स्मृति-दंश

कहानी


डॉ निरुपमा राय


"दीदी! बाबू मामा नहीं रहे।" छोटे भाई पर बताया तो मैं एक क्षण के लिए जड़वत सी हो गई। फिर पूछा, “कैसे?"


"ब्रेन हेमरेज से।"


"तू जाएगा?"


"दीदी! जाना तो चाहता हूं पर...।"


"मैं समझती हूं...।" मैंने कहा और फोन रख दिया। छोटे भाई के शब्दों में बहुत से अनावृत रहस्य छिपे थे। एक शब्द 'पर!' के पीछे गहरा दर्द था। पर... किंतु लेकिन... जाने भी दो... छोड़ो भी... जैसे शब्द ही ननिहाल जाने के नाम पर हम भाई बहनों के दिमाग में आते थेआज वो हमारे लिए एक ऐसी देहरी थी जहां पांव रखने से पहले, उसकी चौखट लांघने से पूर्व कई सवाल अंतर्मन में शोर मचाने लगते थे। दुःख की बात तो ये है कि कभी यही देहरी हमारे लिये आनंद का सर्बोच्च शिखर हुआ करती थी। पर तब... जब बचपन था।


न जाने बचपन निरंतर समय की परिधि लांघकर बड़ा क्यों होता जाता है... काश! कोई जादू की डिब्बी होती जिसमें हम अपना बचपन सहेज लेते। पर नहीं, ये तो कपूर की टिकिया सी होती है... न जाने कब हवा में घुल जाती है। जब होश आता है तो यौवन की दहलीज पर खड़ा मन पीछे नहीं देखता, निरंतर आगे की ओर उडान भरने पर आतुर होता है। और जब कभी कोई ऐसी घटना घट जाती है जो मन के रेशमी तन्तुओं को सेफ्टीपिन की नोक से जैसे उधेड़ने सी लगती है...तब बचपन बहुत याद आता है। मुझे भी आज अपना बचपन बहुत याद आ रहा है। मन उस कालखंड में जाने को बेताब है... जब बचपन था।


बाबू मामा की मृत्यु ने मानो मेरे अंतर्मन में सोई उस नन्हीं बच्ची को सहसा फिर से जगा दिया था जो वर्षों पहले दुनिया की भीड़ में 'बड़ी' होकर खो चुकी थी। खबर सुनकर मन में एक एक गुबार सा चलने लगा था। गले मैं जैसे कुछ फंस या अटक सा गया था... जैसे छाती पर भारी पत्थर रख दिया गया हो...!


बचपन में अपना ननिहाल हमें बहुत भाता था। गर्मी की छुट्टियां यहीं बीतती थीं। हमें लगता, हम कहीं के राजा रानी हैं... मां पापा की डांट फटकार नहीं... रोकटोक नहीं... केवल प्यार दुलार, मनुहार-धमाचौकड़ी... खेल-कूद और तरह-तरह के सुस्वादु भोजन का अभूतपूर्व स्वाद। नाना-नानी, मौसी बड़े मामा और बड़ी मामी सब कितना दुलार अपनापन और ममत्व लुटाते... हम अभिभूत हो उठते थे। पर धीरे-धीरे हमारे और ननिहाल के रिश्तों में खटास आने लगी। कारण बहुत से थेगलतियां दोनों ओर से हुई... किसी ने किसी को मनाने की कोशिश नहीं की... अहं आड़े आता रहा। कई ऐसी बातें भी हुईं जो एटम बम की तरह विध्वंसक थीं... जिन्हें खोलना विस्फोट को दावत देना था। यही जीवनचक्र है। मानव कोई देवता तो नहीं है न... कि सारे बंधनों, भावनाओं और संवेदनाओं से निर्लिप्त रहे । वैसे ये तो तब की बात है जब हम बच्चों ने होश संभाल लिया था। हम बड़े हो गये थे, दुनियादारी समझने वाले....।


___ बाबू मामा की मृत्यु से स्तब्ध मन स्मृति के बंद किवाड़ों की सांखल खटखटाने लगा था। जहां मेरा बालपन था... मां थीं... पापा थे... दादी, बुआ और सबसे बढ़कर थे बाबू मामा। मां के तीन भाई बहनों में सबसे छोटे थे बसंत मामा... जिन्हें स्नेहवश सब बाबू पुकारा करते थे। बड़े मामा मितभाषी और अनुशासन पसंद थे, पर बाबू मामा ढेर सारी बातें करते। हम बच्चों के लिए उनके पास जहां एक ओर गढ़ीअनगढ़ी कल्पनात्मक कथाओं का भंडार था वहीं दूसरी ओर वो हमारे बचपन के खेलों के भी साथी थे। और हां! मां-पापा की नजर बचाकर हमारे लिए इमली की खट्टी चटनी... पूरन जलेबी, मीठी सुपारी और टॉफियां ला लाकर जेब में भरने वाले भी एकमात्र वही थेपापा सरकारी सेवा में थे। जहां कहीं भी जाते। कोई आये या न आये बाबू मामा जरूर आते थे। मां असीम स्नेह से भर उठती। उनसे जुड़ी मेरे बचपन की गाथाओं की पोटली से धीरे-धीरे कथाएं झरती रहतीं और मैं मंत्रमुग्ध होकर सुनती रहती...।


"जानती है नयना! विवाह के चौदह वर्ष बाद जब तू मेरी गोद में आयी तो जितना मैंने तेरे लिये किया है न... उससे कम बाबू ने नहीं किया। जब तू इतनी सी थी तक ये प्रसन्नचित्त होकर तेरे पोतड़े तक बदल डालता था... नहला-धुलाकर झालरवाली फ्रॉक पहनाकर गुड़िया सी बनाकर बाहों में लिये डोलता रहता... कईकई रात तुझे कंधे पर सुलाकर टहलता रहता... जब तू पेट दर्द या किसी और कष्ट से पीड़ित होती।" मां कहती जाती... मैं सुनती जाती... कई कहानियां। बचपन की मीठी यादें तो आजीवन धड़कन बनकर हृदयमंजूषा में सहेजी रहती हैं। जब कभी उस मंजूषा का ढक्कन खुलता है तो लगता है, काश कोई हमारा बचपन मुट्ठी में वापस सहेज दे!


विगत के पंद्रह वर्षों में हम लगभग ननिहाल से कट गये थे। जब तक बड़े मामा रहे किसी तरह संबंध जुड़ा रहा फिर... संबंध मिट्टी की भीत सा ढहने लगा। और मां की असमय मृत्यु के बाद धूल-धूसरित हो गया। जब रिश्तों में अपेक्षाएं बढ़ने लगती हैं। तब दरार बहुत चौड़ी होती चली जाती है। संबंध का अर्थ संवेदना... जुड़ाव... नहीं रह जाता, बदलकर कुछ और ही स्वरूप ले लेता है जहां जड़ों में आदर-स्नेह या अनुराग नहीं केवल द्वेष, क्रोध और अहं होता है। ननिहाल से दूर होने के कारण भले ही और थे उसे याद करके केवल मन दुःखी हो सकता है आनंद कैसे मिलेगा? मैं भी क्या बातें ले बैठती हूं...। ये तो वर्तमान है... मैं तो उस कालखंड में थी न जब बचपन था।


___ होली की वो छुट्टियां कभी विस्मृत नहीं कर पाऊंगी जब हम सब भाई बहन इकट्ठे होते थे। बड़ी मामी के हाथों की गुझिया और मां के हाथों के पुये की मिठास जीभ पर ठहरती कहां थी, वो तो सीधे आत्मा में उतर रच बस जाती थी। आज भी स्मरण मात्र से मन मिसरी की डली सा हो जाता है। एक शाम सारे बच्चे बड़े से हॉल में बैठ खेल रहे थे कि अचानक बाहर की खिड़की पर दस्तक सुनाई दी... हम सतर्क हो उठे, कौन है? कुछ देर बाद लगभग सभी खिड़कियों पर दस्तक होने लगी। हम भागकर मां के पास पहुंचे... मां! कोई खिड़की खटका रहा है। "अरे! कौन होगा? हवा से खड़की होंगी... जाओ खेलो...माथा मत खाओ।" मां ने कहा तो वहीं खड़े बाबू मामा बोले, "अरे नहीं रे बच्चो! दीदी को क्या पता, जानते हो खिड़की कौन खड़का रहा था?"


"कौन?" हमारा समवेत स्वर


"भत!"


भू....त...!! हम सब मामा के आस पास सिमट गये थे और वो परी तन्मयता से भूत के किस्से सुनाने में मग्न थे। हमारी घिग्गी बंध गयी थी। उन्होंने समझाया... "मैं हूं न भूत को ऐसी फाइट मारूंगा कि चार खाने चित्त होकर गिरेगा...। हम बच्चे आश्वस्त होकर खेलने लगे... कुछ देर के बाद अचानक बायीं तरफ की बड़ी खिड़की धचके के साथ खुल गयी और काले कपड़े में लिपटा एक हाथ अंदर की ओर आ गया...और वो भयानक अवाज....ह उ...ऊ! मम्मी ...! मम्मी ...! पुकारते हम सब भय से काँपते बाहर भागे। घर में, हड़कम्प मच गया क्या हुआ? खिड़की...भूत... हाथ... हम ठीक से बोल भी नहीं पा रहे थे। बड़े मामा का डर भी नहीं रहा था...धीमी आवाज में बोलने का होश ही कहां था... भूत उस पर भी भारी पड़ गया था। कौन है? बड़े मामा गुस्से से चिल्लाये तो खिड़की के पास से सर झुकाए बाबू मामा धीरे से आगे आ गये।


___ "तू था...?" मां जोर से हंस पड़ी थी। उनकी पूरी लानत सलामत हुई पर कुछ ही देर बाद हम सब फिर उन्हें घेरकर बैठे थे, और वो फिर एक कहानी सुना रहे थे। ...वहीं 'भूत' वाली।


___ आज सोचती हूं वो कौन सा भूत था जो हमारे मीठे रिश्तों को निगल गया।...न जाने जीवन के किस मनहूस क्षण में, समय की किस खिड़की से उसका हाथ आया और सब कुछ छिन्न-भिन्न हो गया।


मां को अपने भाई-बहनों से बहुत स्नेह था। जब तक स्वस्थ रहीं ममता का अजस्त्र स्त्रोत लुटाती रहीं और जब बिस्तर पकड़ा तो मन वेदनाओं से छलनी थारोती रहतीं कहती रहती.... अपने बच्चों की तरह अपने भाइयों से प्यार करती हूं और वो बीमार बहन का हाल तक पूछने नहीं आते... आस पास घर इसलिए बनवाया था कि सुख-दुख में सब साथ रहेंगे... क्या सोचा था क्या हो गया?


ये रिश्तों की कड़ी टूटने का अंतिम दौर था... आपसी गलतफहमियां इतनी बढ़ गयी थीं कि रिश्तों के मर्म को दीमक की तरह खोखला कर रही थीं। मां प्रायः पीड़ा का असहनीय भार लिये विगत में डूबती उतराती रहती... "बाबू इतना बड़ा कृतघ्न निकलेगा सपने में भी नहीं सोचा था। आज जिस नौकरी पर इतराता इतने ठाठ से रहता है न... उसका कारण भी हम हैं... मेरे पिता ने ही कितना कह सुनकर इसे अपने ऑफिस में रखवाया था... वरना इंटर फेल को कौन नौकरी देता? इसकी भी आंख का पानी सूख गया? एक बार आकर पूछ भी नहीं सकता कि दीदी कैसी हो? कौन सा पहाड़ लांघकर आना है...।" बड़ी बहन हूं क्या गलती पर समझाने का हक भी नहीं है?" "छोड़ो न मां... अपनी-अपनी बुद्धि और अपनी सोच होती है सबकी।" मैं मां को समझाती रहती। अपनी बुद्धि... अपनी सोच! हां, जब रिश्तों में एकांगी सोच का दायरा बढ़ने लगता है न तब संबंधों की मिठास सिमटने लगती है और मौन के बिंदु पर सब कुछ ठिठक सा जाता है। छोटे-छोटे लेन-देन, इधर उधर की बातें और रिश्तों में गहरी अपेक्षाओं से संबंध दरकने लगते हैं। यही हमारे परिवार के साथ भी हुआ था। मन तर्क-वितर्क और कुतर्क में उलझने लगा था। हे ईश्वर! क्या करूं इस मानवीय दुर्बलता का... गड़े मुर्दे उखाड़ना इसकी आदत है। कहां भटक गई मैं ? मैं तो उस काल में थी न, जहां बचपन था।


पापा उच्च सरकारी पदाधिकारी थे। जहां कहीं भी उनकी पोस्टिंग होती बाबू मामा जरूर आते थे। मां कितना खुश होती थीं उन्हें देखकर... उनके आनंद का अर्थ आज समझती हूं जब कभी मेरा भाई क्षणभर के लिए भी मेरे घर आता है। मां गाजर का हलुआ बनाती... बेसन के गट्टे की सब्जी बनाती... आलू के पकौड़े... मटर पनीर.. और हां सूजी बेसन के चीले... सब कुछ मामा की पसंद का बनता। मां का उल्लास देखते ही बनता था। वो कहती, "जब बहन पराये देश में होती है न, घर से दूर तब भाई का आगमन ही उसे अहसास दिलाता है कि वो आज भी मायके से जुड़ी है, वहां के लिए विशिष्ट है।"


और वही मां जब बीमार थीं तो उनसे मिलने सात समंदर पार आने वाला उनका भाई पांच-छह घर की दूरी से नहीं आ सका। आखिर क्यों रिश्ते इतने बेमानी हो जाते हैं? अपेक्षा... डॉट... समझाना-बुझाना... प्यार से सही बात पूछना या बताना... गलती बताकर सही राह दिखाने का प्रयास करना क्या गलत है? बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जिसे व्यक्ति आजीवन भूल ही नहीं पाता। बाबू मामा से जुड़ी कई बातों ने हमारा संबंध दरकाया था। उन पर कई बार संदेह की सूईयां उठीं- कई बार वो संदेह के घेरे में आए। आज भी पापा के कहे शब्द याद हैं... "अरे! बाबू लाख कह ले, मैं जानता हूं बैंक में रुपये जमा करवाने जाते वक्त उसकी जेब नहीं कटी। उसने मेरे पैसे रख लिये हैं... सरासर झूठ बोल रहा है।"


मां चुप थीं... पर बाद में उन्होंने बताया कि उन्हें भी कई बार बाबू मामा पर शक हुआ था पर वो स्नेहवश चुप रह गई थीं। मां ने जब बड़े मामा से इस बात की चर्चा की तो उन्होंने बाबू मामा को खूब डांटा... मां ने भी समझाया पर उनके मन में जिस गांठ का सृजन हुआ वो आजीवन बंधी रही। पापा के प्रयास से किसी तरह मामा को सिंचाई में छोटी सी नौकरी मिल गई... विवाह हुआ और रहे सहे संबंध को तेज मिजाज मामी ने अपने स्वभाव की आरी से काट डाला। समय बीतता रहा... पहले मां गईं फिर पापा... और अब बाबू मामा भी... । गले में फिर कुछ अटक सा गया। है... छाती पर भारी भार जैसा लग रहा है.... नहीं मुझे रोना नहीं आ रहा... क्यों रोऊंगी मैं ? वर्षों पहले जो रिश्ता लगभग टूट ही गया हो उसके रहने या नहीं रहने से क्या? पर एक और घटना बहत याद आ रही है... तभी की जब बपचन था...। बाब मामा हमेशा मझे चिढाया करते. "सोने जा रही हो? देखो, झला मत झलने लगना।" मैं भी हंस पड़ती। इसके पीछे की घटना भी कम रोचक नहीं है। मैं करीब आठ महीने की रही होउंगी जब एक रात मुझे बिस्तर पर सुलाकर पापा और मामा खाना खा रहे थे। अचानक मेरे रोने की आवाज सुनकर मां कमरे में आयीं तो देखा अब रोने की आवाज भी नहीं आ रही है और बड़े से बिस्तर पर मैं कहीं नहीं हूं। मां की चीख सुनकर सब भाग-भागे आये।"पता नहीं कहां गयी मेरी बेटी.... हे भगवान! यहां तो लकड़ग्घे भी हैं... कहीं उठाकर तो नहीं ले गये...!" मां रोती जा रही थी। ये घटना नेपाल के पास सटे एक कस्बे की थी जहां घने जंगल थे और सरकारी कॉलोनियों में कभी-कभार लकड़बग्घे आकर बकरी, गाय और मुर्गियां उठा ले जाते थे। तब बाबू मामा ने ही मुझे दीवार के तरफ की ढीली मच्छरदानी में झूलते पाया था। हुआ यों था कि मैं लुढ़क कर बड़ी सी मसहरी के एक कोने में समा गयी और झूलती तुरंत सो गयी थी। आज भी मच्छरदानी मोड़ते वक्त वो घटना याद आ जाती है... आठ महीने की बच्ची क्या याद रखेगी... मामा ने कभी भूलने ही नहीं दिया था।


रात गहराने लगी है। मायके से तीन सौ किलोमीटर दूर... पटना में अपने बिस्तर पर लेटी मेरी आंखों में नींद का लेश मात्र नहीं है। कानों में बाबू मामा के शब्द बार-बार गूंजे रहे हैं.... । “सोने जा रही हो... झूला मत झूलने लगना।" मैं लाख प्रयत्न के बावजूद यादों के झूले से स्वयं को उतार नहीं पा रही हूं... प्रत्येक पेंग पर स्नेह लुटाते... मीठी टॉफियां और चूरन खिलाते.... भूत की कहानियां सुनाते.... खूब हंसाते.... बाबू मामा दिख रहे हैं.... फिर... फिर... रिश्तों की किर्चे भी दिख रही हैं.... आत्मा लहू-लुहान होने लगी है...। मैं भी कितनी पागल हूं क्यों सोच रही हूं उस विस्मृत अतीत के बारे में.... सब कुछ कब का खत्म हो गया... दुनिया में लोग रोज मरते हैं.... आज वो भी गये... मृत्यु तो शाश्वत सत्य है... पर मेरी आंखें भीगने क्यों लगी हैं.... हे ईश्वर! मैं फूट-फूट कर क्यों रो पड़ी हूं....? पंद्रह साल हो गये रिश्ता टूटे हुए... फिर... आंसू थमते क्यों नहीं? आंसू अनवरत बह रहे हैं। पर एक संतोष है मन में... जो मुझे जीवन भर अपार शांति देगा...। कुछ अपनी अनुभूतियां और अपने सत्य होते हैं, जो आत्मा में संचित रहते हैं जो कोई किसी से नहीं बांटता। पिछले वर्ष मेरे जीवन में एक ऐसी घटना घटी जो आज मुझे आत्मिक संतोष से भर रही है। एक गूढ़ रहस्य पर से परदा उठा रही हूं कि अपने प्रिय संबंधों को कई मौके देकर हार जाने पर भी, दुःखी होने पर भी एक अंतिम मौका जरूर देना चाहिए अपनी ओर से... और बाबू मामा से बात करने का मौका मैंने खुद को स्वयं दिया.... स्लिप-डिस्क के कारण तबियत बार-बार खराब रहने के कारण विश्वास न होने पर भी अपनी कुंडली बनवाने की इच्छा हुई तो जन्म का समय और दिन पता ही नहीं था। मां नहीं रही पापा भी नहीं है....। बडे मामा-मामी भी गजर गये... कौन बताएगा मैं किस वक्त पैदा हुई? फिर मन मस्तिष्क में कौंधे बाबू मामा! वही बाबू मामा जो सामने पड़ने पर रास्ता ही बदल लेते थे। पर उस शाम मैंने सामने पड़ने पर उन्हें रास्ता बदलने ही नहीं दिया हठात सामने आ कर खड़ी हो गयी... जब तक वो कुछ सोच पाते मैंने उनके चरण स्पर्श करके कहा.... मां पापा अब नहीं रहे मामा... पर आप हैं न मेरे बुजुर्ग... पहले तो आशीर्वाद दीजिए.... आपकी बेटी पटना विवि में पढ़ाने लगी है...।" बाबू मामा का चेहरा एक अनजानी पीड़ा से जहां दरक उठा था, वहीं एक अद्भुत आह्लाद उनकी आंखों में कौंध गत को वर्तमान बना गया था... । ढेरों आशीष लो नयना मेरी ओर से... सुखी रहो खूब तरक्की करो। ...पढ़ता रहता तुम्हारी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में बहुत खुशी होती है...।" वे कहते जा रहे थे और भाव विह्वल मैं उनके मन में अपने प्रति अब तक संचित प्रेम से अभिभूत थी... फिर ऐसा क्या था जो हमें रोकता रहा था? और जब मैंने उनसे अपनी जन्म तिथि और समय पूछा तो मानो उनके मन में संचित कोमल और प्रेमी पगी भावनाएं मुखर हो उठी..." कैसे भूल सकता हूं वो दिन... चौदह वर्षों के बाद दीदी-जीजाजी ने तुम्हें पाया था... सुबह के चार बजकर पचपन मिनट पर।...और दिन था... बृहस्पतिवार..हां! जीजाजी की आंसू से छलकती आंखें मैं कभी भूल नहीं पाता हूं और वो कथन..बाबू! हमें अनमोल निधि मिली है...।" उनकी आंखें आर्द्र हो उठी थीं। मुझे ढेरों आशीष देते वो आगे बढ़ गये थे और उसी शाम मैं पटना आ गयी थी और लगभग दस दिन बाद ही बाबू मामा चल बसे थे।


आज सोचती हूं यदि उस दिन उन्हें रोककर बातें नहीं की होती तो आज मन पर एक पहाड़ सा बोझ लिये बैठी होती.. आज मन निर्द्वन्द्व है.. पर आंखें न चाहते हुए भी झरने का पर्याय बनती जा रही हैं.. क्यों रो रही हूं मैं..? उनकी मृत्यु रूला रही है या दस पंद्रह दिनों पहले की वो मुलाकात जिसमें फिर से एक बार बचपन को मैंने जी लिया था?