एक मौसम आदतों का भी

कहानी


अनिता सभरवाल


जिंदगी अजीब-अजीब आदतें डाल देती है और कई बार ये आदतें इंसान के अंदर इस तरह हावी हो जाती हैं कि वह खुद को बदला हुआ महसूस करता है, जैसे किसी तेज दवा के असर में कोई मरीज! और दवा का असर जब खत्म होता है तो? अपनी असलियत को भूलकर या अपनी कमजोरी को नजर अंदाज करके समाज के अंदर के चेहरे से नावाकिफ मिठू की जिंदगी ने भी उसके अंदर बेशुमार नई आदतें उसके मन में....बात-बेबात मुस्कराने की आदत... किसी को पसंद करने की-नहीं, किसी को चाहने की आदत...बिना बरसात के इन्द्रधनुष देखने की आदत...खुद को आइने में देखने की आदत... किसी एक चेहरे और आवाज के समुद्र में डूबकर अपने को ही भूल जाने की आदत... और भी काफी कुछ बदल गया था मिठ्ठ में। फिर एक सच ने उसकी सारी आदतें लम्हे भर में ही खत्म कर दी थीं।


पर कोई पूछे जरा इस लड़की से, 'क्या ऐसे कुछ खत्म हो सकता है?' बिल्कुल नहीं हो सकता।


बिल्कुल नहीं हो सकता। 


मिठू ऐसे कर भी कैसे सकती है?


कैसे वसंत की बातें करते-करते सपनों के पीले-लाल फूलों को पतझड़ की बदरंग चादर ओढ़ा दे?


कैसे सुनहरी धूप से चमकते-दमकते इंद्रधनुष को रात के अंधेरे से ढंक दे?


कैसे मान लें कि कुछ हुआ ही नहीं?


जो लम्हा पहले आया, वह भ्रम था या यह भ्रम है?


अब क्या मिट्ठ यही तय करती रहेगी ता उम्र?


यह सच या भ्रम अचानक ही नहीं उग आया था उसके मन में। एक रास्ता बना, फिर उस रास्ते के आसपास कई पगडंडियां पग धरे-बस एक पगडंडी पहँच गई फेन्स के उस पार!


अभी कुछ महीने पहले ही की तो बात है, जब सब ठीक-ठाक ही था... उस दिन मिठू को उदास देखकर मां ने कहा था, 'कोई बात नहीं मिठू कहते हैं न गुड फेन्सिज मेक कुड नेबर्स।'


'सच में आपको ऐसा लगता है?'


'हां भी और न भी।'


'क्या मतलब?'


'मतलब यह कि थोड़ी दूरी और थोड़ी नजदीकी।'


'पहले तो दीवार नही थीं तो भी ऐसा ही होता था मां।'


मां और मिठू दोनों ही एक-दूसरे का मन पढ़ना जानती हैं। इस बार भी पढ़ा और मुस्कुरा दी दोनों।


लेकिन मिठू को अच्छा नहीं लगा। उसने तो कितना ही वक्त इस घर के इस बाहर वाले वरांडे में बिताया है। उसके दोनों तरफ के घरों में कोई दीवार नहीं थी। बस मेंहदी की बाड़ थी। वह भी ज्यादा ऊंची नहीं। दाईं ओर रहने वाले अजू-रज्जू ने तो इसी बाड़ में से आने-जाने का रास्ता बना रखा था। आंटी और मां भी वहीं से बातें करती थीं। उसके लिए कुछ खास बनाकर भेजती थीं आंटी, जो वह भी इसी रास्ते से आता था। और तो और इस घर का पालतू खरगोश भी मौका मिलते ही बई बार इसी जगह पर आकर बैठ जाता था। पता नहीं कैसे? शायद उसे पता चल गया था कि यहां सब मिठू से बाते करने आते हैं सो वह भी आने लगा... झक्क सफेद बनी! इतना सफेद! किसी भी डिटरजेंट की चमकदार सफेदी से ज्यादा सफेद! भी ब्लीच की ब्लीचिंग से ज्यादा साफ। हैरान हो जाती थी वह। और आंखें? कैसी लाललाल? उसे अनार के पारदर्शी लाल-लाल दाने याद आते थे इन आंखों को देखकर। उसे कभी भी नहीं लगता था कि वे रियल हैं।


_ 'अज्जू, सच बताओ, इसकी आंखों का रंग ऐसा क्यों है? चमकीली क्यों हैं?' एक बार उसने पूछा था।


'अरे मिठू इसे लैंस जो लगवाए हैं।' यह सुनकर वह थोड़ी देर तो चुप रही फिर सबके साथ वह भी हंस दी।


मां भी बेफिक्र रहती थीं तब। अवन्तिका आंटी और रजत अंकल कितना तो ध्यान रखते थे उनकी बेटी कावे तो सारा दिन ऑफिस में रहती थीं। मिठ्ठ के पापा भी नहीं रहे थे न। हां, रोजी आंटी भी थीं। अभी भी हैं। वह तो बहुत प्यार करती हैं मिठू को। कहती हैं कि उसकी शादी होगी तो उसी के साथ ही जाएंगी उसकी ससुराल । यह सुनकर मां और मिठू पहले तो मुस्कराती हैं, फिर हंसती हैं फिर तीनों ही खामोश हो जाती हैं।


_ अज्जू-रज्जू खूब याद आते हैं मिठू को।


__ रजत अंकल का ट्रांसफर हो गया था। खूब उदास हो गई मिठू । जिस दिन वे जा रहे थे उस दिन वह अपने कमरे में से ही नहीं निकली थी। आंटी ने कितनी मिन्नत की। रो ही पड़ीं वे। तब कहीं दरवाजा खोला था। अज्जू-रज्जू ने कहा था वह चाहे तो बनी को रख सकती है। वह खुश हुई थी लेकिन मां ने मना कर दिया। दो कारण थे इसके। एक तो बनी अज्जू-रज्जू से खूब हिला हुआ था। वे दोनों उसके बिना उदास हो जाते। दूसरे, वह सारा दिन ऑफिस में रहती थीं, उसकी देखभाल कौन करता? रोजी आंटी के पास वैसे ही खूब काम थे।


____ मिठू टुकटुक खाली घर की ओर देखती रहती। भगवान से दुआ करती कि वह फिर से आ जाएं यहां।


अब वह बाड़ भी तो गुड फेन्स ही थी न? उसके बारे में आसानी से कहा जा सकता था, 'गुड फेन्सिज आर मोर कम्फरटेबल फॉर प्रॉपर गॉसिपिंग।'


अब उसका सारा ध्यान बाईं ओर वाले घर की तरफ हो गया था। वहाँ बॉबी भैया थे, जो पढ़ाई में उसकी मदद करते थे। उनकी दादी भी थीं। वह भी मिळू से खूब बातें करती थीं। वे तो दिन में एक बार जरूर कुछ देर के लिए उसके पास आती थीं। जब मंदिर से लौटती थीं न तब भी। उसे प्रसाद देतीं और ढेर सारा आशीर्वाद। इसके अलावा उसका बाकी का फालतू वक्त फिर से सामने की सड़क देखते हुए बीतने लगा। यह तबकी बात है जब सड़कों पर इतना भीड़-भड़क्का नहीं होता था। उसे वहां से निकलने वाली हर कार-जीप और स्कूटर के बारे में पता था। और तो और उसे नम्बर भी याद हो गए थे इन गाड़ियों के। किसकी गाड़ी है, कौन कितने बजे आता-जाता है। वक्त थोड़ा-सा बेवक्त हो जाए तो वह बेचैन हो उठती। 'रोजी आंटी, खन्ना अंकल अभी तक नहीं आए न...और पता है आज विक्की भैया की रॉयल-एन-फिल्ड तो सुबह भी नहीं दिखी। क्या हुआ होगा? और मालूम मेरे स्कूल की बस अब इधर से आती ही नहीं, क्यों रोजी आंटी?'


'जब हमारा प्यारी मिठू ठीक होगा न तभी तो बस इधर आएगा। हमने बोला जब तक मिठू स्कूल जाने लायक नहीं होता, बस भी नई आएगा। और तुम सबको लेकर क्यों परेशान रहता है? हो सकता है विक्की आज कॉलेज गया ही न हो। खन्ना अंकल मार्केट में कहीं रुक गया हो। माई गॉड, कौन जल्दी आया, कौन देर से, हम इसपे टाइम नहीं वेस्ट कर सकता है।'


मुद्दा तो फेंस को लेकर था न?


फिर उस घर में साफ-सफाई होने लगी। पौधों की कटिंग हुई। फिर एक नया परिवार आया वहां रहने के लिए। स्मिता आंटी, दीपक अंकल और उनकी बेटी डेजी। मिठू से एक क्लास पीछे। दोनों में, नई-नई-सी जान-पहचान वाली, थोड़ीथोड़ी-सी दोस्ती हुई। मां उनके घर गई। आंटी भी आई। उन्होंने यह नहीं पूछा कि मिठ्ठ स्कूल क्यों नहीं जाती। बस यही कहा कि वे फिक्र न करें। वे उसका ध्यान रखेंगी। सबको अच्छी लगी यह बात । हां, उनके घर एक बड़ा-सा डॉगी भी थाब्रूनो। सुबह डेजी और आंटी उसे हैलो कहते। डेजी बाय करती। अंकल भी मुस्कुराते और हाल पूछते। डेजी स्कूल की बातें बताती, वहीं मेंहदी की बाड़ के पास खड़े होकर । बनी वाली जगह पर। मिठू की मुस्कराहट लौट रही थी, पर कमजोर थी यह मुस्कुराहट। उस दिन तो वह अवाक रह गई जब आंटी ने अपने घर में, बाड़ के साथ-साथ एक दीवार चुनवा दी। ज्यादा ऊंची नहीं थी यह दीवार पर मिठू की दुनिया की रौनक खत्म-सी हो गई। उसकी कमजोर मुस्कराहट ने वहीं दम तोड़ दिया। अभी भी डेजी दीवार के उस पार से बात करती थी। अंकल-आंटी भी लेकिन...। फिर मिठू डेजी के जन्म-दिन पर गई। डेजी उसके जन्म-दिन पर आई। लेकिन अज्जु-रज्जु वाली बात नहीं बनी


'मां, उनसे कहो न कि दीवार गिरा दें।'


'ऐसे कैसे कह दें बेटा? उनकी मर्जी... अपने घर में कौन क्या करता है, कैसे रहता है, हमें इस बात से कोई मतलब नहीं होना चाहिए। सबका अपना तरीका होता है। मैं जहां तक समझती हूं, यह दीवार उन्होंने हमारे भले के लिए ही बनवाई होगी'


'मतलब?'


'यानीकि ब्रूनो को इधर आने से रोकने के लिए। मान लो वह बनी वाले रास्ते से इधर आ जाए तो? हमारी मिठ्ठ बिटिया डर नहीं जाएगी? उन्होंने तो तुम्हारा ध्यान रखा है न? डोगी है तो कितना बड़ा। पता नहीं कौन-सी ब्रीड है?' कहकर मां कुछ काम में लग गई। वह ऐसा जान-बूझकर करती हैं। मतलब ऐसे में कोई सवाल उछालना।


'अरे आपको नहीं पता? यह जर्मन शेपर्ड है।' फिर काफी देर तरह-तरह के डॉगी की ही बात होती रही।


अब क्योंकि सर्दी का मौसम आ गया था तो बॉबी की दादी ने उसके लिए क्रोशिए की बेहद खूबसूरत टोपी बनाई । ऊनी दस्ताने भी। टोपी में तो वह बिल्कुल गुड़िया लगती थी। उसका ज्यादा ध्यान फिर से बाई ओर वाले घर की तरफ और सड़क पर आने-जाने वाले लोगों की तरफ हो गया था। सब तो उसे पहचानते थे।


फिर मां ने एक खूबसूरत एक्योरियम बनवाया और उसमें ढेर सारी रंग-बिरंगी मछलियां डलवाई । सब मिठू की पसंद की। उसका ध्यान बंटाने के लिए ही। उस दिन खन्ना अंकल आए थे। वे ही मिठू रोजी आंटी और मां को बाजार ले गए थे। मछलियां दिवाने । मिठू पिछले एक साल में पहली बार इतनी खुश हुई थी। उसका मन बहलने लगा। अब डेजी भी ज्यादा आने लगी थी। वह अपना होमवर्क वहीं करने लगी, उस वक्त जब मिठू को टीचर पढ़ाने आती थीं। मां ने राहत की सांस ली।


फिर मिठू दसवीं में आ गई। मां ने कहा था बाड़ या दीवार के होने या न होने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। सब अपने मन की बात होती है। ठीक ही कहा था उन्होंने, अब मिठू भी यही सोचती थी। पर इस साल पढ़ाई में ज्यादा मेहनत करनी होगी। वह हफ्ते में दो बार स्कूल जाने लगी। पेपर्स हो गए। एक साल और बीत गया -मिठू अब कैसियो और वॉयलिन बजाना सीखेगी।


'ठीक मिठू?' मिठू खुश। डेजी ने कहा वह भी सीखेगी।


तभी उन लोगों को घर बदलना पड़ा। 'मां क्यों सब चले जाते हैं? हम यहां क्यों रहते हैं?'


अगर हम चले गए तो सब तुम्हें याद करेंगे न, जैसे तुम करती हो? सब उदास हो जाएँगे अपनी प्यारी मिठ्ठ को याद करके।'


माँ और मिठू दोनों जानती हैं कि अब उसे ऐसी बातों से बहलाया नहीं जा सकता । वह बड़ी हो गई है। आंटी ने आकर बताया था कि इस घर के मालिक अब यहीं आकर रहेंगे। उदास मिठू को समझाया था उन्होंने, 'हम इसी शहर में तो रहेंगेआते रहेंगे न तुमसे मिलने । एक बार सैटिल हो जाएं तो तुम्हें भी ले जाऊंगी अपने घर फिर तुम भी आना। आओगी न?'


अजजु-रज्जु गए थे तो वह रोई थी। कमरे में से नहीं निकली थीडेजी गई तो वह वरांडे में थी। रोई नहीं पर आंखें भर आई थीं।


मां देख रही थीं कि वह अब चुप रहने लगी थी। इसलिए उन्होंने जल्दी संगीत सीखने का इंतजाम कर दिया। बॉबी भैया के पास कैसियो था और टीचर भी वही लाए थे। मिठू ने कहा भी, 'बॉबी भैया, आप ही सिखा दो न।'


अब उसमें एक अलग तरह की मेच्योरिटी आ रही थी। कितना खर्चा हो रहा है उस पर, वह समझती है। बीमार होने के कारण, घर पर टयूशन्स लगी रहती हैंदवा-डॉक्टर्स का खर्च अलग से। अब यह कैसियो... मां को नहीं पता कि वह ऐसी हो गई है। मां की तकलीफ को वह अब अलग नजरिए से देखती थी। खुद की बेबसी को अलग नजरिए से।


___'न बाबा, तुझे कौन सिखाए? तेरी गलती होगी न तो भी डांट तो मुझे ही पड़ेगीवो भी तुझी से।' सब हंसे थे। मिठ्ठू भी।


रोजी आंटी ने भी एक दिन कहा था, अब तो मिठू खाने-पीने में बिल्कुल भी नखरा नई करता। सब खाता है। कब्बी नई कहता कि ये नई खाएगा, वो नई खाएगा।


'अरे रोजी आंटी, खाएगा-पिएगा तो लड़के के लिए बोलते हैं।'


'हमें नई पता बेबी, किसके लिए क्या बोलना है...तुम तो हमारा प्यारा मिठू बस...'।


'और क्या। मिठ्ठ तो तोता होता है न । इसीलिए तुम्हें ऐसे बुलाती हैं रोजी दी'। एक बार फिर तीनों हंस दी थीं। पता नहीं इन बातों से माहौल हल्का होता था या और भी बोझिल...।


रोजी आंटी चार साल से इस घर में हैं। जब मिठू, मां और पापा का एक्सीडेंट हुआ था, तभी से। पापा तो उन्हें हमेशा के लिए छोड़ गए थे। हॉस्पिटल में मां खुद को ही नहीं सम्भाल पा रही थीं मिठ्ठ को क्या देखतीं। तब रोजी आंटी ने ही दोनों को सम्भाला था और जब उन्हें पता चला कि मिठ्ठ और माँ का इस दुनिया में और कोई नहीं तो उन्होंने नर्स की अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और इस घर में आ गईएक अधिकार और अपनेपन के साथ। आज तक वे खुद ही नहीं समझ सकीं कि एकदम उन्हें क्या हो गया था जो इस बच्ची के लिए यहां आ गई सब छोड़कर। बस दूसरी मां हैं वह मिठू के लिए।


एक दिन अज्जु-रज्जु वाले घर में कुछ लोग आ गए रहने के लिए। मिठू अब इस घर की तरफ ध्यान ही नहीं देती। अब वह वरांडे में भी बहुत कम बैठती है। बॉबी उसके लिए लाइब्रेरी से किताबें लाता है। वह संगीत भी सीखती है। बॉबी की दीदी से क्रोशिया बुनना भी सीख रही है। फिर रोज फिजियोथेरिपी के लिए भी जाना होता है। वहां भी बॉबी भैया और मां ले जाते हैं। उसे अब थोड़ा ठीक लगने लगा है। उसने कोशिश ही नहीं की देखने-जानने की कि कौन आया है इस घर में।


__ वहां आए थे रंजीत अंकल, राधा आंटी, उनका बेटा रोनित और बेटी रिशिता। बर्तन-झाडू करने वाली लक्ष्मीताई ने ही बताया था, 'यह इन्हीं लोगों का मकान है। अब यह मकान कभी खाली नहीं होगा। अब अपनी मिठू को उदासी नहीं होएगी। मिठू की तरह परमामेंट रहेंगे ये लोग।'


'परमामेंट नहीं लक्ष्मी ताई, परमानेन्ट।' मिठू ने हंसते हुए उसे ठीक किया था।


मिठू को दिखते थे वे लोग। अंकल, आंटी और रिशिता को देखा था। अभी तक किसी ने हाय-हैलो नहीं की थी। मिठू भी अब नहीं बुलाएगी किसी को। उसे नहीं मतलब रखना किसी से। दख ही होता है बाद में।


संडे को वह बाहर बैठी थी। उस दिन न संगीत वाले सर को आना था और न ही मिठू को कहीं जाना था। वह पढ़ रही थी। कोई नॉवल शायद।


उसने किसी के गुनगुनाने की आवाज सुनी... 'ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत ...कौन हो तुम बतलाओ...' यह रोनित था। अपनी बाइक साफ कर रहा था। मिठू ने उस तरफ देखा। तभी उसने भी मिठू को देखा और मुस्कराकर हैलो कहा। मिठू को समझ में ही नहीं आया कि क्या करे। धीरे से हैलो कहा। मुसकुरा नहीं पाई। शायद बड़ी हो गई है या अब मुस्कुराना चाहती ही नहीं। उसी शाम वह फिर मुस्कुरायाअब वह भी मुस्कुराई। अक्सर वह दिखने लगा और मिठू का ध्यान फिर इस घर की तरफ थोड़ा-थोड़ा जाने लगा। मिठू ने सोचा, नहीं-नहीं मिठू ने अचानक ही चाहा कि अब इस घर में रहने वाले कहीं न जाएं। भले ही धूप-छांव की तरह दिखें। मेहंदी की हिलती टहनियों में से आती घूप-छांव की तरह अभी आई, अभी गई। कभी है, कभी नहीं। आज मिली तो कल नहीं...बस ऐसे ही...अरे हां, वे तो कभी जाएंगे ही नहीं। लक्ष्मी ताई ने बताया तो था। मुस्कुरा दी, अकेले ही।


अब उसे दीवार से कोई शिकायत नहीं। पर अभी तक उधर से किसी ने कोई भी बात नहीं की थी।


पर अभी भी असली मुद्दा तो दीवार को लेकर ही था।


राधा आंटी ने गजब ही कर दिया। स्मिता आंटी ने जो दीवार चुनवाई थी न, ब्रूनो की बजह से, उसे थोड़ा और ऊंचा कर दिया। मिठू के अंदर कुछ दरका। अभी इस बारे में मां से कुछ बात हुई भी नहीं कि अगले रोज देखा कि दीवार पर बांस की फेंसिग हो रही थी। अब इसकी क्या जरूरत थी? पर यह तो मिठू की सोच थी। या किसी और की भी हो सकती थी। इस घर के लोग अब दूसरों के हिसाब से थोड़े ही चलेंगे?


मिठ्ठू ने मां से कहा भी, 'मां, अब फेंसिग की क्या जरूरत थी भला?


'अरे, वे कहती हैं कि इन घरों में कोई प्राइवेसी नहीं है। हर वक्त कोई न कोई ताक-झांक करता रहता है। अरे, किसके पास इतना टैम है इदर-उदर देखने का ...बस हमारी मिठू बैठती है बाहर... पर वह भी कम हो गई, जब से अज्जू-रज्जू गए हैं। अरे बच्ची है, बीमार है... उसका मन ऐसेई बहलता है... फिर अपने घर में बैठी है... इनको क्या तकलीफ? क्या आफत हो गई भला? उधर वाले बंगले में बॉबी की दादी होती हैं। बस । लक्ष्मी ताई बर्तन पटक-पटककर बोलती जा रही थीउसने देखा ही नहीं कि मिठू सुन रही है। रोजी ने उसकी नम आंखें देखीं तो लक्ष्मी ताई को डांटा, 'बेबी के सामने ऐसी बातें नई करने का...।


लक्ष्मी ताई ने मिठू को देखा और अपनी जुबान काट ली।


'उन्होंने सिर्फ इसी तरफ दीवार ऊंची नहीं करवाई है। चारों तरफ की करवाई है और रेलिंग भी चारों तरफ लगवाई है। दरअसल हम लोग तो बाहर बैठते नहीं, ये लोग लॉन में सुबह-शाम काफी वक्त बिताते है, शायद इसीलिए। ठीक ही तो है। प्राइवेसी तो चाहिए ही होती है। इसमें गलत क्या है?' मां ने कनखियों से मिळू की ओर देखते हुए कहा।


___ मां को नहीं पता कि यह दीवार की ऊंचाई बढ़ाने का मौसम नहीं था। रोजी आंटी, लक्ष्मी ताई और मां तो कुछ समझ ही नहीं सकतीं। उनके लिए तो मिठू बस मिठू ही हैं। न छोटी, न बड़ी। उन्हें क्या यह नहीं पता कि अज्जू-रजू के जाने और रोनित के आने के बीच लगभग तीन-चार साल का फासला।


दीवार की ऊंचाई क्या बढ़ी, मिठू दो हिस्सों में बंट गई।


एक हिस्सा दीवार के उस पार, एक इस पार।


उस पार मतलब कि रोनित के पास रह गया एक हिस्सा?


मिठू का दिमाग फिर गया है क्या? लगता तो ऐसा ही है।


बाइक से आता-जाता दिखता रहता उसे रोनित। कभी बैडमिंटन खेलने के लिए। कभी-कभी उसे देखकर मुस्कराता भी। बाइक साफ कर रहा हो तो गुनगुनाता रहता रोनित । वह हर वक्त बाहर नहीं रहती। कभी-कभी ही आती है उसके सामने तो। खिड़की में से ही देखती रहती है। रोनित उसकी नजरों में, उस दिल में कब बस गया कोई नहीं जानता। वह खुद ही नहीं फैसला कर पा रही कि यह है क्या। उसे समझना चाहिए कि मौसम कोई भी हो हमेशा थोड़े ही रहता? अब वह मौसम भले मुस्कराहटों का हो, चाहतों का हो या फिर मौसम हो सर्दी-गर्मी या बारिश का...या फिर दीवारों के ऊंचा होने का! इनकी आदत न ही पड़े तो अच्छा...सो दीवार के इस पार अकेली-उदास मिठू रेलिंग के बीच में से अपने इंद्रधनुष के रंग पकड़ने में लगी रहती है। हर बार पूरा इंद्रधनुष नहीं आता हाथ में । कभी कोई रंग तो कभी कोई। फिर भी वह मुस्कुराती रहती है। उसकी सोच अचानक से बदल गई इस दीवार को लेकर। खुद से कहा उसने देखा मिठू, दीवार के ऊंची-नीची होने से रिश्ते बनते-टूटते नहीं। रिश्ते इस पथरीली जमीन में से नहीं, दिल की जमीन में पैदा होते ही....वह पनपते हैं, सांसों और धड़कन के साथ। इन ईंटगारे की दीवारों से न बंटते हैं न ही रुकते हैं... वे तो हर फेंसिग, हर रेलिंग से बहुत ऊपर होते हैं।'


___ तो इन्हीं दिनों मां को लगा था कि मिठू उदास है इसलिए उसे खुश करने को कहा था, 'मिठू बेटा, गुड फेंसिज मेक गुड नेबर्स।'


पर मिठ्ठ तो खुश थी इसीलिए मुस्कुराकर कहा,' हां मां, मुझे भी यह सच लगता है।'


फिर भी उनके बात न करने और न आने से उसे अजीब तो लगता ही था। क्या रिशिता का मन नहीं होता होगा मिठू से बात करने का? और आंटी का मां से?


कुछ दिन बाद वह केसियो बजा रही थी। उसने खिड़की में से देखा, रोनित दीवार के उस पार खड़ा उसे ही देख रहा था। रेलिंग में से। क्या खूबसूरत मुस्कुराहट थी। उसने मिठू को हैलो कहा और कहा, 'आप तो बहुत अच्छा प्ले करती हैंअमेजिंग! उसने एक गहरी नजर से मिठू को देखा। मिठू तो सांस लेना ही भूल गई। वह चला गया। उस एक नजर ने सोलह साल की मिठठ की सारी जिंदगी जैसे अपनी नजरों से पढ़कर खुद में उतार ली थी। और मिठू? उसका तो सब कुछ ही उलट-पुलट हो गया। कई दिन तो उसे पता ही नहीं चला कि खन्ना अंकल की गाड़ी आई या नहीं। विक्की भैया कॉलेज गए या नहीं। बॉबी किताब लाया था या नहीं। शर्मा अंकल का डॉगी ठीक हआ या नहीं। कहां गए अज-रज्ज, डेजी। और तो और उसे देखकर जेतली अंकल का डांगी गुर्राया या नहीं, वो भी नहीं पता चला उसे । जेतली अंकल तो हैरान ही हो गए थे। मिठू को तो बस एक ही आवाज सुनाई देती थीरोनित की मोटरसाइकिल की, एक ही चेहरा दिखता था-रोनित का। मोटरसाइकिल के स्टार्ट होने की आवाज से लेकर उसके घर आकर बंद होने की आवाज में ही सीमित हो गई इस लड़की की जिंदगी ।


इस बात के लगभग दस दिन बाद वह वरांडे में बैठी कोई नॉवल पढ़ रही थी। तभी गेट के सामने रोनित की बाईक रूकी। उसने हैलो कहा और मिठू को फिर बड़े ही ध्यान से देखा। मिठू ने भी हैलो कहा और लेकिन मुस्कुरा ही नहीं पाई। शरमाकर रह गई। उसे अपने गालों पर गर्मी-सी महसूस हुई। वह चला गया तो उसे होश आया। कितनी बुद्धू है वह। उसे अंदर आने को भी नहीं कहा। क्या सोच रहा होगा वह?


काफी दिन इसी तरह बीत गए। उस रोज इतवार था। शाम के वक्त रोनित की मां और पापा आए थे।


मां बहुत अच्छे से मिली थीं उन्हें। मिठू भी उस वक्त वहीं थी। उसने मुस्कुराकर नमस्ते की।


___'सॉरी, हम लोग इतने दिन से आ ही नहीं पाए। घर बदलना कितना टफ होता है, आप तो जानती ही हैं। हमें पता ही नहीं था आपकी बिटिया के बारे में। वह तो रोनित, मेरे बेटे ने बताया तो पता चला। हम सोचते तो थे कि यह ज्यादातर यहीं बैठी क्यों रहती है पर हैंडीकैप्ड है, पता नहीं था... वह तो एक दिन उसने देख लिया, ही, फिर उसने रिशिता को कहा था कि उसे यहां आना चाहिए।'


अंकल ने इशारा भी किया लेकिन बात निकल ही गई थी या जान-बूझकर निकाली गई थी। मिठू अपनी कुर्सी धकेलते हुए अपने कमरे में चली गई।


मां स्तब्ध थीं। ऐसा तो कभी नहीं बोला किसी ने। मिठू के सामने तो बिल्कुल भी नहीं। जब सच दिख ही रहा है तो कहना जरूरी है, बच्चे के सामने?


'इसके पापा...? रोजी आंटी चाय ले आई थीं। उन्होंने कुछ नहीं सुना था वरना बता देती अभी इस आंटी को तो


___वह नहीं हैं... कार एक्सीडेंट में नहीं रहे... उसी में मिठू की टांगे ऐसी हो गईं। अब तो बहुत फर्क है। खुद सब करने लगी है। डॉक्टर्स का कहना है कि अगले साल तक चलने लगेगी।'


'हां, अब तो हर चीज का इलाज हो जाता है। मैं रिशिता को भेजा करूंगी इसके पास।


'रोनित कह रहा था मिठू बिटिया कैसियो बहुत अच्छा बजाती है। अंकल ने कहा तो मां ने जबरदस्ती मुस्कुराते हुए गर्दन हिलाई।


फिर उसकी क्लास, विषय और हॉबीज के बारे में बातें होती रहीं। अंकल ने उसे बाहर बुलाया और उसकी बहुत तारीफ कीवह खामोश रही।


'अच्छा, हम चलते हैं। किसी भी तरह की कोई जरूरत हो तो कहिएगा आप तो दिनभर बाहर रहती हैं न । फिक्र न कीजिएगा, हम देखते रहेंगे।' आंटी वरांडे की सीढ़ी उतरते हुए बोली थीं।


___ 'बैंक्यू । पर हमें किसी चीज की जरूरत नहीं। मिठू अपना ख्याल खुद रख लेती है और रोजी दीदी हैं ही।'


मिठू तो चुप ही हो गई थी। उसे लगा जैसे किसी ने कोई दुख भरी दास्तान कही हो और सारे लफ्ज अंधेरा बनकर, जमीन पर, उसके आप-पास फैल गए होंऐसी दास्तान, जिसका साथ धूप ने बहुत पहले ही छोड़ दिया हो।


'कैसे बदतमीज लोग है?' मां ने अंदर आकर कहा।


'इसमें गलत भी क्या है मां? अब मैं जो हूं, जैसी हूं, वही कहा उन्होंने । मैं भी भूल ही गई थी कि मेरी असलियत क्या है। है तो सच न?' जबकि यह सच बुरी तरह से जख्मी कर गया था।


___ है तो सच ही मिठू पर यह सच तुम उस दिन क्यों भूल गई थीं जब तुमने रोनित को देखा था? आज यह सच्चाई तीर की तरह क्यों चुभ रही है? तब क्यों नहीं इसे महसूस किया जब सब भूलकर रोनित और उसकी मोटरसाइकिल में ही सिमट गई थी तुम्हारी दुनिया?' खुद से कहा उसने।


'पर मेरा अपाहिज होना उसे ही क्यों दिखा? और किसी को क्यों नहीं? वह सिर्फ इसीलिए रुका था मेरे गेट पर और मैं क्या-क्या सोचने लगी। उसे मेरी व्हील चेअर तो दिखी मेरी आंखों का प्यार नहीं दिखा?'


मिठू के आंसू रुक ही नहीं रहे थे।


'काश, यह दीवार और ऊंची हो जाए। काश, ये लोग यहां से चलें जाएं। पर ये तो यहीं रहेंगे। उसने विश भी तो किया था कि बेशक दीवार ऊंची हो लेकिन ये अब यहां से न जाएं। और लक्ष्मी ताई ने भी तो कहा था कि ये परमानेंट ही रहेंगे। अगर दीवारें रिश्ते बनाती हैं तो खत्म भी करती हैं।


अब मिठू क्या करे? इंतजार करें? अगर रोनित भी किसी मौसम की तरह आया था तो फिर से आएगा न यह मौसम? या आंधी-तूफान की तरह निकल जाने के लिए ही आया था। अब अगले मौसम का इंतजार करना भी उसकी आदत में शुमार हो जाएगा क्या?


कोई बताए तो सही मिठू को कि कुछ मौसम फिर से आने के लिए नहीं होते ....जिंदगी सच ही में अजीब आदतें डाल देती है...