पान-सुपारी- प्रकृति : जब थका हुआ सूरज चमकता है

कविता


भरत प्रसाद त्रिपाठी


हरे-नीले पहाड़ यहां मुंह-मुंह बोलते हैं


दिशा-दिशा में धंसी हुई पगडंडियां


पाठ सिखाती हैं पैरों को


धिक्कारती हैं हमें अकेले खड़ी चट्टानें


अनजान वादियों में यहां


निरन्तर सन्नाटे झरते हैं।


सुबह-शाम कुछ यूं होती है


जैसे कोई नयी पंखुड़ी खिले


और बन्द हो जाये शर्माकर


धूप क्या है, धारा है


झरती है आकाश से रुक-रुककर


प्रात:कालीन चोटियों की कच्ची मुस्कान


निःशब्द कर देती है हृदय।


सपने जैसा सच


कल्पना जैसी हकीकत


और आश्चर्य जैसा यथार्थ


यहां चारों ओर नृत्य करता है


हार जाती है बुद्धि


नतमस्तक हो उठता है हृदय


जब हजारों फुट नीची घाटियों में


आसमानी बादल उतरते हैं


जब ठीक बारिश के पहले


आकाश में गुमशुदा पहाड़ियों पर


चमकती घटाएं घिरती हैं


जब पश्चिमी आकाश के बादली क्षितिज पर


थका हुआ सूरज चमकता है।


बादल तो बादल


यहां आकाश भी आकाश में कहां रहता है


चांद की दौड़ फकत इस चोटी से उस चोटी


आकाश का मुखिया ठीक सिर पर चमकता है


हरियाली तो मानो यहीं के लिए बनी हो


पक्षियों को अपना बनाने के लिए


पालने की जरूरत नहीं


घाटियां छोड़कर उन्हें उड़ना ही नहीं आता


वादियों से मोह के मारे


हवाएं यहां दिशाएं ही खो बैठती हैं


सारी चाल उलटी पड़ जाती है


अलमस्त बहना तो बहुत दूर


हर वक्त पैदल चलने लगती हैं


जर्रे-जर्रे की थाह लेती हुई


नाचता है जंगल


जब हवाएं उसे छेड़ती हैं


बादल हैं कि भटकते मुसाफिर


थककर पलभर के लिए कहीं भी पसर जाते हैं


चोटियों पर चौड़े से सो जाना


जैसे इनका जन्मसिद्ध अधिकार हो


जमीन-आसमान में, घाटियों-गुफाओं में


जानी-अनजानी, ज्ञात और अज्ञात


अनगिनत दिशाओं में


ओस के उमड़ते हुए समुद्र को क्या नाम दें ?


बारिश के बाद आकाश से झरती


अदृश्य बूंदों की झनकार को क्या नाम दें


मन शब्द लेकर भागता है पीछे-पीछे


मगर ये शब्दों के चंगुल में कब फंसने वाले


 


पुरुष : निगाहें माद्दा रखती हैं, मुश्किलें तौलने का


कभी पहाड़ को गौर से पढ़ा है


कभी बूढ़े दरख्त को जी भर सहलाया है


गले लगाया है कभी चट्टान को


पैरों से नहीं, अपने दोनों हाथों से


यदि हां, तो समझो जान लिया


यहां चलते-फिरते साढ़े तीन फुट के आश्चर्य को


परिश्रम लहू बनकर दौड़ता है इनकी धमनियों में


मस्तक ने संघर्ष के आगे झुकना नहीं सीखा


निगाहें माद्दा रखती हैं मुश्किलें तौलने का


हाथ सिर्फ काम की भाषा समझते हैं


इनकी भुजाओं में असंभव का भी विकल्प है।


कठिनाइयों के सामने घुटने टेकने का मुहावरा


इनके पैरों के साथ लागू नहीं होता


सुबह से रात तक


बिजली दौड़ती है शरीर में


संकल्प इनकी जुबान से नहीं


अंग-अंग से फूटता है


आसान यहां कुछ भी नहीं


न अन्न, न जल, न धरती, न आकाश


न सुख, न दुःख, न रोना, न हंसना


आसान अगर है तो


चुपचाप बड़ा होना और चुपचाप बुजुर्ग हो जाना


जल्दी-जल्दी जीना और जल्दी-जल्दी मर जाना


जज्बा नाचता है पुतलियों में


मेहनत का कोई भी पैमाना


इनके ऊपर लागू नहीं होता।


पीठ है कि पुरानी ढाल


सह जाती है भयानक मार


सीना है या चौड़ी दीवार


जिस पर चौतरफा प्रहार का


जल्दी असर ही नहीं पड़ता


इनके कद को इनकी शरीर से मत नापना


इनकी असलियत इनको देखकर मत भाँपना


शत-प्रतिशत उल्टे हैं ये


अपनी कद-काठी से


वैसे, जहर से भी घातक जहर


दारू से इश्क करना


इनकी साँसों में शामिल है


अक्सर इन्हें पानी की नहीं


दारू की प्यास लगती है


खून बहता है गलियों में


बरसाती नाले की तरह


सूअर और मुर्गा ही नहीं


पशुओं की भी गर्दनें ऐसे कटती हैं कि


बूचड़खाना फेल है


बकरा, बकरी, बैल तो क्या


यहाँ साँप, गोंजर, बिच्छू भी रोते हैं


अपने नाम पर।


बावजूद इसके


छतनार मगर बौना-सा पेड़


पहाडियों में खोया हआ कीमती पत्थर


गुमनामी की धारा में डूबी हुई कल की सुबह


इन्हें तय पूर्वक कह सकते हैं


 


स्त्री बूंद-बूंद रोती नदी


फसलों में देखते ही बनता है


जिसकी मेहनत का रंग


जिसके बूते धड़कता है बस्तियों का हृदय


जिसके दम पर घूमता है परिवार का पहिया


जिसकी हुनर का बखान जुबान से कैसे किया जाये


लड़खड़ा जाती है जीभ


थक जाती है बुद्धि जिसका अर्थ समझाने में


जिसे आंका ही नहीं जा सकता


केवल औरत की सीमा में।


जिसे देखना ही है तो किसी नींव को देखिए


जिसे परखना ही है तो माटी को परखिए


जानिए न जडों को, एक औरत जानने से पहले


बूंद-बूंद रोती किसी नदी को छू लेना


यकीनन


एक औरत को जी लेना है।


कठिनाइयां छाया की तरह चलती हैं जिसके पीछे-पीछे


दुश्वारियों से मानो जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता हो


मुश्किलों के खिलाफ दुस्साहस


टपकता है इनकी निगाहों से


धैर्य खोने की फुरसत


इन्हें जीवन भर नहीं मिलती


हताशा इनके जज्बे से टकराकर


अपना मतलब ही खो बैठती है


अपने औरत होने की टीस भी


घुल-मिल गयी है इनकी खुशियों में


पराजय परिणाम नहीं


स्वाभाविक चुनौती है इनके लिए


जय-पराजय, मान-अपमान से आंख-मिचौली का खेल


जीवन-भर कभी समाप्त ही नहीं होता।


ढलान हो या घाटियां


बियावान हो या पहाड़ियां


मुक्त नहीं हैं इनके बित्ता भर के पैरों से


सब जगह चूता है इनके माथे का पसीना


चट्टान को भी मिट्टी बना देना


इस औरत के वश में है


अन्धविश्वास पर सिर्फ अंधे की तरह नहीं


माशूका की तरह यकीन करती हैं


जान से भी बढ़कर है ईश्वर की गुलामी करना


मर चुकी है आत्मा जादू-टोने के नशे से


सड़ चुका है मस्तिष्क


मुर्दा देवताओं की भीड़ से


कौन इन्हें बताये कि तुम सदियों से


अन्धी-बहरी-बेजान मूर्तियों में तब्दील हो रही हो !


जिस्म के सौदागर घूमते हैं यहाँ भी


नोंचने वाले गिद्ध उड़ते हैं यहाँ भी


आदमी की भाषा में भुंकते हैं पढ़े-लिखे


औरत को देखते ही जानवर हो जाते हैं


सड़कों, चौराहों पर, गली-गली, घर-घर में


नकाबपोश सज्जन


शिकार सूंघते फिरते हैं


बिकता है बचपन यहाँ मनमाने दामों पर


औरत से खेलने को प्रेम भी एक ढाल है।


किसने देखे हैं उसके रिसते हुए घाव


कौन जीता है उसे अपने वजूद की तरह


किसने परखा है खुद को औरत की आँखों से


स्त्री जब रोती है तब आँसू नहीं


हजारों दर्द झरते हैं


जब चुप रहती है तब पराजय


दीवारों से टकरा-टकराकर


मर जाने वाले अनमोल पक्षी का नाम है स्त्री


 


मानस ऋतुओं ने विकसित किया है हृदय


धरती से प्यार करना यहां आकर सीखिए


स्वदेश का जुनून इनके सीने में ढूढ़िए


पहचानिए इनके खून में मातृभूमि का रंग


माटी का नाम लेते ही खिल उठती हैं आंखें


पहाड़ों ने तराशा है इनका जीवन


चट्टानों ने गढ़ा है इनका व्यक्तित्व


ऋतुओं ने विकसित किया है इनका हृदय


धरती ने सौंपा है स्वभाव


घाटियों ने पाठ सिखाया है जीने का


उबड़-खाबड़ प्रकृति से मानो


खून जैसा रिश्ता हो।


फिर भी कहना जरूरी है


जकड़ी हुई बेड़ियां उतनी बुरी नहीं होती


भयानक जेलखाना उतना भयानक नहीं होता


अन्धा कहलाना भी नहीं है उतना अपमानजनक


जितना कि बुद्धि से काठ हो जाना


अज्ञानता भर जाना अस्थियों में


अंग-प्रत्यंग से अंधकार में डूब जाना


सिर से पांव तक पुजारी हो जाना नियति का


एक और एक मिलकर होंगे हमारे लिए ग्यारह


इनके लिए सिर्फ दो हैं...सिर्फ दो


मुखौटों में जीना इनके स्वभाव के खिलाफ है


वे वार करते हैं जरूर मगर आमने-सामने से


हमारी तरह पीठ पीछे से नहीं


दो मुँहेपन से सीधे छत्तीस का आंकड़ा है


मौकापरस्ती शायद स्वप्न में भी असम्भव हो


अवसरवादी शब्द किसी और पर लागू कर लीजिए


फिट नहीं बैठता इन पर चतुराई का मुहावरा।


जमाने का रंग इन पर मुश्किल से चढ़ता है


अपना खांटी रंग बड़ी मुश्किल से उतरता है


मूर्ति को ढाल लेना इनसे कहीं ज्यादा आसान है


चट्टान हलकी है इनकी जिद के आगे


बर्फ इनकी अपेक्षा शायद जल्दी पिघल जाये


 जिगर की बात उठते ही


पत्थर भी मुलायम दिखने लगता है


जल रही है सीने में


दबी हुई चिंगारी


मचल रही है आंखों में


उड़ने की कल्पना


दिशाएं छू लेने की प्यास अभी बाकी है


बाकी है निगाहों में


ख्वाब देखने का पागलपन


दुर्गम पहाड़ों में कैद सिर्फ जीवन है


आत्मा यहां रात-दिन


अथक नृत्य करती है।