हिन्दी कहानीःनए आयाम

आलेख


सूर्यकांत नागर


हिन्दी कहानी को लेकर दो विचारधाराएँ प्रवाहमय हैं। एक के अनुसार कहानी का वर्तमान परिदृश्य निराशाजनक है। काफी कुछ रद्दी लिखा जा रहा है। नया कथाकार जल्दी में है। कहानियाँ फार्मूलाबद्ध हैं। कुछ का मत है कि कहानी मर रही है तो कुछ का कहना है कि कहानी मर नहीं रहीं, उसका नायक मर रहा है। दूसरों ने कहा कि नायक नहीं मर रहा, वह खण्ड-खण्ड हो कर व्यक्त हो रहा है। प्रथम हंस कहानी कार्यशाला में पंकज बिष्ट ने कहा था, कहानी मरती हुई विधा है। हिन्दी साहित्य में 'अब अच्छे दर्जे की प्रतिभाएं नहीं आ रहीं। युवा रचनाकारों को समझना चाहिए कि केवल घटना में कहानी निहित नहीं होती, उसमें जो अंतर्विरोध होता है, उससे कहानी बनती है।' 'बहुवचन' (कहानी का दूसरा समय-संपादक अशोक मिश्र) में युवा आलोचकों ने वर्तमान कहानी की दशा और दिशा पर गहरा असंतोष व्यक्त किया था। उनका मानना था कि युवा रचनाकारों में सरोकारों और वैचारिकता की कमी है। राजेन्द्र यादव के अवसान के पश्चात जब मन्नूजी, रचनाजी और संजय सहाय के बीच विचार-विमर्श हो रहा था तो मन्नूजी ने कहा था, कच्ची, अधपकी रचनाएँ सभी साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए चिंता का विषय बनी हुई हैं। नएरचनाकार नए विषय तो तलाश रहे हैं, पर नहीं जानते कि घटनाओं को सीधे-सपाट लिख देने से कहानी नहीं बनती।


इसके बरअक्स दूसरे धड़े का मत, जो काफी हद तक सही है, उपर्युक्त कथन से सहमत नहीं है। उसका कहना है कि अब कहानी टकसाल से निकले सिक्के की भांति एक-रूप नहीं रही हैं। उसका पुराना ढांचा ध्वस्त हुआ है। भाषा, कथ्य और शिल्प के स्तर पर नित नए प्रयोग हो रहे हैं। बदलते यथार्थ के रचनात्मक स्वरूप को सामने लाने के लिए कहानी में रूपात्मक बदलाव आया है। समय की आहटों का कहानी में प्रवेश हुआ है। जीवन के सूक्ष्म अनुभवों की सटीक बुनावट होने लगी है। आज का कथाकार अधिक सचेत, जागरूक और कल्पनाशील है। उसमें समकालीन यथार्थ से टकराने का जज्बा बढ़ा है। जानकारी के जो नए क्षेत्र खुले हैं, उन्होंने आज के लेखक को समृद्ध किया है। कहानी वृतांत ही प्रस्तुत नहीं करती, पाठक के साथ संवाद भी स्थापित कर रही है। भाषा, कला और कल्पना इसमें उसकी सहायक हैंइन तत्वों से बुनी कहानी कथ्य और संवेदना में स्वयं ही संयम और शिल्पगत अनुशासन लागू कर लेती है। हाल ही की कहानियों से गुजरते हुए लगा कि युवा कथाकारों का अनुभव जगत व्यापक है। कथ्य की दृष्टि से उनकी कहानियाँ विविधवर्णी हैं। कहानियों में शोर नहीं है। मुखरता पर अंकुश के बावजूद वे अधिक प्रभावशाली हैं। काफी कुछ अनकहा छोड़कर लेखक पाठक के लिए अन्वेषण के सूत्र छोड़ता हैइधर अतिबौद्धिक, जटिल, कलावादी, अमूर्त कथाओं का चलन बढ़ा है। गोष्ठियों, चर्चाओं, समीक्षाओं में उन्हीं-उन्हीं की चर्चाकर ऐसा जताया जाता है कि इनसे इतर लिखी कहानियाँ, कहानियाँ हैं ही नहीं या इससे भिन्न सोच रखने वालों को आधुनिक कहानी की समझ ही नहीं है। जिस कहानीकार पर किसी नामवर ने हाथ रख दिया, वह रातों रात सितारा कथाकार हो जाता है। दरअसल यथार्थ और कला के बीच एक संतुलित, समावेषी भाव होना चाहिए ताकि कहानी की पठनीयता और सम्प्रेषणीयता बाधित न हो। कहानी उन तक पहुंचे जिनके लिए लिखी जा रही है। इसका यह अर्थ नहीं कि कहानी सीधी-सपाट हो। सत्ता तो अंतत: कला की ही चलती है। कई बार वह अनुभव को रौंदकर आगे निकल जाती है। निश्चित ही नवोन्मेशी साहित्य से प्रगति के द्वार खुले हैं। ताजी हवा के झोके प्रवेश कर रहे हैं। युवा कथाकारों के अतिरिक्त कई पूर्ववर्ती कथाकार समय के साथ कदमताल कर रहे हैं।


भूमण्डलीकरण, नवआर्थिक उदारवाद, कॉरपोरेट हाउसेस, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और उनके रंगबिरंगे टीवी विज्ञापनों को लेकर काफी वैचारिक कहानियां लिखी गईं। वे बताती हैं कि किस तरह ये सौदागर बड़ी चालाकी से माल के साथ विचार भी हमारे मन-मस्तिष्क पर प्रत्यारोपित कर रहे हैं। एक नई अपसंस्कृति को जन्म दिया जा रहा है। खास कर युवा पीढ़ी भ्रमित है। उनके जाल में फंसती जा रही है। उनके आगे एक कृत्रिम दुनिया खड़ी की जा रही है जिसे वह असली समझ रही है। उसके लिए बाहरी सुंदरता ही सर्वोपरि है। चूंकि सुंदरता लड़की की ज़रूरत बना दी गई है, अत: वह उस ज़रूरत को पूरा करने वाले के अधीन ही तो रहेगी। चारों और चमक-दमक और ग्लेमर का बाज़ार है। इस पूरे परिदृश्य पर युवा कवि युनूस की पंक्तियां पूरी कथा बयान करती हैं-'सुंदरता इतनी आवश्यक हो कि/निर्वासित कर दिए जाएं रोगी,गर्भवतियाँ और बूढ़े/रोतले चेहरो पर चिपका दी जाएं इन्सटेंट मुस्कानेंसड़कों से भले न बुहारा जा सके कूड़ा/लेकिन दुकानों के कूड़े को दिखना होगा सुंदर विज्ञापन सिद्ध करें चीजें सुंदर हैं और कुछ नहीं/ किशारों को सिखाया जाए कि सुंदरता ही सर्वोपरि सदाचार है|दुनिया हो चमचमाती सुंदर/बिकने को सदा तैयार।'


तनिक पीछे जाएं तो संजय खाती की 'पिंटी का साबुन' जयनंदन की 'चिअर अप कोला-ब्लूम' 96 शैवाल की' भारतीय लोक संगीत कहानियां नई उपभोक्ता संस्कृति पर करारा प्रहार हैं। विज्ञापनों द्वारा समाज को संचालित करने की साजिशों को उजागर करती प्रभावी कहानी है संजय कुंदन की 'श्यामलाल का अकेलापन'। इसमें बताया गया है कि शेखी बघारता एक व्यक्ति कैसे खुद किसी प्रॉडक्ट के विज्ञापन का होर्डिंग बन जाता है। ज्यों ही मुंह खोलता है, कोई उत्पाद उसके मुंह से चिल्लाने लगता है। प्रतिरोध खड़ा करने के लिए यथार्थ को पूरे पैनेपन के साथ प्रस्तुत करने में कथा लेखिका अल्का सिन्हा की कहानियां समाज के मिजाज के खिलाफ खड़ी दिखाई देती हैंअति आधुनिक परिवेश की उनकी कहानी है 'हरदम साथ डॉट कॉम'यह जीवन को मशीन में बदल देने और सनातन समय को अपने आतंकी जबड़ों में दबोच लेने की विश्वसनीय कहानी है।


आकांक्षा पारे की कहानी 'कंट्रोल' साइबर युग की कहानी है। यह भी एक व्यक्ति के मशीन बनने की कथा है। प्रयोग करते हुए नायक कम्प्यूटर की भाषा में बात करता है। तकनीकी विकास ऐसे मनुष्य बना रहा है जो किसी की भी यूं ही हत्या कर डालता है। आकांक्षा की यह कहानी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि समयजाल की भव्यता से मोहित हुए बगैर वह उसके अंदर दृष्टि डालती है।


साइबर स्पेस और वर्चुअल संसार नए लेखकों का प्रिय विषय बनता जा रहा है। नेट, पोर्टल, फेसबुक, वाट्सअप, इंस्टाग्राम, टिव्टर, मोबाइल आदि से जहां एक ओर सुविधा हुई है, वहीं दूसरी ओर हमारे अकाउंट, जानकारियां, सूचनाएं हाईजेक होने लगी हैं। खातों से पैसे निकाल लिए जाते हैं। कंपनियां लुभावनी योजनाओं के झांसे में फंसाकर मध्यमर्गीय व्यक्ति को आर्थिक गड्ढे में उतार देती है। लॉटरी खुलने या बोनस देने के नाम पर छलती हैं। लालच दे पैसा इनवेस्ट करा लेती हैं। महिला मित्र के साथ विदेश यात्रा का प्रस्ताव रखती हैं। जरूरी हो तो महिला मित्र भी प्लांट कर देती हैं लेकिन अंतत: सब छल साबित होता है। व्यक्ति स्वयं को पूरी तरह लुटा-पिटा महसूस करता हैतुलनात्मक रूप से इस पक्ष पर कम कहानियाँ लिखी गई हैं । हां, वीरेन्द्र जैन के उपन्यास 'सुख फरोश' में इस लूट और झूठ का बड़े ही प्रामाणिक रूप से पर्दाफाश किया गया है। चंदन पांडेय की 'सिटी पब्लिक स्कूल, वाराणसी' किशोरों की नब्ज टटोलती एक लम्बी कहानी है। इसमें हाईस्कूल में पढ़ते किशारों के प्रेम, परस्पर आकर्षण, चुहलबाजी, कम्प्यूटर क्लास में ब्लू फिल्म देखने आदि का चित्रण है। यहां पब्लिक स्कूलों की संस्कृति का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत किया गया है। गेब्रियल मार्केज के जादुई यथार्थवाद की झलक भी कुछ नए कथाकारों की रचनाओं में दिखाई देती है। मार्केज के लिए यथार्थ और कल्पना एक ही थी। जिस परिमाण में यथार्थ होगा, उसी परिमाण में कल्पना भी होगी। प्रतिभाशाली युवा कथाकार विवेक मिश्र की कहानी 'थर्टी मिनिट्स' को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। यह कहानी यथार्थ और कल्पना का गड्डमड्ड है। नायक 'मुल्क', स्टॉप वाच, नौ बजने में दो मिनिट का शेष समय, पिज्जा और प्रेमिका नीरू के माध्यम से नवयुवकों में घिर आई निस्सारता को विश्वनीयता प्रदान करने में लेखक सफल हुआ है। उदयप्रकाश की फंतासी कमोबेश इस श्रेणी में शामिल की जा सकती है। स्त्री-मन की पड़ताल करती, बारीक ख्याल वाली विवेक मिश्र की अन्य कहानी है 'और गिलहरियां बैठ गई।'


ऐसा नहीं है कि कलावादी या अतिबौद्धिक कहानियों को ही सिर चढ़ाया जा रहा हो । सादगी से लिखी सहज कहानियां भी सराही जा रही हैं, बशर्ते सादगी के साथ उनमें संवेदनात्मक गहराई और अभिव्यक्ति कौशल हो। कला, विचारधारा और अनुभव को साधकर सहज किंतु अत्यंत प्रभावी कहानी लिखने वालों में स्वयंप्रकाश अग्रणी हैं। जटिल यथार्थ को सुलझे शिल्प में व्यक्त करने में वे सिद्धहस्त हैं। पिछले दिनों उनका कथा-संग्रह 'छोटू उस्ताद आया है।' 'खूबसूरत घर' कहानी भारतीय स्त्री की चिंताओं, संस्कारों और सरोकारों की मार्मिक कथा है। यह कहानी प्रगतिशील कवि चंद्रकांत देवताले के इस कथन का समर्थन करती है कि यदि प्रेम करने वाली और घर चलाने वाली स्त्री न होती तो यह दुनिया एक मरूस्थल के अलावा क्या होती! धरती हरी-भरी है तो इसलिए कि स्त्री है। सत्य को पूरी रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत करने वाली कहानियों में अशोक शक्ल की 'छडी' और हरि भटनागर की 'तलवार' कहानी बरबस ध्यान आकर्षित करती हैं।


आज के परिवेश की अंदरूनी परतों की पड़ताल करती व्यंग्यकार जवाहर चौधरी की कहानियां अद्भुत हैं। कॉरपोरेट सेक्टर की विसंगतियों और युवाओं की विवशताओं और आकांक्षाओं का उनमें बेवाक चित्रण है। गुड बायजेडी, सफर में अकेली लड़की, जूते, नुक्ता आदि कहानियों में व्यंग्य की अंतर्धारा प्रवाहित है। विधाओं का भेद रचनाकार के व्यक्ति का बोध होता है। लेखक का अपनी रुचि या मुख्य विधा से बच पाना मुश्किल होता है। कुणालसिंह की 'इतवार नहीं' जैसी कहानियाँ अत्यधिक कलाकारी और चमत्कृत करने की कोशिशों के कारण सहसा ग्राह्य नहीं होतीं। भाषा के उलजलूल प्रयोग सम्प्रेषणीयता में बाधक बनते हैं। लाटें, फुफ्फड़, सरवेज, नींद के कीचड़, खून की तरह गाढ़ी दोपहरी नींद आदि निरर्थक प्रयोग से कहानियों का कन्टेंट दबता है। नए प्रयोग या आयाम के नाम पर ऐसे प्रयोगों को निरुत्साहित किया जाना चाहिए।


___ गांव को लेकर इधर कम कहानियां लिखी जा रही हैं। कहानियों से लोक लुप्त हो रहा है। कथाकारों में यह भ्रम फैल गया है कि यदि वे गांव की कहानियां लिखते रहे तो उनकी आधुनिक चेतना पर प्रश्न-चिन्ह लगेगा, उन पर आंचलिकता का ठप्पा लग जाएगा। यह धारणा बलवती होती जा रही है कि आंचलिक और बाल-कथाकार होना कोई बहुत प्रतिष्ठा का प्रतिमान नहीं है। हालांकि युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल और मध्यपीढ़ी के भालचंद्र जोशी लोक जीवन को कहानियों में शिद्दत से समेटे हुए हैं। महेश कटारे, मिथिलेश्वर, शिवमूर्ति, रामदरश मिश्र, बलराम, उषाकिरण खान (दूबधान और पत्थर मन), मधुकरसिंह आदि ने ग्रामीण जीवन की बेहतर कहानियां लिखी हैं। लेकिन अब यह ज्यादा जरूरी है क्योंकि शहर बड़े वेग से गांवों में प्रवेश कर रहे हैं। बल्कि कहना बेहतर होगा कि लोक बाजार में जा रहा है और बाजार लोक में प्रवेश कर रहा है। ग्रामीण क्षेत्र से आए कई कथाकार अब शहर में आ बसे हैं तो उनकी कहानियों में शहर के साथ गांव नत्थी हैं। शहरों के विस्तार से कृषि भूमि निरंतर कम हो ही रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां, बिल्डर्स, पेट्रोल पम्प और इंडस्ट्रीवाले गांव वालों को अच्छी कीमत का लालच देकर उनकी जमीन हथिया रहे हैं। जो लोग ज़मीन बेचने को इच्छुक नहीं होते, उन्हें गुंडो दलालों आदि द्वारा डराधमकाकर भूमि बेचने के लिए विवश किया जाता है। फिर वहां बड़े-बड़े माल आदि खुल जाते हैं। इस पर लिखा जा रहा है, फिर भी काफी कुछ शेष है।


लोक बोली और लोक संस्कृति से ओतप्रोत सत्यनारायण पटेल की कहानियों में डूंगा जैसा स्वाभिमानी कृषक है जो गुण्डों, बिल्डरों द्वारा दिए जा रहे लालच और दबावों के बावजूद अपनी जमीन बेचने को तैयार नहीं हैं। नकारात्मक सोच के बीच आशा का संचार करती 'लाल छींट वाली लगडी का सपना' एक महत्वपर्ण कहानी है। अध्यापकों के साथ किसानी करने वाले महेश कटारे तो लगता है जैसे खेतखलियान से चलकर सीधे कहानियों में प्रवेश कर गए हैं। स्थानीय बोली और मुहावरों से पुष्ट उनकी 'बगल से बहता सच' लक्ष्मण रेखा, गांव का जोगी आदि कहानियां विषेश रूप से उल्लेखनीय हैं। उनका कथा-संग्रह 'मुर्दा स्थगित' महत्वपूर्ण है। भालचंद्र जोशी की कहानियां 'निरात', 'नींद के बाहर' तथा 'इसी लोक में' लोक-संस्कृति के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। गांव-शहर के अंतर को रेखांकित करती कहानी 'नींद से बाहर' का अपना अलग अंदाज है। उनके ताजा कथा-संग्रह 'हत्या की पावन इच्छाएं' में शामिल कहानियों में कर्ज के बोझ तले दबे किसानों द्वारा की जा रही आत्म-हत्याओं का हृदयस्पर्शी चित्रण है। हरनोट ने हिमाचली अंचल के पर्वतीय परिवेश की प्रामाणिक कहानियां लिखी हैं। मुट्ठी में गांव, बच्छिया बोली हैबीस फुट के बाबूजी आदि कहानियां पहाड़ के आदमी के शोषण और संघर्ष को उजागर करती हैं। पत्रकार-कथाकार सूर्यनाथसिंह के ताजा कथा संग्रह धधक, धुआं धुआं' में आदिवासियों और पिछड़े ग्रामीणों की पीड़ा को व्यक्त करती सशक्त कहानियां शामिल हैं। इंदु शर्मा कथा-सम्मान से अलंकृत भगवानदास मोरवाल की कहानी 'छल और उपन्यास' 'काला पहाड़' व 'रेत' में क्षेत्र विशेष के कमजोर लोगों की व्यथा व्यक्त हुई है। विस्थापन के कारण गांव की संस्कृति और परम्पराओं का किस तरह क्षय हुआ है, इस तथ्य को रेखांकित करती है ऋषीकेष सुलभ की कहानी 'अगिन जो लागी नीर में'। ग्रामीण परिवेश की उनकी एक अन्य कहानी है 'काजर आंजत नयन गए।' अंचल की रूढ़ छविवाली स्त्री की यह कहानी हिन्दी कहानी की बदलती तस्वीर की ओर इशारा करती है। लमही सम्मान से सम्मानित कथालेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ की लोकरंग से सजी कहानी 'स्वांग' में गफूरिया लोक कलाओं को बचाने के लिए अंतिम सांस तक संघर्षरत रहता है। सरकारी तंत्र की अनदेखी के कारण लोक कलाकारों की उपेक्षा दर्शाती यह अत्यंत मार्मिक कथा है।


इधर नारीवादी लेखन की धूम है। भूमंडलीकरण के पूंजीवादी सोच से उत्तर आधुनिकता हावी है। उत्तर आधुनिकता ने नारीवादी विमर्श का रूप ही बदल दिया है। स्त्री चेतना पर स्त्री-पुरुष दोनों ने ही लिखा है, लेकिन स्त्री का अपना संसार होने से वर्चस्व महिलाओं का ही है। लेकिन यहां भी दो श्रेणियां हैं। एक नारी स्वांतत्र्य, उसके अधिकारों देह की आजादी, पुरुषविहीन दुनिया और विवाहेतर संबंध, समलैंगिकता की पक्षधर है तो दूसरी नारी की बेहतरी की समर्थक तो है, पर उतनी उग्र, विद्रोही और आक्रामक नहीं है। उनकी कहानियों में स्त्री का मनोविज्ञान, स्त्रीमन की खोज और भारतीय मूल्यों के प्रति आस्था है। वहां बात प्रतिस्पर्धा और बादशाहत की नहीं, आत्म-सम्मान और बराबरी की है। महिला लेखन अंतवैयक्तिा से ऊपर उठकर स्त्री जीवन के अन्य अहम मुद्दों पर केन्द्रित हुआ हैसूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, ममता कालिया, राजी सेठ, मन्नू भंडारी, मालती जोशी आदि ने इस दिशा में काफ काम किया है। दूसरे ग्रुप में मैत्रेयी पुष्पा, शरदसिंह, रमणिका गुप्ता, गीता श्री, प्रभा खेतान, सोनी सिंह आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं। इनमें से कई पर पश्चिम का उन्मक्त नारीवाद हावी है। इस दृष्टि से 'सामयिक सरस्वती' की हाल ही में नियुक्त संपादक के लिव इन रिलेशनशिप पर आधारित उपन्यास 'कस्बाई सिमोन' का उल्लेख किया जा सकता है। हंस में छपी उनकी कहानी 'लव एट फर्टी प्लस' काफी चर्चा में रही ।


कुल मिलाकर हिन्दी कहानी की स्थिति निराशाजनक नहीं है। नए रचनाकारों की सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक समझ में वृद्धि हुई है। समय और समाज में हो रहे बदलावों के प्रति वे सचेत हैं। इंसानी सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध। तलछट का जीवन जीने वालों के प्रति उनकी चिंता उनके लेखन में व्यक्त हो रही है। वहां नवोद् भावों को पकड़ने की कोशिश है। कुछ ज्वलंत और प्रासंगिक मुद्दों पर और काम किया जा सकता है, यथा भूमि अधिग्रहण, महिला आरक्षण बिल, भीतरी आतंकवाद, विरोध, प्रतिशोध और आलोचना की वर्तमान स्थिति, ओछी राजनीति, लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण जैसे विषयों पर कलम चलाई जा सकती है। संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित न होने के पीछे की मंशा को बेनकाब करना भी ज़रूरी है। पुरुष सांसदों को भय है कि चुने जाने के बाद यदि सभी महिला सांसद पार्टी लाइन तोड़कर एक हो गई तो पुरूष सत्ता से बेदखल हो जाएंगे । इस संदर्भ में मीराकांत का नाटक 'नैपथ्य राग' सटीक है। महाराजा विक्रमादित्य विदुषी महिला रवना को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत करते हैं, पर नवरत्नों और सभासदों को यह रास नहीं आता कि कोई ज्ञानमार्गी स्त्री सभासद बने । सत्ता के केन्द्र में एक युवती हो और वह भी अपनी बौद्धिक प्रतिभा के बल पर, यह कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। नवरत्नों को सभा में जिह्वाविहीन सभासद चाहिए। यदि कोई स्त्री सभासद बने तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए। अलावा इसके विश्व व्यापार व्यवस्था द्वारा आदिवासी इलाकों को अपनी चपेट में लेने की कोशिशों और किसानों द्वारा बड़ी तादाद में की जा रही आत्म-हत्याओं को भी कहानियों के विषय बनाए जा सकते हैं। साइबर क्राइम के नए-नए रूपों और ग्राम पंचायतों में अशिक्षित महिला सरपंचों की आड़ में डमी पंच बने उनके पतियों द्वारा किये जा रहे अनाधिकृत हस्तक्षेप पर भी लिखा जा सकता है।