कविता
समय में से गुजरते हुए
बस इन पलों के कुछ
ऐसे ही साक्षात्कार
याद दिलाते हैं कि मैं हूं
वर्ना तो भूल जाता हूं
इस तंग ट्रेफिक में से
दिन से रात की ओर
जाते हुए कि मैं कहां
छूट गया हूं
किताब हाथ में लेकर
पलटता हूं जल्दी जल्दी
मुझे लगता है, कोई नया
पल काम की नई फाइल
लेकर आ जायेगा या
कहीं से कोई भूला पल
फोन पर घसीट लेगा
किसी और दुश्चिन्ता की
खाई में
कुछ नया घटने के पहले
सिर्फ पलट कर देख लेना
चाहता हूं इस नये पल
में खुद को किताब के
साथ, किसी कहानी कविता
या लेख में खुद को
नये सिरे से संवारना
चाहता हूं तरोताजा करना
चाहता हूँ।
फिर घटता तो वही है जो
शायद अप्रत्याशित कहा
जाता है होता अपेक्षित है।