दुःरव में तुम्हारी हंसी

कविता


अशोक सिंह


जब-जब मेरी फटेहाली


फटे-जूते में ठुकी कील-सी


पांव में चुभती थी


तब-तब


मोतियों से चमकते


तुम्हारे दांतों की दुविधा-हंसी


मुझे अंधेरे में


आगे का रास्ता दिखाती थी।


 


एक पेड़ की तरह थी तुम मेरे लिए


मेरी कितनी जरूरत थी तुम्हें


या फिर तुम्हारी मुझे


इन सब बातों को लेकर अब


कोई हिसाब-किताब नहीं करना चाहता मैं


वैसे भी क्या रखा है अब


इन घिसी-पिटी पुरानी बातों की बतकही में


हां इतना भर जरूर कह सकता हूं


एक लंबे अंतराल के बाद


तुमसे अलग रहते हुए


घर से काम पर जाने


और काम से घर लौटने के रास्ते में


एक पेड़ की तरह थी वह मेरे लिए


एक पेड़ की तरह


जहां कभी-कभार थोड़ा रुक कर


सुस्ता लिया करता था मैं


जिंदगी की भाग-दौड़ से थक-हार कर!


अपनी तमाम कमजोरियां स्वीकारते हुए


यह सच है


मेरी कई कमजोरियां हैं


स्वीकारता हूं मैं


अपनी वह तमाम कमजोरियां


जो गिनाना चाहती हो तुम मुझमें


पर क्या तुम जानती हो


मेरी तमाम कमजोरियों में


एक बड़ी कमजोरी तुम भी हो?