और मैं कुछ नहीं कर सका

कहानी


डॉ. रमेश पोरवरियाल 'निशंक'


'पापा, पापा! एक जुलाई को मेरा स्कूल खुलना है। मुझे अगले महीने नया बस्ता और नई कॉपी-किताबें जरूर ले आना।" मचलती हुई छ: वर्षीय रेनू ने दयाल से कहा।


___ 'हां बेटी जरूर लाऊंगा, वह भी स्कूल खुलने के पन्द्रह दिन पहले, ताकि मेरी रानी बेटी पहले ही सारी किताबें रट ले।' दयाल ने उसे गोदी में उठाकर चूम लिया।


'पापा पन्द्रह दिन पहले...। कुछ सोचती हुई रेनू बोली पापा आप कितनी तारीख को आओगे?


'बेटा सोलह जून को मैं तेरा बस्ता और किताबें लेकर घर आऊंगा...समझी मेरी राजकुमारी!


___'हां पापा समझ गई, लेकिन भूलना मत ! मैं इन्तजार करूंगी।' पापा के गले में अपनी नन्ही बाहें झुलाते हुये रेनू बोली।


___'मैं वादा करता हूं रेनू सोलह तारीख को तेरा बस्ता लेकर आऊंगा।' पापाबिटिया की बातें चल ही रही थीं कि अन्दर से दयाल की मां रोली-अक्षत की थाली में धूपबत्ती जलाकर ले आयी।


सबसे पहले मां ने डब्बू का टीका किया, फिर दयाल का। दयाल ने मां के पैर छकर आशीर्वाद लिया। मां ने दयाल के सिर पर हाथ रखकर कहा- 'जा बेटा, राजीखशी रहना। अपने शरीर का ध्यान रखना और टैम पर खाना खा लेना.' फिर डब्ब का माथा चूमकर उसे भी आशीष दिया और सिर सहलाकर दयाल की ओर इशारा करके कहा- 'डब्बू का विशेष ध्यान देना। इसकी साफ-सफाई खाने-पीने में कमी मत करना। ये अगर जरा भी कमजोर हुआ तो फिर...।' इतने में दयाल की पत्नी सुशीला ने कहा-'डब्बू को बड़े नाजों से पाला है। बेटा है ये इस घर का। इसलिए तुम भी बेटे जैसा ही रखना इसको।' सुशीला ने डब्बू के सिर पर हाथ फेरा और उसके गले में बंधे पट्टे में झूल रहे खांकरों और घंटियों की आवाज से वातावरण में मधुर ध्वनि फैल गई। आज डब्बू की आंखों में खासी चमक व मुख पर तेज था, वह उत्साहित था।


_ 'डब्बू तू इनको लेकर जल्दी आना और रेनू का बस्ता, कॉपी-किताब जरूर ले आना।' सुशीला ने कहा तो डब्बू से, लेकिन अप्रत्यक्ष में सुनाया पति को।


___ 'हां बोल दे डब्बू! आ जायेंगे जल्दी।' दयाल ने भी उसी अंदाज में कहा तो सुशीला मुस्करा दी।


दयाल ने फिर मां के पैर छुये, और घुटनों के बल बैठकर रेनू का माथा चूमा और उसके गाल सहलाये। सुशीला की ओर प्यार भरी दृष्टि से देखकर डब्बू से बोला- 'चल डब्बू।' और फिर दोनों चल पड़े दोनों अपने गन्तव्य की ओर।


कमर में मखमली कम्बल और उसके ऊपर कसी काठी के साथ डब्बू इस बार की यात्रा के लिये दयाल के साथ जाने को खूब सजा धजा था।


इस परिवार के साथ पिछले चार वर्षों से था डब्बू । चार यात्रायें की थी उसने दयाल के साथ। वह सिर्फ घोड़ा नहीं था बल्कि इस परिवार का एक सदस्य ही था। दयाल उसे अपना बेटा मानता था। आखिर उसकी मेहनत से ही तो दयाल का घर परिवार चलता था। संवेदनायें उसके अन्दर कूट-कूट कर भरी थी, सिर्फ आवाज ही तो नहीं है उसके अन्दर। यात्रा सीजन में दोनों खूब मेहनत करते । यात्रा शुरू होते ही वे गांव से निकल जाते और पूरे छ: माह तक उनका ठिकाना गौरीकुण्ड में रहता, लेकिन हर महीने एक बार वे जरूर घर आते, वह भी सिर्फ एक रात के लिए।


सुबह ही दयाल डब्बू को काठी कसकर तैयार कर लेता और घोड़ा स्टैंड पर खड़ा हो जाता। डब्बू का सुन्दर चिकना शरीर और अच्छी सेहत देखकर उसे तुरन्त ग्राहक मिल जाता। मस्ती के साथ डब्बू केदार की चढ़ाई पर आगे-आगे चलता और पीछे-पीछे हाथ में बारीक सी छड़ी लिये दयाल 'हो, हो, ऊबो-ऊबो, चल-चल।' कहते हुये उसी गति से उसके पीछे बढ़ता। दिनभर में दो चक्कर मार लेता था डब्बू। पहले चक्कर में वापस आकर दयाल तो थक जाता, किन्तु डब्ब फिर भी तनकर खडा रहता। दयाल उसके मुंह में चनों से भरा थैला लगाकर उसके गले में लटका देता और खुद चाय और बन्द खाता । एक और चक्कर मारने के बाद दोनों गौरीकुण्ड में ही रुक जाते। दयाल रघु लाला के बरामदे में अपना बिस्तर डालता और ठीक सामने सड़क पार डब्बू का पैर खूटी से बंधी रस्सी में बांध देता। दिनभर में दो चक्कर मारकर बारह सौ रुपये दयाल के हाथ में आते, जिसमें वह दो सौ रुपये अपने और डब्बू के खाने में खर्च करता। बाकी के हजार रुपये वह रघु लाला के पास जमा करा देता, जिनको वह महीने-दो महीने में गांव जाते समय ले लेता।


मई का पूरा महीना अच्छा गुजर गया। जून में यात्रा पूरे चरम पर है, लेकिन दयाल को अच्छी तरह याद है कि उसे रेनू के लिये नया बस्ता और नई किताबें लेकर घर जाना है। वह भी स्कूल खुलने से पन्द्रह दिन पहले, उसने वायदा किया था बेटी से। एक जुलाई को उसका स्कूल खुलना है। इस हिसाब से पन्द्रह दिन ही तो बच गये हैं आज।


सोलह जून को उसने एक चक्कर केदारनाथ का लगाया, फिर गौरीकुण्ड पहुंचकर डब्बू को खूटी से बांधकर बाजार में सामान लेने चला गया।


'क्यों दयाल आज दुबारा केदार नहीं गया?' उसके एक साथी ने पूछा।


'नहीं यार! आज गांव जाने का विचार है।' दयाल ने उत्साहित भाव में कहा। रेनू के लिये नये कपड़े, बस्ता, किताबें खरीदते समय दयाल बहुत उत्साहित नजर आ रहा था, यह उत्साह शायद इस बात का था कि इस बार की यात्रा में आने के बाद यह पहला मौका था घर जाने का और सुकून इस बात का कि बेटी से किये गये वादे को निभाने जा रहा था। कितनी खुश होगी रेनू, इन सबको देखकर। यह ख्याल मन में हिलोरे लेने लगा तो दयाल के चेहरे पर मुस्कराहट स्वतः ही आ गयी। पत्नी सुशीला के लिए चूड़ी और कपड़े, मां के लिये धोती और केदारनाथ से प्रसाद स्वरूप रुद्राक्ष की माला लेकर वह डब्बू के पास आ गया। सामान का थैला देख डब्बू भी खुशी में हिनहिनाने लगा। वह भी बेचैन था घर जाने के लिए, आखिर हो भी क्यों ना? रेनू की खिलखिलाती हंसी, उसके साथ खेलना, सुशीला के हाथों से नहाते वक्त सिकाई करना, मां के हाथों से खाना सब डब्बू के मानस पटल पर घूम रहा था और यही सब उसे घर जाने के लिए बेचैन कर रहे थे।


दयाल ने काठी पर घर का सारा सामान थैलों में बांधकर अच्छी तरह से कस दिया। अपनी कमाई के जो पैसे वह रघु लाला के पास जमा करता था, उन्हें लेने के लिए जैसे ही बाहर आया, उसने देखा पूरा आकाश काले बादलों से घिर आया, बिजली की चमक, बादलों की गर्जना से पूरी केदारघाटी डरावनी लगने लगी। दयाल ने सोचा जब तक बारिश शुरू होती है वह जल्दी से पैसे लेकर घर के लिए रवाना हो जायेगा। डब्बू से इन्तजार करने को कहकर वह तेज कदमों से रघु लाला के कदमों की गति भी तेज हो गई। डब्बू और दयाल के बीच बस कुछ कदमों का फासला ही रहा होगा कि अचानक ऊपर से पानी के साथ आये तेज मलवे ने दयाल और डब्बू के बीच गहरी खाई बना दी और उसमें पानी इतने प्रवाह में था कि पार कर पाना मुश्किल ही नहीं अपितु असम्भव भी हो गया। डब्बू छटपटाने लगा कि कैसे वह दयाल को बचाये। दयाल भी अपने आप को बचाने के साथ-साथ डब्बू को ख्याल रखने की हिदायतें भी दे रहा था। डब्बू खूटी से बंधे अपने पैर को खोलने के लिए पूरी ताकत लगा रहा था। इसके लिए नहीं कि अपनी जान बचाये बल्कि मन इस कदर छटपटा रहा था कि किसी तरह दयाल की जान बचे। वह एक क्षण दयाल की ओर देखता दूसरे क्षण खुद को आजाद करने की मशक्कत करता, पूरी ताकत के साथ जब वह अपनी खूटी से छूटा और दयाल को बचाने के लिए दौड़ा, लेकिन यह क्या? क्या हो रहा था? जहां देखो वहां पानी-पत्थर, मलवा, गाड-गदेरों के प्रचण्ड प्रवाह में तबाही का मंजर नजर आ रहा था। डब्बू अपने मालिक को ढूंढ़ रहा था कि कहीं नजर आये और वह उसको बचा दे, तभी दूर कहीं एक पत्थर पर दयाल बचाओ-डब्बू..कहां हो तुम? आवाजें दे रहा था। डब्बू भी अपने मालिक को बचाने के लिए जैसे ही पानी में गया उसके सामने ही एक बड़ा पत्थर दयाल के सिर पे लगा 'डब्बू...बू...बू...बू...' एक जोर की चीख दयाल के मुंह से निकली, दयाल की ये आखिरी चीख थी। इसके बाद उस पत्थर के साथ लुड़कता हुआ दयाल मलवे के आगोश में सदा के लिए समा गया। डब्बू सब देखता रह गया। चाहकर भी कुछ न कर सका। अब उसे जीने का मन नहीं था...वह रोया...जोर-जोर से रोया...इध्र दौड़ा...उध्र दौड़ा...चीखा...चिल्लाया। वह रह-रहकर अपनी बातें कहना चाह रहा था, पर उसको सुनने वाला कोई न था और अगर शायद कोई होता भी तो भी उसकी ओर कोई ध्यान न देता, क्योंकि वह एक पशु था, बेजुवान पशु जो समझता सबकुछ था, पर कह नहीं सकता था। जो रो तो सकता था पर उसके दर्द को कोई नहीं समझ सकता था। आज डब्बू के सिर से पिता का साया उठ चुका था। दयाल को न बचा पाने और उसकी दर्दनाक मौत की टीस ने डब्बू को पूरी तरह तोड़ दिया था। उसका मन रहरहकर उसको धिक्कार रहा था कि उसे दयाल ने अपना बेटा माना और आज बेटे ने चाहकर भी अपना फर्ज नहीं निभाया, अब डब्बू जीना नहीं चाहता था, वह जोर-जोर से हिनहिना कर मानो कह रहा था-बहा ले जाओ मुझे भी, इस दुनियां से उठा लो मुझे...मेरे जीने का अब कोई सहारा नहीं है। इधर-उधर दौड़कर और खुद को झंझोड़कर डब्बू की काठी थोड़ी ढीली पड़ने लगी, बरबस ही डब्बू का ध्यान अपनी काठी पर बंधे सामान की ओर गया. उस गठरी में बंधे सामान के साथ दयाल के हाथों की कसावट और उत्साहित मन यहाँ छूट गया था। तभी डब्बू की अंतरात्मा से जैसे आवाज आयी। 'डब्बदयाल ने तुझे अपना बेटा कहा और आज सच्चे मायने में तुझे बेटे का धर्म निभाना हैदयाल का रेनू से किया वादा अब दयाल की जगह तुझे निभाना है। एक बार उस जगह को देखा जहां उसने दयाल को अन्तिम क्षण देखा था, उसके बाद एक प्रकार से उसने दयाल के चेहरे का स्मरण करके भारी मन से उदास घर की ओर चल दिया, उसके वादा को निभाने, जो आज दयाल को पूरा करना था।


उधर गांव में मां व्याकुल हुई जा रही थी, पिछले दिन से लगातार हो रही बारिश ने उसे बेचैन कर दिया था। उड़ते-उड़ते यह खबर भी गांव में पहुंच गई कि रामबाड़ा और केदार में भारी नुकसान हो गया है।


'सुना है रामबाड़ा और केदार में बहुत लोग बह गये। भगवान मेरे दयाल को राजी-खुशी रखना।' खबर सुनकर मां चिंतित हो उठी थी।


'मां पापा कब आयेंगे? मेरी कापी-किताब बस्ता...?' रेनू मां से बोली।


'आ जायेंगे बेटी, जब बारिश बन्द होगी।' सुशीला ने रेनू को पुचकारा।


तभी घंटियों और खांकरों की आवाज हुई और डब्बू बोझिल कदमों से आंगन में आ पहुंचा।


'पापा आये! पापा आये!' कहती हुई रेनू डब्बू के गले से झूलता अपना बस्ता दौड़कर अन्दर ले आई।


___ 'हे ब्वारी देख तो दयाल आ गया।' सुशीला बाहर गई तो देखा कि और दिनों की अपेक्षा डब्बू तनकर सीधा खड़ा होकर नहीं हिनहिनाया। उसने अपनी गर्दन झुकाकर दोनों अगली टांगों के अन्दर फंसा रखी थी। सावित्री को उसकी यह मुद्रा बड़ी अजीब सी लगी। मानों वह माफी सा मांग रहा हो। ऐसा वह तब करता था जब किसी बात पर दयाल उसे डांटता था।


'क्या हुआ डब्बू?' कुछ आशंकित होकर उसने पूछा


कैसे बताता डब्बू? आवाज होती तो बताता। सुशीला चीख मारकर डब्बू को झंझोड़ते हुये बोली-'बताता क्यों नहीं कहां हैं ये?'


डब्बू अपराध बोध सा महसूस किये हुये रोता रहा। उसकी आंखों से बहते अश्रुओं ने सुशीला को उसकी अनकही भाषा समझा दी
डब्बू अपराध बोध सा महसूस किये हुये रोता रहा। उसकी आंखों से बहते अश्रुओं ने सुशीला को उसकी अनकही भाषा समझा दी


___हे जीई...ई...ई...ई...' वह जोर से चीखी- 'हे भगवान यह क्या हो गया...हमें छोड़कर कहां चले गये तुम?' ना जाने क्या-क्या कहते हुये सुशीला बेहोश हो गयी। सास देहरी तक पहुंची कि बाहर का मंजर देख गश खाकर गिर पड़ी।


'दयाल कहां गया तू...।' इतने में गांव के सारे लोग इक्कट्ठा होकर जुटने लगे। कोई सुशीला को पानी के छींटे मार रहा, तो कोई दयाल की मां को सांत्वना दे रहा था। इस भीड़ में अगर कोई अकेला था तो वह डब्बू... जिसे जानवर कहकर कोई यह भी नहीं जानना चाह रहा था कि वह ठीक है भी कि नहीं बस एक कोने में खडा अपनी संवेदनाओं को आंसओं के रूप में ही व्यक्त कर रहा था और मन ही मन द:ख का घंट पिये जा रहा था। तभी अन्दर कमरे के एक कोने से कुछ देर बाद आवाज आयी।


'अ से अनार, आ से आम, इ से इमली, ई से ईख....।'