प्यार में कलाकार

उपन्यास अंश


अशोक गुजराती


परिश्रम वक्त लेता है। कला उसको मांजती है। दो दिन जाया हुए. अमोल हताश होता रहा। उसने पुन: नये सिरे से कोशिश शुरू की। आखिर, वह उस मूर्ति को जीवित कर पाने में कामयाब हो गया। इस बार वह हूबहू चित्र की अनुकृति दीख रही थी।


माधव ने जब उसकी हस्तकारी देखी, वह दौड़ा-दौड़ा गया। विप्लव को बुलाकर लाया। विप्लव ने उसकी कला का निरीक्षण किया और पागल हो गयाउसने अमोल को गले से लगा लिया- 'अरे! तूने क्या कर लिया है, तू नहीं जानतातू तो गजब का कलाकार है... अब इस मूर्ति को सूखने दे। मैं तुझे रंग और ब्रश ला दूंगा। चित्र जैसा साक्षात् रूप निखरने तक इसे किसीको बताना नहीं।'


__अमोल की समझ में इतना ही आया कि उसने खूबसूरत रचना की है। माधव ने उसे इशारों में विप्लव के कथन का अर्थ बताया। उन लोगों ने रंगों की प्रतीक्षा करते उस शिल्प को आड़ में सूखने हेतु छिपा दिया।


__ अगले ही दिन विप्लव गणपति, लक्ष्मी आदि की प्रतिमाएं बनाने वाले एक कुम्हार को मिला। उसका नाम रमेश प्रजापति था। उसके निर्देशानुसार रंग एवं ब्रश खरीदे। उस युवा कारीगर को अपने साथ लेकर आया ताकि अमोल को मूर्ति पर रंग लगाना सिखाया जा सके।


वह दस्तकार अमोल द्वारा निर्मित मूर्ति को देखता रह गया- 'बाबू साहब, यह लड़का आगे जाकर बहुत बड़ा कलाकार बनेगा। इसका आप लगातार उत्साह बढाते रहना।'


जब उसे अमोल के मूक-बधिर होने का पता चला, वह और प्रभावित हुआ। वह धीरे-धीरे अमोल को चित्र की सहायता से मूर्ति को विभिन्न रंगों से सज्जित करने की शिक्षा संकेतों में देता रहा-विशेष रूप से दो निकट के अलग रंगों को अपनी सीमा में कैसे बांधना। उसका मन नहीं भरा तो मुसलसल तीन दिनों तक थोड़ी देर आकर अपनी कार्यशाला से रंगहीन मूर्तियां लाकर अमोल का ज्ञान-वर्धन करता रहा।


मूर्ति के पूरी तरह सूखने के बाद अमोल अपने गुरु रमेश के सिखाये मुताबिक़ बेहद सावधानी बरतते हुए छपे चित्र के रंगों के समान मूर्ति को कूची चलाते हुए साकार करने लगा। उससे चूक भी हो जाती थी, जिसे वह सफेद रंग या मिट्टी के घोल का उपयोग कर ठीक करता चलता। काफी समय लगा। रमेश आया। उससे अनजाने हुई गलतियों को सुधारा । अंततः सरस्वती की मूर्ति संपूर्णता प्राप्त कर गयी।


मूर्ति देखते ही बनती थी। अमोल स्तुति की धारासार वर्षा से भीग-भीग गया। तभी उसकी स्मृति उसे वर्षों पहले के उस दृश्य पर स्थिर कर गयी-वह ऐसे ही अपने घर के आंगन में मिट्टी से किला बना रहा था... उस पर बेमौसम ओलों की मानिन्द अचानक किसी बेंत-सी लकड़ी से मार पड़ने लगी... वह जितना बचाव करता जाता, आघात उतने ही तेज होते जा रहे थे.... बच्चा ही तो था वह तब... सहतेसहते, रोते-रोते वह अधमरा-सा गिर पड़ा था एक ओर लेकिन उस पर हो रहे वार रुक नहीं रहे थे...।
सिफत को सरस्वती की वह मूर्ति इतनी भा गयी कि उसने कांच के चौकोर डिब्बे में उसे बन्द कर अपने कार्यालय में शोभायमान कर दिया। इससे अमोल को और मूर्तियां बनाने की प्रेरणा मिली। सब लोग यही चाहते थे. अब अमोल ने चित्र का सहारा लिये बगैर अपनी याददाश्त से अगली मूर्ति गढ़ने का निर्णय लिया।


उसे स्मरण हो आया वह बहुरूपिया...


उसके वस्त्र और मेकअप लीक से हटकर थे। चुस्त-से नीले पाजामे पर बड़ा-सा रंगीन चमकीला लहरदार झबला, सर पर लाल रंग की पीछे गोल घेरा लगी मुकुट-सी पगड़ी उसके व्यक्तित्व में अलग ही निखार पैदा कर रहे थे। उसके माथे पर रुपए के सिक्के-सा सर्ख तिलक था। गाल हरे: होंठ लाल: आंखों-भौंहों के इर्दगिर्द काला रंग: दाढी से कानों तक सफेद आवरण: कानों पर. कलाई पर, गले में नकली मगर दीर्घाकार गहने । वह हूबहू केरल के कथकलि नृत्यकारों (महाभारत, रामायण जैसी पौराणिक कथाओं के गायन की पृष्ठभूमि में नृत्याभिनय करने वाले) जैसा लगता था। उसके हाथ में चाबुक था। नौबत को उसके विचित्र पोशाक और जोकर-से चेहरे ने आकृष्ट कर लिया था।


कई हफ्ते बीते। अमोल ने उसे बना तो जल्दी लिया। पहले वाली मूर्ति से इसका आकार पर्याप्त बड़ा था। उस बहुरूपिया के इतने रंग थे कि उनको याद करकरके सही जगह पर सही रंग देना कठिन ही नहीं कठिनतम था। रमेश भी आआकर उसको सलाह देता पर अपने देखे मल नर्तक के बारे में अमोल उसको कैसे तो बता पाता?..


सिफत को उसकी इस कलाकृति का तनिक आभास मिल गया। उसने कम्प्यूटर से कथकलि नृत्यकार के चित्रों के प्रिंट-आउट निकाले. उसने ज्यों ही ये अमोल के सामने रखे, उसने उठकर तालियां बजायीं- 'लगभग ऐसा ही तो था वह बहुरूपिया...'


इन चित्रों ने रमेश को भी वस्तुस्थिति से अवगत करा दिया. उसने फिर कमर कस ली कि अमोल को रंगों के प्रयोग और तालमेल में निष्णात करके रहेगा। और उस बहुरूपिया ने रूप ग्रहण कर लिया। रंगों का संयोजन उसे अप्रतिम बना गया। जो देखता, देखता रह जाता। सिफत ने इस मूर्ति की भी अपने आफिस में स्थापना कर दी।


रमेश ने विप्लव से कहकर अमोल को सही माटी (मृत्तिका-क्ले) उपलब्ध करायी, जो मूर्तियां बनाने के लिए योग्य रहती है। इस में गोंद की तरह का चिकनापन, पकड़ एवं टिकाऊपन होता है। अमोल के लिए अब किसी मूर्ति को आकार-प्रकार देना सरल हो गया।


वह रुका नहीं। उसने सतत मूर्तियों में नूतन आविष्कार करने जारी रखे। ये आविष्कार उसके लिए नये नहीं थे। उसने जो-जो अपने आंखों में कैद कर रखा था, उन्हीं को प्रस्फुटन दे रहा था। उसने उस ढोलक वाले को मूर्तित किया, जो लम्बे फासले पर खड़े अपने साथी को ढम-ढम की आवाज तथा इशारों के जरिए अपना संदेश भेजता था। उसने उस औरत को भी मिट्टी से गढ़ा, जिस पर 'देवी' आती थी। उसने पतंग उड़ाते युवक को भी प्रतिष्ठित किया। फिर उसने उन गुब्बारे और बंसी बेचने वालों को भी अपनी कला से मूर्तित कर शिल्पकारी में मील के पत्थर को छू लिया।


ये सारे बुत उस एनजीओ की शोभा बढ़ा रहे थे। उसमें छिपे इस कला-रहस्य को उजागर करने के लिए निश्चित ही प्रोत्साहन देते 'स्वागत' के सभी सदस्य उसे मानसिक ऊर्जा देते रहते। उनको विश्वास था कि यह 'दिव्यांग' मूर्तिकार एक दिन बुलंदियों को अपनी मट्टी में कर लेगा।


_अमोल वैसा ही था-भोला-भाला, हमेशा हरेक की संवेदना में सम्मिलितघमंड का कोई कतरा उसे छू भी नहीं गया था। उसकी अलौकिक दृष्टि अपने जेहन के खजाने से अलहदा चरित्र चुनने में लगी रहती। उसके लोचनों ने जब्त किया रेशमा, राज व अन्य भिखारियों का चित्र हो अथवा उस बालक की आंखें फोडने वाला भयंकर अनुभव- वह इन सबको मूर्त रूप देना चाहता था।


यह प्रत्यक्ष कर पाना कोई हंसी-ठट्ठा तो है नहीं। लगन, कड़ा श्रम और समय की दरकार होती है। इसका मतलब यह कतई नहीं कि अमोल शिथिल पड़ गया। वह तन्मयता से अपने मूर्तिकरण में लगा रहा।


ऐसे में विप्लव ने एक ख्यातिप्राप्त मूर्तिकार को ढूंढ निकाला- के. स्वामीनाथन. वे नये उभरते कलाकारों को अपने यहां निशुल्क प्रशिक्षण भी देते थे। उनसे अनुज्ञा लेकर अमोल को उनके पास भेजने की व्यवस्था की। उन्होंने कला की बारीकियां बतायीं-इस गूंगे-बहरे को। उसका अभाषण तथा श्रवणहीनता कहीं आड़े नहीं आयी। अब वह तपे हुए सोने-सा सुवास देने लगा।


अब उसने सबसे पहले रेशमा को केन्द्रित किया। बायां हाथ कटा हुआ, दाहिने में कटोरा, लटें उलझी-उलझी, सूरत पर दरिद्रता और फटे वस्त्र ही नहीं दृष्टव्य अंग भी मटमैले. इस शिल्प में उसने मलिन रंगों का ही अधिकतम प्रयोग किया। सांवली देह पर रंग-उड़े कपड़े थे बेशक लेकिन आखों में तेज था। वह जरा-जरा आदिवासी स्त्री जैसी बन पड़ी थी। इस आकर्षक दीनता की मूरत को भी सबने पसन्द किया।


अब बारी थी उसके अभिन्न राजू की। बैसाखियों के सहारे खड़ा वह आसमान ताक रहा था। दोहराव न हो इसलिए उसने राजू के बदन और परिधान को ज़्यादा गंदा नहीं बनाया पर उसके चेहरे से बेकसी और पंगुत्व की व्यथा झरी पड़ रही थी।


इसके बाद की कल्पना दुरुह थी, जिसमें कम से कम दो पात्र उपस्थित करने जरूरी थे। वह बालक, जिसकी एक आंख फूटकर लहूलुहान है, वह स्वयं अर्धसुप्त है और गुंडा उसको दबोचकर दूसरी आंख के कोटर में चाकूदाखिल कर रहा है। खून से उसका मुख ही नहीं, शरीर भी तरबतर है।


इस मूर्ति ने ले लिये चार महीने। जो उभर कर आया वह क्लासिक था।


सिफत के आफिस में जगह कम पड़ने लगी तो उसने शो-केस बनवा लियेअमोल की सारी मूर्तियों को सजाने के लिए। तभी एक सुबह उसकी नजर पड़ी टाइम्स ऑफ इंडिया की विज्ञप्ति पर। मूर्तियों की प्रदर्शनी और सबसे उत्कृष्ट मूर्ति पर बीस हजार के इनाम की। उसने मन ही मन तय कर लिया कि इस स्पर्धा में अमोल की मूर्तियों को सम्मिलित करना है। विप्लव को जब उसने बताया तो उसने भी उसका समर्थन किया।


इस सबसे निर्लिप्त अमोल अपनी अगली कला-कृति को लेकर खोया हुआ था। यह उसके जीवन की दुर्दशा का वह पड़ाव था, जिसने उसको भटकन दी थीयहां भी दो पात्र थे। एक, वह स्वयं और दूसरा उसका भाई । वही प्रसंग, जो उसको बारंबार उद्विग्न करता रहा था। भाई द्वारा उसको निर्ममता से पीटना। वही मोड़जिसने उसकी जिन्दगी बदल दी।


मूर्ति स्पर्धा के लिए केवल तीन महीने शेष थे। इस अंतराल में अगर वह अपनी इस बदनसीबी को सम्पूर्णता दे पाया तो एक अतुलनीय शिल्प वह प्रस्तुत कर पायेगा।


___'स्वागत' में पीछे की ओर एक वाशरूम बना हुआ था। यह कर्मचारियों के लिए था। अन्दर का क्लोजेट एनजीओ के सदस्यों हेतु था। चूंकि वहां बच्चों को नहलाया जाता था, हरदम अफरा-तफरी मची रहती थी। इसीलिए अमोल पीछे के ही बाथरूम का इस्तेमाल करता था। प्रत्येक सेवाकर्मी और सदस्य को महीने में एक नहाने तथा एक कपड़े धोने का साबुन दिया जाता था, जिसे वह अपने कपबोर्ड में रखे रहता. बच्चों के लिए परिचारिकाओं को यह उपलब्ध किया जाता।


अमोल अपने साबुन सोपकेस में वहीं बाथरूम में ही छोड़ देता। एक दिन जब वह नहाने गया, उसने साबुन निकालकर अपने चेहरे पर लगाना चाहा। एकाएक उसकी निगाह उस साबुन पर पड़ी। वहां कुछ था। किसीने उस पर उत्कीर्ण किया हुआ था- तीर घुसे हृदय का रेखांकन । उस निरीह मूर्तिकार को दिल की आकृति की थोड़ी-बहुत जानकारी थी कि यह देह में रक्त-संचार करता है। टीचर ने उसे मानव शरीर की पेचिदगियां समझाने का प्रयत्न किया था।


दिल का सम्बन्ध प्रेम से होता है, इस विषय में वह भोलाराम अनजान था. उसने सेक्स का पाठ तो फरीदा के यहां पूरा-अपूरा पढ़ लिया था किन्तु रोमांस के हिज्जे भी उसे आते न थे।


वह असमंजस में पड़ गया। उसने इसको अनदेखा करना उचित समझा... मालूम नहीं, किसीने उसे बेवकूफ बनाने के लिए यह कारस्तानी की हो। वह नहाकर आ तो गया पर उसके मस्तिष्क को इस उथल-पुथल ने चैन नहीं लेने दिया. अचानक उसे वह बाण याद आया। उसका क्या अर्थ था..? तब उसे उस चित्र का ध्यान आया, जिसमें हृदय के आरपार शर दिखाया गया था। इसके बारे में टीचर ने अधिक कुछ बताया नहीं था।


उस रोज कक्षा में उसने उस चित्र को निकालकर टीचर से 'या...या...' कर हाथ को मुंह बनाकर


पूछा, 'ये क्या है?'


टीचर पल भर चुप। फिर उसकी उम्र का संज्ञान लेते हुए सोचा, इसे मतलब से वाकिफ कराना गलत नहीं होगा। उन्होंने एक और चित्र निकाला, जिसमें एक युवक युवती की कमर को अपनी बांह से घेरकर बैठा था। इसके आगे का संप्रेषण बेहद मुश्किल था लेकिन टीचर मूक-बधिरों तक अपनी बात पहुंचाने में दक्ष थीं। उन्होंने और चित्रों का सहारा लेकर संकेतों में नर और मादा के बीच के प्यार के जज्बे को तरह-तरह से प्रकट करने में कोई संकोच नहीं दिखाया क्योंकि उनकी आय साठ साल के आसपास थी और अमोल निहायत शालीन था।


__ आम जबान में कहते हैं-'हत्त तेरे की!' मन-ही-मन यही प्रतिक्रिया दी अमोल ने।


फिर वह एकाएक गंभीर हो गया तो क्या किसी लड़की ने वह आकृति उकेरी थी? उसके लिए? भला क्यों...वह तो अपंग है। उसने सिंहावलोकन किया...


है तो एक सोलहेक साल की युवती, जो किचन में काम करती है। निगाहें मिलने पर मुस्कान बिखेरती है. खाना परोसते हुए उसने अमोल को कई बार स्पर्श भी किया है। अमोल के पलटकर देखने पर मुस्करायी है। अमोल ने कभी उसे तवज्जो नहीं दी। उसने उसे उस कोण से देखा ही नहीं।


वह इतना तो निश्चित ही जानता था कि विपरीत लिंगों के मध्य विवाह होते हैं, संबंध बनते हैं, सेक्स भी होता है लेकिन प्रेम की अनुभूति उसके तईं स्त्री-पुरुष दोनो पक्षों हेतु सरीखी थी। उसमें रेशमा के प्रति एक अलग भावना थी। क्या वही प्यार है?. खैर! उसने अभी के लिए यही तय किया कि वह इस प्रकरण से दूरी ही बनाये रखेगा।


सुबह वह स्नानघर में गया और समूची काया को साबुन लगाकर नहाया. इससे हुआ यह कि वह रेखांकन काफी धुंधला पड़ गया। उसने निश्वास छोड़ा।


भोजन-कक्ष में जाने पर उसने उस लड़की पर चौकस दृष्टि जमाये रखी। चोरनजर से टटोला। लड़की नयनाभिराम थी। उसकी दैहिक वक्रताएं, नाक-नक्श लुभावने थे। उसे वह सुंदर लगी। हो सकता है यह उसके वय की मांग हो।


युवती का नाम सरोज था। उसे न सिर्फ अमोल का व्यक्तित्व अपितु उसकी मूर्ति-कला ने लुब्ध कर दिया था। उसने अमोल की उसके प्रति छान-बीन पकड़ ली थी. उसे आशा की किरण दिखाई दी पर अमोल तटस्थ ही बना रहा।


तडके अमोल वाश-रूम गया तो दरवाजा बन्द थावह रुका रहा। जरा देर बाद पट खुले। सद्यस्नात सरोज शरमाते हुए निकल भागी। उसका यह रूप अमोल की आंखों में अटक गया। उसने बदहवासी में भीतर जाकर अपने साबुन का परीक्षण किया। उस पर वही आकृति पुनर्जीवित थी। हाथ कंगन को आरसी क्या...


सापेक्षता जागनी ही थी। उसके दृग धोखा नहीं दे सकते थे। धड़कन सुनाई न दे पर महसूस की जा सकती है। वह बहने लगा। प्यार की तासीर! उसकी स्वाभाविक कोमलता ने उसे प्रेम की महत्ता अंतरित करने में अपनी भूमिका निभानी ही थी। वह दीवाना हो गया।


डाइनिंग हॉल में अमोल ने उसके स्मित का उत्तर स्मित से दिया। छुअन का छुअन सेअवसर मिलने पर उसका हाथ पकड़कर हल्के-से दबा दिया। पुरुष पहल करता ही है। स्त्री पीछे नहीं हटती, सरोज ने मौका मिलते ही उसकी उंगलियों को चूम लिया। प्रेम को परवान चढ़ना ही था, कोई कभी रोक सका है?..


जब वह अपने नये अभियान में मशगूल था, वह आयी। उसे कनखियों से अनुसरण की इच्छा जतायीअमोल को जाना ही था। वह प्रतीक्षारत वाशरूम के पार्श्व में खड़ी थी। अमोल के आते ही पिछवाड़े बढ़ गयी।


यह उनका प्रथम मिलन था। अमोल हवा में उड़ने लगा। उसकी मूर्ति बनाने की गति तीव्र हो गयी। कोई चाहने लगे तो कलाकार अपने अभिप्रेत की ऊंचाइयों को गिरफ्त में लेने पर आमादा हो जाता है।


__ढाई माह में उसने अपनी आपबीती की उस शिल्प-वस्तु को अंतिम संस्पर्श देकर पूर्णता दे दी-बड़ा भाई छोटे के निर्माणाधीन मिट्टी के किले को लात मारकर ध्वस्त करते हुए उस पर छड़ी से वार कर रहा है।


सिफत और विप्लव ने प्रदर्शनी में उसकी चुनिन्दा मूर्तियां संवारकर रख दीं। दर्शकों ने उसके तमाम शिल्पों को खूब सराहा अब इन्तजार था परीक्षकों के निर्णय का।


अपेक्षा के विपरीत आये दोनों फैसले। तथापि बुरे नहीं थे। एक वयस्क मूर्तिकार को पहला इनाम मिला। उनकी उम्र और उनकी प्रसिद्धी निर्णायकों पर हावी होनी ही थी. द्वितीय पारितोषिक का हकदार बना अमोल। यह भी पन्द्रह हजार का थायह उसके उस कला-कर्म को नहीं मिला, जिसकी उसे उम्मीद थी-छोटे भाई की बड़े द्वारा पिटाई... इसके बरक्स उसकी वह मूर्ति अत्यधिक सराही गयीजिसमें गुंडा एक नाबालिग की आंखें फोड़ रहा है।


पुरस्कार कार्यक्रम के अध्यक्ष थे के. स्वामीनाथन । संचालन का भार सम्भाला हुआ था सिफत ने। स्वामीनाथन ने अपने दीर्घ वक्तव्य में मूर्तिकला के विभिन्न आयामों की चर्चा की। अंत में उन्होंने अपने शिष्य अमोल की कारीगरी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। यह भी जोड़ना नहीं भूले-'दुर्भाग्य से अमोल स्वयं अपनी तारीफ नहीं सुन सकता। बिना कुछ कहे-सुने उसने शिल्पकारी की दुनिया में अपना विशेष स्थान अर्जित किया है। उसके लिए मेरी शुभ-कामनाएं!'


__सिफत ने अवसर को अनुकूल देख अमोल के अतीत पर संक्षिप्त दृष्टिक्षेप डाला। श्रोता करुणा से ओतप्रोत हो गये। पुरस्कार वितरण प्रारंभ हुआ। अमोल की बारी आने पर उसे विप्लव ने इशारे से बताया कि उसे मंच पर जाना है। स्वामीनाथन ने उसे ट्राफी दी। उसने अपने गुरु की चरण-वंदना कर उनका आशीर्वाद लिया। जब उन्होंने उसे अंगूठे से मध्यमा को चटकाते हुए पन्द्रह हजार का चेक दिया, उसने सिफत को पास बुलाया और चेक उसे सौंप कर उसके पैर छुए।


अब शुरू हुई तकरार। संकेतों में। सिफत उसे चेक वापिस करती, वह पुनः 'न...न...' बोलते हुए लौटाता। यह लेन-देन बारहा होने के बाद अमोल ने चेक सिफत के कदमों में रख दिया और सीढियां उतर आया। सारे दर्शक पहले तो अवाक उस निशब्द विनिमय को मुस्कराते हुए बूझते रहे, फिर तालियां बजाकर अमोल के इस समर्पण की दाद दी।


इन लोगों के जाने के बाद माधव ने सभी कर्मियों को इकट्ठा किया था- 'आज छोटू को उसकी बनायी मूर्तियों के लिए इनाम मिल रहा है. वे सब वहीं गये हैं. हमारा भी फर्ज बनता है कि उनके आने पर छोटू...अमोल का स्वागत करें।' सबने सकारात्मकता दिखायी तो माधव ने दस साल के एक बच्चे को हार लेने भेज दिया। औरतों को आरती की थाली तैयार करने को कहा।


माधव ने आरती उतारने, टीका लगाने और हार पहनाने की जिम्मेदारी सरोज को दी। इसका मतलब साफ था। उसने उनके मध्य चल रही प्रेम-लीला की आहट पा ली थी।


वे आए। गेट पर सब आश्रमवासी उपस्थित थे। अमोल की टीका लगाकर आरती उतारी गयी। जब सरोज ने उसको हार पहनाया, यूं लग रहा था कि वे सारे बारात की अगवानी में वहां जमा हुए हैं और वधू ने वर को हार पहना कर ज्यों इस रीति को सार्थकता दे दी है। तालियां बजीं। सिफत-विप्लव चकित रह गये इस अनपेक्षित अभिनंदन के कारण।


अमोल ने ताड़ लिया कि इस षड्यंत्र के पीछे कौन हो सकता है... उसने आगे बढ़कर माधव के पांवों को स्पर्श करना चाहा। माधव ने उसे अधबीच उठाकर अपने सीने से चिपटा लिया।


___ अर्थात् अमोल की नई कृति निश्चित हो गयी थी. नहीं...नहीं... उसने सरोज से पहले माधव को प्राथमिकता दी. माधव उसका काम खत्म होने पर खुद को मूर्तित हुआ देख इतना बेभान हुआ कि भागकर विप्लव को बुला लाया। विप्लव ने अपनी छाती पर हाथ रख झुक कर ज्यों अमोल की कला का लोहा मान लिया- 'यार! कभी हमारी छवि भी तेरे हाथों की जादूगरी से साकार कर दे।'


अमोल थोड़ा जिद्दी भी था। उसने विप्लव से पहले सिफत को केन्द्रित किया।


चन्देक महीनों बाद 'स्वागत' के स्वागत कक्ष में पूर्व की मूर्तियों के साथ ही माधव, सिफत एवं विप्लव भी मौजूद हो गये। अब बारी थी सरोज की। बाकायदा अपने सामने खड़ा कर उसने उसको गढ़ना आरंभ किया। इसमें किसीको कोई एतराज भी नहीं हुआ कि कलाकार है, चाहे जिसको जैसे मूर्त करे।


यह बात और कि यह प्रयोग उनके प्रेम में समीपता को मानीखेज कर गया। ज्यों ही मौका मिलता, अमोल और सरोज उसको भुना लेते। माधव इस प्रेमालाप का, जो इशारों में ही चलता, प्रत्यक्षदर्शी बन अमोल की गूंगे-बहरे की भूमिका का निर्वाह करता।


यह अब तक की प्रतिमाओं से काफी विशाल थी। अंदाजन पांच फुट ऊंची। क्या तो रूप था उस तरुणी का। हूबहू सरोज जैसी। इसे संपूर्णता देने के लिए सात माह लगे। शायद यह अपरिमेयता थी अमोल की कलाकारी की। क्यों न हो... उसमें मिट्टी और रंगों के सिवा एक और चीज विद्यमान थी- उनकी प्रेमानुभूति!


इन सात महीनों में उनका राज जग-जाहिर हो चुका था। आते-जाते हरेक की नजर पड़ ही जाती थी उनके जुड़ाव पर। सिफत एवं विप्लव ने आपस में मशविरा किया। उन्होंने माधव की राय ली। सरोज की मां, जो वहीं काम करती थी, उससे पूछा. वह तो पहले से ही रजामंद थी।


फिर विप्लव ने उससे जानना चाहा, 'तुम्हारी सरोज की उम्र कितनी है?'


'उमर... मेरेको इतना याद है कि उस दिन हमारा त्योहार था- क्रिसमस । लोग कहते थे नयी सदी का पहला साल शुरू होगा छह दिन बीतने पर।' उसने उंगलियों पर 'एक...दो...तीन...' गिनने का प्रयत्न किया, जो उससे हो नहीं पा रहा था।


सिफत ने तुरंत बता दिया- 'मतलब एक हफ्ते बाद आ रही क्रिसमस को वह सत्रह साल पूरे कर लेगी। यानी हमको कानूनन अभी साल भर रुकना होगा।'


विप्लव ने आगे जोड़ा- 'मालूम नहीं अमोल की आयु कितनी है। मेरे खयाल से वह भी इसीके आसपास होगा।'


_ 'नहीं पता तो क्या करेंगे। कम से कम सरोज के वयस्क होने तक यह शादी संभव नहीं होगी।' सिफत ने उस चर्चा को विराम दिया।


___तत्पश्चात उसने सरोज की मां को अपनी बेटी से एक वर्ष तक हद न लांघने का वचन लेने को कहा। अब अमोल को यह कैसे समझाए? टीचर की मदद ले सकते हैं। सिवा इसके उन पर कड़ी नजर रखना जरूरी होगा


टीचर ने अमोल को बच्चे का जन्म कैसे होता है, जिसे यौन विज्ञान कह सकते हैं, को चित्रों के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया। प्रजनन प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया। इसके अनंतर उन्होंने इशारों में यह अवैध है, यदि विवाह से पूर्व करें-बड़ी मुश्किल से समझाया। अमोल वैसे बुद्ध नहीं था, उसने अंदाजा लगा लिया कि यह उपदेश उसे क्यों दिया जा रहा है।


दूसरी ओर उसे सिफत ने सरोज के साथ बुलाकर यह आश्वस्ति दी कि तुम दोनों का विवाह समय से कर दिया जायेगा। अभी कोई गडबडझाला नहीं करना हैमालूम नहीं अमोल को 'संयम' शब्द का अर्थ कितना ग्राह्य हुआ लेकिन सरोज ने टेंटुआ पकड़कर कसम खा ली।