हमारे समय की साहित्यिक पत्रकारिता

आलेख


शशिभूषण द्विवेदी


मेरे बोलने के लिए जो विषय यहां निश्चित किया गया है, उसकी शुरूआत के लिए मैं कुछ ऐसे शब्दों की मदद लूंगा, जो सांस्कृतिक, साहित्यिक और आधुनिक विमर्शों के लिए तो महत्वपूर्ण हैं ही, साथ ही समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी जीवन और साहित्य के कुछ ऐसे क्षितिजों की खोज इन शब्दों के माध्यम से की जा सकती है, जिनका महत्व आज साहित्य और पत्रकारिता के संबंधों को कुछ नए संदर्भो के साथ समझाने में समर्थ है। चूंकि इन शब्दों को मैंने अंग्रेजी साहित्य-चिंतन से लिया है, इसलिए मेरी कोशिश है कि इनका अनुवाद तो करूं ही, साथ ही इनके मूल अंग्रेजी रूप को भी ज्यों का त्यों रखं ताकि समझदारी की मूल अवधारणा को भी क्षति नहीं पहुंचे और शब्दों को समझने-बूझने और उन्हें 'डिकन्सट्रक्ट' करने की आपकीहमारी मूल बौद्धिक स्वतंत्रता को भी क्षति नहीं पहुंचे। हिंदी में प्रायः ऐसा होता रहा है कि लोगबाग अपना अनुवाद तो अंग्रेजी का थोप देते हैं; मल शब्द की चर्चा नहीं करते। इससे एक भ्रम की स्थिति पैदा होती है। मूल बात पर आते हुए मैं अपनी बात शुरू कर रहा हूं:


हम सब सौंदर्यशास्त्रीय बोध या एसथेटिक्स से परिचित हैं। मेरे पर्चे में यह प्रश्न आएगा कि क्या मीडिया और खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संदर्भ में हमारे समाज और साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के संदर्भ में यह शब्द बेमानी हो गया. या इसकी कोई उपादेयता बाकी है या जिस किसी तरह के भी समाज में हम रह रहे हैं, या जिस समाज के कदम-कदम पर हमारा साबका पड रहा है, वह समाज क्या पूरा नहीं तो अंशत: ही अ-सौंदर्यशास्त्रीय हो गया है, और उसे इस शाश्वत बोध की कोई आवश्यकता ही नहीं है।


___ एक दूसरा शब्द-युग्म है 'पेशेन्टली नैस्टी' यानि वह व्यक्ति या वह समाज जो धीरजपूर्वक समाज में, साहित्य में या मीडिया में गंदगी का हिमायती है ताकि उस पर कोई आरोप न लगे (क्योंकि वह शोर-शराबा नहीं कर रहा है) और वह अपना काम करता रहे अपना स्वार्थ साधता रहे । सूचना के लिए बता दूं कि बाकी यूरोप में यह शब्द अंग्रेजों के लिए प्रयुक्त होता है (इसे मैंने ऑक्सफोर्ड प्रवास में जाना) कि वे बड़े धीरज के साथ भीतर से यानि अंतर्मन में गंदे होते हैं और अपने आर्थिकबौद्धिक, सामरिक और बाकी स्वार्थों को इसी अंदाज में पोषित करते हैं। मेरे मन में यह प्रश्न इस शब्दावली की मदद से उठा है कि क्या अंग्रेजों की यह गंदगी हमारे मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में निरंतर घर करती जा रही है और हमारे सामने धीरज के साथ इस गंदगी को झेलने-सहने के अलावा कोई चारा नहीं बच पा रहा है? हमारे मीडिया का संदर्भ इस शब्द-युग्म से यूं जुड़ता है कि उसके लिए पैसा (यानि इस संदर्भ में विज्ञापन) बाकी सारी नैतिकताओं और सौंदर्यशास्त्रीय बोधों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। यानि वह बड़े धीरज के साथ अंग्रेजों की तरह (याद कीजिएउन्होंने बिना किसी खून खराबे के कैसे भारत पर कब्जा मात्र एक कंपनी के माध्यम से कर लिया, जो शुद्ध बनियापा करने के लिए भारत में घुसी थी) अपनी गंदगी शुद्ध धन-पिशाच बनकर फैलती जा रहा है और हम उसका न तो कुछ बिगाड़ पा रहे हैं, और न एक पलायनवादी की तरह ही सही, उससे पीछा छुड़ा पा रहे हैं। इस गंदगी ने हमें एक दारुण और ज्यादा गंदी स्थिति में डालकर असहाय कर दिया है।


और तीसरा जो बहु-प्रयोग में आने वाला शब्द है, वह है हमारा मध्यम वर्ग यानि मिडिल क्लास; जिसको न तो अपने सौंदर्यशास्त्रीय बोध की चरमराहट की कोई चिंता रह गई है और न उस गंदगी की, जो 1990 के बाद ही आवारा पूंजी के द्वारा इस देश में इस धीरज के साथ फैलाई गई है कि हम और हमारा सौंदर्यशास्त्रीय बोध कहीं के न रहे। माना जाता है कि अमरीकियों के बाद सारी दुनिया में अगर कोई मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा अ-सौंदर्यशास्त्रीय और गंदा हुआ है तो वह भारतीय समाज का वह हिस्सा है,जिसने सामाजिक बेहतरी के बड़े-बड़े काम; यानि विधवा विवाह की शुरुआत, सतीप्रथा का अंत, शिक्षा का प्रचार-प्रसार और गलत को गलत कहने की हिम्मत अपने में पैदा की है और समाज को रास्ता दिखाया है। बंगाल का पुनर्जागरण और फिर बाकी देश में उसका फैलाव; यह सब और इससे जुड़े तमाम नैतिक सुधार इसी कारण संभव हुए, क्योंकि हमारे मध्यम वर्ग ने अठारहवीं शताब्दी के फ्रांसीसी समाज (फ्रेंच क्रांति 1789 में हुई) की तरह यह महसूस करना शुरू कर दिया था कि उसी के लिए कुछ होगा। अभी का भारतीय मध्यम वर्ग सिर्फ पैसे के इर्द-गिर्द ऐसा चिपटा है कि वह इतने तक से अनजान है कि उसका बच्चा किस वर्ग में पढ़ रहा है, या स्कूल जाने के नाम पर क्या कर रहा है। वह उसकी मोटी फीस अदा करने की जिम्मेदारी को अपना सर्वस्व मानकर संतुष्ट है और यह सब कुछ पैसे की होड़ के कारण हुआ है।


कुछ शब्दों से शुरूआत की जो बात मैंने पहले की थी,वह समाप्त हुई। अब मैं मूल बात पर आ रहा हूं :


जिस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अमरीकियों के बाद सारी दुनिया में सबसे ज्यादा अ-सौंदर्यशास्त्रीय कहा जाने वाला भारतीय मध्यम वर्ग पूरी तरह दीवाना हो गया है, और उसके हाव-भाव, बोध, पोशाक, भाषा आदि की नकल वह एकदम बेसुरे अंदाज में करता जा रहा है, उस मीडिया पर बात करने से पहले यह सुरसाप्रश्न हमारे सामने खड़ा हो जाता है कि क्या इस मीडिया में साहित्यिक पत्रकारिता भी; या यह भी संदेह के घेरे में है।


जिस पत्रकारिता को हम 'जल्दी का साहित्य' (या 'लिटरेचर इनहरी') कहते हैं, अगर वह आदमी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक अद्भुत विकृति या सतहीपन या सस्ती सामयिक लोकप्रियता का छिछोरा शिकार होता जा रहा है; तो क्या अब वह वह प्रश्न पूछना बहुत ही आवश्यक है, या एकदम तड़प भरा नहीं हो गया है कि वहां साहित्यिक पत्रकारिता कैसे हो, कैसे हो रही है, या कैसे और किस तरह होगी; क्योंकि पत्रकारिता मात्र सारी आधारभूमि 'क्यों', 'कहां', 'कैसे' और 'कब' के चार ककारों पर या अंग्रेजी के ढेन, ह्वेयर, ह्वाई और ह्वाऊ जैसे कुछ सर्वनामों पर टिकी है।


सच तो यह है कि आवारा पूंजी के हमारे इस बेरहम समय में (क्योंकि हम 'समय' की बात तो चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं, उस समय में या उसके भीतर, या उससे जुड़ा जो 'जीवन' है, उसकी बात या तो एकदम ही नहीं करते,या कम करते हैं) जब पत्रकारिता मात्र पर ही कई-कई लंगड़े प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं तो साहित्यिक पत्रकारिता तो वैसे भी कभी सामान्यजन या 'मास' की चीज ही नहीं रही। और वैसे ही अपने अस्तित्व के इतिहास के साथ से ही क्या साहित्य कभी 'मास' की चीज रहा? अगर रहा होता तो टीएस इलियट साहित्य या कविता को 'सर्वाधिक सशक्त मस्तिष्क की सबसे उदात्त कार्रवाई' या "The most sublime activity of the most fertile sharp brain" कैसे कहते? हमारे काव्य-शास्त्र में या साहित्यव्याकरण के दूसरे शास्त्रों में इसे 'कवि प्रतिभा' कहा गया है, जिसे अंग्रेजों ने 'जीनियस' से अभिहित किया।


तो यह लगभग स्पष्ट हो गया कि साहित्य मात्र ही सबके लिए नहीं होता और लेखन एकदम उदात्त-कर्म तो है ही ('रचनाकार' को हमारे क्लासिक ग्रंथों में 'ईश्वर अंश' माना गया है यह अद्भुत बात है कि इस अंश का प्रयोग महाभारत का सबसे दुष्ट चरित्र काईंया किस्म का शकुनी लाक्षागृह बनाने वाले पुरोचन नामक वास्तुकार के लिए करता है); और जब नोबेल पुरस्कार विजेता सॉल बेलो, जो जीवन-भर शिकागो विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाते रहे-यह कहते हैं कि साहित्य और साहित्यकार जब ज्यादा लोकप्रिय होने लगे तो समझना चाहिए कि उनकी 'आत्मा का प्रहरी कहीं चूक रहा है', तब तो यह स्पष्ट हो ही गया कि साहित्यिक पत्रकारिता या उसके प्रति रुझान या उसका संपादन-कर्म न तो कोई आसान काम है और न सबके बूते का। इसलिए अगर मैं कहूं कि यह तो हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बूते की चीज ही नहीं रही तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी; क्योंकि हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो वैसे भी प्रतिभा का भयंकर दुष्काल है। सच्चाई तो यह है कि जिस देश में ट्रकों के मालिक, या फिल्म सिटियों के मालिक टीवी चैनलों के भी मालिक हों, वहां किसी भी तरह के उदात्त साहित्य-कर्म की उम्मीद हम कैसे कर सकते हैं।


हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सबके पास पहुंचने की जो अनुदार और अनुदात्त होड़ आवारा पैसे के मोह में लगी है, उसने हमारे भीतर के सौंदर्यशास्त्रीय बोध को इतना बेरहम और बेशर्म कर दिया है कि पैसा हमारे सारे कर्मों को या सारी प्रतिभा को आँकने-समझने का मापदंड हो गया है और हमारे भीतर की सारी उदात्त और रचनात्मक आकांक्षाएं यहीं आकर दम तोड़ दे रही हैं। जाहिर है कि जहाँ सॉल बेलो वाली लोकप्रियता की आधारभूमि पर पैसे की होड़ सारी चीजों को दोयम दर्जा देने पर सशक्त रूप से आमादा हो, और कोई भी संवदेनशील शक्ति उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं पा रही है, वहां न तो साहित्य में कोई ताकत बचेगी न पत्रकारिता में। जाहिर सी बात है कि बाकी जरूरी बातों, दर्शनों की तरह ही वहां साहित्यिक पत्रकारिता भी सिर्फ एक संज्ञा होगी, उसका कोई लोकोपयोग नहीं हो पाएगा। वह चंद धन-पिशाचों की तिजोरी के आंकड़े तो बढ़ाएगी, वह मस्तिष्क पैदा नहीं करेगी जो गांधी या रूसो या टैगोर पैदा करे और हमारे सामाजिक जीवन के रेशे-रेशे में एक सकारात्मक चमक की उदात्तता तथा सौंदर्यशास्त्रीय बोध भर दे। वह तो धीरज के साथ गंदगी फैलाने का काम ही करेगी। हमारे समय में वैसे नकली चमकों की कमी नहीं है, लेकिन उसमें जीवन अनपस्थित है और उसकी शिक्षा मस्तिष्क को उदात्त बनाने में नहीं दिखती। जहां संपादकों की तनख्वाह या कमाई उनके सामाजिक स्तर का मापदंड बनेगी; वहां जो परोपकारी या उत्तम, या देशभक्त या उदार या उदात्त होगा, उस पर कई-कई प्रश्नचिन्ह लगेंगे, या लगाए जाएंगे और वह महाभारत के युधिष्ठिर, भीष्म या कर्ण जैसे सही आदमियों की तरह चौतरफा हमलों का शिकार होगा या होता रहेगा। वहीं पर इलियट का भोक्ता यानि "Sufferer" हमारे समय का 'शिकार' बन जाता है और यह बिल्कुल अनायास नहीं है कि हमारा समय सही आदमी को 'बैक-वेंचर' बनाने की हर तरकीब का इस्तेमाल धन-पिशाच बनकर कर रहा है। हम सब शिकार लोगों की हालत धीरजवाली गंदगी ने कस्तूरी मृग की कर दी है और हम गंदगी के सही स्रोतों को जान तो रहे हैं, उसे साफ करने के लिए कुछ नहीं कर पा रहे। ऐसे दारुण क्षण इतिहास में नए नहीं हैं, लेकिन इसके रूपक या मेटाफर्स इतने जालसाज हैं कि शकुनी-चालों के सामने अपने समय के सबसे उदात्त भीष्म लोग भी अपने को अवश-विवश पा रहे हैं। यह वर्ग आवारा पूंजी का मजा उसी अंदाज में ले रहा है, जिस अंदाज में तबाह होकर प्रो. लॉस्की ने कहा था : "Vulger people entertain vulgarity" यानि दोयम दर्जे का गंदा आदमी गंदगी का ही आनंद मनाता है।


इलेक्ट्रानिक मीडिया में साहित्य जो थोड़ा-बहुत है भी, वह भी इस चुटकुलेबाज नौटंकी का बेरहम शिकार है और इंटरनेट आदि पर जो साहित्य दिखता है, वह भी मार्गदर्शक कम, सामान्यजन के लिए लोकप्रियता का मनोरंजन ज्यादा है। गुलशन नंदा लोकप्रिय चाहे जितने हों, वे प्रेमचंद या अज्ञेय नहीं हो सकते - और न निर्मल वर्मा हो सकते हैं। क्या कोई मरदूद भी यह कहेगा कि 'सरस्वती' को 'मनोहर कहानियाँ' की तरह देखा-परखा जाए। कुछ विदेशों चैनलों, बीबीसी वर्ल्ड, या हिस्ट्री आदि का बेहतर साहित्य नजर आ जाता है, लेकिन हमारे चैनल इसकी आवश्यकता नहीं समझते। हमारे चैनलों में सब कुछ जबरदस्ती ह्सा हुआ नजर आता है, जबकि इन चैनलों में एक स्वाभाविकता होती है। हाल में बीबीसी पर ऐसा ही एक कार्यक्रम महान लेखक अर्नेस्ट हेविंग्वे पर देखकर अपने चैनलों की बौद्धिक दरिद्रता पर रोना आ गया। दो घंटे का यह कार्यक्रम अद्भुत था। मीडिया को वही करना चाहिए जो हमारे समय का जीवन उससे उपेक्षा रखे न कि उसे वह करना चाहिये जो वह हम पर थोपना चाहता है।


लेकिन इस सबके बावजूद स्थिति निराशा की नहीं है। इसे समय का चक्र मानकर आशावान रहते हुए अपना कर्म करने की आवश्यकता है और इकबाल की तरह अपने पर भरोसा रखने की भीः


कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी


सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जमाँ हमारा


इस पर्चे में जो बातें मैंने कही हैं, उनके लिए अनुभव और ज्ञान मुझे साहित्य और पत्रकारिता दोनों से मिला है और मैं साहिर लुधयानवी को उद्धृत करते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहता हूं : 'दुनिया ने तजुर्बात वो इवादिस की शक्ल में/जो कुछ भी दिया है उसे लौटा रहा हूं मैं।'