बस्ती बरहानपुर

उपन्यास अंश


रूपसिंह चन्देल


भानुप्रताप सिंह के फ्लैट में आठ सदस्य एकत्रित हुए। तीन तब भी नहीं पहुंचेन पहुंचने वालों में सदाकत अली, शंभूनाथ शुक्ल और अब्दुल सत्तार थे। सदाकत अली ने कहा कि उसे दफ्तर जाना होगा, क्योंकि सैनिकों की ड्रेस तैयार करने का काम अधिक है। पूर्वी पाकिस्तान में मुक्तिवाहिनी और पाकिस्तानी सैनिकों के बीच जंग छिड़ी हुई है। पाकिस्तानी सैनिक जिस प्रकार मुक्तिवाहिनी के युवाओं,बुद्धिजीवियों, और आम जन का संहार कर रही थी, उससे भारतीय सेना को सतर्क रहने के लिए कहा गया था। युद्ध हो सकता था। सेना के लिए हर तरह की तैयारी के लिए रक्षा विभाग के सभी विभागों में काम बढ़ गया था।


अब्दुल सत्तार खां घण्टाघर के एक धर्मकांटा में मैनेजर थे। घंटाघर से जरीब चौकी को जाने वाली रोड पर एक सरदार जी का धर्मकांटा थाअब्दुल सत्तार सुबह नौ बजे अपने काम के लिए निकल जाते थे और शाम छ: बजे लौटकर ब्लॉक एक के सामने ब्लॉक सात में दस नंबर फ्लैट में अपना क्लीनिक चलाते थे। उनके पास डाक्टरी की कोई शिक्षा नहीं थी, लेकिन वह बस्ती बरहानपुर कॉलोनी बसने के साथ वहां आ गए थे और तभी से उसी फ्लैट में उनका क्लीनिक खुल गया था। नौकरी वह तब भी उसी धर्मशाला में करते थे और शाम पांच बजे वहां से निकलकर क्लीनिक में आ बैठते थे। वह पांच फुट सात इंच के गेहुंआ रंग, भरे शरीर, गोल भरे गाल और बड़ी आंखों वाले लगभग चालीस साल के व्यक्ति थे। हर समय उनके मुंह में पान रहता और बात करते समय वह कुछ गुड़गुड़ की आवाज निकालते बोलते थे। सुनने वाले को अधिक असुविधा होती तब क्लीनिक से बाहर निकल बारह नंबर फ्लैट के बगल में खाली पड़ी जगह में पीक थूक आते थे। उस ब्लॉक के पीछे कॉलोनी की दीवार थी और उस ब्लॉक के नीचे रहने वाले लोगों ने बकरियां पाल रखी थीं उन्हें बांधने के लिए दीवार के साथ खूटे गाड़ रखे थे। बकरियों को धूपबरसात से बचाने के लिए दीवार के आगे बांस या लोहे की मोटी रॉड गाड़ और दीवार पर कीलें ठोंक तिरपाल डाल लिया था। चार नंबर फ्लैट में रहने वाले भगवानदीन ने भैंस रखी हुई थी और उसने एस्बसटेस की शीट्स डाल पुख्ता इंतजाम कर लिया था।


उसी ब्लॉक के साथ रेलवे कॉलोनी की ओर जाने का रास्ता था और उस रास्ते से उतरते ही सड़क और सड़क और दीवार के बीच कुंआ था, जिसका पानी तभी प्रयोग में लाया जाता था जब जल बोर्ड का पानी नहीं आता था। बस्ती के लोगों में अब्दुल सत्तार खां डॉक्टर साहब के नाम से जाने जाते थे। कम लोगों को उनका नाम ज्ञात था। उन्होंने क्लीनिक के बाहर कोई बोर्ड भी नहीं लगाया था, क्योंकि अब्दुल सत्तार यह जानते थे कि बिना डिग्री दवाखाना चलाना अपराध था और पकड़े जाने की सजा उन्हें मालूम थी। लेकिन उस फ्लैट के कमरे में एक डॉक्टर जैसी पूरी व्यवस्था थी। मरीज को लेटाकर देखने के लिए बेड था और उस समय के लिए हरे पर्दे की ओट की भी व्यवस्था थी। अपने सहयोग के लिए उन्होंने एक लड़का भी रखा हुआ था, जो कंपाउंडर का काम करता था। बस्ती के बहुत से परिवारों के मरीज प्रांरभिक इलाज के लिए अब्दुल सत्तार खां की ही सेवाएं लेते थे। कभी किसी के फ्लैट में जाना होता तब वह गले में स्टेथोस्कोप लटकाकर जाते थे। प्राय: वह सफेद पैंट पहनते, लेकिन शर्ट किसी भी रंग की होती। जाड़े के मौसम को छोड़कर वह आधी बांह की शर्ट पहनते थे और उसे ऊपर खुली रहने देते थे।


इंटरमीडिएट करने के बाद अब्दल सत्तार आगे पढ़ नहीं पाए थे। वालिद बीमार रहने लगे थे। घर में दो छोटे भाई थे और एक बहन। सबकी जिम्मेदारी अब्दुल सत्तार पर आ पड़ी थी। सुतरखाना में उनका छोटा-सा मकान था। पिता उसी धर्मकांटा में काम करते थे, लेकिन मैनेजर नहीं थे, क्योंकि वह पांचवीं ही पास थे। उनके बीमार होने और उसी वर्ष अब्दुल सत्तार के इंटरमीडिएट कर लेने से उनके पिता ने धर्मकांटा मालिक से अपनी जगह बेटे को नौकरी पर रखने के लिए कहा था। प्रारंभ में अब्दुल सत्तार छोटे काम करते रहे। एक वर्ष बीतने से पहले ही वहां का एक मैनेजर नौकरी छोड़ गया और उसके स्थान पर अब्दुल सत्तार को नियुक्ति मिल गयी थी। उनकी नौकरी शिफ्ट में थी। उस धर्मकांटा में तीन मैनेजर थे। लेकिन अब्दुल सत्तार ने रात या दिन की ड्यूटी करने के लिए मालिक को तैयार कर लिया था, क्योंकि वह कुछ और भी करना चाहते थे। धर्मकांटा की कोरी तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं होता था। भाइयों को व्यवस्थित करना था और बहन की शादी करनी थी। सरदार जी ने उन्हें लाजपत नगर के एक डॉक्टर के क्लीनिक में कंपाउण्डर का काम दिलवा दिया। धर्मकांटा से छूटकर साइकिल दौड़ाते अब्दुल सत्तार लाजपतनगर जाते और रात दस बजे क्लीनिक बंद होने के बाद लौटते । दस वर्ष उन्होंने वहां काम सीखा और अपने को कुशल कंपाउंडर ही नहीं डाक्टर मान बैठे। इस बीच बहन के अलावा अपने से छोटे भाई का विवाह किया और छोटे भाई को विशाल मोटर्स में मोटर मैकेनिक के प्रशिक्षण के लिए रखवा दिया। उसका मालिक भी लाजपत नगर में रहता था और उस डॉक्टर की क्लीनिक में आता था। उस जान-पहचान का लाभ उठाया था अब्दुल सत्तार ने। पिता की मृत्यु के बाद जब अपने से छोटे भाई के साथ प्रॉपर्टी को लेकर विवाद प्रारंभ हुआ, उन्होंने सुतरखाना का मकान छोड़ बस्ती बरहानपुर की उस कॉलोनी के ब्लॉक दस में फ्लैट खरीद लिया था। उनके अपने परिवार के अलावा मां और छोटा भाई उनके साथ रहने आ गए थे। वहां शिफ्ट होने के बाद अब्दुल सत्तार ने अपना क्लीनिक खोला और उस बस्ती वालों के लिए डॉक्टर अब्दुल सत्तार हो गए थे। उन्होंने अपना कोई लेटर हेड नहीं छपवाया था। कागज के छोटे टुकड़ों में दवाएं लिखते थे और कंपाउण्डर को पकड़ा देते थे। छोटे भाई के लिए उन्होंने रकाबगंज चौराहे के पास एक छोटी-सी दुकान किराए पर लेकर ऑटो वर्कशॉप खोलवा दिया था, जो बहुत अच्छा चल निकला था. उनका छोटा भाई हुनरमंद था और वह ठीक होने के लिए आई ग्राहक की मोटरसाइकिल का ट्रायल लेने के बहाने बस्ती के कई चक्कर लगाता था। कपड़े वह मोबिल आयल और ग्रीस लगे काले ही पहनता था। अब्दुल सत्तार की अपेक्षा वह एक इंच और लंबा था और चौबीस साल का हट्टा-कट्टा जवान था। अपने ब्लॉक के रमजानअली की बेटी सुरैय्या के साथ उसकी आंख मिचौली चल रही थी और उसीके लिए दिन में वह उधर आता था। उसकी भाभी इस राज को जानती थीं और एक दिन देवर से कह भी चुकी थीं कि वह कहे तो भाईजान को कहकर रमजान अली से बात की जाए, लेकिन अब्दुल सत्तार के भाई अब्दुल नसीर ने हंसकर टाल दिया था, "भाभी आप कुछ ढंग की बात सोचा करो।"


"इसमें बेढंगी बात क्या है? मैं जानती हूं कि तुम उसे लेकर मन में लड्डू फोड़ रहे हो। उसके लिए दिन में कम से कम दो बार बस्ती के चक्कर लगाते होगाड़ी का ट्रायल लेने के लिए बस्ती के अंदर चक्कर लगाना होता है... "विदवईनगर की सड़कें संकरी पड़ती हैं।"


"मैं किसी के लिए चक्कर नहीं लगाता।"


"ठीक है, आज मैं तुम्हारे भाई जान से बात करूंगी।"


अब्दुल नसीर हाथ जोड़ कहता, "भाभी आप समझदार हैं। भाईजान से मत कहना। कोई बात नहीं है, लेकिन...।"


 "मैं जानती हूं...जो बात है। लेकिन नहीं कहूंगी-जा दौड़कर मेरे लिए एक पान लगवा ला।"


अब्दुल नसीर दौड़कर पान लगवा लाता तब उसकी भाभी कहती, "लाला, रमजान की लड़की तेरे लायक नहीं है। लेकिन मैं जल्दी तुम्हारी शादी का इंतजाम करवाउंगीं।"


अब्दुल नसीर कुछ न कहकर सीढ़ियों की ओर दौड़ जाता वर्कशॉप जाने के लिए।


मीटिंग वाले दिन अब्दुल सत्तार की ड्यूटी थी। वह नहीं आए। सदाकत अली भी नहीं पहुंचा। वह सुबह ही भानुप्रताप सिंह के घर बताने गया था, क्योंकि ओवर टाइम करने के कारण वह रात देर से घर पहुंचा था और उसके सुपरवाइजर ने उसे रविवार को भी काम पर आने के लिए कहा था।


शंभूनाथ शुक्ल ने भी सुबह आकर बताया था कि उनकी बेटी के स्कूल में उस दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम है। कार्यक्रम सुबह दस बजे से दोपहर दो बजे तक होना थाउनकी बेटी भी गायन में भाग ले रही थी। उन्हें और पत्नी को वहां जाना आवश्यक था।


शंभूनाथ शुक्ल ने भी सुबह आकर बताया था कि उनकी बेटी के स्कूल में उस दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम है। कार्यक्रम सुबह दस बजे से दोपहर दो बजे तक होना थाउनकी बेटी भी गायन में भाग ले रही थी। उन्हें और पत्नी को वहां जाना आवश्यक था।


शंभूनाथ शुक्ल के एक बेटी ही थी, जो उन दिनों आठवीं में पढ़ रही थी रेल बाजार के एक सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय में। शुक्ल तारकनाथ श्रीवास्तव के साथ नौकरी करते थे और वह भी क्लर्क थे। सुल्तानपुर के रहने वाले थे। उन्होंने वीएसएसडी कॉलेज से बी.ए. किया था और एम्प्लायमेंट एक्सचेंज के माध्यम से सीओडी में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गए थे। जबकि तारकनाथ श्रीवास्तव इलाहाबाद के रहने वाले थे और शंभूनाथ शुक्ल के बैच में ही उनका भी चयन हुआ था। दोनों ने ही बस्ती बरहानपुर में फ्लैट खरीदे थे। उससे पहले दोनों लाल बंगला में एक ही मकान में किराएदार थे। वहां से आना-जाना अधिक दूर नहीं था, लेकिन ऑफिस के निकट रहने का लालच उन्हें वहां खींच लाया था। शक्ल की बेटी तब हरिजन्दर नगर के एक सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ती थी, लेकिन वहां भेजने का कोई साधन नहीं था, इसलिए उन्होंने उसे रेल बाजार में प्रवेश दिलाया थावहां के लिए असविधा न थी। काठ के पुल से रिक्शा लेकर रेलबाजार और वहां स्कूल तक पैदल और उसी प्रकार वापस। तारकनाथ की एक बेटी और एक बेटा थे। बेटी शंभूनाथ शुक्ल की बेटी से एक वर्ष छोटी थी और उसी के साथ उसी विद्यालय में पढ़ती थी। जबकि बेटा बेटी से पांच वर्ष छोटा था और वह भी उसी विद्यालय में पढ़ता था।


भानुप्रताप सिंह के फ्लैट में लोगों ने साढ़े दस बजे के बाद आना शुरू किया। ग्यारह बजे सभी आठ लोग एकत्रित हुए। सबसे पहले आने वालों में चौहान साहब थे और सबसे बाद में उपाध्याय । उपाध्याय के आने से पहले सभी उनके विषय में चर्चा कर रहे थे। “शादी को लंबा समय बीत गया लेकिन मिसेज उपाध्याय से अलग होने का उनका मन नहीं करता।" वीएस चौहान बोले, "पता नहीं बंदा दफ्तर कैसे जाता है.. वहां भी मन लगता है कि नहीं।"


श्रीवास्तव ने ठहाका लगाया, "रमानाथ का वश चले तो श्रीमती जी को दफ्तर साथ लेकर जाएं।"


 "कुछ लोगों की आदत होती है-बीबियों को दोष देना सही नहीं श्रीवास्तव जी।" सनाउल्ला खां ने कहा, "और अभी कौन-सा दस साल हुए शादी को...तीनचार साल हुए होंगे। बच्चे भी तो नहीं उनके। बच्चे होने के बाद सब बदल जाता है। बीबी के पास समय नहीं रहता तब अपने शौहर के लिए...।"


"कुछ लोग समय के पांबद नहीं होते।" भारतीय समय' की बात यूं ही नहीं कही जाती।' भानुप्रताप सिंह ने कहा, "नौकरी से निकाले जाने का भय न हो तो उपाध्याय दफ्तर भी कम से आध घण्टा देर से पहुंचे।"


"कुछ लोग समय के पांबद नहीं होते।" भारतीय समय' की बात यूं ही नहीं कही जाती।' भानुप्रताप सिंह ने कहा, "नौकरी से निकाले जाने का भय न हो तो उपाध्याय दफ्तर भी कम से आध घण्टा देर से पहुंचे।"


“यही बात है। यह देर दबार से पहुंचने की आदत है।"


"मैं एक दिन का किस्सा सुनाता हूं।" भानुप्रताप सिंह ने बताना शुरू किया"इसी जून माह में मुझे एक आवश्यक काम से एक संडे गुमटी नंबर पांच जाना थाउपाध्याय से चर्चा कर दी। बोले,' मुझे भी दर्शनपुरवा जाना है ठाकुर साहब।' सुबह नौ बजे चलना तय हुआ। तो साहब मैं ठीक नौ बजे तैयार होकर उपाध्याय महाराज की प्रतीक्षा करने लगा। पन्द्रह मिनट बीते, फिर आध घंटा...आखिर रहा नहीं गया तो सीढ़ियां चढ़कर ऊपर गया। पता चला भाई साहब स्नान कर रहे थे। मैं सिर पीटता लौटकर चारपाई पर उस क्षण को कोसता लेट गया जब उनसे इस बारे में चर्चा की थी। स्नान करके भाई को नाश्ता करना था। वह ठीक दस बजे पहुंचे और आते ही सॉरी कहते हुए बोले, "कूलर की आवाज में एलार्म सुनाई नहीं पड़ा और नींद खुली नौ बजे... उन्होंने एक बार पुनः क्षमा मांगी और चल देने के लिए जल्दबाजी करने लगे। मैंने कहा, अभी रुक लेते हैं-चाय बनवाता हूं-पीकर चलेंगे। लेकिन अब उन्हें जल्दी थीदरवाजे के बाहर खडे रहे और कहते रहे...ठाकर जल्दी चलें वर्ना धप बहुत तेज हो जाएगी..."


"सच कहूं..." चौहान साहब बोले, "उपाध्याय ने एलार्म ही नौ बजे का लगाया होगा। कूलर की ठंडी हवा और श्रीमती उपाध्याय का नैकट्य-।" सभी ने एक बार पुनः ठहाका लगाया।


तभी उपाध्याय ने कमरे में प्रवेश किया और बोले, "मेरा मजाक उड़ाया जा रहा है?"


"मजाक उड़ाने के लिए आप ही थोड़े हैं एक-" सनाउल्ला खां बोले।


"क्षमा चाहूंगा कि मैं लेट हो गया।"


"कोई नहीं क्षमा उस दिन मांगना उपाध्याय जी, जिस दिन लेट न होना।" तारकनाथ श्रीवास्तव मुस्कराते हुए बोले ।


 "क्या करूं-कितनी भी जल्दी करता हूं लेकिन संडे साला दिन ही ऐसा होता है-।" उपाध्याय के चेहरे पर खिसियानापन था।


"कोई नहींहम मीटिंग शुरू करें" भानुप्रताप सिंह बोले और किचन की ओर गए जहां श्रीमती सिंह और उनके दोनों बच्चे थे। उन्होंने पत्नी को पकौड़ियां तलने के लिए कहा, जो पहले से ही बेसन में आलू और प्याज फेंट कर रखे हुई थीं। गैस थी नहीं भानु के पास। राशन से और ब्लैक से किरोसिन लेते थे और स्टोव जलता थाश्रीमती सिंह ने स्टोव सुलगाया और कड़ाही चढ़ा दी। उनके दोनों बच्चे पकौड़ियों के लालच में तब से किचन में बैठे हुए थे जब श्रीमती सिंह ने प्याज काटना शुरू किया था। बच्चे जानते थे कि मीटिंग होगी तब पापा पकौड़ियां अवश्य बनवाएंगे। ऐसा हर बार होता था-तब भी जब चार लोग उनसे मिलने आ जाया करते थे। यह इसलिए होता क्योंकि भानुप्रताप सिंह को बेसन की पकौड़ियां पसंद थीं और इसके लिए वह दूसरों का बहाना लेते थे।


सभी आठ लोग दो कुर्सियों और सामने पड़ी चारपाइयों में बैठे थे। तय हुआ कि अगले रविवार को आम सभा बुलायी जाए और उसके बाद के रविवार को भानुप्रताप सिंह, वी.एस. चौहान, तारकनाथ श्रीवास्तव और शंभूनाथ शुक्ल मेयर के यहां ज्ञापन देने जाएंगें। अब्दुल कादिर को भी उसीदिन ज्ञापन देना तय हुआ लेकिन उसमें सनाउल्ला खां को भी साथ जाना तय किया गया। मेयर के यहां जाने से सनाउल्ला ने मना कर दिया था, क्योंकि उन्हें डर था कि उग्र स्वभाव के कारण वह वहां कुछ अनुचित न बोल जाएं जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाए। यह सब मात्र दस मिनट में तय हो गया। सब तय होने के बाद सनाउल्ला ने हंसते हुए कहा, "दरअसल, ठाकुर साहब पकौड़ियों का स्वाद याद दिलाने के लिए सभी को अपने यहां एकत्रित करते हैं।"


"इसी बहाने सब मिल लेते हैंवह सब तो एक बहाना है सनाउल्ला जी।" भानुप्रताप सिंह बोले ।


"कोई बात नहीं ठाकुर साहब-हम यूं ही मिलते रहें-ऐसे ही भाईचारा बना रहे।" सनाउल्ला खां बोले ।


आध घंटा तक पकौड़ियों का दौर चलता रहा।