बहुत अकेला हो गया हूं मैं तुम्हारे बिना

कविता


पूर्णिमा ढिल्लन


बहुत अकेला हो गया हूं मैं तुम्हारे जाने के बाद सुबह की गुलाबी ठंड में लॉन पर बैठा


सुबह की गुलाबी ठंड में लॉन पर बैठा


कागज पर अपनी कलम गड़ाये बेसुध डूब जाता था पूरी तरह


डूब जाता था पूरी तरह


तब तुम्हारा धीरे से आकर


कंधे पर शाल डालते हुए


मीठी सी घुड़कियों के साथ मुझे डांटना


और चाय के प्याले के साथ


तुम्हारे स्नेहिल स्पर्श की गरमाहट


और बदन की भीनी-भीनी खुशबू की महक


वातावरण को महकाती तुम्हारे प्रेम की बयार


बहुत याद आती है मुझे


आज चाय के अकेले प्याले की तरह


कितना अकेला हो गया हूं मैं


कितनी बेस्वाद और कड़वी सी लगती अब ये


चाय तुम्हारे बिना


जीवन के पचास वर्ष तमाम उतार चढ़ाव के साथ


कितनी आसानी से बीत गये थे


मगर तुम्हारे बिना ये एक वर्ष


उन पचास वर्षों से कहीं ज्यादा लंबा लगता है


तन्हाई के इन पलों में एहसास होता है


तुम्हारी उस पीड़ा का


मेरा डांटना लड़ना झगड़ना टोकना


और खामोशी से तुम्हारा उस दर्द को सहना


तुम्हारे जाने के बाद बहुत याद आता है।