठकों को....। हमने एक बात और तय की कि हम इस बातचीत के अलावा एक दूसरे से छपाकर एक-दसरे पर एक-एक लेख भी लिखेंगे और क्या लिखेंगे इसकी हवा भी नहीं लगने देंगे। जो कुछ मन में है एक-दूसरे के लिए उसे छुपाएंगे नहीं और न ही इसका कोई बुरा मानेगा। मुलाहजे और मुरौवत के लिए इसमें कोई जगह नहीं होगी।


मेरे प्रश्नों पर पाठकों का ध्यान जाए, न जाए पर डॉ. वर्मा ने मेरे सारे प्रश्नों के उत्तर जितने विस्तार और गहराई से दिये, अपने को उघाड़ा और संकोच भी नहीं किया, जो जवाब देने थे मेरे प्रश्नों के माध्यम से औरों को, वे तीर भी निशाने पर लगे। हम दोनों अब अपने उम्र के चौथेपन में हैं तो मुझे पूछने और उन्हें खरे-खरे जवाब देने में कोई संकोच नहीं हुआ। (यह भूमिकावत' लिखते हुए भी मुझे पता नहीं है कि मुझे वर्मा जी पर क्या लिखना है। वे लिख चुके हैं मुझ पर अब तक या लिखेंगे, मैं नहीं जानता।.... अब सोचता हूं जो हो चुका, वही काफी था। फिर यह फितूर मुझे क्यों सूझा?)


___ ....यही अवसर है मेरे लिए जब मैं धनंजय जी के अटूट स्नेह, अपनत्व और इतनी खुली छूट लेने के लिए उनकी इस उदारता के प्रति 'आभार' (जो कि बहुत ही छोटा और अपर्याप्त शब्द है।) व्यक्त करना चाहता हूं। अपनी परेशानियों और व्यस्तताओं और गिरती सेहत की परवाह न करते हुए भी समय ही नहीं दिया, खुश भी हुए।


पुनश्च


____मेरी तो हार्दिक इच्छा थी कि भूमिका लिखने का काम भी वर्मा जी ही करेंयह दायित्व निबाहते हुए ज्यादा न्याय करते। ऐसी औपचारिकता का निर्वाह मुझ से कभी नहीं हुआ। मैं लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें राजी नहीं कर सका तो नहीं ही कर सका। फिर सोचा इस मौके पर इस बहाने अपने ही कुछ खुलासे कर दूँ। पाठक को कुछ मिले न मिले, वह बोर नहीं होगा।


6


और अन्त में


कविता


अर्थ नहीं, अनुभव होती है


क्यों कि वह भी सत्ता है


अप्रतिहत, अप्रमेय


अर्थ तो शब्द का होता है


और कविता में


शब्द -


सरोवर में डूबी सीढ़ी है


जहां हम समाप्त होते हैं


और सरोवर आरंभ होता है।


सीढ़ियां तो


केवल खड़े होने के लिए होती हैं


जब कि अवगाहन


सीढ़ीहीन सम्पूर्ण समर्पण मांगता है


इसलिए


शब्द पर जा कर खड़े मत रहो


शब्द का उल्लंघन ही कविता है


- श्री नरेश मेहता


.....और अब आपको भी इस सीढ़ी को छोड़ने का आमत्रंण । आमंत्रण-सम्पूर्ण अवगाहन के लिए।


28.08.2017


-प्रमोद त्रिवेदी


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प्रमोद त्रिवेदी


मेरे बचपन में 'रटन्त विद्या' का ही महत्व था। मान लिया गया था- 'घोकत विद्या खोदत पानी।' उसे ही विद्वान-ज्ञानी माना जाता, जिसे सब कुछ कंठस्थ होता था। आज की तरह शिक्षा-'बोझ नहीं होती थी। गिनी-चुनी किताबें होती थीं। घर पर भी बच्चों को रटवाया जाता था । कालांतर में वही सब संस्कार-व्यक्तित्व में झलकता था। मसलन मुझे महाकवि रहीम का यह दोहा ऐसा रटा कि हमेशा के लिए गांठ की तरह बंध गया-


"भले बुरे सब एक से, जौ लौं बोलत नाहिं।


जान परत हैं काक पिक ऋत बसंत के मांहि।।"


हम-पिक भी हो सकते हैं, यह ख्याल कभी आया ही नहीं। गफलत कुछ बोलकर- 'काक' सिद्ध न हो जाएं, इसलिए चुप रहना ही बेहतर समझा। उम्र बढ़ी, साथ में थोड़ी समझ भी, पर कवि रहीम की सीख को ही अपना लिया था। यही मेरा रक्षा कवच बन गया।' बसंत ऋतु आती तो भय गहरा हो जाता! डर लगता कहीं पोल न खुल जाए।.... यह तो बहुत बाद में समझ में आया कि- कौए का बोलना भी मधुर लगता है। मुंडेर पर कौआ बोलता तो मान लिया जाता था-अपना कोई प्रिय, आत्मीय, अतिथि आने वाला है। तो अपने को 'कौआ' मान लिए जाने का भय कम हुआ।


मेरे मालवीपन ने भी मुझे अपने सही कद का कभी अहसास होने ही नहीं दिया। मैं यदि पांच फुट छह इंच हूं तब भी अपने को पांच-चार के कद का ही माना! वह मेरा ही नहीं, हर मालवी आदमी की ग्रंथि रही। पर मालवी मानुस यह भी जानता था कि-'बोलना वाला घूला का भी पैसा खड़ा करी ले।' संकोच अभी भी है, पर थोड़ा बोलना भी आ गया। जरूरत भी थी। लोगों ने तो मुझे 'मौनी बाबा' कहना शुरू कर दिया था।


काफी बाद में मुझे लगा, किसी को खोलने के लिए खुद को खोलना जरूरी हैं।


स्व श्री नरेश मेहता-'प्रेमचंद सजन पीठ' के निदेशक हो कर उज्जैन आ गए थे। उनका बहुत स्नेह मिला तो उनसे यह भी सीखा कि कब-कहां कितना बोलना है और बोलने से बचने की कला भी थोड़ी उन्हीं से सीखी। उन पर कहीं से दबाव था कि कोई उनसे लम्बी बातचीत करे। सहज स्वीकृति न देने वाले श्री नरेश जी लगातार आग्रह से घिर गए थे। एक दिन उन्होंने मुझे पूछा-'पंडित यह काम तुम करोगे? और पंडित जी ने 'हां' कर दी। जो प्रश्न किये जाने थे नरेश जी को अच्छे लगे, पर जिस रूप में उसका लिखित रूप सामने आया वे खासे निराश थे। उन्होंने वह प्रारूप मांगा तक नहीं। पर 'पंडित जी' को उनकी विफलता ने बहुत कुछ सिखा दिया।...अर्से बाद मैंने खद उनसे बातचीत के लिए आग्रह किया। दिन तय हो गए और समय भी... । इस बार मैंने वह साक्षात्कार लिखा न ही-रचा। मन से रचा। इस अनुभव ने बहुत कुछ सिखाया


डॉ. धनंजय वर्मा से बातचीत करना आसान नहीं था। पता नहीं क्यों लग रहा था- हमारी चर्चा अभी पूरी नहीं होगी। यह बात क्यों मन में आयी, पता नहीं। इतना जरूर बतला दिया गया था उन्हें कि-सारे प्रश्नों के उत्तर जरूरी नहीं हैजहां थोडी भी असुविधा हो, आप वह प्रश्न छोड़ दें। आप प्रश्नों को देखकर मना भी कर देंगे तो मैं जरा भी बुरा नहीं मानूंगा। और जब आपको लगेगा-आज इतना ही हम उस दिन बातचीत वहीं रोक देंगे।


".....तो क्या बहुत लम्बा चलेगा यह सिलसिला?"


"अब आप से बातचीत जो होनी है।"


-"चलो भाई, तुम्हारे हवाले हो गए। जैसे चाहो-हांको।"


"हांकेंगे तो आप ही और दिशा भी देंगे।


-चलो।


तय जैसा तो कुछ भी नहीं था।


तय था तो इतना ही कि


हम साथ-साथ हो सकते हैं


और हो सका तो


बह भी सकते हैं दूर तक


साथ-साथ ।


थाह सकतें हैं जल- गहराइयाँ भी....


एक चट्टान थी बड़ी-सी।


उसके पीछे बहुत कुछ था।


हमेशा की तरह इस बार भी मुक्ति बोध ने


मुझ से कहा - 'कोशिश करो।


कोशिश करो....


जो था उस चट्टान के पीछे -


नायाब,


उसे भी नहीं पता था


कहां-कहां,


क्या-क्या


और कितना कुछ !!!


जो था संचित


बाहर आना चाहता था


हवा में...


धूप में....


सब में, बिखर जाना चाहता था।


बाहर आना,


भीतर से रीत जाना नहीं होता।


क्योंकि, पूरी तरह कोई


खाली होता ही नहीं है।


पत्तों के झड़ जाने पर लगे


पेड़ खाली हो गया


रहा भी कहाँ पत्तों के बिना


पेड़ पेड़!


पर यह तो अंतराल है छोटा - सा


अन्तःक्रिया के लिए।


कुछ नहीं के बावजूद पेड़ के पास


बहुत सी स्मृतियां हैं


बहुत सी स्मृतियों में वह


वैसा ही लहलहा रहा है!


महसूस करो तो हवा के पास भी हैं


कथाएँ,


उन पत्तियों की


वृक्ष की हरित साँसों की.....


धन्यवाद ज्ञापित करते हुए मैंने कहा


ये सारे फल मैं


अपने लिए नहीं


सहेज रहा हूं सब के लिए ।


चाहते हैं जो पाना मुझ से....


'आभार' जैसा होगा भी तो


वह मेरे लिए नहीं होगा


होगा,


तुम्हारे लिए ही पेड़


केवल तुम्हारे लिए