कैंसर उपचार

चिकित्सा- कैंसर पर विशेष, गलांक के आगे....


डॉ.श्री गोपाल काबरा


कैंसर चिकित्सा के बढ़ते चरण


आदिकाल से आज तक कैंसर उपचार के विस्तार और विकास की यात्रा का साक्षी है स्तन कैंसर। आम कैंसर होने के साथ-साथ यह शरीर के ऐसे अंग का कैंसर है जो प्रजनन की आदिम प्रवृत्ति से जुड़ा होने के कारण अहम भावनाओं से जुड़ा है, स्त्रीत्व, मातृत्व और ममता का प्रतीक है, आधार है। चिकित्सकों के लिए इसका उपचार सदा ही एक चुनौती रहा है, आज भी है। हर चरण पर उपचार की सफलता, सीमा और विफलता से उत्साह, आशा और निराशा ने नये उपचार के लिए प्रेरित किया है।


आदिकाल में न इसकी पहचान थी, न नाम। हिपोक्रेटिस (500 बी सी) ने इसे कारकिनोस का नाम दिया जो बाद में चलकर कैंसर हआ। इसके काले पित्त से होने की परिकल्पना, लगभग 1000 साल चली और आंतरिक विष (पित्त) नाशक. उपचार, वमन, दस्तावर दवाईयां, रक्तस्राव, लीच, कुल्हड़, सींगनी आदि चले। विष शमन के लिए अनेक तरह के शोरबे और काढ़े प्रचलन में थे। तब सर्जन इसके होने के कारण के बारे में तो कुछ नहीं जानते थे, लेकिन फिर भी शल्यक्रिया द्वारा इसे निकालते थे। 1778 में जॉन हंटर ने स्तन कैंसर के दो चरण पहचाने। पहला चरण, जिसमें कैंसर स्तन में एक गांठ मात्र थी, हिलाई डुलाई जा सकती थी और शल्यक्रिया द्वारा सरलता से बाहर निकाली जा सकती थी। दूसरे चरण में गांठ केंकड़े के पांवों की तरह आसपास के ऊतकों में फैलकर चिपकी रहती थी, जिसे शल्यक्रिया सेनिकालना बड़ा कठिन होता था। शल्यक्रिया से भयंकर स्क्तस्राव होता था, अत: प्रचलित था कि दूसरे चरण के कैंसर को हाथ ही नहीं लगाओ। रक्तस्राव और घातक संक्रमण के कारण शल्य चिकित्सा की विफलता आम थी।


उन्नीसवीं सदी,1890, में, सर्जन हेलस्टेड ने स्तन कैंसर हटाने के लिए नियमित शल्यक्रिया प्रारंभ की। दूसरे चरण के कैंसर के लिए इसे व्यापक बनाया और आसपास की मांसपेशियों के साथ स्तन से लिम्फ पहुंचने वाली सभी लिम्फग्रंथियों को भी निकालना शुरू किया। बीसवीं सदी के शुरू में एक्स-रे से विकिरण से उपचार चला। व्यापक सर्जरी की जगह केवल गांठ निकालना और फिर वहां विकिरण से सेंक। 1950 तक आते-आते शल्यक्रिया और विकिरण से संयुक्त उपचार की विधि स्तन कैंसर के लिए आम हो गई।


1970 में सामूहिक औषधि चिकित्सा की विधियां उपलब्ध हुईं और तब स्तन की शल्यक्रिया के बाद औषधि उपचार आम हुआ। गांठ में इस्ट्रोजन रिसेप्टर पहचाने गये इस्ट्रोजन पॉजिटिव स्तन कैंसर में टेमोक्सिफेन नाम एंटीइस्ट्रोजन के प्रयोग से कैंसर की पुनरावृत्ति (रिलेप्स) सफलता से रोकी गई। 1986 में स्तन कैंसर में कैंसर कारक ओंको जीन, एच.ई.आर-2, पहचानकर, उनमें हर्सेप्टीन नामक लक्ष्यपरक औषधि के प्रयोग से पुनरावृत्ति रोकने में और बड़ी सफलता मिली। और आज इस्ट्रोजन आश्रित और एच.ई.आर-2 पॉजिटिव स्तन कैंसर में सफल चिकित्सा संभव है। इसके भी आगे के चरण में, 1990 के दशक से महिलाओं में बी.आर.सी. ए-1 और 2 जन्मजात जीन विकृतियों को चिह्नित कर, उनमें कैंसर होने की गंभीर संभावना के मद्देनजर, स्तन कैंसर होने के पहले ही उनका उपचार किया जाता है, विशेषकर उन परिवारों में जिनमें स्तन कैंसर हुआ है। भविष्य में आशा है हर महिला का पूर्ण जीन विश्लेषण कर, विकृति होने पर, संभावित कैंसर से बचाच और उपचार के लिए लक्ष्यपरक औषधि उपलब्ध होगी। इसके लिए कैंसर जीनोम एटलस तैयार किया जा रहा है। हर प्रकार के कैंसर की कोशिका में जीन विकृतियों को चिह्नित कर उनका नक्शा बनेगा। हर कैंसर कोशिका में 30000 जीन और हर जीन की यौगिक संरचना में श्रृंखलाबद्ध क्रमशः यौगिकों का चित्रात्मक विश्लेषण बहुत ही श्रम और साधन साध्य खर्चीला अनुसंधान है।


लेकिन स्तन कैंसर के उपचार में जो सफलता मिली है वैसी सफलता अन्य अनेक कैंसरों में मिलना बाकी है। फिर भी आज जो लाइलाज घातक कैंसर हैं उनमें भी यह आशा की जा सकती है कि व्यक्ति के जीवनकाल में ही उपचार उपलब्ध हो जाये।


आखिरी अरदास : बहुत देर कर दी महरबां आते-आते


होने लगी है जिस्म में जम्बिश तो देखिए,


इस परकटे परिन्दे की कोशिश तो देखिए।  --दुष्यंत कुमार


यह कथा तब की है जब हर्सेप्टीन की ट्रायल चल रही थी-प्रायोगिक स्तर पर स्तन कैंसर में उसका प्रभाव परखा जा रहा था। प्रारंभिक प्रयोग में यह केवल उन महिलाओं में दी जा रही थी जिनको कैंसर शल्य चिकित्सा और कीमोथेरैपी के बाद वापस आ गया था, स्तन कैंसर की पुनरावृत्ति हो गई थी, उपलब्ध औषधियां असर नहीं कर रही थीं, कैंसर लाइलाज था। हर्सेप्टीन, स्तन कैंसर में एच.आई.आर.-2 रिसेप्टर्स को अवरुद्ध करने के लिए विकसित की गई थी। इसी टार्गेट (लक्ष्य) को अवरुद्ध कर हर्सेप्टीन कैंसर रोधक का काम करती है, अतः हर्सेप्टीन देने से पहले कैंसर को एच.ई.आर.-2 रिसेप्टर्स के लिए जांचा जाना अनिवार्य था। चुने हुए चिकित्सा केंद्रों में सख्त प्रोटोकोल की अनुपालना में ये प्रयोग चल रहे थे। डबल ब्लाइंड ट्रायल आधे रोगियों को हर्सेप्टीन और आधे को अन्य चिह्नित दवा, न रोगी को मालूम कि किसे वास्तविक दवा मिली है, और न ही उपचार करने वाले डॉक्टर को पता कि किसे क्या मिली है! चिकित्सक को निष्पक्ष होकर प्रभाव के मानकों को रिकॉर्ड करना था।


1987 में 33 वर्ष की एक महिला रोग विशेषज्ञ को स्तन कैंसर हुआ। शल्य चिकित्सा कर स्तन निकाल दिया गया। उसके बाद सघन कीमोथेरैपी के नौ कोर्स चले। वह स्वस्थ हो गई। अपना काम फिर शुरू कर दिया। पांच साल तक सब ठीक चला। फिर टांकों के स्थान पर गांठें उभर आईं जो बढ़ती गईं। कैंसर की पुनरावृत्ति हो गई थी। लाइलाज तीव्र गति से बढ़ने वाला कैंसर।


ऐसे ही पुनरावृत्ति स्तन कैंसर में हर्सेप्टीन के सफल प्रयोग की चर्चाएं तब जोरों पर थीं। स्तन कैंसर की महिलाओं के समूह, पत्र-पत्रिकाओं में और इंटरनेट पर, इस विलक्षण दवा के सफल प्रयोग की जानकारी ले दे रहे थे। चिकित्सक महिला भी यह दवा लेना चाहती थी। इसके अलावा तो और कोई उपचार था ही नहीं। उसने अपने डॉक्टर से सलाह की। डॉक्टर ने लाचारी जताई। कारण यह दवा अभी उपचार के लिए अप्रूव्ड थी, न उपलब्ध। महिला ट्रायल में शरीक हो सकती थी जहां यह औषधि प्रायोगिक तौर पर उपलब्ध थी। लेकिन उसके लिए आवश्यक था कि पहले एच.ई.आर-2 की जांच हो । मुश्किल से वह जांच भी महिला ने करवाई जो स्ट्रोंगली पॉजिटिव थी, हर्सेप्टीन से उपचार के लिए सर्वथा उपयुक्त। महिला चिकित्सा वह दवा चाहती थी। लेकिन दवा उसे नहीं दी जा सकती थी। वइ ट्रायल में भाग ले सकती थी लेकिन तब यह आवश्यक नहीं था कि वइ इस औषधिवाले ग्रुप में ही आयेगी, दूसरे ग्रुप में नहीं, तब तक हुए प्रयोग से यह सामने आ गया था कि पुनरावृत्त हुए स्तन कैंसर में इस प्रायोगिक दवा से कैंसर विलुप्त हो गया था, यहां तक कि जिनमें यह कैंसर फेफड़े आदि में दूर तक फैल गया था उनमें भी, अर्थात असाध्य स्थिति के रोगियों में भीऐसा सभी में समान रूप में नहीं था लेकिन कम-बेशी लाभ सभी को हआ था।


महिला चाहती थी कि यह औषधि उसे मिले। जितना लाभ, राहत या जीवन इससे मिले, उसे पाना उसका अधिकार है। महिला का कैंसर भी अब तक फेफड़ों में फैल चुका था। उसके पास समय नहीं था। अनुसंधानकर्ता और औषधि निर्माण करने वाली कंपनी का कहना था कि कानूनन यह संभव नहीं है, वे नहीं दे सकते। ट्रायल में भी तो आधी महिलाओं को यह नहीं दी जा रही है। महिला ने उन निजी संगठनों से संपर्क किया जो स्तन कैंसर के रोगियों के लिए काम करते थे। महिला संगठनों ने मुद्दे को जोर-शोर से उठाया। उनका कहना था ऐसी स्थिति में अनुकंपा (कम्पैशन) के आधार पर दवा उसे मिलनी चाहिए। उसे यह दवा न देना उसके जीने के अधिकार का हनन है। महिला की सहानुभूति में मीडिया में खूब आया। लेकिन कुछ निर्णय होने से पहले ही महिला की मृत्यु हो गई।


 मुद्दा ज्वलंत था। तीव्र प्रतिक्रिया हुई। औषधि निर्माण कंपनी की खूब लानत-मलामत हुई, उसे महिला की हत्यारिन की संज्ञा तक दी गई। महिला संगठनों ने कंपनी और अनुसंधान केंद्रों पर मृत महिला के चित्र के साथ जनाजा निकाला। कारों को खड़ा कर उनका रास्ता रोक दिया। अपने को कार के साथ हथकड़ियों से बांध लिया। इस तीव्र प्रतिक्रिया के फलस्वरूप संगठनों के सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ औषधि नियंत्रण, विधि विशेषज्ञ, दवा निर्माता कंपनी, कैंसर विशेषज्ञ आदि की बैठक हुई। तब निर्णय हुआ कि ऐसी स्थिति में ट्रायल के बाहर अनुकंपा के आधार पर इस दवा के मिलने की व्यवस्था की जाए। अनुकंपा के सही पात्र का चुनाव निष्पक्ष संगठन करे। ऐसे में दवा के प्रभाव का आकलन अलग से होऔषधि नियंत्रक ने त्वरित प्रणाली अपनाकर अप्रूवल दिया। अनेक घातक स्थिति के स्तन कैंसर की महिलाओं को जीवनदान मिला लेकिन जिसकी जिजीविषा के कारण यह संभव हुआ उसके लिए बहुत देर हो चुकी थी।


कोई निजात की सूरत नहीं रही, न सही,


मगर निजात की कोशिश तो इक मिसाल हुई। - दुष्यंत कुमार


घातक कैंसर में चमत्कार और निराशा का चक्र


एक मनोचिकित्सक, सर्वथा स्वस्थ जर्मन महिला, को हठात भयंकर उबकाई, मितली और वमन का दौरा पड़ा। उलटी होने के बाद भी पेट पूरा भरा लगता और बार-बार मितली होती। अस्पताल पहुंची। सब तरह की जांच हुई। कैटस्कैन पर आमाशय में एक बड़ी गांठ दिखी। जनवरी 2000 में इस गांठ की बायोप्सी हुई। परीक्षण पर यह गेस्ट्रोइंटस्टाइनल स्ट्रोमा सेल ट्यूमर (जी.आई.एस.टी.) नामक विरला कैंसर निकला। और परीक्षण हुए। यह महिला के शरीर में लिम्फग्रंथियां, लिवर, फेफड़े आदि में दूर-दूर तक फैल चुका था। किसी प्रकार की शल्य चिकित्सा तो संभव थी ही नहीं, और तब इस कैंसर का कोई प्रभावी औषधि उपचार भी ज्ञात नहीं था। फिर भी उनके चिकित्सक ने उपलब्ध कैंसर रोधक औषधियों में से चुनकर दवाइयां दीं, इस आशा में कि शायद कुछ राहत मिले। लेकिन उन्हें साफ बता दिया गया था। यह मृत्यु का फरमान था। वे घर चली गईं।


__घर पर बैठे-बैठे उन्होंने इंटरनेट पर अपने कैंसर जैसे अन्य रोगियों से संपर्क किया। इंटरनेट पर विभिन्न रोगों और कैंसर के संपर्क गुट बने हुए हैं। वे आपस में संपर्क कर एक-दूसरे की चिंताएं साझा करते हैं और रोग संबंधी नई जानकारी एकदूसरे को देते हैं। कौन चिकित्सक किस चिकित्सालय में उस कैंसर पर अनुसंधान कर रहा है, क्या इलाज चल रहा है, उसके क्या परिणाम रहे आदि जानकारियां लेतेदेते रहते हैं। इस प्रकार समूह के प्रत्येक व्यक्ति को अपने कैंसर के बारे में संपूर्ण और नवीनतम जानकारी रहती है। वे जनवरी 2000 में मृत्यु का फरमान लेकर घर आई थीं। अप्रैल में उन्हें इस लाइलाज कैंसर में एक नई औषधि के प्रयोग की जानकारी मिली। यह अभी प्रायोगिक स्तर पर ही थी पर समूह के सभी लोग अति उत्साहित थे, सबके लिए आशा की नई किरण थी। दवा का नाम था ग्लीवेक (इमाटिनिब)। यह नई दवा नहीं थी। यह क्रोनिक माइलोजीन्स रक्त कैंसर में लक्ष्यपरक औषधि के रूप में प्रभावी पाई गई थी। यह इस कैंसर कारक बी.सी.आर.ए.बी.एल. यौगिक को निष्क्रिय करती थी। अनुसंधानकर्ताओं को मिला कि यह औषधि कैंसर कोशिका के सी-किट नामक कैंसर कारक टायरोसिन काइनेज को भी निष्क्रिय करती है। सी-किट, जी.आई.एस.टी.-कैंसर का कारक था। अत: ग्लीवेक का इस कैंसर में प्रयोग तर्कसंगत था। प्रयोग शुरू हुआ। जर्मन महिला जीवट वाली थी। वह हर तरह के यत्न कर वहां पहुंच गई जहां यह दवा प्रायोगिकतौर पर दी जा रही थी। वह चाहती थी कि दवा का प्रयोग उस पर भी कर देखा जाये। जिम्मेवारी सब उसकी। उन्हें ग्लीवेक दी गई। अब तक लाइलाज समझे जाने वाले इस कैंसर में परिणाम चमत्कारी सिद्ध हुए। महिला की कैंसर की गांठें घुलकर विलुप्त हो गईं, मितली बंद हो गईं, अगस्त 2001 में वे ठीक होकर घर चली गईं। परे शरीर में गांठें फिर उभर आईं। उन्होंने फिर इंटरनेट पर खोज की। मालूम हआ कि ग्लीवेक के समकक्ष एक नई दवा आई है और उसका प्रयोग बोस्टन में चल रहा है। यह उनके शहर से बहुत दूर था लेकिन वे टेलीफोन से बात कर वहां प्रायोगिक उपचार के लिए पहुंच गईं। नई औषधि ने एक बार फिर चमत्कार कियागांठे घल गईं। लेकिन यह चमत्कार मात्र कुछ महीने ही चला। फरवरी 2005 में कैंसर की भयानक रूप में पुनरावृत्ति हुई। 1999 से 2005, छह साल, मौत के मुंह से छीना समय। कैंसर की औषधि चिकित्सा में प्रगति ऐसे ही चरणों में हुई है-हर चरण के उपचार से जीवन के कुछ साल रोगी को मिले हैं।


परिंदे अब भी पर तोले हुए हैं,


हवा में सनसनी घोले हुए हैं। -दुष्यंत कुमार


सन 2012 में स्तन कैंसर आंचल में आग


यह एक वास्तविक केस के प्रिस्क्रिप्शन का यथावत वर्णन है यह दर्शाने के लिए कि आधुनिक चिकित्सा क्या है? चिकित्सक की मानसिकता और रोगी के अंतर्द्वन्द्व का आधार क्या होता है? परिवार की दुविधाजनक स्थिति क्या होती है, क्यों होती है। कैंसर रोगी चिकित्सक से सहानुभूति, संवेदनशीलता और सदाशयता की अपेक्षा करता है। कितनी मिलती है ? रूखा, तटस्थ व्यवहार तोड़ता है।


23.3.2011, सैंतालीस वर्ष की विवाहित महिला। दो बच्चों की मां। आखिरी प्रसव 20 साल पहले । सुखी, संपन्न, संयुक्त व्यापारिक परिवार । स्वयं स्वस्थ। छरहरा बदन, औसत कद-काठी। बदन में कुछ जगह चमड़ी के नीचे गांठें सी थीं। वर्षों पहले डॉक्टर को दिखाया था। बताया वसा की साधारण गांठे-लाइपोमा- है। कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। नहाते समय एक स्तन में छोटी-सी गांठ महसूस हुई। गांठ की जगह कुछ उभार भी था। सोचा बदन में अन्य जगह जैसी गांठें हैं वैसी ही यह होगी। ध्यान नहीं दिया। पति को भी कुछ नहीं बताया। लेकिन यह गांठ अन्य गांठों से काफी कड़ी और सख्त थी। जब गांठ बड़ी हुई और खिंचाव लगा तब पति को लेकर अपने घरेलू चिकित्सक के पास गई। चिकित्सक ने तुरंत दोनों स्तनों की मेमोग्राफी और उस गांठ की फाइन निडल एस्पिरेशन साइटोलॉजी (एफ.एन.ए.सी.)करवाई। दूसरे दिन 24.3.2011, को रिपोर्ट मिली-'इनवेजिव डक्टल कार्सिनोमा'स्तन की दुग्धवाहक नली का कैंसर जो उसकी दीवार तक फैल चुका था। स्तन कैंसर या तो दग्ध ग्रंथि की कोशिकाओं से उत्पन्न होता है या उसकी दुग्धवाहक नलियों से29.3.2011 को कैंसर अस्पताल के सर्जन को दिखाया जहां के पैथोलोजिस्ट ने स्लाइड्स का परीक्षण कर कैंसर की डायग्नोसिस कन्फर्म की।


30.3.2011 को ऑपरेशन हुआ। पहले स्तन की केवल गांठ को निकाला गया। पैथोलोजी डिपार्टमेंट को सूचित कर दिया गया था कि गांठ निकालकर उनके पास फ्रोजन सेक्शन के लिए आएगी। वे त्वरित विधि से उनके फ्रोजन सेक्शन बनाएं और परीक्षण कर रिपोर्ट करें। उनकी रिपोर्ट आने तक आगे का ऑपरेशन स्थगित रखा जाएगा। रिपोर्ट के अनुरूप ही ऑपरेशन किया जायेगा। अगर गांठ में कैंसर नहीं हुआ तो ऑपरेशन बंद कर दिया जायेगा। और कैंसर कन्फर्म होने पर उसके अनुरूप स्तन व अन्य भाग निकालने की, शल्यक्रिया होगी। फ्रोजन सेक्शन की रिपोर्ट में कैंसर कन्फर्म होते ही उनके अनुरूप मोडिफाइड रेडिकल मेंस्टोक्टोमी (पूरा स्तन उसकी लिम्फग्रंथियों के साथ निकालने की शल्यक्रिया) की गई और उसे विस्तृतहिस्टोपैथोलोजिकल परीक्षण के लिए भेज दिया गया।


2.4.2011 को अस्पताल से छुट्टी कर महिला को घर भेज दिया गया।


5.4.2011 को पहले निकालकर भेजी गई गांठ और बाद में भेजे गये स्तन और लिम्फग्रंथियों के विस्तृत विधिपूर्वक किये गये परीक्षण की रिपोर्ट आई। गांठ से, उसके पास से स्तन के अन्य विभिन्न भागों से और लिम्फग्रंथियों के अलगअलग समूह (ग्रुप) से नमूने लिये गये। इस परीक्षण से कैंसर के प्रकार, उसकी कोटि और उसके फैलाव की अवस्था का परीक्षण किया जाता है। रिपोर्ट के अनुसार यह 2.5 सेमी का इनफिल्ट्रेटिंग डक्ट कार्सिनोमा वैल डिफरेन्सियेटेड था जो 14 में से 1 लिम्फग्रंथि में फैला हुआ ग्रेड-1 का कैंसर था। अभी शरीर में अन्यत्र कहीं नहीं फैला हुआ था। ट्यूमर ग्रेड-2 (टी-2), नोड ग्रेड-1 (एन-1) और पेटास्टेसिस ग्रेड-0 (एम-0) था। आगे की चिकित्सा और उससे अपेक्षित संभावित लाभ के अनुमान के लिए स्तन कैंसर का ऐसा आकलन (स्टेजिंग करना) आवश्यक है। इन्हीं के आधार पर कैंसर विशेषज्ञ उपचार के लिए अपना मत निर्धारण करते हैंस्तन कैंसर में चिकित्सा के लिए साथ ही यह आंकना भी आवश्यक होता है कि स्तन कैंसर हारमोन सेन्सिटिव (आश्रित) है या नहीं और अगर है तो कितना। अतः कैंसर के नमूनों को प्रेरक हारमोन इस्ट्रोजन, पोषक हारमोन प्रोजेस्टरोन और एच.ई.आर.2 सेन्सिविटी मार्कर विधि से मापने के लिए भेज दिया गया।


___ 9.4.2011 को मिली रिपोर्ट के अनुसार स्तन कैंसर इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टरोन दोनों हारमोन आश्रित था और एच.ई.आर.-2 पॉजिटिव था।


13.4.2011 को मुंबई की लेबोरेटरी में परीक्षण के लिए भेजे गये 20 बायोप्सी नमूनों की रिपोर्ट आ गई जो पहली रिपोर्ट के अनुरूप ही थी।


19.4.2011 को एच.ई.आर-2 की भी दूसरी लैब से रिपोर्ट आ गई।


20.4.2011 कैंसर उपचार के औषधि विशेषज्ञ ने देखा। कैंसर के प्रकार, स्टेज, हारमोन सेन्सिटिविटी और एच.ई.आर. पोजिटिविटी को देखते हुए कीमोथेरैपी, हर्सेप्टीन और हारमोन थेरैपी देना तय हुआ।


चिकित्सक ने जो प्रिस्क्रिप्शन लिखकर दिया वह निम्न था


कीमोथेरैपी


1. टी.ए.सी.-6 साइकल (टेक्सोटीअर+ड्रिम+साइक्लाफोस्फामाइड) देशी : 20,000 रु. प्रति साइकल-विदेशी : 40,000 रु. प्रति साइकल


2. टी फेमेरा (टेट्राजोल)


3. हर्सेप्टीन 21 दिन : 17 लाख रुपये/लेपाटिनिब 35 हजार रुपये प्रति माह 24 महीने (8 लाख 40 हजार)


चिकित्सक के अनुसार 10 लाख या 20 लाख जो महिला के परिवार वाले


चाहें, तो इन दवाओं की कीमत लगेगी। इसके अलावा हर बार जब दवा दी जाएगी तब विभिन्न परीक्षण, आवश्यक सहायक दवाएं, अस्पताल और चिकित्सक का खर्चा अलग। परिवार 12 से 20 लाख रुपये का इंतजाम करे ताकि आगे का उपचार चालू हो। शल्य चिकित्सा कर प्रत्यक्ष कैंसर को तो पूरा निकाल दिया गया था लेकिन परोक्ष कैंसर की समयोपरांत वापस होने की संभावना 2/3 स्तन कैंसर रोगियों में होती है। एडजुवेंट कम्बीनेशन कीमोथेरैपी से शरीर में व्याप्त परोक्ष कैंसर कोशिकाओं को अधिकांशत: नष्ट किया जा सकता है। हारमोन थेरैपी से यह संभावना और बढ़ जाती है और हर्सेप्टीन थैरेपी (टार्गेट थेरैपी) से तो उनके नष्ट होने का प्रतिशत 90 तक पहुंच जाता है। उपचार करवाने का निर्णय रोगी महिला और उसके परिवार को करना था। बड़ी दुविधा की स्थिति थी। महिला का जीवन या इलाज, इसमें कोई निर्णय करें, क्या सलाह दे। 'अच्छे से अच्छा' होना चाहिए।


परिवारवाले सक्षम थे। इलाज चालू हुआ


22.4.2011 को महिला को अस्पताल में भर्ती कर सब टेस्ट किए गए और फिर कीमोथेरैपी का पहला कोर्स दिया गया। साथ में आवश्यक सभी सहायक दवाइयां और उपचार। तीन दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिली।


___ हर तीन सप्ताह के अंतराल पर कीमोथेरैपी दी गई। दूसरी तीसरी थेरैपी के बाद उल्टी, दस्त, कमजोरी, बाल गिरने आदि से काफी तकलीफ हुई, हालत गिरी पर उपचार और परिवार के अथक सहयोग से सब ठीक हुआ। कीमोथेरैपी के 6 कोर्स यथावत पूरे हुए। बाकी इलाज चल रहा है।


स्तन कैंसर के उपचार में संतुलित शल्यक्रिया (चिकित्सा), एडजुवेंट कम्बीनेशन कीमोथेरैपी, हारमोन थेरैपी और लक्ष्य थेरैपी (टार्गेट थेरैपी) का सामूहिक सफल प्रयोग हो रहा है। यही उच्चस्तरीय मान्य चिकित्सा है।


5.3.2012 महिला स्वस्थ है। आशा है, स्वस्थ ही रहेगी।