एक फीमेल कलाकर की पहेली - जिंदगी

फिल्म


सविता बजाज


मेरे स्नेही पाठक दोस्तों, जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ रही है। जीवन में घटी घटनाएं मन के बहुत भीतर कुलबुलाती रहती हैं कि जीवन किस लिए था। क्या पाया और क्या खोयाक्या-एक कलाकार होना अपराध है। क्या एक औरत कलाकार का जीवन इतना जटिल होता है जैसा मैंने इतना जटिल होता है जैसा मैंने जीया। सरल, संवेदनशील, सबकी मदद करने वाली कलाकार को क्या जीवन भर दुःख उठाने पड़ते हैं। प्रैक्टीकल होना मेरे स्वभाव में नहीं। न ही मैं कभी पैसा, नाम शौहरत के पीछे भागी। सब अपने आप मेरी कला की बदौलत ईश्वर ने बिना कोई गलत काम किए मेरी झोली में डाला। बचपन से जवानी और जवानी से बढापा ओढते-ओढते थक गई हैं। अभी भी न काम का सिलसिला थमा और न अवार्डों का। मैं कहीं नहीं जाती. अवार्डों वाले को भी मना कर देती हं और टीवी चैनल वालों को भी जो मेरा साक्षत्कार लेना चाहते हैं। सबको फोकट में साक्षात्कार लेना है हाय पैसा इस उम्र में भी वही पुरानी बातें।


मुझे पूरे जीवन में धरती के स्वर्ग-नर्क का भेद-भाव भी समझ नहीं आया और न ही पैदा, होने का अर्थ, समझ आया। मैं तो कहती हूं बस अच्छे से जीओ और दूसरे को जीने दो। मैं तो अपने को बचपन से धरती के लिए मिसफिट मानती हूं। जो भी कमाया अपने परायों में बांट कर खायाअगर किसी को नहीं दिया तो जबरदस्तीछीना गया। जिंदगी का सही मतलब पचास पार करने के बाद आया और जाना दोस्ती और प्यार की आड़ में सिर्फ धोखा छिपा है अपने खून के रिश्ते भी बदरंग हो गये वैसे दोस्ती तो एक तरफा होती है। फिल्म के सारे क्राफ्ट में भगवान ने मुझे भरपूर टैलेंट दिया भूले से उसका आज तक सही उपयोग नहीं हुआ और मेरी कलीग औरतें मेरे टैलेंट से खार खाती थीं। धर्मयुग में मैं बहुत लिखती थी और कभी-कभी कविताएं भी छपती। एक डोंगरी भाषा की लेखिका जलन के मारे मरी जाती और कहती यार कोई क्षेत्र तो मेरे लिए छोड़ दो। हर जगह घुसी रहती हो । बड़ी लम्बी दास्तान है। लिखती जाऊँ तो अंत नहीं।


कुछ आज की, नामी लेखिकायें अब भी किताबें, लिखती हैं विमोचन समारोहों में वाह-वाही लूटती हैं। अखबारों में फोटो छपते हैं उनके लेकिन इक्की-दुक्की को छोड़कर किसी की कहानी पर कोई फिल्म नहीं बनी। मैंने उन्हें कई फिल्म वालों से मिलवाया भी लेकिन बात नहीं बनी। उन्होंने अपनी पूरी जलन मुझ पर उतारी। वह बरसों पहले भी रेडियो पर कहानियां पढ़ती थीं आज भी पढ़ती हैं। कुछ फिल्मी औरतें मेरे पात्र बदलवा भी देती थीं यह कहकर सविता का पात्र ज्यादा अच्छा है। दूरदर्शन की एक प्रोड्यूसर महिला धर्मयुग में छपना चाहती थी, मुझे उसने टारगेट बनाया। एक दिन अपने नैपिबसी रोड वाले आलीशान फ्लैट में बुलाया। मेरे सामने ढेर सारे स्क्रिप्ट रख कर बोली मैं इन सारे प्रोग्राम में आपको लेना चाहती हूं आप बस पात्र चुनो लेकिन मेरी एक शर्त है। धर्मयुग में मेरे बारे में लम्बा चौड़ा लेख लिखना, पड़ेगाउसने मुझे एक महंगा पेन भी भेंट किया। भारती जी (संपादक) को सारी जानकारी दी तो आप हंस दिए बोले सविता बहुत भोली हो, अभी तो शुरूआत है, बेटा, वापस कर दो पेन। ऐसे बहुत खेल होते हैं जीवन में। मैंने जब उसका पैन लौटाया और असमर्थता जाहिर की तो उनका नागिन जैसा चेहरा फुकार उठा था।


निर्देशक श्याम बेनेगल की मैं पसंदीदा कलाकार थी, वह मुझे अपनी हर फिल्म में लेते। औरतें उनके आफिस भी पहुंच जाती यह कहकर कि सविता ने भेजा है। श्याम बाबू भी कभी-कभी तंग आ जाते और कहते-औरतों से थोड़ी दूरी बनाना सीखो सविता नहीं तो कला के क्षेत्र में यह लोग तुम्हें जीने नहीं देगी 'छायानट' उत्पलदत्त का लिखा नाटक में मैं शबनम के पात्र में थी। हीरोइन ने एक रोल के दौरान तीसरे एक्ट में पर्दा इसलिए नहीं उठने दिया क्योंकि मैं सुन्दर लग रही थीमैंने चेहरे का मेकअप धो डाला, कपड़े (साड़ी ब्लाउस भी गंदे पुराने पहने) तो हीरोइन को चैन आया। "लहरों के राजहंस" नाटक में भी जलन का सामना करना पड़ा। मैं ड्रामें में अलका का पात्र निभा रही थी। तब मुझ पर जली कटी बातों का बहुत असर होता था, लेकिन सुधा शिवपुरी और ओम शिवपुरी जो मेरे निर्देशक भीथे और सह कलाकर भी, उन्होंने कला का पाठ पढ़ाया कि इस क्षेत्र में तो इस बीमारी का सामना करना ही पड़ेगाजूनून' फिल्म में भी मेरे वाला पात्र मिसेज अल्का पदमसी को दिया गया और उनका मुझे यानि कि नौकरानी।


फिल्म नगरी में काम करते-करते कला की बारीकियां तो समझ में आ रही थीं साथ ही कलाकारों की ऊंच-नीच का भेद-भाव भी आ रहा था लेकिन मैं कम पैसे पाकर भी खुश भी क्योंकि मेरे टैलेंट को पहचान मिल चुकी थी, बड़े-बड़े निर्देशक मुझसे काम करवाना चाहते थे हालांकि उस जमाने में भी मेकर-गिव-एंड-टेक की बातें करते थे। मैंने हीरोइन वाले रोल छोड़ दिए थे और उनका पैसा भी लौटा दिया था क्योंकि मुझे किसी की भी मिलकियत नहीं बनना था। निर्देशक रूकमणी कौल ने मुझे इज्जत से 'उसकी रोटी' में सहनायिका का पात्र दिया था, और श्याम बेनेगल ने 'निशान्त' में पौचम्मा का। मेरा तो आज तक किसी ने अडिशन भी नहीं लिया। आजकल सीरियल वाले बच्चे ऐसा करते हैं क्योंकि बम्बई ऐम्पालयमेंट ऐक्सचेंज बन गया है। आज तक मैं फिल्म इंडस्ट्री, में अपने दम खम पर टिकी हूं मेरे पचासों साथी पुरूष थे, मेरे साथ काम करते थे और मैं आज भी सबसे हाथ मिलाकर बात करती हूं। कोई कंधे पर हाथ रखता है तो कोई स्नेह से सर पर। मैं तो पुरुष मित्रों को संगत में हमेशा अपने को महफूज समझती हूं। गुलजार साहब जब भी मिलते हैं स्नेह से गले लगाते हैं। देवआनंद साहब को भी अच्छे से जानती थी भईया कहती थी उन्हें । गोल्डी आनंद के निर्देशन में फिल्म 'हम तीनों' नवकेतन की फिल्म थी। मेरे साथ राज बब्बर और हेमा मालिनी थे। तीन-चार दिन की शूटिंग के बाद फिल्म बंद हो गई लेकिन सेट पर बहुत इज्जत मिलती थी। देवआनंद का बेटा सुनील फिल्म का प्रोड्यूसर था। देव साहब जब भी मिलते-कैसी है मेरी पगली बहना। पचासों से दोस्ती रही अलग-अलग किस्से हैं। मैं के.ए. अब्बास साहब को बहुत पसन्द करती थी राजकपूर की सारी फिल्में लिखी फिर भी छोटी सी काली गाड़ी में घूमते।


वह एक शरीफ इंसान थे, मैं उन्हें अपना मार्ग दर्शक भी मानती थी और दोस्त भी। उनके बारे में खूब लिखा और रेडियो पर भी साक्षात्कार किया। मैं अक्सर आपा से मिलने इनके जह वाले घर जाती। अपनेपन का अहसास होता था अब्बास साहब की संगत में, जब भी मिलते पछते-अभी कहां स्टग्ल करने जाना है, अपनी काली खटारा गाडी में बिठा जहां कहती छोड देते। वह सनहरा यग था हम दोनों की पवित्र दोस्ती थी, एक-दूसरे का साथ अच्छा लगता था। खब बतियाते थे। उन्होंने मझे कभी छूने की कोशिश भी नहीं की, मुझे आज भी उनकी बहुत याद आती है। आज मैं सत्तर पार कर चुकी हूं पहले जैसी बात नहीं। बुजुर्ग कलाकार की कोई इज्जत नहीं पीछे मुड़कर देखती हूं तो सब धुंधला नजर आता है अच्छे पुरुष मित्रों की बहुत याद आती है कुछ भगवान को प्यारे हो गये।


औरतों को भूलना चाहती हूं, बहुत कटु यादें हैं। सीना छलनी कर दिया। कड़वे बोल, बोल-बोलकर, भूल गई अपनी मर्यादा 'कथा बिंब' में बहुत लिखती थी, लेखिकाओं को यह बात हजम नहीं हुई। ऐक्सीडेंट के बाद कथाबिंब छोड़ दिया। जलन के मारे मरी जाने वाली औरतों के साये से भी दूर हो गई। एक लेखिका जिसे मैं बरसों से जानती थी दिल्ली से फोन कर बोलीं-मालूम न था तुम इतना बढ़िया भी लिख लेती हो। तुम तो जीते जी अमर हो गई। एक और है, नामी स्वचरित्र अभिनेता की बूढ़ी पत्नि, बरसों से लेखन के क्षेत्र में हैं लेकिन फिल्म के लिए एक भी कहानी नहीं बिकी' । एक दिन बोली तुम एक कहानी बिकवा दो, बदले में रोल दिलवाऊँगी, लानत है ऐसी दोस्ती पर मैं अपनी राह चल दी।


 लेखिका अचला नागर से कभी दोस्ती हुई थी, बहुत बढ़िया औरत है। हमारी दोस्ती आठ-दस साल अच्छी निभी बाद में किसी गलत फहमी की वजह से दोस्ती खत्म हो गई। उन्होंने मुझे बहुत स्नेह और आदर दिया। बड़ी-बड़ी फिल्में लिखने के बाद भी अचला जी एक बड़ा मुकाम नहीं बना सकी, न उच्चाइयों को छू सकी, इस्मत चुगताई की तरह, कौन जाने ऐसा क्यों हुआ।


आज ढ़लती उम्र में अकेली जिंदगी बसर करती हूँ, पहले भी अकेली रहती थी लेकिन अपने पराये मतलब के लिए मुझे घेरे रहते थे। अपने अकेले का बोझ अपने कंधों पर लादे अपनी कलम से बात करती रहती हूं मेरी कलम मेरी सच्ची साथी है, मेरी अनमोल मित्र है जो मुझे जीने को प्रेरित कर आप तक पहुंचाती है