दोहे

मनोज जैन 'मधुर'


काठ हुई संवेदना,समझ सकी कब पीर।


आखिर मन तो मन रहा.धरता कब तक धीर।।


 


सुमिरन करते राम का, बजा बजाकर गाल।


चिंतन में बुनते रहे, मकड़ी जैसा जाल


मंथन में निकला नहीं, रत्तीभर नवनीत


हार हुई सच की यहां, हुई झूठ की जीत ।।


 


घर-घर में फले-फले. कैसा यह पाखंड।


श्रद्धा को मिलता रहा, किंतु अकारण दंड।।


 


धन वैभव चाहूं नहीं, यूं ही रहूं विपन्न


नाथ मुझे करते रहो, सदा दृष्टि संपन्न ।।


समता मूलक सोच है, फिर भी रहते मौन


हमसे बढ़कर बोलिये, जनवादी है कौन।।


विविध भांति जब-जब हुई, है जीवन की खोज


पैनापन हमने भरा, दोहों में हर रोज ।।


जलूं दीप सा रातभर, फैला सकू उजास।


मैं भी कहना चाहता,दोहों में कुछ खास ।


चिंतन में बहती रहे,धारा यही पुनीत ।।


परम्परा से प्रेम हो, संसृति से हो प्रीत ।।


 


शोक कलुष नैराश्य के, हर ले सब छलछन्द।


जीवन के हर स्रोत में, भर दाता आनन्द।।