पररवचे

कहानी


मंजुश्री


कितनी बार उसने तय किया है कि अब फिर कभी वह सायरा के पास नहीं जायेगा पर खुद ब खुद उसके पांव सायरा के घर की ओर बढ़ जाते हैं, पतली-सी गंदी, कूड़े के ढेर से अटी गली में दोनों ओर माचिस की डिबियों जैसे घरों में आखिरी घर सायरा का है। आते जाते लोग उसे पहचानने लगे हैं। तीन साल पहले शंकर ने उसे सायरा से मिलवाया था। उस दिन वह नुक्कड़ पर नीम के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर अपनी बहन की मौत के गम में डूबा बैठा था। रह रह कर गुस्सा भी आ रहा था। बहन के आदमी ने उसे जला कर मार डाला था, रोज मारपीट करता था, उसे शक था कि दोनों बच्चियां उसकी नहीं है। पुलिस स्टेशन के चक्कर काटतेकाटते असलम तंग आ गया था। हवलदार ने पहले दिन तो उसे भी दो-चार झापड़ रसीद कर दिये थो। अंत में उसके बहनोई को तो पुलिस ने लॉकअप में डाल दिया और दोनों बच्चियों को असलम के हवाले कर दी। वह समझ नहीं पा रहा था कि अब वह अकेला क्या करे! घर जाने का मन नहीं करता था। सायरा जवान तो नहीं थी पर दिखने में अच्छी थी। 


सायरा जवान तो नहीं थी पर दिखने में अच्छी थी। शुरू-शुरू में असलम को सायरा बिलकुल अच्छी नहीं लगती थीगालियां बहुत देती थी और थोड़ी ज्यादा खली हई थी जबकि असलम थोडा शर्मीला था, पर धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि वह सायरा को चाहने लगा है, वह भी ऐसा ही दिखाती थी। हालांकि असलम को यह भी मालूम था कि वह अकेला ही नहीं था जो सायरा के पास जाता हो। पर जब 84 • प्रेरणा समकालीन लेखन के लिए वह उसके साथ होती थी तो बहुत अपनी लगती थी। कभी गालियां देती तो कभी शराब पीने के लिए मना भी करती। हां, पैसे जरूर छीन कर ले लेती थी पर असलम को यह बात बिलकुल बुरी नहीं लगती, आखिर उसकी सायरा का उस पर इतना हक तो होना ही चाहिए।


"सायरा... सायरा..." लकड़ी के झूलते दरवाजे पर उसने थपथपाया


 कोई आवाज नहीं आयी तो फिर जोर-जोर से दरवाजा पीटने लगा। आसपास के लोग जागने लगे।


"कौन है?...." भीतर से तेज आवाज आयी


"असलम..."


ओढ़नी संभालती हुई, गुस्सायी सायरा ने दरवाजा खोला। सोयी-सोयी सी लग रही थी, बाल अस्त-व्यस्त, नींद से भरी आंखें।


"क्या है...? क्यों आया है इस वक्त...पता नहीं कि रात के दो बजे हैं... सारी दुनिया सो रही है।"


"तो और कहां जाऊं..." असलम ने लड़खड़ाते हुए अंदर घुसने की कोशिश की।


"क्या है...?" धक्का देते हुए सायरा ने कहा... "चल निकल यहां से... रोज रोज चला आता है... रुपया न पैसा... पैसा लाया है क्या... या ऐसे ही मुंह उठा कर चला आया...?


"ऐ सायरा... ऐसे क्या बोलती है... देख सब लोग जमा हो रहे हैं...हट परे हट.. अंदर आने दे।" असलम ने चौखट के अंदर पैर बढ़ाया।


"चल भाग यहां से... तेरा घर है क्या जो चला आया, क्या समझ रखा है मेरे को.. बीवी हूं क्या तेरी...? भद्दी सी गाली दी सायरा ने।


"तेरा क्या ठेका ले रखा है?...कड़का कहीं का... जा पहले पैसा लेकर आचला आया मंह उठाकर...नामर्द।" तमतमाया चेहरा लिये सायरा ने भडाक से दरवाजा बंद कर दिया। अगर असलम ने तरंत पैर हटा न लिया होता तो दरवाजे में पैर आ जाता।


असलम का नशा हवा होने लगा.. सायरा ने उसके मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया...उसकी सायरा ने...!! और पैसा मांगती है। पैसा...पैसा...नामर्द । पैसा ही है क्या सब कुछ? बड़ी शरीफ बनती है... स्साली नखरे दिखाती है। असलम बड़बड़ाते हुए वहीं पर बाहर बैठ गया। थोड़ी देर में उठने की कोशिश की तो ढेर सारी उल्टी कर दी। न जाने कहां से क्या-क्या चीजें हलक के नीचे उतार कर आया था। ऊपर से कच्ची शराब!! पता नहीं कितने दिनों से दाढ़ी नहीं बनी थी। बिखरी-बिखरी मूंछे सब उल्टी से भर गईं। कभी एक हाथ से कभी दूसरे हाथ से मुंह पोंछता, गाली बकता हुआ चला जा रहा था।


"देख लेना... कल से पच्चीस बैठक लगाऊंगा... स्साली नामर्द कहती है..अंदर नहीं आने देती है... कैसे बचेगी? जायेगी कहां भागकर... घाट-घाट का पानी पिया है हरामजादी ने... पचास की हो गयी, नखरे ऐसे दिखाती है जैसे बीस की हो।" आज असलम की मर्दानगी पर चोट की थी सायरा ने... पलट कर वह दरवाजे को देखता और धाराप्रवाह गालियां दिये जा रहा था, वह कतई होश में नहीं था।


"आज तूने जो धक्का दिया है न। देखना... न तेरी ऐंठ निकाली तो... जैसे पैसे वाले स्साले कुछ और दे जाते हों, कुछ और तरह से करते हों... पैसे लेकर आ...ऐसी तैसी पैसे वालों की... न पैसा कमाया तो कहना।"


असलम का नशा तेजी से उतरने लगा। आज चोट कुछ ज्यादा गहरी लगी थीतंबाखू खाये पीले दांत और उल्टी से सने कपड़े पहने असलम वीभत्स लग रहा थाथोड़ी देर तक हंसता रहा फिर रोने लगा। “पैसा कहां से लाऊं पैसा.. हरामखोर बाप भी मर गया। दारू पी-पीकर। एक पैसा भी नहीं छोड़ गया। अब क्या करूं?" कभी हंसता, कभी रोता कब अपने घर पहुंच गया असलम पता ही नहीं चला।


दरवाजा उड़का हुआ था। घर क्या, छोटा-सा एक कमरा था, जिसमें एक ढीली-ढाली खाट, अल्यूमीनियम के दो-तीन टेढ़े-मेढ़े बर्तन, एक मटका, एक कनस्तर और एक स्टोव रखा था। एक कोने में फटे गद्दे पर दोनों लड़कियां सो रही थीं। असलम की आहट मिलते ही दोनों सहमी-सी उठ बैठी, मद्धिम रोशनी में सब कुछ बड़ा डरावना लग रहा था। मामू के इस रूप से दोनों बहुत डरती थीं। मारमारकर जान ही निकाल देता था। दोनों ने सुबह से खाना भी ढंग से नहीं खाया था। घर में पकाने के लिए कुछ था ही नहीं। पड़ोस की शकीला ने दोपहर को दो रोटी और थोड़ा-सा सालन दे दिया था। बड़ी लड़की नसरीन बारह साल की और छोटी आफरीन नौ साल की थी, नैन-नक्श अच्छे थे, पर दोनों दुबली पतली थीं। पता नहीं अभी रात कितनी बाकी थी। डरी सहमी आंखों में आंसू भरे मामू को देख रही थीं। कोई दिन ऐसा न जाता था जब असलम दो चार हाथ न जमाता हो। कब किस बात पर गुस्सा आ जाय!


यहां रहने की उनकी मजबूरी थी। कहां जायें उन्हें नहीं मालूम। कहीं और मुंह छिपाने की जगह नहीं थी। छोटी-सी उम्र में ही दोनों बड़ी हो गयी थी। जब नशे में धत असलम जमीन पर पसरा होता तो उनका मन करता कि किसी बडे से पत्थर से उसका मुंह कुचल दें...फिर सहम जाती..तब...उनका क्या होगा? बुरा है तो क्या हुआ, है तो मामू।


पर आज असलम ने न खाना मांगा और न ही उन पर हाथ उठाया। सिर्फ एक गिलास पानी मांगा और दीवाल से सटी ढीली-ढाली खाट पर लुढक गया। दोनों पैर खाट से बाहर ही लटक रहे थे। दोनो बहनें डरी-सी खड़ी रहीं। आंखों से नींद उड़ गयी थी। जब मामू घर से बाहर होता तो भी अकेले उन्हें डर लगता और घर पर होता तो भी डर लगता। खाट पर धुत पड़े असलम को देखकर नसरीन सोच रही थी... नशे में होता तभी मारता है... अगर हम दोनों को प्यार न करता तो क्यों रखता अपने पास? मन में कहीं दया-सी उपजी, शायद मामी जिंदा होती तो मामू की यह हालत न होती। मामू अपने होशोहवास में नहीं था। थकान तो थी ही, दोनों जमीन पर पड़े गद्दे पर लेट गयीं जल्दी ही उन्हें भी नींद ने आ घेरा।


सुबह-सुबह बाहर मोरी पर असलम के खंखारने की आवाज से दोनों लड़कियां भी जग गयीं। असलम देर तक मुंह पर पानी के छींटे मारता रहा, चेहरे पर पानी पड़ने से धीरे-धीरे चेतनता आ गयी और दिमाग कुछ सोचने की स्थिति में आया। रात की बातें ध्यान में आने लगीं। रह-रहकर सायरा का गुस्साया चेहरा आंखों के सामने घूम जाता। हाथ मुंह धाकर अंदर घुसते ही बोला, "चल नसरीन जरा चाय तो पिला, मुझे कहीं जल्दी जाना है।


"आज बड़ी जल्दी से जा रहे हो मामू...पर घर में तो चाय की पत्ती नहीं है।" डरते-डरते धीरे से नसरीन बोली।


पहले तो कुछ देर असलम उसे घूरता रहा फिर तेजी से बाहर निकल गयाथोड़ी देर में वापस आया तो हाथ में आधी ब्रेड और एक छोटी-सी पुड़िया में चाय की पत्ती थी। पास की दुकान से यह सब असलम उधार ले आया था, पर घर में न दूध था न शक्कर। नसरीन ने काली चाय बनायी। एक कप चाय और एक टुकड़ा ब्रेड खाकर असलम घर से बाहर निकल गया। दोनों ने राहत की सांस ली।


सारा दिन असलम इधर-उधर भटकता रहा, निरुद्देश्य, फिर शहर के रेलवे स्टेशन पर जाकर प्लेटफार्म की एक खाली बेंच पर लेट गया और पैसा कमाने के उपाय सोचने लगा। छोटा मोटा काम तो जब तब मिल जाता था, पर पैसा कुछ जड नहीं पाता, आदतें भी कुछ ऐसी थीं, प्लेटफार्म से गुजरने वाला हर आदमी उसे पैसे वाला लग रहा था। एक वही गरीब और नाकारा था। ऐसा नहीं कि उसे काम नहीं मिलता था। वह काम ठीक से कर ही नहीं पाता । उसका किसी काम में मन ही नहीं लगता थाऔर कभी काम कर पाया तो खा पीकर पूरा पैसा उड़ा देता। शराब के लिए भी कभी-कभी उधारी करनी पड़ती थी।


सायरा का ख्याल दिल से निकलता ही नहीं था। असलम के ऊपर अजीब बेचैनी तारी थी। सायरा के पास जाने के लिए छटपटाहट थी पर उसकी बातें सुई की तरह चुभ रहीं थी, पैसा...पैसा... नामर्द... हलचल सी मची थी मन में। क्या करूं, कहां जाऊं? पैसा तो हर हाल में कमाना है... मुंह पर मारूंगा स्साली के। कोई रास्ता सूझता न था। सुबह से इसी उधेड़बुन में डूबा हुआ था कि अचानक बिजली सी कौंध गई उसके दिमाग में। उठकर बैठ गया बेंच पर। अरे... क्यों न यही काम किया जाय। और काम धंधे के लिए तो काफी पैसा लगाना पड़ेगा जो उसके पास है नहीं और किसी भी धंधे में मेहनत भी करनी पड़ेगी जो उसके बस की है नहीं... यह पहले क्यों नहीं आया दिमाग में! यह विचार आते ही चेहरे पर से परेशानी की लकीरें कम होने लगीं। सारी औरत जात यही तो करती है...कोई खुलकर तो कोई छिपकर.. और तभी उस स्साली बदजात सायरा से भी बदला ले सकेगा।


झटके से खड़ा हुआ और घर की तरफ चल पड़ा। लगभग दौड़ ही रहा था। शाम को 4 बज रहे थे। हांफता-हांफता घर पहुंचा। नसरीन और आफरीन जमीन पर बैठी गुट्टे खेल रही थीं और बहुत खुश दिख रही थीं। उसे देखते ही दोनों सहम कर सिमट गयीं। दोनों को देखकर असलम मुस्कराने लगा। दोनों आश्चर्यचकित थीं कि आज मामू को क्या हो गया?


असलम खाट पर बैठ गया और सोचने लगा। नसरीन को दो-तीन साल तो लगेंगे ही... आफरीन छोटी है लेकिन शायद ज्यादा समय नहीं लेगी। नसरीन के मुकाबले उसकी कद काठी अच्छी है। यह सब सोचकर आंखों में चमक आ गयी... पर तब तक ये ऐसी ही क्या बढ़ेगी? डरी सहमी रहती हैं... खाना पीना अच्छी तरह मिलता नहीं। शरीर पर रत्तीभर मांस नहीं है। पूरा ध्यान रखना पड़ेगा, खायें पियें तो शरीर पर कुछ लगे। सोने की मुर्गियां ऐसे ही अंडे थोड़े ही देंगी! काफी खर्चा करना पड़ेगा, यह सोचकर थोड़ा ठंडा पड़ गया। अब कुछ दिमाग में आया है तो जुगत तो भिड़ानी पड़ेगी। पैसे के लिए मशक्कत से काम करना पड़ेगा। शुरू में पैसा जरूर लगाना पड़ेगा पर बाद में सारा पैसा शायद एक ही झटके में निकल आये, क्या मालूम । यह सब सोचकर ही हवा में उड़ने लगा। बस लगने लगा कि जैसे तीन-चार साल बीत गये हैं और पैसा हाथों में समा नहीं रहा है।


असलम घर से जल्दी-जल्दी फिर से बाहर निकल गया। दोनों लड़कियों को समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है? मामू ने कल से न तो गुस्सा किया है न ही हाथ उठाया... मामू को हंसते मुस्कराते हुए भी उन्होंने पहली बार देखा था। अब तो वह उन्हें उतना बुरा भी नहीं लगा रहा था।


__असलम बाहर निकला तो देखा पेड़ के नीचे हरिया, शेखू, सुरेश, रहमान तीन पत्ती खेल रहे हैं। असलम थोड़ी देर वहीं बैठकर उन्हें खेलते देखता रहा। उसके पास पत्ते खेलने के लिए भी पैसे नहीं थे। फिर यकाएक कुछ ख्याल आया। अपना तावीज उतारा, तावीज के अंदर कई तहों में रखा दस का नोट उसके हाथ में था। अल्लाह का नाम लिया और असलम भी पत्ते खेलने बैठ गया। पहली बाजी वह जीत गया, दूसरी भी...फिर तीसरी भी। आज असलम के साथ अल्लाह था। एकएक करके पांच छः बाजियां न जाने वह कैसे जीतता चला गया। आज किस्मत उसके साथ थी।


___थोड़ी देर बाद असलम घर में घुसा तो प्लास्टिक के एक थैले में नसरीन के लिए सस्ता-सा लहंगा ब्लाउज और ऑफरीन के लिए सलवार कुर्ता लिये हुए थादूसरे हाथ में कागज के पैकेट में पूड़ी सब्जी भी थी। आज रुपये खर्च करते हुए उसे जरा भी बुरा नहीं लगा। अगर कोई धंधा करना है तो कुछ तो पूंजी लगानी ही पड़ेगी। आज वह बहुत खुश था और बच्चियों की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। इतने दिनों बाद ढंग का खाना देखकर दोनों की आंखों में चमक आ गयी। जल्दीजल्दी खाना खाकर और नये पकड़े पहनकर मामू के सामने आ खड़ी हुईं। असलम की आंखें फटी रह गयीं। वह नसरीन को देख रहा था। अचानक अच्छे कपड़ों में उसका रूप निखर आया था और चेहरा भी खिला-खिला लग रहा थ। लहंगे ब्लाउज में वह एकदम से बड़ी लगने लगी थी। कुछ ऐसा ही हाल आफरीन का भी था। सलवार कुर्ता उस पर भी फब रहा था, वह कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रही थीनसरीन के बराबर ही लग रही थी। उसका शरीर अपेक्षाकृत ज्यादा भरा भरा सा था।


असलम सोच रहा था यह इलहाम पहले क्यों नहीं हुआ। दोनों से बड़े प्यार से बात करता रहा। सोने की अंडे देने वाली मुर्गियां हैं जतन से पालना पड़ेगा। वह इस बात से भी खुश हो रहा था कि दोनों के लिए लाये हुए कपड़े सही नाप के निकले। पत्ते खेलने में जितने रुपये जीते थे आज सब खर्च कर दिये किंतु उसे जरा भी मलाल नहीं था। कभी न कभी मय ब्याज के वसूले ही जायेंगे। दोनों बच्चियां भी खुश थीं मामू के इस बदले रूप को देखकर। अब उसे कुछ छोटा मोटा काम तो करना ही पड़ेगा। रोटी तो जुटानी पड़ेगी। शराब की तलब भी लग रही थी रही थी पर किसी तरह दबा गया। रात को लेटा तो दोनो लड़कियों के चमकते हुए खुश चेहरे उसकी आंखों के सामने घूम गये। नसरीन की मुस्कराती आंखें मानो उसके भीतर तक देख पा रही हों। इन्हीं ख्यालों में डूबते-उतराते कब आंख झपक गई मालूम नहीं। सुबह हुई तो देखा दोनों बड़ी निश्चितता से सोयी हुई थीं। असलम अपने मन पर नियंत्रण पाने की कोशिश में लग गया। मन का चोर उसे धिक्कार रहा था। क्या सोच रहा है क्या करने जा रहा है? इसी उहापोह में उठा और मुंह सुबेरे ही काम की तलाश में निकल गया..।


दुकान वाले सेठ ने फिर छोटा-मोटा काम बताया। वक्त ऐसे ही गजरने लगा। उसे कभी कम तो कभी ज्यादा काम मिल जाता। मजूरी मिल गई तो ठीक नहीं तो दोस्तों के साथ पत्ते खेलता। हारने लगता तो उठ जाता। कभी इसकी दलाली तो कभी उसकी दलाली... काफी दिनों से शराब भी नहीं पी थी। हालांकि यह बड़ा कठिन काम था। बहुत तलब लगती तो थोड़ी पी भी लेता। बस एक जुनून सवार था। फिलहाल सायरा के पास जाने का सवाल ही नहीं था। बस उसे सायरा से बदला लेना है। साली औरत जात... कभी दो-दो दिन घर ही नहीं आता। पड़ा रहता कहींदिन ऐसे ही गुजर रहे थे...।


____ असलम जानता था लड़कियां समझदार हैं । बड़ी हो रही हैं। प्यार से न देखा तो कहीं घर द्वार ही न छोड़ दें, डर सहम कर! सब किये धरे पर पानी फिर जायेगादोनों पर खर्च किये रुपये भी तो निकालने हैं । पैसे कमाने की उसकी इच्छा और भी बलबती होने लगी। अच्छी तरह भर पेट खाना मिलने और मन से भय निकल जाने पर दोनों निखरने लगी थीं। डेढ़ साल कैसे निकल गया मालूम ही नहीं चला..।


एक दिन असलम नसरीन से बोला..."अब तू बड़ी हो गयी है, तेरा ब्याह हो जाना चाहिए, क्यों? क्या कहती है, करेगी न ब्याह?" नसरीन क्या बोलती, वह शरमा गयी... कुछ बोली नहीं, आंखें झुका ली और दुपट्टे का एक सिरा मुंह में दबा लिया। आफरीन बहुत खुश हुई नसरीन की शादी की बात सुनते ही। अच्छे कपड़े, गहने, खाना-पीना.. आंखों के सामने सब घूम गया। बगल में रहने वाली कमला की शादी की याद हो आयी। खूब धूमधाम से थी। गाना-बजाना... कितनी सुंदर लग रही थी वह। कमला की शादी के समय दोनों ने बहुत दिनों बाद भरपेट खाना खाया था। कमला नसरीन की गहरी सहेली थी। हर दुख सुख में साथ देने वाली। उसी ने बहुत सी ऊंच-नीच समझायी थीं। माहवारी के समय क्या कुछ करना चाहिए वह भी उसी ने बताया था।


दस बारह दिनों बाद ही मामू नये कपड़े और नकली गहने ले आया और साथ में एक आदमी भी। रहा होगा कोई चौंतीस-पैंतीस साल का....


असलम नसरीन से बोला, "ले... ये कपड़े और गहने पहन ले... इसी आदमी से तेरी शादी होगी।" और साथ लाया पैकेट थमा दिया हाथ में। असलम और वह आदमी बाहर बैठ गये। असलम का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। हाथ पैरों से पसीना टूट रहा था, जोर-जोर से पैर हिला रहा था। वह पसीना पोंछे जा रहा था। हलक सूख रहा था। मन कांप रहा था। नसरीन नये कपड़े और गहने लेकर अंदर चली गयीमन ही मन बहुत खुश थी पर कहीं डर भी लग रहा था। मामू कितना बदल गये हैं। मेरी शादी हो जायेगी तो मैं आफरीन को भी अपने साथ ले जाऊंगी। हम दोनों बहनें साथ रहेंगी। मन ही मन सपने बन रही थी। चारों तरफ खशी ही खशी एक अजीब-सी पुलक... मेरा अपना घर... वह यह आदमी? खुशी के साथ मन में एक अनजान सा डर भी व्याप रहा था।


नसरीन जब कपड़े, गहने पहनकर बाहर आयी तो असलम का मन एकबारगी हिल गया। कितनी सुंदर लग रही है नसरीन। इतने दिनों में इधर उसका शरीर भर गया था। रंग भी निखर आया था, कितनी भोली और मासूम... आंखों में खुशी नाच रही थी...क्या करने जा रहा हूं मैं?....मेरी बहन की लड़कियां हैं... कितना भरोसा करती हैं मुझपर। उसके हाथ पांव कांपने लगे, मुंह सूखने लगा, दिल बैठने लगानसरीन का उस पर बेलाग विश्वास.. नहीं, नहीं...पर अगले ही क्षण उसने अपने आपको संभाला.. यह अचानक क्या होने लगा उसे? सब किये कराये पर पानी फिर जायेगा।... स्वयं पर कितना नियंत्रण रखा है, कितने सपने देखे हैं, कितना पैसा लगाया है? आखिर इसमें बुरा क्या है। आखिर शादी के बाद भी तो यही होना है..इस सब में अगर उसे कुछ पैसे मिल जाते तो बुरा क्या है... तसल्ली देने लगा अपने आपको... अपने डोलते मन को इसी तर्क-वितर्क से समझाने लगा और फिर सायरा का ध्यान आते ही खून उबलने लगा, गुस्सा आने लगा, कनपटी तमतमाने लगी।


आनन-फानन में आफरीन का हाथ पकड़ा और बाहर की तरफ जाने के लिए मुड़ा, आफरीन भौंचक थी..."शादी का क्या.. मामू?" नसरीन ने पुकारा, एक बार असलम ने पलट कर उस आदमी और नसरीन की डरी सहमी आंखों को देखा और तेजी से निकल गया। नसरीन को डर सताने लगा था।


असलम आफरीन को लगभग घसीटता हुआ तेज-तेज चलने लगा। आफरीन उतनी तेज नहीं चल पा रही थी। बार-बार गिर-गिर पड़ रही थी। असलम को महसूस हो रहा था कि नसरीन की आंखों ने उसके भीतर के छल को भांप लिया थाउसकी आंखें असलम की पीठ पर चिपकी हुई थीं। वह कहीं भी चला जाय तो लगातार उसका पीछा करती रहेंगी। वह दूर बहुत दूर भाग जाना चाहता था। चलते-चलते चौक तक पहुंच गया और एक पुलिया पर बैठ गया। बुरी तरह हांफ रहे थे दोनों । आफरीन रोने लगी थी... पता नहीं आज क्या हो गया मामू को और नसरीन की शादी कब होगी? वह मामू की तरफ देख भी नहीं रही थी। असलम भी घबराया हुआ था। एक मन करता दौड़ता हुआ जाय और नसरीन को इस दलदल से बाहर खींच ले। आंखों के सामने अपनी बहन का चेहरा घूमने लगा। पेट में हलचल मची थी... थोड़ी देर बाद आफरीन से बोला, "प्यास लगी है? पानी पियेगी?" जवाब का इंतजार किये बिना फिर बोला, "अच्छा.. तू बैठ मैं सामने के नल से पानी और ठेले से खाने के लिए कुछ लाता हूं।"


बाजार में बहुत भीड़ थी। सब तरफ चहल-पहल थी। दीवाली आने वाली थी, लोग खरीदारी में जुटे हुए थे। बड़ी छोटी सभी दुकानें चमक रही थीं। सब तरफ लोग ही लोग । पता नहीं कितना पैसा है लोगों के पास? सड़क पर सामान बेचने वाले और खरीदने वालों की भीड़...तिल रखने को जगह नहीं। असलम ने एक ठेले से कुछ भजिये और पाव लिये। सोचा खाकर दोनों नल पर जाकर पानी पी लेंगे। जेब से पैसे निकाल ही रहा था कि एक जोरदार धमाका हुआ और खाना हाथ में लिये असलम के परखच्चे इधर-उधर बिखर गये।