चिकित्सा- कैंसर पर विशेष, गलांक के आगे....
डॉ. श्री गोपाल काबरा
माइलोइड ल्यूकीमिया : माइलोब्लास्ट से माइलोइड श्रृंखला के श्वेत रक्त कण उत्पन्न होते हैं। उत्पन्न होने के बाद ये श्वेत कण बाल्य अवस्था, किशोर अवस्था से गुजरकर परिपक्व होते हैं। माइलोब्लास्ट से प्रोमाइलोसाइट और माइलोसाइट होते हुए परिपक्व श्वेत कोशिकाएँ बनती हैं। परिपक्व होने पर ही ये कोशिकाएं रक्षा संस्थान में अपना निर्धारित कार्य सुचारु रूप से कर पाती हैं। अक्यूट माइलोइड ल्यूकीमिया (तीव्र गति का माइलोइड रक्त कैंसर) का एक रूप होता है अक्यूट प्रोमाइलोसाइट ल्यूकीमिया। अपरिपक्व प्रोमाइलोसाइट का यह कैंसर 1950 में चिन्हित हुआ। ये कैंसर कोशिकाएं टॉक्सिक एंजाइम्स और ग्रेन्यूल्स से भरी होती हैं। परिपक्व कोशिकाओं में ग्रेन्यूल्स के ये तत्व रोगाणुओं, विषाणुओं और परजीवियों को नष्ट कर शरीर की रक्षा करते हैं। अपरिपक्व कैंसर कोशिकाओं से बेवजह फूटकर ये टॉक्सिक तत्व घातक रक्तस्राव या टोक्सीमिया करते हैं, जो प्राणघातक हो सकता है। इस कैंसर की विशेषता यह होती है कि कैंसर कोशिकाएं प्रोमाइलोसाइट की अपरिपक्व अवस्था में ठहर जाती हैं, पूर्ण परिपक्व श्वेत कोशिकाएं नहीं बन पातीं। अत: कैंसर चिकित्सकों का विचार था कि अगर ऐसी दवा मिल जाए जो इन अपरिपक्व कोशिकाओं को परिपक्व कर दें, तो कैंसर से निजात मिल सकती है। यह एक रोचक पहलू था। चिकित्सक उत्साहित थे। लेकिन यह प्रयोग ऐसे कैंसर रोगियों पर तो किया नहीं जा सकता था। बाहर टेस्ट ट्यूब में सैकड़ों ऐसी दवाओं का प्रयोग कर देखा गया जिनके ऐसा होने की संभावना थी। एक रसायन, रेटिनोइक एसिड, विटामिन ए का एक प्रारूप, मिला जो असरकारक था। रक्त कैंसर की चिकित्सा करने वालों के लिए यह एक महत्वपूर्ण खोज थी। औषधि कम्पनी की प्रयोगशाला ने रेटिनोइक एसिड तैयार कर कैंसर रोगियों पर प्रयोग करने के लिए भेजा। परिणाम उत्साहवर्धक थे। प्रोमाइलोसाइट कोशिकाएं परिपक्व होकर सामान्य कोशिकाएं बन गईं। कैंसर चिकित्सा को नई दिशा मिल गई। लेकिन कैंसर विशेषज्ञ शीघ्र ही हतोत्साहित भी हो गए जब पाया कि कुछ में तो रेटिनोइक एसिड प्रभावी था, बाकी में नहीं। जिनमें प्रभावी था उनमें कोई ऐसी विशेषता के साक्ष्य नहीं थे जिनके आधार पर यह निश्चित किया जा सकता। कुल मिलाकर इसकी सार्थकता संदिग्ध साबित हुई।
स्थिति ने अनायास नया मोड़ लिया जब पेरिस के एक कैंसर विशेषज्ञ, जिनको अक्यूट प्रोमाइलोसाइट रक्त कैंसर के उपचार का व्यापक अनुभव था, उनके पास चीन के उनके समकक्ष विशेषज्ञ पहुंचे। चीन के विशेषज्ञों को रेटिनोइक एसिड बनाने का विशेष अनुभव था तो पेरिस के विशेषज्ञ को इसके कैंसर रोगियों में प्रयोग का। चीन के अनुसंधानकर्ताओं को रेटिनोइक एसिड की अनिश्चित कारगरता के बारे में बताया गया। उन्हें यह भी बताया गया कि जिन रोगियों में प्रभावी होता है उनमें कोई विशिष्टता नहीं मिली। प्रभावी तो है लेकिन अनिश्चित। तो क्या रेटिनोइक एसिड में रासायनिक बदलाव कर इसे और सार्थक बनाया जा सकता है? चीनी विशेषज्ञों को ज्ञात था कि रेटिनोइक एसिड के दो प्रारूप होते हैं-सिस-रेटोनोइक एसिड और ट्रान्स-रेटनोइक एसिड। हो सकता है कि इसमें एक प्रारूप सार्थक हो और दूसरा नहीं। पेरिस में उपलब्ध रेटिनोइक एसिड शायद इन दो प्रारूपों का अनिश्चित मिश्रण था। भाषा के अवरोध के कारण बड़ी मुश्किल से चर्चा के बाद दोनों में इस पर आगे अनुसंधान करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय करार हुआ। तदनुसार चीनी अनुसंधानकर्ताओं ने अपनी प्रयोगशाला में रेटिनोइक एसिड के दोनों प्रारूपों को अलग-अलग शुद्ध रूप में बनवाकर पेरिस भेजा। उन्होंने स्वयं अपने यहां भी अक्यूट माइलोसाइटिक रक्त कैंसर में ट्रांस-रेटिनोइक एसिड का प्रयोग किया और उनकी सार्थकता के बारे में लिखा। पेरिस में 1986 में इसे 24 रक्त कैंसर के रोगियों को दिया गया। 23 में अप्रत्याशित सफलता मिली।
पेरिस चिकित्सक ने बताया कैसे प्रोमाइलोसाइट कैंसर कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं में परिवर्तित हो गईं। उन्होंने यह भी बताया कि परिपक्व होने के बाद ये श्वेत कोशिकाएं अपना अल्प अवधि जीवनकाल समाप्त कर स्वतः ही नष्ट भी हो गई। विशेष बात यह हई कि कैंसर कोशिकाओं की अमरता खत्म हो गई। उनके सामूहिक नष्ट होने से एक बार अस्थि-मज्जा पर कुप्रभाव पड़ा जिस पर काबू पा लिया गया। प्रयोग सार्थक सिद्ध हआ।कैंसर विलप्त हो गया। लेकिन यह अल्पकालिक था। कुछ ही महीनों में कैंसर वापस लौट आया। संघाई और पेरिस के अनुसंधानकर्ताओं ने आपस में बात कर तब निश्चित किया कि रेटिनोइक एसिड के साथ-साथ सामान्य कीमोथेरैपी भी चालू की जाए। इस सम्मिश्रण चिकित्सा के बड़े सार्थक परिणाम सामने आये। कभी अत्यंत तीव्र गति से घातक प्रोमाइलोसाइट ल्यूकीमिया को आज सर्वथा ठीक होने वाले कैंसरों में से एक गिना जाता है। बाद में मालूम हुआ कि प्रोमाइलोसाइट ल्यूकीमिया गुणसूत्र 15 और गुणसूत्र 17 के अंश में अदला-बदली से जीन विकृति से होती है। विकृत जीन द्वारा बनाई कैंसर प्रोटीन को रेटिनोइक एसिड बाधित करती है।
कोरियो कामिर्सनोमा :
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। - दुष्यन्त कुमार
गर्भ या भ्रूण का बाहरी आवरण कोरियोन कहलाता है। यह आवरण ट्रोफोब्लास्ट कोशिकाओं का बना होता है। इसी के एक भाग से प्लेसेंटा (अपरा या आँवल) बनता है। ट्रोफोब्लास्ट कोशिकाएँ ही गर्भाशय की आनतरिक परत-एंडोमेट्रियम-को भेदकर गर्भ को वहाँ स्थापित करती हैं और गर्भाशय की रक्त नलियों को खोलकर माँ के रक्त से संपर्क स्थापित करती हैं। ट्रोफोब्लास्ट कोशिकाओं में कैंसर कारक विकृति होने पर, गर्भसमापन (प्रसव या गर्भपात) पर, इनमें से कुछ कोशिकाएँ चिपकी रहकर गर्भाशय में ही छूट जाती हैं। इन्हीं से पहले गर्भाशय में और फिर अन्यत्र घातक कोरियो कार्सिनोमा होता है । यह विकृत गर्भ के समापन या गर्भपात के बाद प्लेसेंटा की ट्रोफोब्लास्ट कोशिकाओं से होने वाला घातक कैंसर है। यह बड़ी तीव्र गति से गर्भाशय के बाहर, फेफड़ों, मस्तिष्क, लिवर आदि में फैलता है और जहाँ पहुँचता है वहाँ भीषण रक्तस्राव कर महिला की मृत्यु का कारण बन सकता है। इसके सार्थक उपचार की खोज की कहानी जितनी रोचक है उतनी ही शिक्षाप्रद भी।
__अगस्त 1956। अमेरिका के नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के अस्पताल में कार्यरत डॉ. मिन चिऊ ली। अस्पताल में भर्ती कार्सिनोमा की एक रोगी को हठात् भीषण रक्तस्राव चालू हो गया। डॉ. ली ने उसे बचाने की भरसक कोशिश की पर उसे बचा नहीं पाए। रक्तस्राव शुरू होने के तीन घंटे में उसकी मृत्यु हो गई। इस कैंसर के लिए तब कोई सार्थक दवा उपलब्ध नहीं थी। शल्य चिकित्सा और विकिरण चिकित्सा से अवश्य इलाज होता था। डॉ. ली तीव्र गति के रक्त कैंसर में 1948 से सार्थक प्रयोग में आ रहे एंटीफोलिक एसिड-मिथोट्रिक्सेट-के बारे में जानते थेउनका विचार था कि जो औषधि तीव्र गति से बढ़ने-फैलने वाले रक्त कैंसर में सार्थक कैंसर रोधक का कार्य करती है, वह तीव्र गति से कोरियो कार्सिनोमा में भी कारगर होनी चाहिए। उन्हें यह प्रयोग करने का अवसर भी शीघ्र ही मिल गया। इस महिला का कोरिया कार्सिनोमा गंभीर रूप में दोनों फेफड़ों में फैल गया था, अंगूर के गुच्छे जैसा। एक ओर का कैंसर फट गया और उससे सीने में भीषण रक्तस्राव चालू हो गया। सांस उखड़ गई। वैसी ही आपात स्थिति। डॉ. ली और उनके साथियों ने सीने से रक्त निकालने को ट्यूब डाली। रक्त बाहर आया तो सांस ठहरी। रक्त दिया जा रहा था। पर जितना अंदर जाता उससे अधिक ट्यूब से बाहर आ रहा था, वह भी शुद्ध रक्त। रुकने का नाम नहीं। रक्त बैंक से कितना रक्त मिलता। हारकर उन्होंने सीने की ट्यूब को रक्त की बोतल से जोड़ दिया। रोगी के खुद का रक्त स्वयं को। जितना बाहर आता उतना शरीर के अंदर। स्वयं का रक्त सीधे तौर पर देने का संभवतः यह पहला केस था। स्राव रोकने की औषधियां चल ही रही थीं। आशा तो नहीं के बराबर थी पर रात भर में महिला की हालत संभलकर स्थिर हो गई। कैंसर के उपचार की अब दवा दी जानी थी। डॉ. ली ने मिथोट्रिक्सेट प्रयोग किया। दवा की चार खुराक मिलने के बाद जब सीने का एक्स-रे लिया गया तो जैसे चमत्कार हो गया। कैंसर फेफड़ों से सर्वथा विलुप्त हो गया था। घातक कोरियो कार्सिनोमा की सार्थक दवा मिल गई। डॉ. ली मिथोट्रिक्सेट का प्रयोग इस कैंसर के सभी रोगियों में करने लगे। लेकिन डॉ. ली के लिए यह सुखद अन्त नहीं साबित हुआ। वे यह दवा रोगियों को उनके कैंसर के एक्स-रे आदि के परीक्षण पर सर्वथा लुप्त हो जाने के बाद भी चालू रखते थे। यह कैंसर एक विशिष्ट हारमोन-ह्यूमन कोरियोनिक गोनेडोट्रोफिन (एच.सी.जी.) रक्त में स्त्रावित करता है। इस हारमोन की रक्त में मात्रा को कैंसर का प्रतीक माना जाता है। कैंसर विलुप्त दिखने पर इसकी मात्रा काफी कम हो जाती थी, लेकिन सर्वथा खत्म नहीं होती थी। डॉ. ली का मानना था कि हारमोन का होना इंगित करता है कि कैंसर की कुछ कोशिकाएं शरीर में अभी शेष है, अतः दवा चालू रखते थे। अन्य डॉक्टर इसे अनावश्यक और व्यर्थ ही रोगी की जान सांसत में डालना मानते थे, कारण इस दवा के गंभीर साइड इफेक्ट (दुष्प्रभाव) थे। डॉ. ली अपने विश्वास के पक्के थे। वे कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे। वे नहीं मानेशिकायत हुई। गवर्निंग बोर्ड की मीटिंग हुई और डॉ. ली को अस्पताल से निकाल दिया गया। वर्षों बाद यह उजागर हुआ कि जिन कैंसर रोगियों में मिथोट्रिक्सेट रक्त से एच.सी.जी. सर्वथा खत्म होने से पहले बंदकर दी गई थी उनमें काफी में कैंसर वापस हो गया, केवल वही सर्वकालिक कैंसर मक्त हईं जिनमें दवा इस हारमोन की मात्रा शून्य तक चालू रखी गई। डॉ. ली सही साबित हए, लेकिन अपने साथियों के प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या का फल भुगतने के बाद। उन्हें घातक कैंसर का सार्थक इलाज खोजने का श्रेय तो मिला लेकिन काफी जलालत झेलने के बाद।
आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए- दुष्यन्त कुमार
स्टेम सेल उपचार : रोग, रेडिएशन व कीमोथेरैपी से अस्थि-मज्जा नष्ट होने पर स्टेम सेल प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है। अस्थि-मज्जा में स्टेम सेल आदि कोशिकाएं (पूर्वज कोशिकाएं) होती हैं जो इस मायने में बहुशक्तिमान या बहुआयामी होती हैं कि उनसे विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं की श्रृंखलाओं का जन्म होता है। अमूमन विभाजन से यह बहुआयामी शक्ति क्षीण हो जाती है लेकिन अस्थि मज्जा की स्टेम सेल कोशिकाओं की यह विशेषता है कि वे अपना पुनर्जन्म कर चिरस्थायी बहुशक्तिमान बनी रहती हैं। इन्हीं स्टेम कोशिकाओं से लाल रक्त कण, विभिन्न प्रकार के श्वेत कण और प्लेटलेट्स बनते हैं। ऐसी स्टेम सेल कोशिकाएं रक्त में होती हैं और उससे अधिक अम्बीलाइकल कोर्ड (नाभिनाल) के ब्लड में आज कोर्ड ब्लड को इकट्ठा कर उसे फ्रोजन कर कोर्ड ब्लड, बैंक में संचित किया जाता है। इस प्रकार आवश्यकता होने पर व्यक्ति के अपने स्टेम सेल प्रतिरोपित करने के लिए सहज उपलब्ध होते हैं। बोनेमेरो (अस्थि-मज्जा) ट्रांसप्लांट की जगह स्टेम सेल प्रत्यारोपण किया जाता है। यह अपेक्षाकृत काफी सरल विधि है। रक्त कैंसर में अस्थि मज्जा कैंसर कोशिकाओं से भरी होने से नष्टप्राय हो जाती है। कैंसर नाशक दवाएं तो इसे सर्वथा ही नष्ट कर देती हैं। रक्त कैंसर के चिरस्थायी इलाज के लिए यह आवश्यक भी हैस्टेम सेल प्रत्यारोपित कर अस्थि मज्जा को पुनर्जीवित किया जाता है। यह जीवन रक्षक होता है रक्त कैंसर के उपचार में। अगर उक्त व्यक्ति का कोर्ड ब्लड उपलब्ध न हो तो उस व्यक्ति के रक्त से भी स्टेम सेल अलग किये जा सकते हैं । रक्त कैंसर और ऐसे ही अस्थि-मज्जा जनित अन्य कैंसर और अन्य कैंसर जैसी व्याधियों (लिम्फोमा, माइलोडिस्प्लेसिया, माइलोमा) में यह एक सार्थक विधि उपलब्ध है। प्रत्यारोपण के लिए व्यक्ति की स्वयं की या उसके एचएलए, मैच करने वाले व्यक्ति से स्टेम कोशिकाएं ली जा सकती है।