शब्दों का निराला बादशाह-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

आलेख


राकेश शर्मा 'निशीथ'


हिंदी साहित्य में अनेक महाकवि हुए हैंइन्हीं कवियों में एक ऐसे भी थेजिन्होंने काव्य, उपन्यास, कहानी, रेखाचित्र, निबंध संग्रह, आलोचनात्मक ग्रंथअनुवाद, जीवनियां, नाटक अर्थात समस्त विधाओं पर अपना प्रभुत्व कायम किया है। कोलकाता में हिंदी साप्ताहिक पत्र मतवाला में योगदान करते समय कवि ने निराला उपनाम अपनाया था और अपनी प्रतिभा के बल पर उस नाम को साहित्य जगत में स्थायी रूप से प्रतिष्ठित भी किया।


__ उन्होंने समन्वय, मतवाला, सुधा, कला, रंगीला, सरोज एवं पत्रों का संपादन कर अपनी संपादन कला का प्रमाण भी दिया। स्वच्छंदतावादी काव्यांदोलन के पुरस्कर्ता तथा हिंदी के प्रगतिवादी आंदोलन के अप्रत्यक्ष नेतृत्व करने वाले निराला ने शास्त्रीय नियमानुसार महाकाव्य चाहे न लिखा हो, परंतु उनकी कृतियों में जिस औदात्य का स्फुरण है, गरिमा व व्यापकता है, उससे उन्हें युग निर्माता कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। निरालाजी ने अपने जीवन और रचनाओं में रामकृष्ण और विवेकानंद को सबसे अधिक आत्मसात किया है।


निरालाजी के पिता पं. रामसहाय त्रिपाठी मूलरूप में उन्नाव जिले में गढ़कोला गांव के निवासी थे। वे बंगाल की महिषादल स्टेट मेदिनीपुर के राजा के यहां उच्च पदाधिकारी थे। उनके यहां माघ शुक्ल 11 संवत 1956 तदनुसार 21 फरवरी 1899 को रविवार को निरालाजी का जन्म हुआ निरालाजी ने अपने जन्म के विषय में कहाथा, मैं सरस्वती का पत्र हं इसलिए मेरा जन्मदिन बसंत पंचमी के दिन ही मनाया जाए।


पंडित रामसहाय को अंग्रेजी स्कूल में निराला को भेजना स्वीकार न था। अतः सामान्य बंगला पाठशाला में निराला को भेजा गया। 1907 में उनका नाम प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने पर महिषादल की हाईस्कूल की तीसरी कक्षा में लिखवाया थाइसी विद्यालय में निराला को बंगला और संस्कृत का सामान्य ज्ञान हुआ। आठवीं नौवीं कक्षा तक पहुंचते पहुंचते निराला अंग्रेजी, संस्कृत, गणित और इतिहास का सामान्य ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। किंतु विद्यालयीय शिक्षा के स्तर में निराला सामान्य छात्र ही रहे।


निरालाजी ने अध्ययन के साथ-साथ अपने शारीरिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान केंद्रित कियानित्य प्रति दिन कसरत करना, कुश्ती लड़ना, घुड़सवारी करना, तालाब में तैरना और बंदूक चलाना उनका प्रमुख कार्य था। संगीत के प्रति भी उनकी रुचि थी। एक बार उनकी परीक्षा में एक निबंध का प्रश्न आया था, तुम अपने जीवन में क्या बनोगे इसके उत्तर में उन्होंने लिखा- 'निराला बनूंगा'। तभी उन्होंने मतवाला अथवा निराला बनने की कल्पना कर ली थी।
__ चौदह वर्ष की छोटी अवस्था में चांदपुर जिला फतेहपुर में निराला की शादी हुई। उनकी धर्मपत्नी का नाम मनोहरा देवी (मनोरमा देवी) था। प्रकृति प्रिया मनोहरा देवी के प्रति आकृष्ट होने के कारण युवा निराला का मन पुस्तकों से उचटने लगा था। ऐंट्रेंस परीक्षा के दिन नजदीक आए... । गणित की परीक्षा में वह उत्तर पुस्तिका में पद्माकर के श्रृंगार रस वाले कवित्त लिखकर घर चले आये थे। मनोहरा देवी से निराला की दो संतानें, रामकृष्ण त्रिपाठी एवं सरोज उत्पन्न हुईबचपन में माता के देहांत, विवाह के कुछ दिनों बाद पत्नी की मृत्यु और पुत्री सरोज की मृत्यु से निराला टूट गये थे। कहते हैं कि निराला को इतना गहरा सदमा पहुंचा कि वे घंटों श्मशान में बैठे रहते थे। अपने दुख के संबंध में उन्होंने लिखा था


दुख ही जीवन की कथा रही,


क्या कहूं आज जो नहीं कही?


वह केवल नौवीं कक्षा तक पढ़ पाये थे। उनकी पहली कविता 1 जून 1920 में कानपुर से मासिक पत्रिका प्रभा में प्रकाशित हुई उनकी अंतिम कविता पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है, यह उजागर करती है कि निराला का कवि कर्म बराबर जीवन और कविता के बीच में भिडंत में लगातार लिप्त रहा है। निराला की रचना जूही की कली, मुक्त छंद के नये प्रयोग के कारण सरस्वती से लौटायी गई। इसका इनके मन पर गहरा आघात हुआ। सरोज स्मृति में उन्होंने कहा-


कवि जीवन में व्यर्थ ही व्यस्त


लिखिता अबाध गति मुक्त छंद


पर संपादकगण निरानंद


वापस कर देते पढ़ सत्वर


दे एक पंक्ति दो में उत्तर


इन सबके होते हुए भी निरालाजी तनिक मात्र विचलित तो जरूर हुए परंतु वे अपने उसी उत्साह के साथ रचनात्मक क्षेत्र में निरंतर कार्य करते रहे। गुरू गोविंद सिंह जैसे राष्ट्र नायक का यशोगान करते हुए निराला ने परिमल में कहा था-


सवा-सवा लाख पर


एक को चढ़ाऊँगा


गोबिंदसिंह निज


नाम जब कहाऊँगा।।


वर्ष 1920 में महात्मा गांधी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआअसहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर युवक स्कूल एवं कॉलेजों का परित्याग कर रहे थे। निरालाजी ने इसी अवसर पर देश प्रेम का एक गीत लिखा।


बंधु मैं अमल कमल


चिर सेवित चरण युगल


शोभामय शांति निलय पापताप हारी


मुक्तबंध, घनानंद मुद मंगलकारी


बधिर विश्व चकित गीत सुन भैरव वाणी


जन्म भूमि मेरी जगन्महारानी


इस रचना के प्रकाशन की इच्छा जब निराला के मन में आई तो उन्हें अपना नाम सुर्जकुमार तेवारी अच्छा नहीं लगा। तब उन्होंने अपना नाम सूर्यकांत त्रिपाठी रखाआधुनिक हिंदी कविता में पहली बार विधवा, भिक्षुक, बादल राग, जागो फिर एक बार, कुकुरमुत्ता, तोड़ती पत्थर, मंगहू, मंगहा रहा, झींगुर, डटकर बोला जैसी सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की कविताएं निराला ने लिखीं। उनकी मानवतावादी भूमिका अराधना में दिखती है।


रंग में यह गागर भर दो


निष्प्राणों को रसमय कर दो


मां, मानस के सित शतदल को


रेणु-गंध के पंख खिलाओ


जग को मंगल मंगल के पग


पार लगा दो, प्राण मिला दो


वास्तव में मर सकता है या मरना चाहता है, शीश हाथ धर जो जीता है, वहीं तो निराला है। निरालीजी ने अणिमा में कहा था-


मरण को जिसने वारा है


उसी ने जीवन भरा है


निराला की दृष्टि अपने युग के यथार्थ से कभी नहीं हटी। अतिशय कल्पनाशील छायावादी काव्योत्थान की वेला में भी वे साधारण जीवन की ओर दृष्टि निक्षेप करते रहे। दीनजन के दुःख को देखकर उनकी उफनती करूणा का दृष्टव्य है-


सह जाते हो


उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,


हृदय तुम्हारा दुर्बल होता भग्न


और जगत की ओर ताक कर,


दुःख हृदय का क्षोभ त्यागकर


सह जाते हो।


निराला दासप्रथा जैसी कुरीतियों के प्रबल विरोधी थे। अमानवीय भेदभाव निराला को कचोटता रहता था तभी तो अनामिका, भूख, वह तोड़ती पत्थर जैसी कविताओं के माध्यम से निराला ने मानव-समाज में यथार्थचेतना के विकास पर बल दियानिराला की कविताओं में भयाभास नहीं दिखता। निराला की भिक्षुक कविता जहां भिक्षुकों के यथार्थ का प्रकट करती है, वहीं सामंतों के लिए बहुत कुछ कहती है-


पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक


चल रहा लुकुटिया टेक


मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को


मुंह फटी पुरानी झोली को फैलाता


पछताता पथ पर आता।


कुकुरमुत्ता जैसे नगण्य पौधे को सर्वहारा वर्ग का प्रतीक बनाकर निराला ने काव्य विषय के जिस रूप में उसे प्रस्तुत किया वह अपने आप में अनूठा प्रयोग है। कुकुरमुत्ता उपेक्षित होकर भी स्वयं को तुच्छ नहीं मानता-


वही गंदे में उगा देता हुआ बुत्ता


पहाड़ी से उठे सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता


'अबे, सुन बे, गुलाब


भूल मत गर पाई खुशबू, रंगोआब


खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट


डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट।


कितनों को तूने बनाया है गुलाम।'


दीन दलितों के समाज का चित्रण कर देने मात्र से मानवतावादी कवियों को संतोष नहीं मिलता। विश्व वेदना से भरा कविहृदय दुखियों का हाहाकार सुनकर उन्हें गले लगाने को आतुर हो उठता है। निराला ने जीवन के कटु यथार्थ को देखकर घृणापूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त न करके अधिकांश रूप में सहानुभूति एवं करुणा ही प्रकट की है। भिक्षुक कविता में उन्होंने कहा है-


वह आता


दो टूक कलेजे के करता पछताता


पथ पर आता


पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक


चल रहा लकुटिया टेक,


मुट्ठी-भर दाने को भूख मिटाने को


मुंह फटी पुरानी झोली को फैलाता


विधवा कविता के माध्यम से निराला के टूटे तरू की टूटी लता-सी दीन भारतीय विधवा के असीम दुःख पर करुणा व्यक्त की है-


वह दुनिया की नजरों से दूर बचाकर


रोती है अस्फुट स्वर में,


दुख सुनता है आकाश धीर


निश्चल समीर


सरिता की वे लहरें भी ठहर-ठहर कर।


निराला समाज के रूढ़ बंधनों से मुक्ति की मानसिकता में जीना चाहते थे। वे ऐसे आदर्श की कल्पना कर रहे थे, जिसमें वर्ग और जातिगत भेदों की कारा सार्वजनिक मानवता को ग्रसित करने का प्रयत्न न कर सके। उनकी दृष्टि में सभी उन्नति के मार्ग पर प्रशस्त होने के अधिकारी हैं। वे साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी थे। वे हिंदू मुसलमान जैसी अलगाव की भावनाओं से समाज को दूर रखना चाहते थे। उन्होंने कहा-


नहीं आज का यह हिंदू


आज का यह मुसलमान


आज का ईसाई, सिक्ख


आज का यह मनोभाव


आज की यह रूपरेखा


नहीं यह कल्पना


सामाजिक कुरीतियों पर व्यंग्य करने के साथ-साथ गिरिजा विवाह संबंधी पौराणिक प्रसंग को सामने लाकर निराला ने व्यंग्य की धार को काफी पैदा बना दिया। अपनी जन्म कुंडली में दो विवाहों संबंधी भाग्य लेख पर भारतीय समाज की भाग कर्म ज्योतिष आदि प्रचलित सामाजिक मान्यताओं/ लोक विश्वासों को लक्ष्य करके वे हंसते हैं और कहते हैं-


पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह


हंसता था मन में बढ़ी चाह


खंडित करने का भाग्य अंक


देखा भविष्य के प्रति अशंक


छायावाद का युग है और निराला इस युग के श्रेष्ठ कवि हैं। वास्तव में निराला की सौंदर्य चेतना आयामी है। निराला की कविता में धरती और आकाश का, मनुष्य और प्रकृति का शब्द और संसार का अनूठा सौंदर्य है। मानवीय सौंदर्य चित्रण के अंतर्गत निराला ने नारी और पुरुष दोनो के ही सौंदर्य का वर्णन किया है। निराला ने नारी और प्रकृति दोनों को ही विधाता की अनूठी सृष्टि माना है। उन्होंने अपनी कविताओं में बादल, बिजली, वर्षा, प्रातः, संध्या, सार-सागर-सरिता, सूर्य, चांद, बागबगीचा, नगर-डगर, ऋतु पर्व आदि का बड़ा मनोहारी रूप चित्रित किया है। निराला को प्रकृति का कण-कण प्रिय लगता है, लेकिन ऋतुओं में उन्हें वसंत ऋतु सर्वाधिक प्रिय है। इसलिए उन्हें वसंत का अग्रदूत भी कहा जाता है। वसंत के विषय में उन्होंने लिखा-


सखि, वसंत आया


भरा हर्ष वन के मन


नवोत्कर्ष छाया


किसलय वसना नव-वय-लतिका


मिली मधुर प्रिय उर तरु पतिक


मधुप वृंद बंदी


पिक स्वर नभ सरसाया।


निरालाजी साधु प्रकृति के निश्छल, दानी साहित्यकार थे। वे अपने जूते, चप्पल, रजाई आदि सब कुछ गरीबों को दे डालते थे। उनके इस व्यवहार के विषय में मैथिलीशरण गुप्तजी ने एक बार लिखा था-


अगर कही नरसिंह निराला


हो जाता हत चेत न हाय


तो क्या स्वार्थ साध पाते तुम,


उसे बनाकर बूढ़ी गाय।


महादेवी ने निराला की सादगी और उनकी आर्थिक स्थिति के विषय में कहा था कि एक बार रक्षा बंधन के दिन निराला रिक्शा में बैठ उनके घर राखी बंधवाने आये। यह उनका नियम था। उन्होंने राखी बांधी। जब निराला जाने लगे तो उन्होंने महादेवीजी से एक रुपया मांगा। जब महादेवीजी ने रुपया देते हुए पूछा यह किस लिए चाहिए? तो वह बोले, आठ आने तुम्हें राखी बांधने के दूंगा और आठ आने रिक्शा वाले को किराया दूंगा। एक ओर तो निरालाजी की आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी तो दूसरी ओर उन जैसा त्याग करने वाला कोई नहीं था। एक बार कोई गरीब औरत उनके सामने आई तो उसे अपनी नई रजाई दे दी, किसी दरिद्र महिला के बच्चे पर शाल दिया, नंगे चलते ग्वाले को अपने जूते दे दिये, रेल सफर करते हुए भिखारियों को दस-दस के नोट बांट दिये और जब 21,000 रुपये का पुरस्कार मिला तो एक विधवा स्त्री को दे दिया।


एक बार की बात है कि फिराक ने निराला के गद्य-पद्य में मुस्कराते, नवाब आदि शब्दों का प्रयोग का मजाक उड़ाया तब निराला ने तय किया कि उर्दू लिखकर फिराक को चिढ़ाना है। निराला ने उर्दू साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का अध्ययन करते हुए अनेक गजलें लिखीं थीं, जो वर्ष 1943 में बेला संग्रह में संकलित हुई हैं।


निराला के व्यक्तित्व का निरूपण सुसंस्कृति मानवीय मूल्यों पर आधारित व्यक्तित्व को पृथक रखकर नहीं किया जा सकता है। चाहे उनके निजी जीवन का हो या फिर साहित्यक जीवन का, निराला जो जीते थे वहीं लिखते थे। जो लिख देते वही जीते थे। उनके जीवन और उनके साहित्य में कहीं कोई विसंगति नहीं मिलती। निराला से संबद्ध समालोचना करते हुए डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है, निराला का संपूर्ण काव्य व्यक्तित्व विरुद्धों के सामंजस्य की अवधारणा से सक्रिय है। निःसंदेह भारतीय संस्कृति, सामाजिक मूल्यों और व्यक्तिपरक अनुभतियों की त्रिवेणी प्रवाहित हुई हैं वह सांस्कृति चेतना के रूप में निराला की वाणी में है। आधुनिक कवियों में निराला का सौंदर्य बोध जितना विशिष्ट एवं व्यापक है उतना हिंदी ही नहीं, किसी भी भारतीय भाषा के आधुनिक कवि का नहीं है, हां केवल रवीन्द्रनाथ टैगोर को अपवाद माना जा सकता है।


छायावादी कवियों में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व और काव्य दोनो ही अपनी अंतर्विरोधी प्रकृतियों, संघर्षों एवं अल्हड़पन के कारण काफी दिनों तक विवाद के विषय में बने रहे। छायावादी कवियों में निराला में पुरुषोचित गुण सबसे अधिक था। उनका जीवन अंतर्विरोध से भरा था। वे भारतीय परंपरा की गत्यात्मकता के पोषक भी हैं और अत्यधिक आधुनिक भी।


____ छंद के बंधन को निराला ने ही तोड़ा है। आज जिस मुक्त छंद को प्रयोगवाद के प्राण के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है और हिंदी कविता आज तक जिस लकीर को पीट रही है, वह निराला की ही देन है कविता को गद्य का रूप होते हुए भी उसे कविता बनाये रखने का श्रेय निराला को जाता है। उन्होंने लोकगीत, कजली, ख्याल जैसी शैलियों को जैसा प्रस्तुत किया है वह अपने आप में अभिनव है। उनके उपमान चित्रात्मकता या सौंदर्यात्मक विशेषता के आधार पर प्रयुक्त न होकर विचार के प्रमुख साधन के रूप में चने गये हैं। उन्होंने नवीन जीवन संदर्भो के साथ गीत की नई विधाओं को जन्म दिया। नई कविता तथा अगीत कविता की अनेक विधाओं को उत्पन्न किया।


नागरी प्रचारिणी. वाराणसी के प्रधानमंत्री सधाकर पांडेय ने अपने स्मति गंगा ग्रंथ में निराला को सिंह-संस्कृति का सिंह-कवि कहा है- जैसे सिंह प्रकृति की गोद में सोता जागता रहने वाला अपराजेय सम्राट होता है, उसी प्रकार निराला अपने साहित्य काल के सम्राट सर्जक थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान की दिशा की सार्थक पहचान की। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से पुरानी दूषित परंपराओं की निरर्थकता को बखूबी उकेरा है। पश्चात्य सभ्यता निरर्थक संस्कृति पर भी अपनी पैनी दृष्टि डाली।


निराला की काव्यात्मक कालजयी क्षमता को देखते हुए डॉ. रामचंद तिवारी ने कहा था, निराला चाहे जितने बड़े क्रांतिकारी रहे हों और उनका साहित्य हमारे सामाजिक संगठन की असंगतियों, रूढ़ियों और अंतर्विरोधों को उजागर करने में चाहे जितना समर्थ हो, यह निर्विवाद है कि उनका विराट व्यक्तित्व किसी भी वाद की सीमा में बंध नहीं सकता। डॉ. दूधनाथ सिंह के अनुसार निराला की हर रचना एक संपूर्ण स्वतंत्र जीवन दृष्टि है। नामवर सिंह ने निराला के जीवन को उथल-पुथल और संघर्षपूर्ण जीवन माना है। उन्होंने लिखा है, निराला का जीवन अत्यंत उथलपुथल का, संघर्षों का जीवन रहा है, किंतु उनकी कविताओं में केवल व्यक्तिगत संघर्षों का चित्र रहता तो उनका युगांतकारी महत्व न होता।


बाल साहित्य आज की एक लोक प्रचलित विधा है। बालकों, विशेषतः किशोरों के व्यक्तित्व के विकास हेतु प्रेरणा प्रद बाल साहित्य प्रस्तुत करना आज का एक राष्ट्रधर्म माना गया है। पश्चिमी साहित्य में बालोपयोगी साहित्य का निर्माण जिस गति और जिस परिणाम में हुआ है, उससे प्रेरित होकर हिंदी के साहित्यिक समाज सुधारकों का ध्यान इस विधा की ओर आकृष्ट होने लगा। हिंदी में सर्वप्रथम भारतेन्दु ने बालबोधिनी पत्रिका द्वारा इस विधा की शुरूआत की थी। निराला ने इस विधा में अपना महत्वपूर्ण अंशदान किया। उनकी बालोपयोगी कृतियां हैं। भक्त ध्रुव, भक्त प्रहलाद, भीष्म, महाराणा प्रताप, सीख भरी कहानियां, रामायण की अंत: कथाएं आदि।


 मतवाला पत्र में निराला ने छद्म नाम से हिंदी लेखकों के गलत प्रयोगों पर कटाक्ष किया और अपना नाम निराला रखा। उन्होंने एक दार्शनिक नाम से भी कई दार्शनिक निबंध लिखे। उनका मत था, किसी देश को उन्नति के शिखर पर संस्थापित करने का सबसे उत्तम उपाय यही है कि उसके बच्चों की सार्वभौमिक शिक्षा की ओर ध्यान दिया जाये। उसके सामने देश के आदर्श बालकों के चरित्र रखे जाएं। भक्त प्रहलाद की भूमिका में कहा-ऐसे धर्मनिष्ठ सरल और दृढव्रत बालक के चरित्र का प्रचार स्खलित मति, निर्वीर्य, निरूत्साह, पथभ्रष्ट कर देने वाली कुशिक्षा से बचाने के लिए देश के बालकों में अवश्य होना चाहिए।


बाल साहित्य की दष्टि से महाभारत और उसका सार संक्षेप.संक्षिप्त महाभारत निराला की एक महत्वपूर्ण कृति है इसे बच्चों के लिए उपयोगी बनाने के लिए उन्होंने संस्कृत, बंगला और हिंदी की कई पुस्तकों के आधार पर तैयार किया था। बाल साहित्य के विषय में एक बार निराला ने लिखा था, मैं कितना बड़ा साहित्यकार क्यों न माना जाऊँ पर मेरी लेखनी तभी सार्थक होगी, जब इस देश के बाल गोपाल मेरी कोई कृति पढ़कर आनंद विभोर होंगे।


बच्चों के साथ खेलना तथा उनसे बातें करने में उन्हें विशेष आनंद मिलता थाअपने स्वभाव से ही वे अपने समवयस्कों तथा बच्चों-बूढ़ों में घुलमिल जाते थे। जब कभी वे साहित्यकारों के बीच रहते तो गूढ़ साहित्यिक चर्चा करते उनकी कविताएं सुनते तथा अपनी सुनाते, हंसते-हंसाते पर जब वे साहित्येत्तर व्यक्तियों के बीच होते तो उनके साथ गुल्ली डंडा से लेकर ताश तक खेलने का आनंद लेते थे। बाल साहित्य के अतिरिक्त निरालाजी की अन्य रचनाएं हैं


काव्य-अनामिका,परिमल, गीतिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, अपरा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, गीत गुंज, कविश्री सांध्य काकली, (मरणोपरांत प्रकाशित)।


उपान्यास-अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरूपमा, काले कारनामें, चमेली, (अधूरा उपन्यास), चोटी की पकड़ (अधूरा उपन्यास)।


कहानी संग्रह-लिली, सखी, चतुरी चमार,देवी, सुकुल की बीबी।


रेखाचित्र- कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिहा।


निबंध- प्रबंध पद्य, प्रबंध प्रतिभा, प्रबंध परिचय।


जीवनी- भक्त ध्रुव, राणाप्रताप, भीष्म, भक्त प्रहलाद, शकुंतला।


अनुवाद-वैदिक साहित्य वात्स्यायन कामसूत्र, आनंद मठ, कपाल-कुंडला, चंद्रशेखर, दुर्गेश नंदिनी, कृष्णकांत की विल, युगलांगुलीय, रजनी, देवी चौधरानी, राजा रानी, विषवृक्ष, राजसिंह, तीन नगीने, श्रीरामकृष्ण वचनामृत, भारत में विवेकानंद।


समालोचना- रवीन्द्र कविता-कानन, पंत और पल्लव, चाबुक


भाषा अलंकार- हिंदी बंगला का तुलनात्मक व्याकरण, रस अलंकार, हिंदी बंगला शिक्षक व्याकरण।


टीका- तुलसीकृत रामायण की टीका, महाभारत (संक्षिप्त), रामायण


निरालाजी शोध और जलादर रोग से ग्रस्त हो गये थे और उनके सारे शरीर में सूजन आ गई थीइस रोग का मुख्य कारण यकृत विकार तथा हृदय के पास रक्त संचार के अवरोध का होना था। 15 अक्टूबर, 1961 को महाप्राण निराला ने अपना पार्थिव शरीर दारागंज, प्रयाग में छोड़ दिया। उनकी मृत्यु पर डॉ राधाकृष्ण ने कहानिराला भारत के ऋषि-मुनियों की ही परंपरा में एक सच्चे ऋषि और विद्रोहीक्रांतिकारी तथा युगप्रवर्तक कवि थे। उनके काव्य में ऐसी मानवता के दर्शन होते हैंजो जाति या राष्ट्र की सीमाओं में बंधी नहीं है। वह सत्य के पुजारी और धुन के पक्के थे उनकी साहित्य की परंपरा में नई शैलियों का समावेश किया तथा प्रजातंत्रमानवता एवं प्रगति के लिए अपना सारा जीवन लगा दिया। निराला को निराला इसलिए कहा जाता है कि वे आत्महंता थे। लेकिन उनकी और मनुष्य में गजब आस्था थी। वे एक महान कवि के साथ एक महामानव भी थे।