दलित आंदोलन के संदर्भ में रैदास की रचनात्मकता

आलेख


डॉ.सेवाराम त्रिपाठी


रैदास के बारे में विचार करना, उनके युग के बारे में, उनकी दार्शनिक प्रपत्तियों, जीवन संघर्षों और उनके समय की जटिलताओं को समझना बहुत सरल कार्य नहीं है। संत रविदास को ज्यादा बेहतर तरीके से रैदास के रूप में ही पहचाना जाता है। वे बिना पढ़े-लिखे कहे जाते हैं, लेकिन मध्य युगीन भक्ति साहित्य में उनका प्रभाव, प्रसिद्धि और महत्व का रेखांकन निरन्तर होता रहा है। भक्ति आंदोलन और निर्गुण भक्ति धारा में कबीर के बाद उनका विशेष दर्जा है। अनेक संग्रहों में उनकी रचनाओं का संकलन हुआ है। राजस्थान के हस्तलिखित ग्रंथों में उनकी वाणियां पाई जाती हैं। अभी तक उन पर धर्मपाल सैनी की रैदास की बानी, अनंतदास की रैदास परचई (संपादक-शुकदेव सिंह) संत रविदास और उनका काव्य-रामानंद शास्त्री, संत रैदासः व्यक्तित्व और कृतित्व-संगम लाल पाण्डेय, संत रविदास की भक्ति भावना (विश्व भारती प्रकाशन, चंडीगढ़) संत रविदास का निर्गुण सम्प्रदाय-डॉधर्मवीर, संत रविदास विचारक और कवि-डॉ. पद्म गुरुचरण सिंह, संत सुधासारवियोगी हरि जैसी पुस्तकें प्रकाशित हैं। रविदास की ख्याति का आधार कविता के साथ उनका संत होना भी है। रैदास की बानी के संबंध में नाभादास की यह पंक्ति विशेष रूप से प्रसिद्ध है- "संदेह ग्रंथि खण्डन, निपुन बानि विमल रैदास की।"


संतों की बाणियों का संकलन करने वाले वियोगी हरि का मानना है कि"महात्मा रैदास की बड़े ऊंचे घाट की बानी हैप्रेम पराभक्ति का कई शब्दों में बड़ा ही विशद निरूपण उन्होंने किया है। समता और सदाचार पर बहुत बल दिया गया हैभक्ति रस का ऐसा सुन्दर परिपाक अन्यत्र कम देखने में आता है। खंडन-मंडन की ओर उनका ध्यान नहीं था। सत्य की शुद्ध निर्मल अभिव्यक्ति ही अपरोक्षानुभूति उनका परम ध्येय था। भाषा ने भी भाव का मूक अनुसरण किया है। अनेक जनपदों के शब्दों का उनकी वाणी में समावेश हुआ है।" (संत सुधा सार, पृष्ठ-179)


इधर के वर्षों में उन्हें रैदास के बरक्स रविदास के रूप में प्रचारित करने के उद्यम हो रहे हैं। जूते सीते-सीते ही उन्होंने ज्ञान भक्ति का ऊंचा पद प्राप्त किया और अपनी वाणी के द्वारा मध्य कालीन भारतीय समाज के पाखण्डों का जोरदार खंडन किया है। ऐसा इसलिये संभव हो सका कि रविदास समाज से जो अनुभव प्राप्त करते हैं और समाज के जिन हाहाकारों, उत्पीड़नों को देखते हैं; उसे बिना किसी परहेज के अपने शब्दों में अभिव्यक्ति करने की कोशिश करते हैं। उनकी वाणियों में केवल भक्त हृदय का उल्लास भर नहीं हैं बल्कि सामाजिक विडम्बनाओं, छुआछूतों और आडम्बरों का जलता हुआ लावा भी है। वे भक्ति में संपूर्ण समर्पण के पक्षधर हैंअपने भावों को सहज ढंग से संप्रेषित करना उनकी कहन की, शैली की विशेषता हैएक उदाहरण देखें-


"तू मोहि देखें हौं तोहि देखौं, प्रीत परस्पर होइ।


तू मोंहि देखें तोहि न देखौं, यह मति बुधि सब खोई।।


सब घटि अंतर रमसि निरंतर, मैं देखन नहिं जाना।


गुन सब तोर मोर सब औगुण, कृत उपकार न माना।।


मै तैं तोरि मोरि सुसमझि सों कैसे करि निस्तारा।


कहि रैदास कृष्न करुणामय, जै जै जगत अधारा।।"


उनकी भक्ति में ताप नहीं बल्कि एक तरह की निर्मल शांति, सद्भाव और सहिष्णुता के भाव प्रसंग ही दिखाई पड़ते हैं। उनकी रचनाशीलता में दुःख, दैण्यआत्म निवेदन के रंग की छटायें बिखरी हुई हैं। इसमें पश्चाताप के धूसर रूप भी सहजता से प्राप्त होते हैं। ऐसा लगता है कि उन्होंने अपना हृदय ही उड़ेलकर रख दिया है-


"हरिसा हीरा छांडि कै, करै आन की आस,


ते नर जमपुर जाहिगे, सत भाषै रैदास।


जा देखे घिन ऊपजै, नरक कुण्ड में बास,


प्रेम भगति सो उन धरे प्रगटत जन रैदास।।"


रैदास के जीवन के बारे में उनके जीवन संघर्षों के बारे में जो अनुशृतियां हैं वे उन्हें अत्यन्त गरीबी में पला हुआ और सीधा सच्चा होने के कारण घर से अलग किये जाने के वृतान्तों से जोड़ती है। कुछ विद्वानों ने इन्हें रामानंद का शिष्य तथा कबीर का समकालीन मानने का प्रयास किया है। गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार "नामदेव, कबीर, तिरलोचन साधना सैन तरे/निर उनको गुन देखो आई देही सहित कबीर सिधाई।" संत रैदास कबीर के समकालीन नहीं माने जा सकते क्योंकि कबीर जब अपनी प्रसिद्धि पर थे तब इनकी साधना के चित्र दृष्टि गोचर नहीं होते। मीराबाई के पदों में रैदास के गुरु मानने के साक्ष्य मिलते हैं- "गुरु मिलिया रैदास जी दीन्हीं ज्ञान की गुटकी रैदास संत मिले मोही सतगुरु दीन्हा सुरत सहदानी" और ऐसी अनेक किवदंतियां प्रसिद्ध हैं। रैदास की भक्ति में पराधीनता के लिये कोई स्थान नहीं है। पराधीनता के बारे में वे बहुत निश्चयपूर्वक विचार करते हैं। जो पराधीन है वह दीन है। वे संघर्षहीनता में धर्म नहीं देखते बल्कि आदमी का मुख्य काम संघर्षशीलता ही बताते हैं। यदि आदमी संघर्षशील नहीं है तो वह निश्चय ही पराधीन है उसकी विकास प्रक्रिया बाधित होती है-


"पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत


रैदास दास पराधीन सों कौन करै है प्रीत


पराधीन का दीन क्या, पराधीन बेदीन


रैदास पराधीन का सबैही समझे हीन।।"


संत परम्परा में ज्ञान का महत्व सर्वविदित है। संत परम्परा नहीं समूचे भक्तिकाल में ज्ञान को अनेक सरणियों में देखने परखने को उद्यम किये गये हैं। रैदास ने लिखा-


1. नाम मूल है ज्ञान को नाम मुक्ति कौ दरबार


जो हृदय हरि बसै परहिं न बयौ पार।।


2. रैदास सत्य के आसर सदा सुख पाये


सत्य ईमान न छांडिये, जग जाये तो जाये।।


रैदास जी के विश्वास की यह पराकाष्ठा है कि सत्य, ईमान हरगिज न छोड़िये जग चला जाये तो चला जाये। जिसको जो कहना है कहता रहे अपनी टेक मत छोडिये क्योंकि सत्य का ज्ञान वास्तविक ज्ञान है। सत्य को जाने बिना आदमी अनजान रहता है।


"सत्य विद्या को पढ़े सदा प्राप्त करो ज्ञान।


रैदास कहे बिन विधा नर को जान-अनजान।।"


रैदास जी की वाणियों में गुरु का बहुत महत्व है, ऐसा नहीं है कि अकेले उनके यहाँ गुरु के महत्व का प्रतिपादन किया है। कबीर के यहां, मीरा के यहां इसे विस्तार से देखा जा सकता है। संत भक्तों की समूची परम्परा में इसके प्रमाण लगातार मिलते रहे हैं-


"गुरु ग्यान दीपक दिया बाती दई जलाय।


रैदास गुरु ग्यान चाशु बिना, किमि मिटई भ्रम फंद।।"


बिना गुरु के बिना उनकी सीख के संसार के भ्रम और माया के सभी आवरण खत्म नहीं होते। वे अपने विवेक से ईश्वर, धर्म, भक्ति, पूजा, तप-जप का खण्डन करते हैं। उन्हीं के शब्दों में-


"रैदास न पूजह देहरा, अरु न मसजिद जाय।


जह तहँ ईस का बास है तहँ तहँ सीस नवाय।।"


रैदास की सोच प्रणाली में व्यवहारिक जीवन की प्रविधियां मौजूद हैं, व्यक्ति के चरित्र की उच्चता को कैसे पहचाना जाय। जीवन में जन्म से अधिक कर्म का महत्व है क्योंकि कर्म के द्वारा ही मनुष्य का आचरण निर्धारित होता है- यह एक ऐसा सत्य है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है।


"रैदास जन्म के कारन होते न कोउ नीच


नर कँ नीच करि डारि है ओछे करम की कीच


रैदास सुकरमन कारन सौं नीच ऊँच हो जाय


करई कुकरम जौ ऊँच भी तो नीच कहलाय।"


रैदास जीवन की व्यवहारिकता की बात करते हैं। जाति में जन्म लेने से कोई महान नहीं बनता। व्रत करने पूजा करने तिलक लगाने और माला फेरने से भी कुछ नहीं होता बल्कि यदि कुछ संभव है तो जीवन के रास्ते से जाना जीवन की गतिविधियों सही ढंग से पहचानना और उनको अपने व्यवहार और आचरण में ढालना। जाति महत्वहीनता के परिप्रेक्ष्य में यह महत्वपूर्ण टिप्पणी है जिसे गौर से देखा जाना चाहिये-


"रैदास जन्म के कारने होत न कोउ नीच।


नर नीच करि डारि है ओछे करम की कीच।


जात जात में जात है ज्यों केलन में पात


रैदास न मानुष जुड़ि सकै जौं लौं जात न जात।"


रैदास ने श्रम के महत्व को स्वीकार करते हुये लिखा है-


"श्रम को ईश्वर जानि कै, जो पूजै दिन रैन


रैदास तिनि संसार मा, सदा मिले सुख चैन।"


इसी तरह वे सम्यक आजीविका पर जोर देते हैं। ऐसी आजीविका जिसमें हम अपने पारिवारिक दायित्वों को सही ढंग से निर्वाह कर सकें-


"ऐसा चाहौं राज मैं, जहाँ मिले सकन को अन्न।


छोट बड़ी सब समन बसें, रविदास रहे प्रसन्न ।।"


वे सभी मतमतांतरों के एक होने की बात कहते हैं, इसी से जीवन सहज सौम्य और उन्मुक्त रह सकता है अन्यथा जीवन में अनेक तरह की गांठें पड़ सकती हैं-


"रैदास हमारा राम जी, सोई है रहमान।


काशी-कावा जान नहिं, दोनों एक समान।।


मुसलमान सों दोस्ती, हिन्दुओं के कर प्रीत।


रैदास जाति सम राम की सभी हमारे मीत।।"


निर्गुण संतों की एक बड़ी विशेषता इस रूप में भी पहचानी जाती है कि उन्होंने घर गृहस्थी छोड़कर जंगल में धूनी रमाने और भजन करने के स्थान पर अपने घर में रहते हुये अपने श्रम के कार्य करते हुये जीवनयापन की बातें कही हैं। मेरी समझ में यह जीवन की व्यवहारिकता का अद्भुत गुण है। इन्द्रराज सिंह ने लिखा है कि-


"इन संतों ने कभी भी घर छोड़कर वन या एकांत में जाकर तपस्या करने को ठीक नहीं कहा है। प्रत्युत सत्संग भजन और कीर्तन आदि में दत्तचित्त में होकर मन को एकाग्र करने का साधन बताया है, जिनमें स्मरण प्रमुख है।" (संत रविदास-पृष्ठ 29)


संत परम्परा में सहज साधना और सहज समाधि की बात की जाती है-


"चलत-चलत मेरो मन थाक्यों, मौपै चल्यों न जाई,


साई सहज मिलयो सोई सन्मुख कह रैदास बताई।"


जीवन की असारता के बारे में भी रैदास कहते हैं-


"रैन गंवाई सोइ कै, दिवस गंवायो सोह रे।


हीरा यहु तन पाइ कै कौड़ी बदले जाई रे।।


साधु संगति पूंजी भई रे, वस्तु लई निरमोल रे।


सहज बरधवा लाद कर, चहं दिस टॉडो डोल रे।।


जैसा रंग कसंब का तैसा यह संसार रे।


रमइया रंग मजीठ का कह रैदास चमार रे।।"


रैदास के बारे में अनेक तरह से विचार हुआ है। उनकी कविता पर, उनकी भक्ति पद्धति और वैराग्य पर उनकी दार्शनिक प्रवृत्तियों पर उनके व्यवहारिक जीवन सन्दर्भो के बारे में लेकिन विगत 30-35 वर्षों से दलित आंदोलन की व्याप्ति के प्रसंग में भी उन पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। तेह सिंह ने दलित पुनर्जागरण और रैदास के बारे में कुछ निष्कर्ष निकाले हैं। "कबीर दलित पुनर्जागरण के पहले बड़े कवि हैं तो रैदास दूसरे बड़े कवि हैं। बाकी सभी संत दलित कवि भी दलित पुनर्जागरण के ही कवि हैं जो सगुण-सवर्ण चिन्तन परम्परा के समानांतर निर्गुणदलित चिन्तन परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। ...विचारों और मतों की इसी विद्रोही और विरोधी परम्परा में दलित संतों की निर्गुण काव्य धारा में दलित पुनर्जागरण का सशक्त स्वर सुनाई दिया।" (श्रमण परम्परा और गुरु रैदास-पृष्ठ 70)


करतार सिंह ने अपने एक लेख में रैदास को साम्यवाद के अग्रदूत के बारे में पहचानने का प्रयत्न किया है। बेगमपुरा आनंदधाम की अवधारणा है जिसमें वर्गहीन समाज का चित्रण किया गया है। बेगमपुरा न केवल अपराध, भय व पीड़ा से ही मुक्त है, विषमता से भी पूर्ण तथा रहित है। वहां सब समान हैं। कोई पहला, दूसरा या तीसरा नहीं है। रैदास जी के यहां बेगमपुरा दरअसल एक फेन्टेसी या यटोपिया हैवह बेगमपुरा लोक जीवन से आया हुआ एक स्वप्न है, जो अपने तई वर्णाश्रम व्यवस्था के खिलाफ नया रूप धारण कर आया है। परुषोत्तम अग्रवाल ने कबीर के परिप्रेक्ष्य में जो कहा है, उसे एक विशेष संदर्भ में रैदास और इन्हीं जैसे संतों के बारे में मान्य किया जा सकता है। पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में- "कबीर की कविता सपना देखती है, ऐसे अमरलोक का जिसमें मनुष्य की मनुष्यता ही महत्वपूर्ण है। कबीर के देखे सपने में न ब्राम्हण है, न क्षत्रिय, न सैयद, न शेख है, न शूद्र है, न वैश्य । कबीर का सपना न तो सामाजिक मुक्ति तक सीमित है न आध्यात्मिक मुक्ति तक। उनके सपने में ये दोनों मुक्तियां एक-दूसरे का विरोध नहीं पोषण करती हैं।" (अकथ कहानी प्रेम की-कबीर की कविता और उनका समय-पृष्ठ 407)


"बेगम पुरा सहर की नाउँ, दुख अन्दोह नहीं तेहिं ठाऊँ। ?


न तस वीस खिराजु न माल खौफन खता न तरस जुबाल।।


काइम दाइम सदा पाति साही दोम न सेम एक सौ आही।


आवादान रहम औजूद जहां गनी आप उसै मावूद।।


जोइ सैल करै सोई मावै, हरम महल ताको अटकावै।


कहि रैदास खलास चमारा, जो हम सहरी सो मीत हमारा।"


रैदास की कविता में तत्वज्ञान एवं चिन्तन भूमि में भक्ति के रूप रंग और रहस्य तो हैं ही समाज को आगे ले जाने और सहज ढंग का जीवन जीने की आकांक्षा भी है और एक विराट सपना भी। जाहिर है कि रैदास की जनजीवन से सम्बद्धता रही है। उनकी कविता में जनजीवन का यथार्थ और उसका बहुआयामी चित्रण मिलता हैं। अपनी कविता के मार्फत वे अपनी समाज संबद्धता की घोषणा भी करते हैं और सामाजिक जटिलताओं की तह में जाकर उनके सपने तोड़ने का प्रयत्न भी करते हैं। वे एक ऐसा समाज रचने का स्वप्न देखते हैं, जिसमें आडम्बर रूढ़ियां और गैरबराबरी न होंउनकी आदर्श समाज संरचना खोखले मूल्यों को अस्वीकृत करती है। उन्हीं के शब्दों में-


"सब में हरि हैं, हरि में सब हैं हरि अपने निज जाना।


अपने आप साख नहिं दूसरे जानैं जानन हारा।।"


रैदास के काव्य में लोक जीवन के दुःख दर्द हैं एवं इन दुःखों से मुक्ति की आकांक्षा के विराट स्वप्न भी हैं। भक्ति आंदोलन के व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनकी कविता और उनका चिन्तन महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकने की सामर्थ्य रखता है। समूचे लोक को मुक्त करने का एक प्रयास है। उनकी कविता और यही उनकी सबसे बड़ी ताक़त है। रैदास की बानियों में जनता के सरोकार हैं और ये सरोकार वाचिक परम्परा एंव पदों के द्वारा लिखित परम्परा के रूप में लोक में विस्तार पाकर जनजागृति की अकूत क्षमता भी रखते हैं। यही उनके काव्य की एवं उनके चिन्तन भूमि का एक अनोखा पक्ष है। जिसका महत्व दिनों दिन बढ़ता जायेगा।