घर से बाहर जंगल

डायरी


जयप्रकाश मानस


नदी है तो


(27 मई 2014)


(27 मई 2014) नदी केवल धोती है। नदी केवल बोती है। नदी केवल खोती है। नदी केवल रोती है। नदी केवल सोती नहीं!


नदी और नींद का मेल कहां! नींद एक नदी है पर नदी कोई नींद नहीं। नदी सदा जागती है। वह सदा जगाती है। जगना उसका धर्म है। जगाना उसका कर्म । नदी की नीयत में दो ही बातें हैं-कर्म और धर्म । जो उसका कर्म है वही उसका धर्म । नदी का यही सच्चा मर्म।


नदी एक ताल है। छंद गति लय भी। सच कहो तो नदी जैसे जीवन का संगीत । जीवन कभी भी थमता कहां! बिन गाये नदी का मन भी रमता कहां! न थमना, केवल रमना ही नदी का जीवन है। बहते ही रहना, कुछ कहते रहना ही जीवन की नदी है।


दो तटों को मिलाना। फिर स्वयं खिलखिलाना। पास-पडोस को बलाना। कानों में बदबदाना। फिर मेले सजाना। नदी की ही रीति । नदी की ही नीति । नदी कभी अपना रीत नहीं छोड़ती। नदी भूल से भी प्रीत नहीं तोड़ती। जोड़ती-जोड़ती सिर्फ-सिर्फ जोड़ती।


नदी है तो जागती रहती हैं मछलियां । नदी है तो मल्लाह की रोती नहीं पुतलियाँनदी है तो चमकती रहती है डोंगियां।


नदी स्त्री है


(29 मई 2014)


एक उदास रात का शोर अर्थात् मुस्कान का ही भोर । उदासी आखिरी पहर का आचरण है। उदासी में भरमाना, उदासी में अलसाना सुबह का संकेत है।


सुबह है अनिवार्य नींद के बाद का विस्तार। वही है स्वप्न का आकार। वह एक घनी विश्रांति का उपरांत है। धरा पर सर्वश्रेष्ठ प्रांत है।


अथाह शांति सुबह का पहला लक्षण है। अविरल शांति क्रांति का पहला चरण है। शांति के बगैर हर क्रांति एक अनाहुत मरण है। मरण है इसलिए अनर्थ। सुबह भाषा में सबसे बड़ा शब्द है और व्याकरण का सबसे घना अर्थ।


परभाती के लिए तैनात खग वृंद उदास होकर रात भर कलपते नहीं। सोते हैं मन भर उदास घोसलों में ही। उदासी कभी कटती नहीं तड़पने पर। उदासी कभी मिटती नहीं सुबकने पर। नींद उदासी की काट है। स्वप्न ही उजियारे का बाट है। 


 उदासी अपरिचित पहाड़ नहीं, मात्र मुरझाया-सा, पथराया-सा बरसाती नाला है। आता है एक वेग से और जाने कहां चला जाता है।


__ नाला कभी नदी नहीं होता। नाला क्षणमात्र है, कभी सदी नहीं होता। नाला कभी उज्ज्वल नहीं होता। नाला नहीं धवल होता। नाला बहुत चपल होता है लेकिन वहां कमल नहीं होता।


नाला की उपस्थिति जीर्ण-शीर्ण, अवशिष्ट की अनुपस्थिति है। अनुपस्थिति एक जरूरत है। अनुपस्थिति एक हकीकत है। अनुपस्थिति ही नयी निर्मिति है।


एक जरूरत है। अनुपस्थिति एक हकीकत है। अनुपस्थिति ही नयी निर्मिति है। ___नदी में वह सिर्फ विसर्जित होना जानता है। वह नदी का शरणार्थी है। नदी स्त्री है इसलिए वह हर विसर्जन पर एक संभार है। शरण का आशरण। नाला पुरुष है इसलिए परुष भी। परुष ही पाषाण है। पाषाण ही उदास है। उदास नहीं होना है। पानी हैं हम प्यास नहीं होना है।


जंगल और घर


जंगल से आगे घर। घर के पीछे जंगल। जंगल के नीचे जंगल। ऊपर भी जंगल-जंगल। जंगल से दूर घर। घर से समीप जंगल । घर से बाहर जंगल। जंगल बाहर घर। भीतर-भीतर घर। जंगल बाहर-बाहर । घर में नहीं जंगल । जंगल में नहीं घर। घर है नहीं जंगल । जंगल भी नहीं घर।


सहधर्मिणी या रचनाकार


25 जून, 2014


आज उस रचनाकार को जन्म दिन की आत्मीय बधाई जिसने मेरे लिए अपना सबकुछ त्यागा और बिलकुल अपरिचित किसी नये ठौर को एक हँसतीखिलखिलाती दुनिया में रच-रच दिया। सहधर्मिणी का एक अर्थ रचनाकार भी क्यों


नहीं होना चाहिए!


दिल्ली में आदिवासी लड़कियां!


दिल्ली में आदिवासी लड़कियां


(18 सितंबर, 2014)


अभी-अभी 'युद्धरत आम आदमी' में विवेकमणि लकड़ा का आलेख पढ़ रहा था। वे बताते हैं-झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा असम आदि राज्यों से प्रतिदिन आदिवासी दिल्ली आ रहे हैं। दिल्ली में ऐसे आदिवासी निवासियों की संख्या 10 लाख है। इसमें से 10 प्रतिशत छात्र-छात्रा। 10 प्रतिशत बेरोजगार। और शेष 70-80 प्रतिशत संख्या, बंगलों, कोठियों, घरों में घरेलू कामकाज करने वाली युवतियों की है।


हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर प्रतिदिन 200 से ज्यादा लड़कियां उत्कल एक्सप्रेस से उतरती हैं। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हटिया-पठानकोट एक्सप्रेस से प्रतिदिन 150 से अधिक लडकियां आती हैं।


अब समाजशास्त्रीय तरीके से सोचने वाली बात यह है कि इनके सामने कैसी-कैसी चुनौतियां आ रही होंगी? दिल्ली में किस तरह इनका शारीरिक और मानसिक शोषण हो रहा होगा? प्लेसमेंट एजेंसी वाले और बड़े-बड़े आकाओं के बल पर किस तरह यह धंधा दिल्ली में पनप रहा है? आदिवासियों की हितचिंतक एनजीओ की भूमिका क्यों नहीं दिखाई देती इन मुद्दों पर? चिंताजनक तो है ही यह सब!


अमेरिका की अमीरी?


अमेरिका में करीब 1 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो रोजाना 2 डॉलर खर्च के साथ जी रहे हैं। उनका जीवन फुड स्टाम्प, सामाजिक कल्याण और सरकारी स्कूलों द्वारा दिए जाने वाले मुफ्त भोजन और सहायता के सहारे चलता है।


___ रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के शोधार्थी लॉरेंस चांडी के अनुसार अमेरिका में 4.6 करोड़ लोग 16 डॉलर प्रति दिन की गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं और दो करोड़ लोग प्रति दिन आठ डॉलर पर जी रहे हैं। चांडी ने अपने अध्ययन में यह भी कहा कि अमेरिका में नेताओं का मुख्य ध्यान मध्य वर्ग पर रहता है. इससे इस धारणा को बल मिलता है कि गरीबों की संख्या कम और अस्थायी है और मेहनत करने वाले धीरेधीरे समृद्ध हो जाएंगे।


इसका अर्थ यही नहीं कि वहां भी अधिकतर लोग बगैर मेहनत के मौज मस्ती चाहते हैं और भी कारण हैं। जैसे हमारे देश में वैसे वहां भी


घंटी की तरह बजते कुछ शब्द


(20 सितंबर, 2014) 1. सबको माफ कर देना चाहिए सिवा खद के। 2. रोशनी का श्रोत केवल श्मशान थे या चांद।


3. औरत, जाति और धर्म, इन तीनों के नाम पर बुजदिल, नरमदिल, नेकदिल भी खौफनाक बन जाता है।


4. आदमी के पास अपनी भूख-प्यास मिटाने के लिए आहार और जल नहीं था फिर वह जानवरों की फिक्र कैसे करता.... गाय-बैल पहले पहल मरें तो भूख से बेहाल दलित बस्ती में खुशी की लहर फैली थी कि अन्न के अभाव के वक्त मांस खाने को मिलेगा


(अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' पढ़ते हुए)


एक बात याद आ गई


(23 सितंबर 2014)


मेरे गांव में, मेरे घर के पीछे से देखें तो एक पहाड़ दिखता है। पहाड़ को मैं बचपन से इतना ही माना हूं कि कुछ देर तक वह सुबह की रोशनी को रोक देता है। बाकी वह कुछ भी नहीं बिगाड़ पाता।


पहाड़ के माथे पर मैं कई बार जाकर देख चुका हूं वह निर्जीव है। उससे कई बार पूछ चुका हूं-दद्दा कितने बड़े हो आखिर आप? वह कुछ कहां कह पाया हैउसके कानों में सिर्फ मेरा ही प्रश्न गूंजता रहा है। कदाचित आज भी...


पहाड़ के माथे पर मैं कई बार जाकर देख चुका हूं वह निर्जीव है। उससे कई बार पूछ चुका हूं-दद्दा कितने बड़े हो आखिर आप? वह कुछ कहां कह पाया हैउसके कानों में सिर्फ मेरा ही प्रश्न गूंजता रहा है। कदाचित आज भी...


___पहाड़ों का दिल नहीं होता। पहाड़ों के नाक-कान नहीं होते। पहाड़ों की काया होती है उनकी कोई माया नहीं होती। माया पराजित मानसिकता है और हम पहाड़ के पड़ोसी भला क्यों हार मान लें। हम घुड़सवार हैं और हमारे घोड़े ये वे सब पहाड़!


आज तक जो भी पहाड़ जैसे मेरे सामने अड़ते दिखे, मुझे किंचिंत भी भय न हुआ। पहाड़ को याद करता हूं तो सबसे पहले याद आता है बचपन का ऐसा ही कोई दिन.. मैं पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर किसी अपरिभाषित चट्टान पर पैर हिलाते


 बैठा हूं और मेरी गायें आसपास हरी-हरी घास चर रही हैं। मेरे बचपन के साथियों में कोई बाँसुरी बजा रहा है...कोई वनफूल देख मगन है...कोई करील काट रहा है... पहाड़ के ऊपर रहता है मन आज भी और मन के नीचे समचा आकाश!


___ हां, आप चाहे जितने भी बड़े पहाड़ हो, रहो। हमारे पैरों के बारे में कुछ भी नहीं पता आपको, जिन्हें पहाड़ों की ऊँचाई नापने का हुनर है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी।


एक बात याद आ गई बचपन का वही प्रश्न, जिसके घेरे में लेकर अपने वजूद पर सही निर्णय करता आया हूं मैं-'आप किस विधा के पहाड़ हो भाई! कितनी है आपकी जड़ों की गहराई !! आखिर है कितनी आपके मस्तक की निर्जनी-ऊँचाई!!!' बताऊं मैं या इस तरह ऐंठना त्यागोगे!!!


बताऊं मैं या इस तरह ऐंठना त्यागोगे!!! कवि की मृत्यु


कवि की मृत्यु


(25 सितंबर, 2015)


एक कवि उसी दिन से मरने लगता है जिस दिन से वह खुद को दोहराने लगता


है। यह बिलकुल अलग तथ्य है कि आज खुद के शव को सबसे जीवित और जागृत कवि बनाये रखने के बड़े सारे हथकंडे प्रचलन में हैं पर सारे के सारे पलभर के, बासीपन और चित-परिचित गंध से उबकाई के साथ, अनमना स्वीकारोक्ति के बीच कि कभी भली लगी थी जनाब की कविता! कवि याने सिर्फ कवि नहीं हर विधा का रचनाकार भी।


- आप पूछेगे-यह दोहराव क्या?


चाहे यह दोहराव कथ्य, भाव, भाषा, शैली, शिल्प, बिम्ब आदि-आदि किसी भी स्तर पर क्यों न हो, दोहराव ही है और यह दोहराव अमौलिक ही होता है क्यों कि यह दोहराव तो एक साधारण मनुष्य रोज-रोज करता है लेकिन दोहराव कवि का चरित्र नहीं।


कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की पंक्तियां याद आती हैं इसी वक्त-'कुछ 'महाकवि' मैं जानता हूं, जो मुहावरे, लोकोक्तियों, चुटकुलों, कहावतों और लोक साहित्य को कविता मैं बदल कर 'मेन्यु फेक्टरिंग कर कवि कहलाते कोई तो 'कल्याण' के विशेषांक को ही खंडकाव्य में 'टर्न' कर तुलसीदास हुए फिरते हैं ...अब मैं कवि नहीं रहा एक काला झंडा हूं।'


इस पर इलाहाबाद के इतिहासकार, लेखक हेरम्ब चतुर्वेदी जी कहते हैं-सही इसलिए क्योंकि, फिर सृजनशीलता क्या और कहां होगी?


बैर की मार्केटिंग


(2 अक्टूबर, 2014)


'बैर, क्रोध का अचार या मुरब्बा है।' -बिलकुल सही कहा था आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने। हाई स्कूल की पढ़ाई में कभी मास्साब ने पढ़ाया था, पर अब इसका एक नया अनुभव भी हो रहा कि वह ऐसा अचार है जिसका स्वाद न बनाने वाले को होता है, और न ही उसके खाने वाले को। सच तो यह है कि यह अचार है जिसके मार्केटिंग करने वालों को भी अंततः कुछ नहीं मिलता। मुझ पर उधार रहा


मुझ पर उधार रहा


(3 अक्टूबर, 2014)


(3 अक्टूबर, 2014) गांधी जी और शास्त्री जी को याद करना ही मेरे लिए अपना जन्म दिन मनाने जैसा है। मुंबई के जाने-माने संगीतकार और गायक शेखर सेन ने आज लिखाः अजीब आदमी है ये 'जयप्रकाश मानस'। पूरी दुनिया तोड़ने के नए-नए संसाधन खोज रही है और ये अपनी निर्मल भावना से सबको जोड़ने में लगा है साहित्य संस्कृति के सेतु पुरुष भाई 'जयप्रकाश मानस' जी को अगणित प्रणाम, तो मैं और भी शर्म से गड़ गया। मेरा उत्तरदायित्व और भी बढ़ गया कि मैं खुद को और खरा बनाता चलूं वर्ना मैं हूं भी क्या इस प्रतिभावान संसार में। पर उनका प्यार है यह और अतिशय उदार भी हैं शेखर भाई।


कल मेरे जिन सारे हितैषियों ने जन्म दिन पर मुझे अशीषा उन सभी का आभार


कि मैं ऋणी ही रहूंगा अब! सोन पत्ता और नीलकंठ


सोन पत्ता और नीलकंठ


(4 अक्टूबर, 2014)


 'बधाई' देना और 'आभार' मानना मनुष्य का संभवतः मूल स्वभाव है। आज भले ही मनुष्य किसी को बधाई देते समय ईर्ष्या या किसी उपकार के लिए आभार व्यक्त करते समय अहंकार जैसे अवांछित मानवीय विकारों से गुजरता है।


एक तरुण और ठेठ शहरी मित्र मुझसे फेसबुक पर जानना चाहते हैं-'दशहरा के दिन सोनपत्ता भेंट करने और नीलकंठ दर्शन का वैज्ञानिक आधार क्या है, जबकि हम भारतीय मंगल पर राज करने वाले हैं?'


बेशक करिये राज मंगल पर! रावण पर विजय पाने की खुशी में राम-लक्ष्मण और वानर-भालुओं की सेना ने जरूर एक-दूसरे को बधाई देने की युक्ति सोची होगी। जंगल में तब मिलता क्या! उन्हें यह सोन पत्ता ही सुंदर और प्यारा लगा हो! वही देकर एक-दूसरे से गले मिले होंगे शायद।


राम सामान्य आदिवासी जन की तरह ही महादेव के परम आराधक थे। रावण को जीतकर अयोध्या वापसी के समय नीलकंठ पक्षी को देखकर सहसा उन्हें महादेव की अनुकंपा का स्मरण हो आया हो और वे उसी के माध्यम से अपने को ही परम समर्थ न समझते हुए महादेव के प्रति आभार प्रकट किये हों।


प्यारे दोस्त! मनुष्य-मन की निष्कलुष भावनाओं को तकनीक और वैज्ञानिक औजारों से परखोगे तो भला कैसे समझ में आयेंगी ये जीवन संग्राम की स्वस्थ और सुंदर परंपरायें!


सोचें जरा मेरे दोस्त!


वास्तविक उत्तरदायी कौन?


पटना के दशहरा में कल जो लोग बेमौत मारे गये, इसके लिए राम की अव्यवस्था उत्तरदायी है या रावण की व्यवस्था? बिहार की जनता को गंभीरता से सोचना ही चाहिए!


'सिन्दूर खेला' का आशय


खेला' के साथ होती है'मां' की विदाई। पश्चिम बंगाल की यह रोचक परंपरा मुझे रह-रह कर याद आता है और यह पद भी 'या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।'


सिन्दूर सौभाग्य के साथ-साथ सौभाग्यशाली संतान की कामना का श्रीगणेश भी है। कदाचित् मातृशक्ति के चिर यौवन और अनंत-उर्वरा का प्रतीक भी है वह।


सारांशतः सृष्टि की मूल्यगत निरंतरता का प्रतीक ही है यह 'सिन्दूर खेला'। बंगला संस्कृति और परंपरा के विद्वान अपनी ओर से इसकी समीचीन व्याख्या कर सकते हैं।


मिर्ची और महाराष्ट्र का अटूट संबंध है। भाई मुझे तो यही समझ में आ रहा है। पिछले 3 दिनों से यही अनुभव हो रहा है, 2 दिन और इसी अनुभव से गुजरना हैऐसा नहीं कि दूसरे भूगोल वाले हम भारतीय मिर्ची नहीं खाते, पर यहां? बाप रे बाप! हर व्यंजन में तेज मिर्च । नाश्ते में मिर्च, भोजन में मिर्च । जैसे वह भोजन में नमक ही हो, मिर्च हो ही नहीं।


अब कोई आपला मानुस' ही बताये कि आखिर मराठी मानुस इतना मिर्च क्यों खाता है? चलो भारतीय तो ठीक है, पश्चिमी आदमी तो नानी याद करके भाग खड़ा हो!


भावना का अधिकार


आज हिन्दी आलोचना के प्रथम मनीषी, विद्वान समीक्षक और ख्यात निबंधकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पावन जयंती है।


अभी-अभी उनकी पोती और सुपरिचित कवयित्री-कथाकार डॉ. मुक्ता जी को बधाई देकर आचार्य जी पर बात कर रहा था कि ज्ञात हुआ-शुकुल जी पूर्णिमा के दिन जन्मे थे, इसलिए उसके आधार पर वाराणसी में 6 अक्टूबर की पूर्व संध्या पर स्मरण-आयोजन और जयंती मनाई जा रही है।


मुक्ता जी का एक नया कथा संग्रह पिछले सप्ताह ही दिल्ली में चंद्रकांता जी के हाथों संपन्न हुआ है-'किस करवट'!


मुक्ता जी को इस कृति पर बधाई देते वक्त, मुझे लगा कि मेरे श्रद्धास्पद आंखों सामने आचार्य जी नहीं तो क्या हुआ, उनकी पोती तो हैं ही! मन की पवित्र भावना का इतना अधिकार तो बनता ही है!!


अनार और बीमार


नासिक में इन दिनों, जिधर देखें-अनार ही अनार छाया हुआ है। वहां अनार का आनंद लेना अधिक सुखद है-100 रुपये में 5 किलो। रास्ते में एक किसान से पूछा तो पता चला भाऊ को मात्र 10-12 रुपये ही मिल रहे हैं थोक बिक्री में। यानी बिचौलियों के कारण किसान को अनार भी बीमार होने से नहीं बचा सकता? उसके देह में रक्त की मात्रा बढ़ेगी आखिर कैसे?


मैं बनता हूं चोर चलो


(7 अक्टूबर, 2014)


 बड़े-बड़े कवि भी बाल-कविता नहीं लिखते या नहीं लिख सकते । लिख भी लिया तो उसे सार्वजनिक नहीं करते। जैसे उसके छपने मात्र से वे कवि न होकर बाल-कवि ही सिद्ध हो उठेंगे। यानी वे दोयम और घटिया बन जायेंगे। जैसे महान् होना कविता ही लिखना होता है!


राम-राम! कैसी सोच है? पर यह हिन्दी साहित्य का एक बड़ा सच है। इस सच्चाई को आजकल के लगभग कवि-कवयित्री ठुकराते हुए ही दिखते हैं। जैसे उनमें कभी बाल सुलभ भावनायें रही ही नहीं, सीधे 'महादेवी वर्मा' बन गई हों या 'मृदुला गर्ग'!


लेकिन जब अनुप्रिया इसे पूरी तरह झुठला कर एक संवेदनशील कवयित्री होने का परिचय देती हैं तो मन को संतोष होता है।


वह कविता भी स्तरीय और अपील योग्य लिख रही हैं और बाल-कविता भी। स्कैच तो वे बढ़िया बना ही रही हैं।


फिलहाल उनकी एक बाल-गीत जो 'अंतिम जन' के जुलाई अंक से मुझे लुभा रहा है, आप भी पढ़ें तो एक बार और बतायें कितना मौलिक आस्वाद है यहां, रस-छंद-अलंकार कैसा सुगठित है यहां :


आज पढ़ाई कितनी कर ली/ अब तो खेलें खेल/एक पल का है गुस्सा अपना/ एक पल का है मेल/ छुपन-छुपाई खेलें हम/ या पकड़म-पकड़ाई/ या फिर कोई नया खेल/तुम भी सोचो भाई/छुक-छुक रेल खेलें या/खेलें डेंगा पानी/या फिर करते हैं हम सब/मिलकर कोई शैतानी/मैं बनता हूंचोर चलो/ तुम सब बनो सिपाही/भागो अब तो जोर लगाके, पीछे पलटन आई/ वापसी यानी?, (6 अक्टूबर, 2014)


वापसी एक नयी यात्रा हैयानी एक अपरिचित स्थल की ओर गमन या कदाचित आगमन भी। जब गमन और आगमन एक जैसे अनुभव से जोड़ दें तो उसे सच्ची यात्रा कहते है। यात्रा जीवन है। जीव को शायद इन्हीं मतलबों में एक यात्री कहा जाता रहा है।


फिलहाल मैं अजंता, एलोरा, त्रैम्बकेश्वर, शनि शिंगनापुर, शिरडी, दौलताबाद, बीबी के मकबरे, नासिक के खेतों, औरंगाबाद की गलियों, नागपुर के चौपालों से लौट रहा हूं या किसी नये अनुभव संसार से जुड़ने लगा हूं


रायपुर आना घर आना है। एक दुनिया को अपने भीतर जज्ब करके।


घर लौटना संसार से पड़ोस में लौटना है। घर लौटना एक बड़े शहर से एक छोटे से गांव में लौटना भी है। लौटना फिर से कहीं जाना है। यह आना-जाना ही जीवन है।


जब तक जीवन है तब तक आना-जाना बचा रहेगा!, इस आने-जाने में हम सब बचे रहेंगे!!,


अदृश्य बलि


  देवी-देवताओं के नाम पर मूक पशु-पक्षियों की हत्या ही सिर्फ बलि नहीं है, गरीब, असहाय, अबला, संकट और समस्या से ग्रस्त जन का मौका पाकर आर्थिक, शारीरिक, मानसिक शोषण भी प्रकारांतर से बलि है।


यह दीगर तथ्य है कि यहां जान नहीं जाती पर ऐसी बलि का शिकार हुआ दुखी व्यक्ति कैसे जीता है, कितना जीता है-सभी को पता है।


और सबसे शर्मनाक यह भी कि बलि का दिखावे के लिए विरोध करने वाले ऐसे लोग अक्सर इस अदृश्य बलि-कर्म में सर्वाधिक सक्रिय देखे जाते हैं।


छोटा-बड़ा/ संवेदना बड़ी या रचनाकार/ रचनाकार बड़ा या रचना/ रचना बड़ी या


पुरस्कार/पुरस्कार बड़ा या पुरस्कार दाता/ पुरस्कार दाता बड़ा या चयनकर्ता/ माना कि सभी बड़े-बड़े/ पर पाठक कहां बड़ा! शीर्षक अर्थात


शीर्षक अर्थात


'शीर्षक' पाठक से रिश्ता बनाने का पहला मंत्र है। 'शीर्षक' एक सम्मोहन है जो पढ़ने वाले को अपने भुजपाश में घेर-घेर लेता है। यह रुचि-संपन्न पाठकों को पाठकीयता के किले में स्वमेव प्रवेश करने के लिए विवश करने वाला मनभावन मीनार है, जो दूर से अपनी ओर राहगीरों को खींचता रहता है।


'शीर्षक' रचना की प्रथम कला है। रचनाकार का वास्तविक कौशल है, पहला परिचय है। अभिव्यक्ति की जड है जिस पर कथ्य का विशाल और संदर वक्ष खडा रहता है। भव्य प्रासाद की नींव है। रचना यदि नदी है तो शीर्षक नदी का उद्गम ।


_ 'शीर्षक' के कृशकाय गढ़ने वाले रचनाकारों को देखकर एक योग्य पाठक के रूप में मुझे यदि यही उक्ति याद आती है : 'प्रथम ग्रासे मक्षिका पात:' तो भोथरा 'शीर्षक' गढ़ने वाला कोई रचनाकार मुझे अपना पाठक बनाने के लिए कैसे और क्यों विवश कर सकता है?


कदापि नहीं !


इतनी भूमिका के बाद मैं आपसे कवि लीलाधर जगूड़ी की एक किताब/ कविता की ओर ले चलता हूं : अब आप स्वयं मात्र 'शीर्षक' पढ़िए और कविता बिना पढ़े सब कुछ पढ़-पढ़ लीजिए-'खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है।'


है न यहां-'शीर्षक' ही लगभग संपूर्ण कविता! लगभग संपूर्ण भावार्थ भी। नहीं है तो बेशक बताइये!


लेन-देन


अमीर, अमीरों को ही अधिक उधार देता है पर गरीब गरीबों से ही अधिक उधार लेता है।


पर आप तो चिरगंवार हैं!


(8 अक्टूबर, 2014)


बहुत दिनों के बाद आज हिंदी के सुपरिचित आलोचक-कवि ओम निश्चल जी से बात हो रही थी। बात-ही-बात में उनसे पुराने दिनों के कई रोचक प्रसंग सुनने को मिले। अब कहां जी मानेगा मेरा आपसे कहे बिना! फिलहाल उनमें से एक आज (पर पहले यह याद कर लें कि मैथिलीशरण गुप्त चिरगांव से थे और हजारीप्रसाद द्विवेदी बलिया से):


ओम जी बता रहे थे-'यह किस्सा मेरे सूचना विभाग के निदेशक और कवि ठाकुर प्रसाद सिंह ने सुनाया था। वे हमारी पत्रिका उत्तर प्रदेश के प्रधान संपादक थे उन दिनों। हम लोग मैथिलीशरण गुप्त पर अंक केंद्रित कर रहे थे, तब की बात है।


एक बार उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान कार्यालय, लखनऊ में दद्दा यानी मैथिलीशरण गुप्त और हजारीप्रसाद जी मिले। दोनों आपस में बतिया रहे थे। दद्दा ने कहा-'अरे भाई आप तो बलियाटिक हुए न!'


...तो हजारीप्रसाद जी हाजिरजवाबी के साथ बोले-'अरे मैं तो बलियाटिक हूं ही, पर आप तो चिरगंवार हैं।'


फिर क्या था, एक अट्टहास खिल उठा हजारीप्रसाद जी के मुखमंडल पर। ऐसा था तब के साहित्यिकों का हंसी-ठठ्ठा । आज ऐसा कोई कहे तो लोग कोपभवन में जाकर बैठ जाएं।


 हर लेखक अनन्य होता है


 हर लेखक अनन्य होता है। चाहे वो महान से महान हो या तुच्छ से तुच्छ। किसी भी लेखक जैसा कोई दूसरा नहीं होता। हो ही नहीं सकता। जैसे पांच अगुलियाँ एक-सी नहीं होती। किसी लेखक को किसी परंपरा का निरूपित करना दरअसल बेमानी है। यह आलोचना की नहीं, मूलतः आलोचकों की कमजोरी जैसी ही है। इसके पीछे आलोचक-समीक्षकों की काहिली ही उत्तरदायी है। ऐसे काहिल समीक्षक ही समीक्षा का साधारणीकरण करते हुए रचनाकार को किसी न किसी परंपरा का बताकर अपने कर्तव्यों का इतिश्री कर लेते हैं। यह निहायत अलग मुद्दा है कि हर लेखक अपने वरिष्ठ से सीखता है। कमी-वेशी जरूर हो सकती है। क्या ऐसे में यह नहीं कहा जाना चाहिए कि परंपरा बरक्स लेखक को केंद्र में रखने वाली इस आलोचना प्रविधि ने लेखक को बौना नहीं कर दिया है?


संसार का दरवाजा पड़ोस में खुलता है


नयी यात्रा के पहले


(11 अक्टूबर 2014)


मित्र की अंतिम यात्रा से लौटकर


श्मशान-यात्रा अनिवार्य कर्म है


मानसिक हो न हो, कायिक तो है ही। शामिल होना अपरिहार्य है इसमें।


अंतिम यात्रा इसलिए इसे कहा जाता रहा है कि इसके बाद यात्री के सारे हाथपांव अकारज ही हो जाते हैं यानी और कोई यात्रा न तो की जा सकती है न ही किसी ज्ञान-विज्ञान-दर्शन के अनुयायियों को ऐसी विद्या मिली हुई है कि वह कोई नयी यात्रा की औकात दे सके। लेकिन इसे वस्त्र और देह की चर्चा कर गीता में नयी यात्रा का शुभारंभ भी माना गया है। फिर भी यह देह और वस्त्र की पवित्रता पर निर्भर है।


सबके लिए नयी यात्रा की ग्यारंटी देह और वस्त्र की परमायु पर निर्भर है।


श्मशान आव्हान है जीवन का!


श्मशान बस्ती से दूर नहीं सबसे समीपस्थ स्थल है। सच कहें तो यह सर्वत्र


किसी अदृश्य उपस्थिति की जरूरी संज्ञा है।


सबसे अहम यात्रा है यह। दरअसल इसी यात्रा के बाद जिंदगी परवान चढ़ती है। यहां से पहले सब कुछ चलता है। यहां से सब कुछ गलने लगता है। जो कुछ बचा रहता है वही सच्चा और सार्थक जिंदगी है। शरीर गलना बड़ी बात नहीं, आत्मा से किये धरे का भी उतना ही बचता है जितना बचने की योग्यता उस आत्मा में हो।


यह सबसे पवित्र यात्रा भी है। इसमें सभी शामिल होते हैं। कांधा देते हैं। काष्ठ और घृत भी। यात्री के सारे नादानियों को भुला भी देते हैं अंतिम भेंट स्वरूप कि जा मित्र तुझे माफ किया।


यह विस्मरण और स्मरण की द्वंद्वात्मक यात्रा है। इसमें सम्मिलिति ही स्मरण की समाप्ति का सर्वोच्च सूचक है। आपके यात्री बनते ही आपकी जगह पर किसी और की उपस्थिति की यात्रा प्रारंभ हो जाती है। आपकी जितनी अनुपस्थिति उतनी ही औरों की उपस्थिति।


यहां फूल के रंग की कसौटी होती है कि आपने किस माटी से रस लिया और उसे ही किस कदर धूल समझा? कितनी तितलियां आपसे मकरंद जुटाती रहीं? कितने फूलचुहकी आपके करीब आकर धनी-मानी बनती रहीं? कितने दूर तक में आपके सुवास से मन की मुग्धता आकर्षित होती रही?


इस यात्रा की बाध्यता है कि जेएनयू, बीएचयू भी छोड़कर जाना पड़ता है। किसी ने सागर छोड़ा। किसी ने भुवनेश्वर। देवालय, मंत्रालय, सचिवालय छोड़कर जाना पड़ता है। गांव-गंवार को कोई इल्म नहीं ऐसी पदवियों का। जिसे भी आप ऐतिहासिक सिद्ध करते हैं वे इसी यात्रा के बाद ही ऐतिहासिक हैं। जाना तो है ही बड़े से बड़े भूगोल के निवासी होकर भी।


बुद्ध, गांधी, ईसा, अरस्तु सभी ने इस यात्रा को स्वीकार किया। इस यात्रा का स्वीकार मनुष्य मात्र का सच्चा परिष्कार है। यात्रा का अंतिम होना तिरस्कार का कोई कारण नहीं।


आदिम जातियां सबसे ज्ञानी हैं। वे अंतिम यात्रा को उत्सव की मानिंद लेते हैं। उनकी यह विद्या मुझे सदैव बौनी बनाती रही है।


आप अपने परदादा के पिता के गुणों को नहीं जान पा रहे अभी। कल इस यात्रा के बाद क्या जान पायेंगे? और इसी क्रम में आपका नामलेवा कितने दिन तक यात्रा में शामिल न होगा?


चाहे जहां-जहां की यात्रा विशेषज्ञ हों। चाहे जितने बड़े विचारक, बुद्धिजीवी, महर्षि हों इस यात्रा में कोई रियायत नहीं। अमुक राम त्रिपाठी के साहबजादे हैं। अमुक रियासत में आपकी नाभि गाड़ी गई हो। अमुक-अमुक अलंकार मिले होंअमुक-अमुक नामवर की कृतियों का क्यों न आपने संपादन किया हो। कोई फर्क


नहीं पड़ता इस यात्रा के संयोजक को। आपका सारा रुतबा किसी कौडी में भी नापे जाने योग्य नहीं रह जाता।


श्मशान-यात्रा में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं होता। आये हैं सो जायेंगे राजा रंक फकीर। कोई छूट नहीं। अहंकारी को भी नहीं। आप किसी भी संगठन के कार्ड होल्डर हों, कितनों को गुर्राते, गरियाते हों यहां तो आपका कोई कार्ड काम नहीं आता। कोई अवकाश स्वीकृत नहीं किया सकता आपके आवेदन पर।


__ और यह तो कदापि न बतायें कि आप नोबेल हैं, बुकरी हैं, ज्ञानपीठी हैं, आदि-आदि जो भी हैं जितने भी सम्मानित हैं-कोई मुरौव्वत नहीं इस यात्रा से बच निकलने के लिए


बच्चन जी से यह आशा न थी


(15 अक्टूबर, 2014)


धर्मयुग के समय को याद करते हुए मनमोहन सरल जी ने लिखा है


'तब तक शायद नंदन जी (कन्हैया लाल नंदन) की नियुक्ति नहीं हुई थी, या वे किसी वजह से उपलब्ध नहीं थे। यह पहला अवसर नहीं था, नंदनजी कई महत्वहपूर्ण अवसरों पर मौजूद नहीं रहे थे


__ ऐसा ही एक अवसर था जब प्रख्यात कवि रामधारीसिंह दिनकर का निधन हुआ। अंक (धर्मयुग) लगभग तैयार था। भारती जी मॉरीशस गए हुए थे और नंदन जी छुट्टी पर थे।


___ मैंने हरिवंशराय बच्चन से उनका साक्षात्कार लेने के लिए फोन किया, जिसके उत्तर में उन्होंने कहा कि मैं दिनकरजी पर बहुत सहानुभूतिपूर्ण नहीं बोल पाऊंगा। मुझे उनसे हमेशा कई शिकायतें रही हैं। मैं इंटरव्यू में अगर उन सबका भी उल्लेख करूं तो क्या आप छापना चाहेंगे? बच्चन जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार से मुझे यह आशा न थी।


यह तो मुझे मालूम था कि दिनकरजी से उनके रिश्ते अच्छे नहीं रहे हैं किंतु यह उन शिकायतों को रेखांकित करने का समय न था। फिर पद्मा सचदेव से लिखवाया गया। नरेंद्र शर्मा का साक्षात्कार करा लिया तथा अन्य सामग्री तुरंत ही दिल्ली से मँगवा ली थी।'


क्या सचमुच ऐसा ही होता है। साहित्य की संवेदनशील और सरोकारी दुनिया में?


अचला नागर, अमृतलाल नागर की बेटी हैं, सुपरिचित लेखिका हैं। वे मुझे जवाब देती हैं- 'जी, वाकई ऐसा भी होता है...मैंने 1982 से लगभग दो वर्ष विविध भारती में कार्यक्रम अधिकारी के पद पर भी कार्य किया, हिंदी वार्ता, जयमाला, हवामहल, इनसे मिलिए आदि सभी कार्यक्रम में देख रही थी, तब तक फिल्म नगरी। चूंकि खार, बांद्रा, जुहू, पाली हिल की तरफ सिमट चुकी थी, फिल्मवालों को interview के लिए चर्च गेट स्थित विविध भारती बुलाना मुश्किल होता था, पर एक तो तब 'निकाह ताजी ताजी release हुई थी, लोग नाम से मुझे जानने लगे थे ...इसलिए मेरी जीतोड़ कोशिशों का जवाब मुझे मिलने लगा। मैं आशाजी जैसी उन कलाकार को भी स्टूडियो में ले आई, जो उससे पहले interview देने के लिए कभी राजी नहीं हुई थी, उनका आना अपने आपमें एक अलग दिलचस्प किस्सा है, मैं सरलजी की बात पर कुछ कह रही थी, शंकर जयकिशन जी की प्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी में से जयकिशन जी का काफी पहले ही निधन हो चुका था, उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करने के लिए सादर मैंने शंकरजी को बुलाया ...शायद गलती हो गयी, उन्होंने जय किशन जी के बारे मैं इस तरह की बातें कहनी शुरू कर दी जैसे जो भी संगीत जोड़ी ने रचा...उसका असली श्रेय शंकर जी को ही जाना चाहिए था ...और भी कुछ कड़वी बातें कहना शुरू किया, और मैंने fader नीचे कर दिया और उनसे क्षमा मांगते कहा, कि हम यहां उन्हें याद करने के लिए आये हैं...जो चला गया उसकी सिर्फ अच्छी बातें ही ऐसे मौकों पर याद की जानी चाहिए ...ऐसे मंच personal बातों के लिए नहीं होते...।'


मैं गुन ही रहा था कि अमेरिका से हिंदी के मूर्धन्य गीतकार पं. नरेन्द्र शर्मा की बेटी ने 'कई बरसों के बाद उनके निधन की दुखद घटना के बारे में मेरी अम्मा ने जो रोमांचक बात बतलाई थी वह याद आ रही है-दिनकर चाचा जी किन्हीं निजी मामलों में उलझ कर असंतुष्ट थे। उनके जीवन की संध्याकाल में वे अपनों से ही शायद किन्हीं कारणों से मन ही मन कुछ खिन्नता महसूस कर रहे थे।


इसी मनःस्थिति में वे भुवनेश्वर के सुप्रसिद्ध जगन्नाथ धाम मंदिर के लिये अपना घर छोड़कर वे यात्रा पर निकले थे-जैसे ही मंदिर के प्रांगण में उन्होंने प्रवेश किया और भक्ति भाव से दोनों हाथ प्रणाम मुद्रा में उपर की ओर उठाये और प्रभु की जय हो!' की गुहार की, ठीक उसी वक्त, दैव योग से कवि के प्राण पखेरु उड़ गये!


ये कितनी विस्मयकारी बात है ना?


उनकी आत्मा दिव्य रही होगी जो प्रभु ने वहीं पर उन्हें अपनी शरण में ले लिया!


लाल किले की प्राचीर से देशभक्ति की वीर रस से ओत-प्रोत कविताओं का सस्वर पाठ करने वाले हमारे राष्ट्रकवि दिनकर जी चाचाजी हिन्दी काव्य जगत के अनमोल रतन हैं।'


बड़ा कौन


जंगल बड़ा नहीं, बादल भी कहां बड़ा, बड़ा तो मोर भी नहीं, मोर का नाच देखने वाला बड़ा और नाच देखने वाले से भी बड़ा उस नाच की चर्चा करने वाला और सच पूछे तो नाच की चर्चा सुनने वाला ही बड़ा।